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शनिवार, 19 मई 2018

अयोध्याकाण्ड ३ / ayodhyakand 3

राम सुना दुखु कान न काऊ। जीवनतरु जिमि जोगवइ राउ॥
पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती। जोगवहिं जननि सकल दिन राती॥
राम ने कानों से भी कभी दुःख का नाम नहीं सुना। महाराज स्वयं जीवन-वृक्ष की तरह उनकी सार-सँभाल किया करते थे। सब माताएँ भी रात-दिन उनकी ऐसी सार-संभाल करती थीं, जैसे पलक नेत्रों और साँप अपनी मणि की करते हैं।
ते अब फिरत बिपिन पदचारी। कंद मूल फल फूल अहारी॥
धिग कैकई अमंगल मूला। भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला॥
वही राम अब जंगलों में पैदल फिरते हैं और कंद-मूल तथा फल-फूलों का भोजन करते हैं। अमंगल की मूल कैकेयी धिक्कार है, जो अपने प्राणप्रियतम पति से भी प्रतिकूल हो गई।
मैं धिग धिग अघ उदधि अभागी। सबु उतपातु भयउ जेहि लागी॥
कुल कलंकु करि सृजेउ बिधाताँ। साइँदोह मोहि कीन्ह कुमाताँ॥
मुझ पापों के समुद्र और अभागे को धिक्कार है, धिक्कार है, जिसके कारण ये सब उत्पात हुए। विधाता ने मुझे कुल का कलंक बनाकर पैदा किया और कुमाता ने मुझे स्वामी द्रोही बना दिया।
सुनि सप्रेम समुझाव निषादू। नाथ करिअ कत बादि बिषादू॥
राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि। यह निरजोसु दोसु बिधि बामहि॥
यह सुनकर निषादराज प्रेमपूर्वक समझाने लगा - हे नाथ! आप व्यर्थ विषाद किसलिए करते हैं? राम आपको प्यारे हैं और आप राम को प्यारे हैं। यही निचोड़ (निश्चित सिद्धांत) है, दोष तो प्रतिकूल विधाता को है।
छं० - बिधि बाम की करनी कठिन जेहिं मातु कीन्ही बावरी।
तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी॥
तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहतु हौं सौंहे किएँ।
परिनाम मंगल जानि अपने आनिए धीरजु हिएँ॥
प्रतिकूल विधाता की करनी बड़ी कठोर है, जिसने माता कैकेयी को बावली बना दिया (उसकी मति फेर दी)। उस रात को प्रभु राम बार-बार आदरपूर्वक आपकी बड़ी सराहना करते थे। तुलसीदास कहते हैं - (निषादराज कहता है कि -) राम को आपके समान अतिशय प्रिय और कोई नहीं है, मैं सौगंध खाकर कहता हूँ। परिणाम में मंगल होगा, यह जानकर आप अपने हृदय में धैर्य धारण कीजिए।
सो० - अंतरजामी रामु सकुच सप्रेम कृपायतन।
चलिअ करिअ बिश्रामु यह बिचारि दृढ़ आनि मन॥ 201॥
राम अंतर्यामी तथा संकोच, प्रेम और कृपा के धाम हैं, यह विचार कर और मन में दृढ़ता लाकर चलिए और विश्राम कीजिए॥ 201॥
सखा बचन सुनि उर धरि धीरा। बास चले सुमिरत रघुबीरा॥
यह सुधि पाइ नगर नर नारी। चले बिलोकन आरत भारी॥
सखा के वचन सुनकर, हृदय में धीरज धरकर राम का स्मरण करते हुए भरत डेरे को चले। नगर के सारे स्त्री-पुरुष यह (राम के ठहरने के स्थान का) समाचार पाकर बड़े आतुर होकर उस स्थान को देखने चले।
परदखिना करि करहिं प्रनामा। देहिं कैकइहि खोरि निकामा।
भरि भरि बारि बिलोचन लेंहीं। बाम बिधातहि दूषन देहीं॥
वे उस स्थान की परिक्रमा करके प्रणाम करते हैं और कैकेयी को बहुत दोष देते हैं। नेत्रों में जल भर-भर लेते हैं और प्रतिकूल विधाता को दूषण देते हैं।
एक सराहहिं भरत सनेहू। कोउ कह नृपति निबाहेउ नेहू॥
निंदहिं आपु सराहि निषादहि। को कहि सकइ बिमोह बिषादहि॥
कोई भरत के स्नेह की सराहना करते हैं और कोई कहते हैं कि राजा ने अपना प्रेम खूब निबाहा। सब अपनी निंदा करके निषाद की प्रशंसा करते हैं। उस समय के विमोह और विषाद को कौन कह सकता है?
ऐहि बिधि राति लोगु सबु जागा। भा भिनुसार गुदारा लागा॥
गुरहि सुनावँ चढ़ाइ सुहाईं। नईं नाव सब मातु चढ़ाईं॥
इस प्रकार रातभर सब लोग जागते रहे। सबेरा होते ही खेवा लगा। सुंदर नाव पर गुरु को चढ़ाकर फिर नई नाव पर सब माताओं को चढ़ाया।
दंड चारि महँ भा सबु पारा। उतरि भरत तब सबहि सँभारा॥
चार घड़ी में सब गंगा के पार उतर गए। तब भरत ने उतरकर सबको सँभाला।
दो० - प्रातक्रिया करि मातु पद बंदि गुरहि सिरु नाइ।
आगें किए निषाद गन दीन्हेउ कटकु चलाइ॥ 202॥
प्रातःकाल की क्रियाओं को करके माता के चरणों की वंदना कर और गुरु को सिर नवाकर भरत ने विषाद गणों को (रास्ता दिखलाने के लिए) आगे कर लिया और सेना चला दी॥ 202॥
कियउ निषादनाथु अगुआईं। मातु पालकीं सकल चलाईं॥
साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा॥
निषादराज को आगे करके पीछे सब माताओं की पालकियाँ चलाईं। छोटे भाई शत्रुघ्न को बुलाकर उनके साथ कर दिया। फिर ब्राह्मणों सहित गुरु ने गमन किया।
आपु सुरसरिहि कीन्ह प्रनामू। सुमिरे लखन सहित सिय रामू॥
गवने भरत पयादेहिं पाए। कोतल संग जाहिं डोरिआए॥
तदनंतर आप (भरत) ने गंगा को प्रणाम किया और लक्ष्मण सहित सीताराम का स्मरण किया। भरत पैदल ही चले। उनके साथ कोतल (बिना सवार के) घोड़े बागडोर से बँधे हुए चले जा रहे हैं।
कहहिं सुसेवक बारहिं बारा। होइअ नाथ अस्व असवारा॥
रामु पयादेहि पायँ सिधाए। हम कहँ रथ गज बाजि बनाए॥
उत्तम सेवक बार-बार कहते हैं कि हे नाथ! आप घोड़े पर सवार हो लीजिए। (भरत जवाब देते हैं कि) राम तो पैदल ही गए और हमारे लिए रथ, हाथी और घोड़े बनाए गए हैं।
सिर भर जाउँ उचित अस मोरा। सब तें सेवक धरमु कठोरा॥
देखि भरत गति सुनि मृदु बानी। सब सेवक गन गरहिं गलानी॥
मुझे उचित तो ऐसा है कि मैं सिर के बल चलकर जाऊँ। सेवक का धर्म सबसे कठिन होता है। भरत की दशा देखकर और कोमल वाणी सुनकर सब सेवकगण ग्लानि के मारे गले जा रहे हैं।
दो० - भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग।
कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग॥ 203॥
प्रेम में उमंग-उमंगकर सीताराम-सीताराम कहते हुए भरत ने तीसरे पहर प्रयाग में प्रवेश किया॥ 203॥
झलका झलकत पायन्ह कैसें। पंकज कोस ओस कन जैसें॥
भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू॥
उनके चरणों में छाले कैसे चमकते हैं, जैसे कमल की कली पर ओस की बूँदें चमकती हों। भरत आज पैदल ही चलकर आए हैं, यह समाचार सुनकर सारा समाज दुःखी हो गया।
खबरि लीन्ह सब लोग नहाए। कीन्ह प्रनामु त्रिबेनिहिं आए॥
सबिधि सितासित नीर नहाने। दिए दान महिसुर सनमाने॥
जब भरत ने यह पता पा लिया कि सब लोग स्नान कर चुके, तब त्रिवेणी पर आकर उन्हें प्रणाम किया। फिर विधिपूर्वक (गंगा-यमुना के) श्वेत और श्याम जल में स्नान किया और दान देकर ब्राह्मणों का सम्मान किया।
देखत स्यामल धवल हलोरे। पुलकि सरीर भरत कर जोरे॥
सकल काम प्रद तीरथराऊ। बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ॥
श्याम और सफेद (यमुना और गंगा की) लहरों को देखकर भरत का शरीर पुलकित हो उठा और उन्होंने हाथ जोड़कर कहा - हे तीर्थराज! आप समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं। आपका प्रभाव वेदों में प्रसिद्ध और संसार में प्रकट है।
मागउँ भीख त्यागि निज धरमू। आरत काह न करइ कुकरमू॥
अस जियँ जानि सुजान सुदानी। सफल करहिं जग जाचक बानी॥
मैं अपना धर्म (न माँगने का क्षत्रिय धर्म) त्यागकर आप से भीख माँगता हूँ। आर्त्त मनुष्य कौन-सा कुकर्म नहीं करता? ऐसा हृदय में जानकर सुजान उत्तम दानी जगत में माँगनेवाले की वाणी को सफल किया करते हैं (अर्थात वह जो माँगता है, सो दे देते हैं)।
दो० - अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम-जनम रति राम पद यह बरदानु न आन॥ 204॥
मुझे न अर्थ की रुचि (इच्छा) है, न धर्म की, न काम की और न मैं मोक्ष ही चाहता हूँ। जन्म-जन्म में मेरा राम के चरणों में प्रेम हो, बस, यही वरदान माँगता हूँ, दूसरा कुछ नहीं॥ 204॥
जानहुँ रामु कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुर साहिब द्रोही॥
सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें॥
स्वयं राम भी भले ही मुझे कुटिल समझें और लोग मुझे गुरुद्रोही तथा स्वामी द्रोही भले ही कहें; पर सीताराम के चरणों में मेरा प्रेम आपकी कृपा से दिन-दिन बढ़ता ही रहे।
जलदु जनम भरि सुरति बिसारउ। जाचत जलु पबि पाहन डारउ॥
चातकु रटिन घटें घटि जाई। बढ़ें प्रेमु सब भाँति भलाई॥
मेघ चाहे जन्मभर चातक की सुध भुला दे और जल माँगने पर वह चाहे वज्र और पत्थर (ओले) ही गिराए, पर चातक की रटन घटने से तो उसकी बात ही घट जाएगी (प्रतिष्ठा ही नष्ट हो जाएगी)। उसकी तो प्रेम बढ़ने में ही सब तरह से भलाई है।
कनकहिं बान चढ़इ जिमि दाहें। तिमि प्रियतम पद नेम निबाहें॥
भरत बचन सुनि माझ त्रिबेनी। भइ मृदु बानि सुमंगल देनी॥
जैसे तपाने से सोने पर आब (चमक) आ जाती है, वैसे ही प्रियतम के चरणों में प्रेम का नियम निबाहने से प्रेमी सेवक का गौरव बढ़ जाता है। भरत के वचन सुनकर बीच त्रिवेणी में से सुंदर मंगल देनेवाली कोमल वाणी हुई।
तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू॥
बादि गलानि करहु मन माहीं। तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं॥
हे तात भरत! तुम सब प्रकार से साधु हो। राम के चरणों में तुम्हारा अथाह प्रेम है। तुम व्यर्थ ही मन में ग्लानि कर रहे हो। राम को तुम्हारे समान प्रिय कोई नहीं है।
दो० - तनु पुलकेउ हियँ हरषु सुनि बेनि बचन अनुकूल।
भरत धन्य कहि धन्य सुर हरषित बरषहिं फूल॥ 205॥
त्रिवेणी के अनुकूल वचन सुनकर भरत का शरीर पुलकित हो गया, हृदय में हर्ष छा गया। भरत धन्य हैं, कहकर देवता हर्षित होकर फूल बरसाने लगे॥ 205॥
प्रमुदित तीरथराज निवासी। बैखानस बटु गृही उदासी॥
कहहिं परसपर मिलि दस पाँचा। भरत सनेहु सीलु सुचि साँचा॥
तीर्थराज प्रयाग में रहनेवाले वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी, गृहस्थ और उदासीन (संन्यासी) सब बहुत ही आनंदित हैं और दस-पाँच मिलकर आपस में कहते हैं कि भरत का प्रेम और शील पवित्र और सच्चा है।
सुनत राम गुन ग्राम सुहाए। भरद्वाज मुनिबर पहिं आए॥
दंड प्रनामु करत मुनि देखे। मूरतिमंत भाग्य निज लेखे॥
राम के सुंदर गुणसमूहों को सुनते हुए वे मुनिश्रेष्ठ भरद्वाज के पास आए। मुनि ने भरत को दंडवत प्रणाम करते देखा और उन्हें अपना मूर्तिमान सौभाग्य समझा।
धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे। दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे॥
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे। चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे॥
उन्होंने दौड़कर भरत को उठाकर हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद देकर कृतार्थ किया। मुनि ने उन्हें आसन दिया। वे सिर नवाकर इस तरह बैठे मानो भागकर संकोच के घर में घुस जाना चाहते हैं।
मुनि पूँछब कछु यह बड़ सोचू। बोले रिषि लखि सीलु सँकोचू॥
सुनहु भरत हम सब सुधि पाई। बिधि करतब पर किछु न बसाई॥
उनके मन में यह बड़ा सोच है कि मुनि कुछ पूछेंगे (तो मैं क्या उत्तर दूँगा)। भरत के शील और संकोच को देखकर ऋषि बोले - भरत! सुनो, हम सब खबर पा चुके हैं। विधाता के कर्तव्य पर कुछ वश नहीं चलता।
दो० - तुम्ह गलानि जियँ जनि करहु समुझि मातु करतूति।
तात कैकइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति॥ 206॥
माता की करतूत को समझकर (याद करके) तुम हृदय में ग्लानि मत करो। हे तात! कैकेयी का कोई दोष नहीं है, उसकी बुद्धि तो सरस्वती बिगाड़ गई थी॥ 206॥
यहउ कहत भल कहिहि न कोऊ। लोकु बेदु बुध संमत दोऊ॥
तात तुम्हार बिमल जसु गाई। पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई॥
यह कहते भी कोई भला न कहेगा, क्योंकि लोक और वेद दोनों ही विद्वानों को मान्य है। किंतु हे तात! तुम्हारा निर्मल यश गाकर तो लोक और वेद दोनों बड़ाई पाएँगे।
लोक बेद संमत सबु कहई। जेहि पितु देइ राजु सो लहई॥
राउ सत्यब्रत तुम्हहि बोलाई। देत राजु सुखु धरमु बड़ाई॥
यह लोक और वेद दोनों को मान्य है और सब यही कहते हैं कि पिता जिसको राज्य दे वही पाता है। राजा सत्यव्रती थे, तुमको बुलाकर राज्य देते, तो सुख मिलता, धर्म रहता और बड़ाई होती।
राम गवनु बन अनरथ मूला। जो सुनि सकल बिस्व भइ सूला॥
सो भावी बस रानि अयानी। करि कुचालि अंतहुँ पछितानी॥
सारे अनर्थ की जड़ तो राम का वनगमन है, जिसे सुनकर समस्त संसार को पीड़ा हुई। वह राम का वनगमन भी भावीवश हुआ। बेसमझ रानी तो भावीवश कुचाल करके अंत में पछताई।
तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू॥
करतेहु राजु त तुम्हहि ना दोषू। रामहि होत सुनत संतोषू॥
उसमें भी तुम्हारा कोई तनिक-सा भी अपराध कहे, तो वह अधम, अज्ञानी और असाधु है। यदि तुम राज्य करते तो भी तुम्हें दोष न होता। सुनकर राम को भी संतोष ही होता।
दो० - अब अति कीन्हेहु भरत भल तुम्हहि उचित मत एहु।
सकल सुमंगल मूल जग रघुबर चरन सनेहु॥ 207॥
हे भरत! अब तो तुमने बहुत ही अच्छा किया; यही मत तुम्हारे लिए उचित था। राम के चरणों में प्रेम होना ही संसार में समस्त सुंदर मंगलों का मूल है॥ 207॥
सो तुम्हार धनु जीवनु प्राना। भूरिभाग को तुम्हहि समाना॥
यह तुम्हार आचरजु न ताता। दसरथ सुअन राम प्रिय भ्राता॥
सो वह (राम के चरणों का प्रेम) तो तुम्हारा धन, जीवन और प्राण ही है; तुम्हारे समान बड़भागी कौन है? हे तात! तुम्हारे लिए यह आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि तुम दशरथ के पुत्र और राम के प्यारे भाई हो।
सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। प्रेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं॥
लखन राम सीतहि अति प्रीती। निसि सब तुम्हहि सराहत बीती॥
हे भरत! सुनो, राम के मन में तुम्हारे समान प्रेमपात्र दूसरा कोई नहीं है। लक्ष्मण, राम और सीता तीनों की सारी रात उस दिन अत्यंत प्रेम के साथ तुम्हारी सराहना करते ही बीती।
जाना मरमु नहात प्रयागा। मगन होहिं तुम्हरें अनुरागा॥
तुम्ह पर अस सनेहु रघुबर कें। सुख जीवन जग जस जड़ नर कें॥
प्रयागराज में जब वे स्नान कर रहे थे, उस समय मैंने उनका यह मर्म जाना। वे तुम्हारे प्रेम में मग्न हो रहे थे। तुम पर राम का ऐसा ही (अगाध) स्नेह है जैसा मूर्ख (विषयासक्त) मनुष्य का संसार में सुख के जीवन पर होता है।
यह न अधिक रघुबीर बड़ाई। प्रनत कुटुंब पाल रघुराई॥
तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू। धरें देह जनु राम सनेहू॥
यह रघुनाथ की बहुत बड़ाई नहीं है। क्योंकि रघुनाथ तो शरणागत के कुटुंब भर को पालनेवाले हैं। हे भरत! मेरा यह मत है कि तुम तो मानो शरीरधारी राम के प्रेम ही हो।
दो० - तुम्ह कहँ भरत कलंक यह हम सब कहँ उपदेसु।
राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समउ गनेसु॥ 208॥
हे भरत! तुम्हारे लिए (तुम्हारी समझ में) यह कलंक है, पर हम सबके लिए तो उपदेश है। रामभक्तिरूपी रस की सिद्धि के लिए यह समय गणेश (बड़ा शुभ) हुआ है॥ 208॥
नव बिधु बिमल तात जसु तोरा। रघुबर किंकर कुमुद चकोरा॥
उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना। घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना॥
हे तात! तुम्हारा यश निर्मल नवीन चंद्रमा है और राम के दास कुमुद और चकोर हैं (वह चंद्रमा तो प्रतिदिन अस्त होता और घटता है, जिससे कुमुद और चकोर को दुःख होता है); परंतु यह तुम्हारा यशरूपी चंद्रमा सदा उदय रहेगा; कभी अस्त होगा ही नहीं। जगतरूपी आकाश में यह घटेगा नहीं, वरन दिन-दिन दूना होगा।
कोक तिलोक प्रीति अति करिही। प्रभु प्रताप रबि छबिहि न हरिही॥
निसि दिन सुखद सदा सब काहू। ग्रसिहि न कैकइ करतबु राहू॥
त्रैलोक्यरूपी चकवा इस यशरूपी चंद्रमा पर अत्यंत प्रेम करेगा और प्रभु राम का प्रतापरूपी सूर्य इसकी छवि को हरण नहीं करेगा। यह चंद्रमा रात-दिन सदा सब किसी को सुख देनेवाला होगा। कैकेयी का कुकर्मरूपी राहु इसे ग्रास नहीं करेगा।
पूरन राम सुप्रेम पियूषा। गुर अवमान दोष नहिं दूषा॥
राम भगत अब अमिअँ अघाहूँ। कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूँ॥
यह चंद्रमा राम के सुंदर प्रेमरूपी अमृत से पूर्ण है। यह गुरु के अपमानरूपी दोष से दूषित नहीं है। तुमने इस यशरूपी चंद्रमा की सृष्टि करके पृथ्वी पर भी अमृत को सुलभ कर दिया। अब राम के भक्त इस अमृत से तृप्त हो लें।
भूप भगीरथ सुरसरि आनी। सुमिरत सकल सुमंगल खानी॥
दसरथ गुन गन बरनि न जाहीं। अधिकु कहा जेहि सम जग नाहीं॥
राजा भगीरथ गंगा को लाए, जिन (गंगा) का स्मरण ही संपूर्ण सुंदर मंगलों की खान है। दशरथ के गुणसमूहों का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता; अधिक क्या, जिनकी बराबरी का जगत में कोई नहीं है।
दो० - जासु सनेह सकोच बस राम प्रगट भए आई।
जे हर हिय नयननि कबहुँ निरखे नहीं अघाइ॥ 209॥
जिनके प्रेम और संकोच (शील) के वश में होकर स्वयं (सच्चिदानंदघन) भगवान राम आकर प्रकट हुए, जिन्हें महादेव अपने हृदय के नेत्रों से कभी अघाकर नहीं देख पाए (अर्थात जिनका स्वरूप हृदय में देखते-देखते शिव कभी तृप्त नहीं हुए)॥ 209॥
कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा। जहँ बस राम प्रेम मृगरूपा॥
तात गलानि करहु जियँ जाएँ। डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ॥
(परंतु उनसे भी बढ़कर) तुमने कीर्तिरूपी अनुपम चंद्रमा को उत्पन्न किया, जिसमें राम प्रेम ही हिरन के (चिह्न के) रूप में बसता है। हे तात! तुम व्यर्थ ही हृदय में ग्लानि कर रहे हो। पारस पाकर भी तुम दरिद्रता से डर रहे हो!
सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं। उदासीन तापस बन रहहीं॥
सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम सिय दरसनु पावा॥
हे भरत! सुनो, हम झूठ नहीं कहते। हम उदासीन हैं (किसी का पक्ष नहीं करते), तपस्वी हैं (किसी की मुँह-देखी नहीं कहते) और वन में रहते हैं (किसी से कुछ प्रयोजन नहीं रखते)। सब साधनों का उत्तम फल हमें लक्ष्मण, राम और सीता का दर्शन प्राप्त हुआ।
तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा। सहित प्रयाग सुभाग हमारा॥
भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ। कहि अस प्रेम मगन मुनि भयऊ॥
(सीता-लक्ष्मण सहित रामदर्शन रूप) उस महान फल का परम फल यह तुम्हारा दर्शन है! प्रयागराज समेत हमारा बड़ा भाग्य है। हे भरत! तुम धन्य हो, तुमने अपने यश से जगत को जीत लिया है। ऐसा कहकर मुनि प्रेम में मग्न हो गए।
सुनि मुनि बचन सभासद हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे॥
धन्य धन्य धुनि गगन पयागा। सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा॥
भरद्वाज मुनि के वचन सुनकर सभासद हर्षित हो गए। 'साधु-साधु' कहकर सराहना करते हुए देवताओं ने फूल बरसाए। आकाश में और प्रयागराज में 'धन्य, धन्य' की ध्वनि सुन-सुनकर भरत प्रेम में मग्न हो रहे हैं।
दो० - पुलक गात हियँ रामु सिय सजल सरोरुह नैन।
करि प्रनामु मुनि मंडलिहि बोले गदगद बैन॥ 210॥
भरत का शरीर पुलकित है, हृदय में सीताराम हैं और कमल के समान नेत्र (प्रेमाश्रु के) जल से भरे हैं। वे मुनियों की मंडली को प्रणाम करके गद्गद वचन बोले - ॥ 210॥
मुनि समाजु अरु तीरथराजू। साँचिहुँ सपथ अघाइ अकाजू॥
एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई। एहि सम अधिक न अघ अधमाई॥
मुनियों का समाज है और फिर तीर्थराज है। यहाँ सच्ची सौगंध खाने से भी भरपूर हानि होती है। इस स्थान में यदि कुछ बनाकर कहा जाए, तो इसके समान कोई बड़ा पाप और नीचता न होगी।
तुम्ह सर्बग्य कहउँ सतिभाऊ। उर अंतरजामी रघुराऊ॥
मोहि न मातु करतब कर सोचू। नहिं दुखु जियँ जगु जानिहि पोचू॥
मैं सच्चे भाव से कहता हूँ। आप सर्वज्ञ हैं, और रघुनाथ हृदय के भीतर की जाननेवाले हैं (मैं कुछ भी असत्य कहूँगा तो आपसे और उनसे छिपा नहीं रह सकता)। मुझे माता कैकेयी की करनी का कुछ भी सोच नहीं है। और न मेरे मन में इसी बात का दुःख है कि जगत मुझे नीच समझेगा।
नाहिन डरु बिगरिहि परलोकू। पितहु मरन कर मोहि न सोकू॥
सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए। लछिमन राम सरिस सुत पाए॥
न यही डर है कि मेरा परलोक बिगड़ जाएगा और न पिता के मरने का ही मुझे शोक है। क्योंकि उनका सुंदर पुण्य और सुयश विश्व भर में सुशोभित है। उन्होंने राम-लक्ष्मण-सरीखे पुत्र पाए।
राम बिरहँ तजि तनु छनभंगू। भूप सोच कर कवन प्रसंगू॥
राम लखन सिय बिनु पग पनहीं। करि मुनि बेष फिरहिं बन बनहीं॥
फिर जिन्होंने राम के विरह में अपने क्षणभंगुर शरीर को त्याग दिया, ऐसे राजा के लिए सोच करने का कौन प्रसंग है? (सोच इसी बात का है कि) राम, लक्ष्मण और सीता पैरों में बिना जूती के मुनियों का वेष बनाए वन-वन में फिरते हैं।
दो० - अजिन बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात।
बसि तरु तर नित सहत हिम आतप बरषा बात॥ 211॥
वे वल्कल वस्त्र पहनते हैं, फलों का भोजन करते हैं, पृथ्वी पर कुश और पत्ते बिछाकर सोते हैं और वृक्षों के नीचे निवास करके नित्य सर्दी, गर्मी, वर्षा और हवा सहते हैं॥ 211॥
एहि दुख दाहँ दहइ दिन छाती। भूख न बासर नीद न राती॥
एहि कुरोग कर औषधु नाहीं। सोधेउँ सकल बिस्व मन माहीं॥
इसी दुःख की जलन से निरंतर मेरी छाती जलती रहती है। मुझे न दिन में भूख लगती है, न रात को नींद आती है। मैंने मन-ही-मन समस्त विश्व को खोज डाला, पर इस कुरोग की औषध कहीं नहीं है।
मातु कुमत बढ़ई अघ मूला। तेहिं हमार हित कीन्ह बँसूला॥
कलि कुकाठ कर कीन्ह कुजंत्रू। गाड़ि अवधि पढ़ि कठिन कुमंत्रू॥
माता का कुमत (बुरा विचार) पापों का मूल बढ़ई है। उसने हमारे हित का बसूला बनाया। उससे कलहरूपी कुकाठ का कुयंत्र बनाया और चौदह वर्ष की अवधिरूपी कठिन कुमंत्र पढ़कर उस यंत्र को गाड़ दिया। (यहाँ माता का कुविचार बढ़ई है, भरत को राज्य बसूला है, राम का वनवास कुयंत्र है और चौदह वर्ष की अवधि कुमंत्र है)।
मोहि लगि यहु कुठाटु तेहिं ठाटा। घालेसि सब जगु बारहबाटा॥
मिटइ कुजोगु राम फिरि आएँ। बसइ अवध नहिं आन उपाएँ॥
मेरे लिए उसने यह सारा कुठाट (बुरा साज) रचा और सारे जगत को बारहबाट (छिन्न-भिन्न) करके नष्ट कर डाला। यह कुयोग राम के लौट आने पर ही मिट सकता है और तभी अयोध्या बस सकती है, दूसरे किसी उपाय से नहीं।
भरत बचन सुनि मुनि सुखु पाई। सबहिं कीन्हि बहु भाँति बड़ाई॥
तात करहु जनि सोचु बिसेषी। सब दुखु मिटिहि राम पग देखी॥
भरत के वचन सुनकर मुनि ने सुख पाया और सभी ने उनकी बहुत प्रकार से बड़ाई की। (मुनि ने कहा -) हे तात! अधिक सोच मत करो। राम के चरणों का दर्शन करते ही सारा दुःख मिट जाएगा।
दो० - करि प्रबोधु मुनिबर कहेउ अतिथि प्रेमप्रिय होहु।
कंद मूल फल फूल हम देहिं लेहु करि छोहु॥ 212॥
इस प्रकार मुनिश्रेष्ठ भरद्वाज ने उनका समाधान करके कहा - अब आप लोग हमारे प्रेम प्रिय अतिथि बनिए और कृपा करके कंद-मूल, फल-फूल जो कुछ हम दें, स्वीकार कीजिए॥ 212॥
सुनि मुनि बचन भरत हियँ सोचू। भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू॥
जानि गुरुइ गुर गिरा बहोरी। चरन बंदि बोले कर जोरी॥
मुनि के वचन सुनकर भरत के हृदय में सोच हुआ कि यह बेमौके बड़ा बेढब संकोच आ पड़ा! फिर गुरुजनों की वाणी को महत्त्वपूर्ण (आदरणीय) समझकर, चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर बोले -
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरम यहु नाथ हमारा॥
भरत बचन मुनिबर मन भाए। सुचि सेवक सिष निकट बोलाए॥
हे नाथ! आपकी आज्ञा को सिर चढ़ाकर उसका पालन करना, यह हमारा परम धर्म है। भरत के ये वचन मुनिश्रेष्ठ के मन को अच्छे लगे। उन्होंने विश्वासपात्र सेवकों और शिष्यों को पास बुलाया।
चाहिअ कीन्हि भरत पहुनाई। कंद मूल फल आनहु जाई।
भलेहिं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए। प्रमुदित निज निज काज सिधाए॥
(और कहा कि) भरत की पहुनई करनी चाहिए। जाकर कंद, मूल और फल लाओ। उन्होंने 'हे नाथ! बहुत अच्छा' कहकर सिर नवाया और तब वे बड़े आनंदित होकर अपने-अपने काम को चल दिए।
मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेवता। तसि पूजा चाहिअ जस देवता॥
सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आईं। आयसु होइ सो करहिं गोसाईं॥
मुनि को चिंता हुई कि हमने बहुत बड़े मेहमान को न्योता है। अब जैसा देवता हो, वैसी ही उसकी पूजा भी होनी चाहिए। यह सुनकर ऋद्धियाँ और अणिमादि सिद्धियाँ आ गईं (और बोलीं -) हे गोसाईं! जो आपकी आज्ञा हो सो हम करें।
दो० - राम बिरह ब्याकुल भरतु सानुज सहित समाज।
पहुनाई करि हरहु श्रम कहा मुदित मुनिराज॥ 213॥
मुनिराज ने प्रसन्न होकर कहा - छोटे भाई शत्रुघ्न और समाज सहित भरत राम के विरह में व्याकुल हैं, इनकी पहुनाई (आतिथ्य-सत्कार) करके इनके श्रम को दूर करो॥ 213॥
रिधि सिधि सिर धरि मुनिबर बानी। बड़भागिनि आपुहि अनुमानी॥
कहहिं परसपर सिधि समुदाई। अतुलित अतिथि राम लघु भाई॥
ऋद्धि-सिद्धि ने मुनिराज की आज्ञा को सिर चढ़ाकर अपने को बड़भागिनी समझा। सब सिद्धियाँ आपस में कहने लगीं - राम के छोटे भाई भरत ऐसे अतिथि हैं, जिनकी तुलना में कोई नहीं आ सकता।
मुनि पद बंदि करिअ सोइ आजू। होइ सुखी सब राज समाजू॥
अस कहि रचेउ रुचिर गृह नाना। जेहि बिलोकि बिलखाहिं बिमाना॥
अतः मुनि के चरणों की वंदना करके आज वही करना चाहिए जिससे सारा राज-समाज सुखी हो। ऐसा कहकर उन्होंने बहुत-से सुंदर घर बनाए, जिन्हें देखकर विमान भी विलखते हैं (लजा जाते हैं)।
भोग बिभूति भूरि भरि राखे। देखत जिन्हहि अमर अभिलाषे॥
दासीं दास साजु सब लीन्हें। जोगवत रहहिं मनहि मनु दीन्हें॥
उन घरों में बहुत-से भोग (इंद्रियों के विषय) और ऐश्वर्य (ठाट-बाट) का सामान भरकर रख दिया, जिन्हें देखकर देवता भी ललचा गए। दासी-दास सब प्रकार की सामग्री लिए हुए मन लगाकर उनके मनों को देखते रहते हैं (अर्थात उनके मन की रुचि के अनुसार करते रहते हैं)।
सब समाजु सजि सिधि पल माहीं। जे सुख सुरपुर सपनेहुँ नाहीं॥
प्रथमहिं बास दिए सब केही। सुंदर सुखद जथा रुचि जेही॥
जो सुख के सामान स्वर्ग में भी स्वप्न में भी नहीं हैं ऐसे सब सामान सिद्धियों ने पल भर में सजा दिए। पहले तो उन्होंने सब किसी को, जिसकी जैसी रुचि थी वैसे ही, सुंदर सुखदायक निवास स्थान दिए।
दो० - बहुरि सपरिजन भरत कहुँ रिषि अस आयसु दीन्ह।
बिधि बिसमय दायकु बिभव मुनिबर तपबल कीन्ह॥ 214॥
और फिर कुटुंब सहित भरत को दिए, क्योंकि ऋषि भरद्वाज ने ऐसी ही आज्ञा दे रखी थी। (भरत चाहते थे कि उनके सब संगियों को आराम मिले, इसलिए उनके मन की बात जानकर मुनि ने पहले उन लोगों को स्थान देकर पीछे सपरिवार भरत को स्थान देने के लिए आज्ञा दी थी।) मुनिश्रेष्ठ ने तपोबल से ब्रह्मा को भी चकित कर देनेवाला वैभव रच दिया॥ 214॥
मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका। सब लघु लगे लोकपति लोका॥
सुख समाजु नहिं जाइ बखानी। देखत बिरति बिसारहिं ग्यानी॥
जब भरत ने मुनि के प्रभाव को देखा, तो उसके सामने उन्हें (इंद्र, वरुण, यम, कुबेर आदि) सभी लोकपालों के लोक तुच्छ जान पड़े। सुख की सामग्री का वर्णन नहीं हो सकता, जिसे देखकर ज्ञानी लोग भी वैराग्य भूल जाते हैं।
आसन सयन सुबसन बिताना। बन बाटिका बिहग मृग नाना॥
सुरभि फूल फल अमिअ समाना। बिमल जलासय बिबिध बिधाना॥
आसन, सेज, सुंदर वस्त्र, चँदोवे, वन, बगीचे, भाँति-भाँति के पक्षी और पशु, सुगंधित फूल और अमृत के समान स्वादिष्ट फल, अनेकों प्रकार के (तालाब, कुएँ, बावली आदि) निर्मल जलाशय,
असन पान सुचि अमिअ अमी से। देखि लोग सकुचात जमी से॥
सुर सुरभी सुरतरु सबही कें। लखि अभिलाषु सुरेस सची कें॥
तथा अमृत के भी अमृत-सरीखे पवित्र खान-पान के पदार्थ थे, जिन्हें देखकर सब लोग संयमी पुरुषों (विरक्त मुनियों) की भाँति सकुचा रहे हैं। सभी के डेरों में (मनोवांछित वस्तु देनेवाले) कामधेनु और कल्पवृक्ष हैं, जिन्हें देखकर इंद्र और इंद्राणी को भी अभिलाषा होती है (उनका भी मन ललचा जाता है)।
रितु बसंत बह त्रिबिध बयारी। सब कहँ सुलभ पदारथ चारी॥
स्रक चंदन बनितादिक भोगा। देखि हरष बिसमय बस लोगा॥
वसंत ऋतु है। शीतल, मंद, सुगंध तीन प्रकार की हवा बह रही है। सभी को (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) चारों पदार्थ सुलभ हैं। माला, चंदन, स्त्री आदि भोगों को देखकर सब लोग हर्ष और विषाद के वश हो रहे हैं। (हर्ष तो भोग-सामग्रियों को और मुनि के तप:प्रभाव को देखकर होता है और विषाद इस बात से होता है कि राम के वियोग में नियम-व्रत से रहनेवाले हम लोग भोग-विलास में क्यों आ फँसे; कहीं इनमें आसक्त होकर हमारा मन नियम-व्रतों को न त्याग दे)।
दो० - संपति चकई भरतु चक मुनि आयस खेलवार।
तेहि निसि आश्रम पिंजराँ राखे भा भिनुसार॥ 215॥
संपत्ति (भोग-विलास की सामग्री) चकवी है और भरत चकवा हैं और मुनि की आज्ञा खेल है, जिसने उस रात को आश्रमरूपी पिंजड़े में दोनों को बंद कर रखा और ऐसे ही सबेरा हो गया। (जैसे किसी बहेलिए के द्वारा एक पिंजड़े में रखे जाने पर भी चकवी-चकवे का रात को संयोग नहीं होता, वैसे ही भरद्वाज की आज्ञा से रात भर भोग-सामग्रियों के साथ रहने पर भी भरत ने मन से भी उनका स्पर्श तक नहीं किया।)॥ 215॥

कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा। नाई मुनिहि सिरु सहित समाजा।
रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि दंडवत बिनय बहु भाषी॥
(प्रातःकाल) भरत ने तीर्थराज में स्नान किया और समाज सहित मुनि को सिर नवाकर और ऋषि की आज्ञा तथा आशीर्वाद को सिर चढ़ाकर दंडवत करके बहुत विनती की।
पथ गति कुसल साथ सब लीन्हें। चले चित्रकूटहिं चितु दीन्हें॥
रामसखा कर दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू॥
तदनंतर रास्ते की पहचान रखनेवाले लोगों (कुशल पथप्रदर्शकों) के साथ सब लोगों को लिए हुए भरत चित्रकूट में चित्त लगाए चले। भरत रामसखा गुह के हाथ में हाथ दिए हुए ऐसे जा रहे हैं, मानो साक्षात प्रेम ही शरीर धारण किए हुए हो।
नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया। प्रेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया॥
लखन राम सिय पंथ कहानी। पूँछत सखहि कहत मृदु बानी॥
न तो उनके पैरों में जूते हैं, और न सिर पर छाया है। उनका प्रेम नियम, व्रत और धर्म निष्कपट (सच्चा) है। वे सखा निषादराज से लक्ष्मण, राम और सीता के रास्ते की बातें पूछते हैं, और वह कोमल वाणी से कहता है।
राम बास थल बिटप बिलोकें। उर अनुराग रहत नहिं रोकें॥
देखि दसा सुर बरिसहिं फूला। भइ मृदु महि मगु मंगल मूला॥
राम के ठहरने की जगहों और वृक्षों को देखकर उनके हृदय में प्रेम रोके नहीं रुकता। भरत की यह दशा देखकर देवता फूल बरसाने लगे। पृथ्वी कोमल हो गई और मार्ग मंगल का मूल बन गया।
दो० - किएँ जाहिं छाया जलद सुखद बहइ बर बात।
तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतहि जात॥ 216॥
बादल छाया किए जा रहे हैं, सुख देनेवाली सुंदर हवा बह रही है। भरत के जाते समय मार्ग जैसा सुखदायक हुआ, वैसा राम को भी नहीं हुआ था॥ 216॥
जड़ चेतन मग जीव घनेरे। जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे॥
ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू॥
रास्ते में असंख्य जड़-चेतन जीव थे। उनमें से जिनको प्रभु राम ने देखा, अथवा जिन्होंने प्रभु राम को देखा वे सब (उसी समय) परमपद के अधिकारी हो गए। परंतु अब भरत के दर्शन ने तो उनका भव (जन्म-मरण)रूपी रोग मिटा ही दिया। (रामदर्शन से तो वे परमपद के अधिकारी ही हुए थे, परंतु भरत दर्शन से उन्हें वह परमपद प्राप्त हो गया।)
यह बड़ि बात भरत कइ नाहीं। सुमिरत जिनहि रामु मन माहीं॥
बारक राम कहत जग जेऊ। होत तरन तारन नर तेऊ॥
भरत के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है, जिन्हें राम स्वयं अपने मन में स्मरण करते रहते हैं। जगत में जो भी मनुष्य एक बार 'राम' कह लेते हैं, वे भी तरने-तारनेवाले हो जाते हैं।
भरतु राम प्रिय पुनि लघु भ्राता। कस न होइ मगु मंगलदाता॥
सिद्ध साधु मुनिबर अस कहहीं। भरतहि निरखि हरषु हियँ लहहीं॥
फिर भरत तो राम के प्यारे तथा उनके छोटे भाई ठहरे। तब भला उनके लिए मार्ग मंगल (सुख) - दायक कैसे न हो? सिद्ध, साधु और श्रेष्ठ मुनि ऐसा कह रहे हैं और भरत को देखकर हृदय में हर्ष-लाभ करते हैं।
देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू॥
गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहि भरतहि भेट न होई॥
भरत के (इस प्रेम के) प्रभाव को देखकर देवराज इंद्र को सोच हो गया (कि कहीं इनके प्रेम-वश राम लौट न जाएँ और हमारा बना-बनाया काम बिगड़ जाए)। संसार भले के लिए भला और बुरे के लिए बुरा है (मनुष्य जैसा आप होता है जगत उसे वैसा ही दिखता है)। उसने गुरु बृहस्पति से कहा - हे प्रभो! वही उपाय कीजिए जिससे राम और भरत की भेंट ही न हो।
दो० - रामु सँकोची प्रेम बस भरत सप्रेम पयोधि।
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि॥ 217॥
राम संकोची और प्रेम के वश हैं और भरत प्रेम के समुद्र हैं। बनी-बनाई बात बिगड़ना चाहती है, इसलिए कुछ छल ढूँढ़ कर इसका उपाय कीजिए॥ 217॥
बचन सुनत सुरगुरु मुसुकाने। सहसनयन बिनु लोचन जाने॥
मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया॥
इंद्र के वचन सुनते ही देवगुरु बृहस्पति मुसकराए। उन्होंने हजार नेत्रोंवाले इंद्र को (ज्ञानरूपी) नेत्रोंरहित (मूर्ख) समझा और कहा - हे देवराज! माया के स्वामी राम के सेवक के साथ कोई माया करता है तो वह उलटकर अपने ही ऊपर आ पड़ती है।
तब किछु कीन्ह राम रुख जानी। अब कुचालि करि होइहि हानी।
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ॥
उस समय (पिछली बार) तो राम का रुख जानकर कुछ किया था। परंतु इस समय कुचाल करने से हानि ही होगी। हे देवराज! रघुनाथ का स्वभाव सुनो, वे अपने प्रति किए हुए अपराध से कभी रुष्ट नहीं होते।
जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई॥
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा॥
पर जो कोई उनके भक्त का अपराध करता है, वह राम की क्रोधाग्नि में जल जाता है। लोक और वेद दोनों में इतिहास (कथा) प्रसिद्ध है। इस महिमा को दुर्वासा जानते हैं।
भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही॥
सारा जगत राम को जपता है, वे राम जिनको जपते हैं, उन भरत के समान राम का प्रेमी कौन होगा?
दो० - मनहुँ न आनिअ अमरपति रघुबर भगत अकाजु।
अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु॥ 218॥
हे देवराज! रघुकुलश्रेष्ठ राम के भक्त का काम बिगाड़ने की बात मन में भी न लाइए। ऐसा करने से लोक में अपयश और परलोक में दुःख होगा और शोक का सामान दिनोंदिन बढ़ता ही चला जाएगा॥ 218॥
सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामहि सेवकु परम पिआरा॥
मानत सुखु सेवक सेवकाईं। सेवक बैर बैरु अधिकाईं॥
हे देवराज! हमारा उपदेश सुनो। राम को अपना सेवक परम प्रिय है। वे अपने सेवक की सेवा से सुख मानते हैं और सेवक के साथ वैर करने से बड़ा भारी वैर मानते हैं।
जद्यपि सम नहिं राग न रोषू। गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू॥
करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा॥
यद्यपि वे सम हैं - उनमें न राग है, न रोष है और न वे किसी का पाप-पुण्य और गुण-दोष ही ग्रहण करते हैं। उन्होंने विश्व में कर्म को ही प्रधान कर रखा है। जो जैसा करता है, वह वैसा ही फल भोगता है।
तदपि करहिं सम बिषम बिहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा॥
अगनु अलेप अमान एकरस। रामु सगुन भए भगत प्रेम बस॥
तथापि वे भक्त और अभक्त के हृदय के अनुसार सम और विषम व्यवहार करते हैं (भक्त को प्रेम से गले लगा लेते हैं और अभक्त को मारकर तार देते हैं)। गुणरहित, निर्लेप, मानरहित और सदा एकरस भगवान राम भक्त के प्रेमवश ही सगुण हुए हैं।
राम सदा सेवक रुचि राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी॥
अस जियँ जानि तजहु कुटिलाई। करहु भरत पद प्रीति सुहाई॥
राम सदा अपने सेवकों (भक्तों) की रुचि रखते आए हैं। वेद, पुराण, साधु और देवता इसके साक्षी हैं। ऐसा हृदय में जानकर कुटिलता छोड़ दो और भरत के चरणों में सुंदर प्रीति करो।
दो० - राम भगत परहित निरत पर दुख दुखी दयाल।
भगत सिरोमनि भरत तें जनि डरपहु सुरपाल॥ 219॥
हे देवराज इंद्र! राम के भक्त सदा दूसरों के हित में लगे रहते हैं, वे दूसरों के दुःख से दुःखी और दयालु होते हैं। फिर भरत तो भक्तों के शिरोमणि हैं, उनसे बिलकुल न डरो॥ 219॥
सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयस अनुसारी॥
स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू। भरत दोसु नहिं राउर मोहू॥
प्रभु राम सत्यप्रतिज्ञ और देवताओं का हित करनेवाले हैं। और भरत राम की आज्ञा के अनुसार चलनेवाले हैं। तुम व्यर्थ ही स्वार्थ के विशेष वश होकर व्याकुल हो रहे हो। इसमें भरत का कोई दोष नहीं, तुम्हारा ही मोह है।
सुनि सुरबर सुरगुर बर बानी। भा प्रमोदु मन मिटी गलानी॥
बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ॥
देवगुरु बृहस्पति की श्रेष्ठ वाणी सुनकर इंद्र के मन में बड़ा आनंद हुआ और उनकी चिंता मिट गई। तब हर्षित होकर देवराज फूल बरसाकर भरत के स्वभाव की सराहना करने लगे।
एहि बिधि भरत चले मग जाहीं। दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं॥
जबहि रामु कहि लेहिं उसासा। उमगत प्रेमु मनहुँ चहु पासा॥
इस प्रकार भरत मार्ग में चले जा रहे हैं। उनकी (प्रेममयी) दशा देखकर मुनि और सिद्ध लोग भी सिहाते हैं। भरत जब भी 'राम' कहकर लंबी साँस लेते हैं, तभी मानो चारों ओर प्रेम उमड़ पड़ता है।
द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पषाना। पुरजन प्रेमु न जाइ बखाना॥
बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल छाए॥
उनके (प्रेम और दीनता से पूर्ण) वचनों को सुनकर वज्र और पत्थर भी पिघल जाते हैं। अयोध्यावासियों का प्रेम कहते नहीं बनता। बीच में निवास (मुकाम) करके भरत यमुना के तट पर आए। यमुना का जल देखकर उनके नेत्रों में जल भर आया।
दो० - रघुबर बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज।
होत मगन बारिधि बिरह चढ़े बिबेक जहाज॥ 220॥
रघुनाथ के (श्याम) रंग का सुंदर जल देखकर सारे समाज सहित भरत (प्रेम विह्वल होकर) राम के विरहरूपी समुद्र में डूबते-डूबते विवेकरूपी जहाज पर चढ़ गए (अर्थात यमुना का श्यामवर्ण जल देखकर सब लोग श्यामवर्ण भगवान के प्रेम में विह्वल हो गए और उन्हें न पाकर विरह व्यथा से पीड़ित हो गए; तब भरत को यह ध्यान आया कि जल्दी चलकर उनके साक्षात दर्शन करेंगे, इस विवेक से वे फिर उत्साहित हो गए)॥ 220॥
जमुन तीर तेहि दिन करि बासू। भयउ समय सम सबहि सुपासू॥
रातिहिं घाट घाट की तरनी। आईं अगनित जाहिं न बरनी॥
उस दिन यमुना के किनारे निवास किया। समयानुसार सबके लिए (खान-पान आदि की) सुंदर व्यवस्था हुई। (निषादराज का संकेत पाकर) रात- ही-रात में घाट-घाट की अगणित नावें वहाँ आ गईं, जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता।
प्रात पार भए एकहि खेवाँ। तोषे रामसखा की सेवाँ॥
चले नहाइ नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दोउ भाई॥
सबेरे एक ही खेवे में सब लोग पार हो गए और राम के सखा निषादराज की इस सेवा से संतुष्ट हुए। फिर स्नान करके और नदी को सिर नवाकर निषादराज के साथ दोनों भाई चले।
आगें मुनिबर बाहन आछें। राजसमाज जाइ सबु पाछें॥
तेहि पाछें दोउ बंधु पयादें। भूषन बसन बेष सुठि सादें॥
आगे अच्छी-अच्छी सवारियों पर श्रेष्ठ मुनि हैं, उनके पीछे सारा राजसमाज जा रहा है। उसके पीछे दोनों भाई बहुत सादे भूषण-वस्त्र और वेष से पैदल चल रहे हैं।
सेवक सुहृद सचिवसुत साथा। सुमिरत लखनु सीय रघुनाथा॥
जहँ जहँ राम बास बिश्रामा। तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा॥
सेवक, मित्र और मंत्री के पुत्र उनके साथ हैं। लक्ष्मण, सीता और रघुनाथ का स्मरण करते जा रहे हैं। जहाँ-जहाँ राम ने निवास और विश्राम किया था, वहाँ-वहाँ वे प्रेमसहित प्रणाम करते हैं।
दो० - मगबासी नर नारि सुनि धाम काम तजि धाइ।
देखि सरूप सनेह सब मुदित जनम फलु पाइ॥ 221॥
मार्ग में रहनेवाले स्त्री-पुरुष यह सुनकर घर और काम-काज छोड़कर दौड़ पड़ते हैं और उनके रूप (सौंदर्य) और प्रेम को देखकर वे सब जन्म लेने का फल पाकर आनंदित होते हैं॥ 221॥
कहहिं सप्रेम एक एक पाहीं। रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं॥
बय बपु बरन रूपु सोइ आली। सीलु सनेहु सरिस सम चाली॥
गाँवों की स्त्रियाँ एक-दूसरे से प्रेमपूर्वक कहती हैं - सखी! ये राम-लक्ष्मण हैं कि नहीं? हे सखी! इनकी अवस्था, शरीर और रंग-रूप तो वही है। शील, स्नेह उन्हीं के सदृश है और चाल भी उन्हीं के समान है।
बेषु न सो सखि सीय न संगा। आगें अनी चली चतुरंगा॥
नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा। सखि संदेहु होइ एहिं भेदा॥
परंतु सखी! इनका न तो वह वेष (वल्कलवस्त्रधारी मुनिवेष) है, न सीता ही संग हैं। और इनके आगे चतुरंगिणी सेना चली जा रही है। फिर इनके मुख प्रसन्न नहीं हैं, इनके मन में खेद है। हे सखी! इसी भेद के कारण संदेह होता है।
तासु तरक तियगन मन मानी। कहहिं सकल तेहि सम न सयानी॥
तेहि सराहि बानी फुरि पूजी। बोली मधुर बचन तिय दूजी॥
उसका तर्क (युक्ति) अन्य स्त्रियों के मन भाया। सब कहती हैं कि इसके समान सयानी (चतुर) कोई नहीं है। उसकी सराहना करके और 'तेरी वाणी सत्य है' इस प्रकार उसका सम्मान करके दूसरी स्त्री मीठे वचन बोली।
कहि सप्रेम बस कथाप्रसंगू। जेहि बिधि राम राज रस भंगू॥
भरतहि बहुरि सराहन लागी। सील सनेह सुभाय सुभागी॥
राम के राजतिलक का आनंद जिस प्रकार से भंग हुआ था वह सब कथाप्रसंग प्रेमपूर्वक कहकर फिर वह भाग्यवती स्त्री भरत के शील, स्नेह और स्वभाव की सराहना करने लगी।
दो० - चलत पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु।
जात मनावन रघुबरहि भरत सरिस को आजु॥ 222॥
(वह बोली -) देखो, ये भरत पिता के दिए हुए राज्य को त्यागकर पैदल चलते और फलाहार करते हुए राम को मनाने के लिए जा रहे हैं। इनके समान आज कौन है?॥ 222॥
भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥
जो किछु कहब थोर सखि सोई। राम बंधु अस काहे न होई॥
भरत का भाईपना, भक्ति और इनके आचरण कहने और सुनने से दुःख और दोषों के हरनेवाले हैं। हे सखी! उनके संबंध में जो कुछ भी कहा जाए, वह थोड़ा है। राम के भाई ऐसे क्यों न हों।
हम सब सानुज भरतहि देखें। भइन्ह धन्य जुबती जन लेखें॥
सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं। कैकइ जननि जोगु सुतु नाहीं॥
छोटे भाई शत्रुघ्न सहित भरत को देखकर हम सब भी आज धन्य (बड़भागिनी) स्त्रियों की गिनती में आ गईं। इस प्रकार भरत के गुण सुनकर और उनकी दशा देखकर स्त्रियाँ पछताती हैं और कहती हैं - यह पुत्र कैकेयी-जैसी माता के योग्य नहीं है।
कोउ कह दूषनु रानिहि नाहिन। बिधि सबु कीन्ह हमहि जो दाहिन॥
कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी। लघु तिय कुल करतूति मलीनी॥
कोई कहती है - इसमें रानी का भी दोष नहीं है। यह सब विधाता ने ही किया है, जो हमारे अनुकूल है। कहाँ तो हम लोक और वेद दोनों की विधि (मर्यादा) से हीन, कुल और करतूत दोनों से मलिन तुच्छ स्त्रियाँ,
बसहिं कुदेस कुगाँव कुबामा। कहँ यह दरसु पुन्य परिनामा॥
अस अनंदु अचिरिजु प्रति ग्रामा। जनु मरुभूमि कलपतरु जामा॥
जो बुरे देश (जंगली प्रांत) और बुरे गाँव में बसती हैं और (स्त्रियों में भी) नीच स्त्रियाँ हैं! और कहाँ यह महान पुण्यों का परिणामस्वरूप इनका दर्शन! ऐसा ही आनंद और आश्चर्य गाँव-गाँव में हो रहा है। मानो मरुभूमि में कल्पवृक्ष उग गया हो।
दो० - भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु।
जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु॥ 223॥
भरत का स्वरूप देखते ही रास्ते में रहनेवाले लोगों के भाग्य खुल गए! मानो दैवयोग से सिंहलद्वीप के बसने वालों को तीर्थराज प्रयाग सुलभ हो गया हो!॥ 223॥
निज गुन सहित राम गुन गाथा। सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा॥
तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा॥
(इस प्रकार) अपने गुणों सहित राम के गुणों की कथा सुनते और रघुनाथ को स्मरण करते हुए भरत चले जा रहे हैं। वे तीर्थ देखकर स्नान और मुनियों के आश्रम तथा देवताओं के मंदिर देखकर प्रणाम करते हैं,
मनहीं मन मागहिं बरु एहू। सीय राम पद पदुम सनेहू॥
मिलहिं किरात कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी॥
और मन-ही-मन यह वरदान माँगते हैं कि सीताराम के चरण कमलों में प्रेम हो। मार्ग में भील, कोल आदि वनवासी तथा वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी, संन्यासी और विरक्त मिलते हैं।
करि प्रनामु पूँछहिं जेहि तेही। केहि बन लखनु रामु बैदेही॥
ते प्रभु समाचार सब कहहीं। भरतहि देखि जनम फलु लहहीं॥
उनमें से जिस-तिस से प्रणाम करके पूछते हैं कि लक्ष्मण, राम और जानकी किस वन में हैं? वे प्रभु के सब समाचार कहते हैं और भरत को देखकर जन्म का फल पाते हैं।
जे जन कहहिं कुसल हम देखे। ते प्रिय राम लखन सम लेखे॥
एहि बिधि बूझत सबहि सुबानी। सुनत राम बनबास कहानी॥
जो लोग कहते हैं कि हमने उनको कुशलपूर्वक देखा है, उनको ये राम-लक्ष्मण के समान ही प्यारे मानते हैं। इस प्रकार सबसे सुंदर वाणी से पूछते और राम के वनवास की कहानी सुनते जाते हैं।
दो० - तेहि बासर बसि प्रातहीं चले सुमिरि रघुनाथ।
राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ॥ 224॥
उस दिन वहीं ठहरकर दूसरे दिन प्रातःकाल ही रघुनाथ का स्मरण करके चले। साथ के सब लोगों को भी भरत के समान ही राम के दर्शन की लालसा (लगी हुई) है॥ 224॥
मंगल सगुन होहिं सब काहू। फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू॥
भरतहि सहित समाज उछाहू। मिलिहहिं रामु मिटिहि दुख दाहू॥
सबको मंगलसूचक शकुन हो रहे हैं। सुख देनेवाले (पुरुषों के दाहिने और स्त्रियों के बाएँ) नेत्र और भुजाएँ फड़क रही हैं। समाज सहित भरत को उत्साह हो रहा है कि राम मिलेंगे और दुःख का दाह मिट जाएगा।
करत मनोरथ जस जियँ जाके। जाहिं सनेह सुराँ सब छाके।
सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं। बिहबल बचन प्रेम बस बोलहिं॥
जिसके जी में जैसा है, वह वैसा ही मनोरथ करता है। सब स्नेहीरूपी मदिरा से छके (प्रेम में मतवाले हुए) चले जा रहे हैं। अंग शिथिल हैं, रास्ते में पैर डगमगा रहे हैं और प्रेमवश विह्वल वचन बोल रहे हैं।
रामसखाँ तेहि समय देखावा। सैल सिरोमनि सहज सुहावा॥
जासु समीप सरित पय तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा॥
रामसखा निषादराज ने उसी समय स्वाभाविक ही सुहावना पर्वतशिरोमणि कामदगिरि दिखलाया, जिसके निकट ही पयस्विनी नदी के तट पर सीता समेत दोनों भाई निवास करते हैं।
देखि करहिं सब दंड प्रनामा। कहि जय जानकि जीवन रामा॥
प्रेम मगन अस राज समाजू। जनु फिरि अवध चले रघुराजू॥
सब लोग उस पर्वत को देखकर 'जानकी-जीवन राम की जय हो।' ऐसा कहकर दंडवत प्रणाम करते हैं। राजसमाज प्रेम में ऐसा मग्न है मानो रघुनाथ अयोध्या को लौट चले हों।
दो० - भरत प्रेमु तेहि समय जस तस कहि सकइ न सेषु।
कबिहि अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु॥ 225॥
भरत का उस समय जैसा प्रेम था, वैसा शेष भी नहीं कह सकते। कवि के लिए तो वह वैसा ही अगम है जैसा अहंता और ममता से मलिन मनुष्यों के लिए ब्रह्मानंद!॥ 225॥
सकल सनेह सिथिल रघुबर कें। गए कोस दुइ दिनकर ढरकें॥
जलु थलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें॥
सब लोग राम के प्रेम के मारे शिथिल होने के कारण सूर्यास्त होने तक (दिनभर में) दो ही कोस चल पाए और जल-स्थल का सुपास देखकर रात को वहीं (बिना खाए-पिए ही) रह गए। रात बीतने पर रघुनाथ के प्रेमी भरत ने आगे गमन किया।
उहाँ रामु रजनी अवसेषा। जागे सीयँ सपन अस देखा॥
सहित समाज भरत जनु आए। नाथ बियोग ताप तन ताए॥
उधर राम रात शेष रहते ही जागे। रात को सीता ने ऐसा स्वप्न देखा (जिसे वे राम को सुनाने लगीं) मानो समाज सहित भरत यहाँ आए हैं। प्रभु के वियोग की अग्नि से उनका शरीर संतप्त है।
सकल मलिन मन दीन दुखारी। देखीं सासु आन अनुहारी॥
सुनि सिय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच बिमोचन॥
सभी लोग मन में उदास, दीन और दुःखी हैं। सासुओं को दूसरी ही सूरत में देखा। सीता का स्वप्न सुनकर राम के नेत्रों में जल भर आया और सबको सोच से छुड़ा देनेवाले प्रभु स्वयं (लीला से) सोच के वश हो गए।
लखन सपन यह नीक न होई। कठिन कुचाह सुनाइहि कोई॥
अस कहि बंधु समेत नहाने। पूजि पुरारि साधु सनमाने॥
(और बोले -) लक्ष्मण! यह स्वप्न अच्छा नहीं है। कोई भीषण कुसमाचार (बहुत ही बुरी खबर) सुनाएगा। ऐसा कहकर उन्होंने भाई सहित स्नान किया और त्रिपुरारी महादेव का पूजन करके साधुओं का सम्मान किया।
छं० - सनमानि सुर मुनि बंदि बैठे उतर दिसि देखत भए।
नभ धूरि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए॥
तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे।
सब समाचार किरात कोलन्हि आइ तेहि अवसर कहे॥
देवताओं का सम्मान (पूजन) और मुनियों की वंदना करके राम बैठ गए और उत्तर दिशा की ओर देखने लगे। आकाश में धूल छा रही है; बहुत-से पक्षी और पशु व्याकुल होकर भागे हुए प्रभु के आश्रम को आ रहे हैं। तुलसीदास कहते हैं कि प्रभु राम यह देखकर उठे और सोचने लगे कि क्या कारण है? वे चित्त में आश्चर्ययुक्त हो गए। उसी समय कोल-भीलों ने आकर सब समाचार कहे।
सो० - सुनत सुमंगल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर।
सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल॥ 226॥
तुलसीदास कहते हैं कि सुंदर मंगल वचन सुनते ही राम के मन में बड़ा आनंद हुआ। शरीर में पुलकावली छा गई, और शरद्-ऋतु के कमल के समान नेत्र प्रेमाश्रुओं से भर गए॥ 226॥
बहुरि सोचबस भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगवनू॥
एक आइ अस कहा बहोरी। सेन संग चतुरंग न थोरी॥
सीतापति राम पुनः सोच के वश हो गए कि भरत के आने का क्या कारण है? फिर एक ने आकर ऐसा कहा कि उनके साथ में बड़ी भारी चतुरंगिणी सेना भी है।
सो सुनि रामहि भा अति सोचू। इत पितु बच इत बंधु सकोचू॥
भरत सुभाउ समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावत नाहीं॥
यह सुनकर राम को अत्यंत सोच हुआ। इधर तो पिता के वचन और उधर भाई भरत का संकोच! भरत के स्वभाव को मन में समझकर तो प्रभु राम चित्त को ठहराने के लिए कोई स्थान ही नहीं पाते हैं।
समाधान तब भा यह जाने। भरतु कहे महुँ साधु सयाने॥
लखन लखेउ प्रभु हृदयँ खभारू। कहत समय सम नीति बिचारू॥
तब यह जानकर समाधान हो गया कि भरत साधु और सयाने हैं तथा मेरे कहने में (आज्ञाकारी) हैं। लक्ष्मण ने देखा कि प्रभु राम के हृदय में चिंता है तो वे समय के अनुसार अपना नीतियुक्त विचार कहने लगे -
बिनु पूछें कछु कहउँ गोसाईं। सेवकु समयँ न ढीठ ढिठाईं॥
तुम्ह सर्बग्य सिरोमनि स्वामी। आपनि समुझि कहउँ अनुगामी॥
हे स्वामी! आपके बिना ही पूछे मैं कुछ कहता हूँ; सेवक समय पर ढिठाई करने से ढीठ नहीं समझा जाता (अर्थात आप पूछें तब मैं कहूँ, ऐसा अवसर नहीं है; इसलिए यह मेरा कहना ढिठाई नहीं होगा)। हे स्वामी! आप सर्वज्ञों में शिरोमणि हैं (सब जानते ही हैं)। मैं सेवक तो अपनी समझ की बात कहता हूँ।
दो० - नाथ सुहृद सुठि सरल चित सील सनेह निधान।
सब पर प्रीति प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान॥ 227॥
हे नाथ! आप परम सुहृद (बिना ही कारण परम हित करनेवाले), सरल हृदय तथा शील और स्नेह के भंडार हैं, आपका सभी पर प्रेम और विश्वास है, और अपने हृदय में सबको अपने ही समान जानते हैं॥ 227॥
बिषई जीव पाइ प्रभुताई। मूढ़ मोह बस होहिं जनाई॥
भरतु नीति रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेमु सकल जगु जाना॥
परंतु मूढ़ विषयी जीव प्रभुता पाकर मोहवश अपने असली स्वरूप को प्रकट कर देते हैं। भरत नीतिपरायण, साधु और चतुर हैं तथा प्रभु (आप) के चरणों में उनका प्रेम है, इस बात को सारा जगत जानता है।
तेऊ आजु राम पदु पाई। चले धरम मरजाद मेटाई॥
कुटिल कुबंधु कुअवसरु ताकी। जानि राम बनबास एकाकी॥
वे भरत भी आज राम (आप) का पद (सिंहासन या अधिकार) पाकर धर्म की मर्यादा को मिटाकर चले हैं। कुटिल खोटे भाई भरत कुसमय देखकर और यह जानकर कि राम (आप) वनवास में अकेले (असहाय) हैं,
करि कुमंत्रु मन साजि समाजू। आए करै अकंटक राजू॥
कोटि प्रकार कलपि कुटिलाई। आए दल बटोरि दोउ भाई॥
अपने मन में बुरा विचार करके, समाज जोड़कर राज्यों को निष्कंटक करने के लिए यहाँ आए हैं। करोड़ों (अनेकों) प्रकार की कुटिलताएँ रचकर सेना बटोरकर दोनों भाई आए हैं।
जौं जियँ होति न कपट कुचाली। केहि सोहाति रथ बाजि गजाली॥
भरतहि दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ॥
यदि इनके हृदय में कपट और कुचाल न होती, तो रथ, घोड़े और हाथियों की कतार (ऐसे समय) किसे सुहाती? परंतु भरत को ही व्यर्थ कौन दोष दे? राजपद पा जाने पर सारा जगत ही पागल (मतवाला) हो जाता है।
दो० - ससि गुर तिय गामी नघुषु चढ़ेउ भूमिसुर जान।
लोक बेद तें बिमुख भा अधम न बेन समान॥ 228॥
चंद्रमा गुरुपत्नी गामी हुआ, राजा नहुष ब्राह्मणों की पालकी पर चढ़ा। और राजा वेन के समान नीच तो कोई नहीं होगा, जो लोक और वेद दोनों से विमुख हो गया॥ 228॥
सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू। केहि न राजमद दीन्ह कलंकू॥
भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काऊ॥
सहस्रबाहु, देवराज इंद्र और त्रिशंकु आदि किसको राजमद ने कलंक नहीं दिया? भरत ने यह उपाय उचित ही किया है, क्योंकि शत्रु और ऋण को कभी जरा भी शेष नहीं रखना चाहिए।
एक कीन्हि नहिं भरत भलाई। निदरे रामु जानि असहाई॥
समुझि परिहि सोउ आजु बिसेषी। समर सरोष राम मुखु पेखी॥
हाँ, भरत ने एक बात अच्छी नहीं की, जो राम (आप) को असहाय जानकर उनका निरादर किया! पर आज संग्राम में राम (आप) का क्रोधपूर्ण मुख देखकर यह बात भी उनकी समझ में विशेष रूप से आ जाएगी (अर्थात इस निरादर का फल भी वे अच्छी तरह पा जाएँगे)।
एतना कहत नीति रस भूला। रन रस बिटपु पुलक मिस फूला॥
प्रभु पद बंदि सीस रज राखी। बोले सत्य सहज बलु भाषी॥
इतना कहते ही लक्ष्मण नीतिरस भूल गए और युद्ध-रसरूपी वृक्ष पुलकावली के बहाने से फूल उठा (अर्थात नीति की बात कहते-कहते उनके शरीर में वीर रस छा गया)। वे प्रभु राम के चरणों की वंदना करके, चरण-रज को सिर पर रखकर सच्चा और स्वाभाविक बल कहते हुए बोले।
अनुचित नाथ न मानब मोरा। भरत हमहि उपचार न थोरा॥
कहँ लगि सहिअ रहिअ मनु मारें। नाथ साथ धनु हाथ हमारें॥
हे नाथ! मेरा कहना अनुचित न मानिएगा। भरत ने हमें कम नहीं प्रचारा है (हमारे साथ कम छेड़छाड़ नहीं की है)। आखिर कहाँ तक सहा जाए और मन मारे रहा जाए, जब स्वामी हमारे साथ हैं और धनुष हमारे हाथ में है!
दो० - छत्रि जाति रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान।
लातहुँ मारें चढ़ति सिर नीच को धूरि समान॥ 229॥
क्षत्रिय जाति, रघुकुल में जन्म और फिर मैं राम (आप) का अनुगामी (सेवक) हूँ, यह जगत जानता है। (फिर भला कैसे सहा जाए?) धूल के समान नीच कौन है, परंतु वह भी लात मारने पर सिर ही चढ़ती है॥ 229॥
उठि कर जोरि रजायसु मागा। मनहुँ बीर रस सोवत जागा॥
बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा। साजि सरासनु सायकु हाथा॥
यों कहकर लक्ष्मण ने उठकर, हाथ जोड़कर आज्ञा माँगी। मानो वीर रस सोते से जाग उठा हो। सिर पर जटा बाँधकर कमर में तरकस कस लिया और धनुष को सजाकर तथा बाण को हाथ में लेकर कहा -
आजु राम सेवक जसु लेऊँ। भरतहि समर सिखावन देऊँ॥
राम निरादर कर फलु पाई। सोवहुँ समर सेज दोउ भाई॥
आज मैं राम (आप) का सेवक होने का यश लूँ और भरत को संग्राम में शिक्षा दूँ। राम (आप) के निरादर का फल पाकर दोनों भाई (भरत-शत्रुघ्न) रण-शय्या पर सोएँ!
आइ बना भल सकल समाजू। प्रगट करउँ रिस पाछिल आजू॥
जिमि करि निकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू॥
अच्छा हुआ जो सारा समाज आकर एकत्र हो गया। आज मैं पिछला सब क्रोध प्रकट करूँगा। जैसे सिंह हाथियों के झुंड को कुचल डालता है और बाज जैसे लवे को लपेट में ले लेता है।
तैसेहिं भरतहि सेन समेता। सानुज निदरि निपातउँ खेता॥
जौं सहाय कर संकरु आई। तौ मारउँ रन राम दोहाई॥
वैसे ही भरत को सेना समेत और छोटे भाई सहित तिरस्कार करके मैदान में पछाड़ूँगा। यदि शंकर भी आकर उनकी सहायता करें, तो भी, मुझे राम की सौगंध है, मैं उन्हें युद्ध में (अवश्य) मार डालूँगा (छोड़ूँगा नहीं)।
दो० - अति सरोष माखे लखनु लखि सुनि सपथ प्रवान।
सभय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान॥ 230॥
लक्ष्मण को अत्यंत क्रोध से तमतमाया हुआ देखकर और उनकी प्रामाणिक (सत्य) सौगंध सुनकर सब लोग भयभीत हो जाते हैं और लोकपाल घबड़ाकर भागना चाहते हैं॥ 230॥
जगु भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहुबलु बिपुल बखानी॥
तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहि सकइ को जाननिहारा॥
सारा जगत भय में डूब गया। तब लक्ष्मण के अपार बाहुबल की प्रशंसा करती हुई आकाशवाणी हुई - हे तात! तुम्हारे प्रताप और प्रभाव को कौन कह सकता है और कौन जान सकता है?
अनुचित उचित काजु किछु होऊ। समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ॥
सहसा करि पाछें पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं॥
परंतु कोई भी काम हो, उसे अनुचित-उचित खूब समझ-बूझकर किया जाए तो सब कोई अच्छा कहते हैं। वेद और विद्वान कहते हैं कि जो बिना विचारे जल्दी में किसी काम को करके पीछे पछताते हैं, वे बुद्धिमान नहीं हैं।
सुनि सुर बचन लखन सकुचाने। राम सीयँ सादर सनमाने॥
कही तात तुम्ह नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई॥
देववाणी सुनकर लक्ष्मण सकुचा गए। राम और सीता ने उनका आदर के साथ सम्मान किया (और कहा -) हे तात! तुमने बड़ी सुंदर नीति कही। हे भाई! राज्य का मद सबसे कठिन मद है।
जो अचवँत नृप मातहिं तेई। नाहिन साधुसभा जेहिं सेई॥
सुनहू लखन भल भरत सरीसा। बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा॥
जिन्होंने साधुओं की सभा का सेवन (सत्संग) नहीं किया, वे ही राजा राजमदरूपी मदिरा का आचमन करते ही (पीते ही) मतवाले हो जाते हैं। हे लक्ष्मण! सुनो, भरत-सरीखा उत्तम पुरुष ब्रह्मा की सृष्टि में न तो कहीं सुना गया है, न देखा ही गया है।
दो० - भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ॥ 231॥
(अयोध्या के राज्य की तो बात ही क्या है) ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का पद पाकर भी भरत को राज्य का मद नहीं होने का! क्या कभी काँजी की बूँदों से क्षीरसमुद्र नष्ट हो सकता (फट सकता) है?॥ 231॥
तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई। गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई॥
गोपद जल बूड़हिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाड़ै छोनी॥
अंधकार चाहे तरुण (मध्याह्न के) सूर्य को निगल जाए। आकाश चाहे बादलों में समाकर मिल जाए। गौ के खुर-इतने जल में अगस्त्य डूब जाएँ और पृथ्वी चाहे अपनी स्वाभाविक क्षमा (सहनशीलता) को छोड़ दे।
मसक फूँक मकु मेरु उड़ाई। होइ न नृपमदु भरतहि भाई॥
लखन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना॥
मच्छर की फूँक से चाहे सुमेरु उड़ जाए। परंतु हे भाई! भरत को राजमद कभी नहीं हो सकता। हे लक्ष्मण! मैं तुम्हारी शपथ और पिता की सौगंध खाकर कहता हूँ, भरत के समान पवित्र और उत्तम भाई संसार में नहीं है।
सगुनु खीरु अवगुन जलु ताता। मिलइ रचइ परपंचु बिधाता॥
भरतु हंस रबिबंस तड़ागा। जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा॥
हे तात! गुरुरूपी दूध और अवगुणरूपी जल को मिलाकर विधाता इस दृश्य-प्रपंच (जगत) को रचता है, परंतु भरत ने सूर्यवंशरूपी तालाब में हंस रूप जन्म लेकर गुण और दोष का विभाग कर दिया (दोनों को अलग-अलग कर दिया)।
गहि गुन पय तजि अवगुण बारी। निज जस जगत कीन्हि उजिआरी॥
कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ। प्रेम पयोधि मगन रघुराऊ॥
गुणरूपी दूध को ग्रहण कर और अवगुणरूपी जल को त्यागकर भरत ने अपने यश से जगत में उजियाला कर दिया है। भरत के गुण, शील और स्वभाव को कहते-कहते रघुनाथ प्रेमसमुद्र में मग्न हो गए।
दो० - सुनि रघुबर बानी बिबुध देखि भरत पर हेतु।
सकल सराहत राम सो प्रभु को कृपानिकेतु॥ 232॥
राम की वाणी सुनकर और भरत पर उनका प्रेम देखकर समस्त देवता उनकी सराहना करने लगे (और कहने लगे) कि राम के समान कृपा के धाम प्रभु और कौन हैं?॥ 232॥
जौं न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरनि धरत को॥
कबि कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा॥
यदि जगत में भरत का जन्म न होता, तो पृथ्वी पर संपूर्ण धर्मों की धुरी को कौन धारण करता? हे रघुनाथ! कविकुल के लिए अगम (उनकी कल्पना से अतीत) भरत के गुणों की कथा आपके सिवा और कौन जान सकता है?
लखन राम सियँ सुनि सुर बानी। अति सुखु लहेउ न जाइ बखानी॥
इहाँ भरतु सब सहित सहाए। मंदाकिनीं पुनीत नहाए॥
लक्ष्मण, राम और सीता ने देवताओं की वाणी सुनकर अत्यंत सुख पाया, जो वर्णन नहीं किया जा सकता। यहाँ भरत ने सारे समाज के साथ पवित्र मंदाकिनी में स्नान किया।
 
सरित समीप राखि सब लोगा। मागि मातु गुर सचिव नियोगा॥
चले भरतु जहँ सिय रघुराई। साथ निषादनाथु लघु भाई॥
फिर सबको नदी के समीप ठहराकर तथा माता, गुरु और मंत्री की आज्ञा माँगकर निषादराज और शत्रुघ्न को साथ लेकर भरत वहाँ चले जहाँ सीता और रघुनाथ थे।
समुझि मातु करतब सकुचाहीं। करत कुतरक कोटि मन माहीं॥
रामु लखनु सिय सुनि मम नाऊँ। उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ॥
भरत अपनी माता कैकेयी की करनी को समझकर (याद करके) सकुचाते हैं और मन में करोड़ों (अनेकों) कुतर्क करते हैं (सोचते हैं -) राम, लक्ष्मण और सीता मेरा नाम सुनकर स्थान छोड़कर कहीं दूसरी जगह उठकर न चले जाएँ।
दो० - मातु मते महुँ मानि मोहि जो कछु करहिं सो थोर।
अघ अवगुन छमि आदरहिं समुझि आपनी ओर॥ 233॥
मुझे माता के मत में मानकर वे जो कुछ भी करें सो थोड़ा है, पर वे अपनी ओर समझकर (अपने विरद और संबंध को देखकर) मेरे पापों और अवगुणों को क्षमा करके मेरा आदर ही करेंगे॥ 233॥
जौं परिहरहिं मलिन मनु जानी। जौं सनमानहिं सेवकु मानी॥
मोरें सरन रामहि की पनही। राम सुस्वामि दोसु सब जनही॥
चाहे मलिन-मन जानकर मुझे त्याग दें, चाहे अपना सेवक मानकर मेरा सम्मान करें, (कुछ भी करें); मेरे तो राम की जूतियाँ ही शरण हैं। राम तो अच्छे स्वामी हैं, दोष तो सब दास का ही है।
जग जग भाजन चातक मीना। नेम प्रेम निज निपुन नबीना॥
अस मन गुनत चले मग जाता। सकुच सनेहँ सिथिल सब गाता॥
जगत में यश के पात्र तो चातक और मछली ही हैं, जो अपने नेम और प्रेम को सदा नया बनाए रखने में निपुण हैं। ऐसा मन में सोचते हुए भरत मार्ग में चले जाते हैं। उनके सब अंग संकोच और प्रेम से शिथिल हो रहे हैं।
फेरति मनहुँ मातु कृत खोरी। चलत भगति बल धीरज धोरी॥
जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ। तब पथ परत उताइल पाऊ॥
माता की हुई बुराई मानो उन्हें लौटाती है, पर धीरज की धुरी को धारण करनेवाले भरत भक्ति के बल से चले जाते हैं। जब रघुनाथ के स्वभाव को समझते (स्मरण करते) हैं तब मार्ग में उनके पैर जल्दी-जल्दी पड़ने लगते हैं।
भरत दसा तेहि अवसर कैसी। जल प्रबाहँ जल अलि गति जैसी॥
देखि भरत कर सोचु सनेहू। भा निषाद तेहि समयँ बिदेहू॥
उस समय भरत की दशा कैसी है? जैसी जल के प्रवाह में जल के भौंरे की गति होती है। भरत का सोच और प्रेम देखकर उस समय निषाद विदेह हो गया (देह की सुध-बुध भूल गया)।
दो० - लगे होन मंगल सगुन सुनि गुनि कहत निषादु।
मिटिहि सोचु होइहि हरषु पुनि परिनाम बिषादु॥ 234॥
मंगल-शकुन होने लगे। उन्हें सुनकर और विचारकर निषाद कहने लगा - सोच मिटेगा, हर्ष होगा, पर फिर अंत में दुःख होगा॥ 234॥
सेवक बचन सत्य सब जाने। आश्रम निकट जाइ निअराने॥
भरत दीख बन सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू॥
भरत ने सेवक (गुह) के सब वचन सत्य जाने और वे आश्रम के समीप जा पहुँचे। वहाँ के वन और पर्वतों के समूह को देखा तो भरत इतने आनंदित हुए मानो कोई भूखा अच्छा अन्न (भोजन) पा गया हो।
ईति भीति जनु प्रजा दुखारी। त्रिबिध ताप पीड़ित ग्रह मारी॥
जाइ सुराज सुदेस सुखारी। होहिं भरत गति तेहि अनुहारी॥
जैसे ईति के भय से दुःखी हुई और तीनों (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक) तापों तथा क्रूर ग्रहों और महामारियों से पीड़ित प्रजा किसी उत्तम देश और उत्तम राज्य में जाकर सुखी हो जाए, भरत की गति (दशा) ठीक उसी प्रकार की हो रही है।
(अधिक जल बरसना, न बरसना, चूहों का उत्पात, टिड्डियाँ, तोते और दूसरे राजा की चढ़ाई - खेतों में बाधा देनेवाले इन छह उपद्रवों को 'ईति' कहते हैं)।
राम बास बन संपति भ्राजा। सुखी प्रजा जनु पाइ सुराजा॥
सचिव बिरागु बिबेकु नरेसू। बिपिन सुहावन पावन देसू॥
राम के निवास से वन की संपत्ति ऐसी सुशोभित है मानो अच्छे राजा को पाकर प्रजा सुखी हो। सुहावना वन ही पवित्र देश है। विवेक उसका राजा है और वैराग्य मंत्री है।
भट जम नियम सैल रजधानी। सांति सुमति सुचि सुंदर रानी॥
सकल अंग संपन्न सुराऊ। राम चरन आश्रित चित चाऊ॥
यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) तथा नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान) योद्धा हैं। पर्वत राजधानी है, शांति तथा सुबुद्धि दो सुंदर पवित्र रानियाँ हैं। वह श्रेष्ठ राजा राज्य के सब अंगों से पूर्ण है और राम के चरणों के आश्रित रहने से उसके चित्त में चाव (आनंद या उत्साह) है।
(स्वामी, अमात्य, सुहृद, कोष, राष्ट्र, दुर्ग और सेना - राज्य के सात अंग हैं।)
दो० - जीति मोह महिपालु दल सहित बिबेक भुआलु।
करत अकंटक राजु पुरँ सुख संपदा सुकालु॥ 235॥
मोहरूपी राजा को सेना सहित जीतकर विवेकरूपी राजा निष्कंटक राज्य कर रहा है। उसके नगर में सुख, संपत्ति और सुकाल वर्तमान है॥ 235॥
बन प्रदेस मुनि बास घनेरे। जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे॥
बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना। प्रजा समाजु न जाइ बखाना॥
वनरूपी प्रांतों में जो मुनियों के बहुत-से निवास स्थान हैं वही मानो शहरों, नगरों, गाँवों और खेड़ों का समूह है। बहुत-से विचित्र पक्षी और अनेकों पशु ही मानो प्रजाओं का समाज है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
खगहा करि हरि बाघ बराहा। देखि महिष बृष साजु सराहा॥
बयरु बिहाइ चरहिं एक संगा। जहँ तहँ मनहुँ सेन चतुरंगा॥
गैंडा, हाथी, सिंह, बाघ, सूअर, भैंसे और बैलों को देखकर राजा के साज को सराहते ही बनता है। ये सब आपस का वैर छोड़कर जहाँ-तहाँ एक साथ विचरते हैं। यही मानो चतुरंगिणी सेना है।
झरना झरहिं मत्त गज गाजहिं। मनहुँ निसान बिबिधि बिधि बाजहिं॥
चक चकोर चातक सुक पिक गन। कूजत मंजु मराल मुदित मन॥
पानी के झरने झर रहे हैं और मतवाले हाथी चिंघाड़ रहे हैं। वे ही मानो वहाँ अनेकों प्रकार के नगाड़े बज रहे हैं। चकवा, चकोर, पपीहा, तोता तथा कोयलों के समूह और सुंदर हंस प्रसन्न मन से कूज रहे हैं।
अलिगन गावत नाचत मोरा। जनु सुराज मंगल चहु ओरा॥
बेलि बिटप तृन सफल सफूला। सब समाजु मुद मंगल मूला॥
भौंरों के समूह गुंजार कर रहे हैं और मोर नाच रहे हैं। मानो उस अच्छे राज्य में चारों ओर मंगल हो रहा है। बेल, वृक्ष, तृण सब फल और फूलों से युक्त हैं। सारा समाज आनंद और मंगल का मूल बन रहा है।
दो० - राम सैल सोभा निरखि भरत हृदयँ अति प्रेमु।
तापस तप फलु पाइ जिमि सुखी सिरानें नेमु॥ 236॥
राम के पर्वत की शोभा देखकर भरत के हृदय में अत्यंत प्रेम हुआ। जैसे तपस्वी नियम की समाप्ति होने पर तपस्या का फल पाकर सुखी होता है॥ 236॥

तब केवट ऊँचें चढ़ि धाई। कहेउ भरत सन भुजा उठाई॥
नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला। पाकरि जंबु रसाल तमाला॥
तब केवट दौड़कर ऊँचे चढ़ गया और भुजा उठाकर भरत से कहने लगा - हे नाथ! ये जो पाकर, जामुन, आम और तमाल के विशाल वृक्ष दिखाई देते हैं,
जिन्ह तरुबरन्ह मध्य बटु सोहा। मंजु बिसाल देखि मनु मोहा॥
नील सघन पल्लव फल लाला। अबिरल छाहँ सुखद सब काला॥
जिन श्रेष्ठ वृक्षों के बीच में एक सुंदर विशाल बड़ का वृक्ष सुशोभित है, जिसको देखकर मन मोहित हो जाता है, उसके पत्ते नीले और सघन हैं और उसमें लाल फल लगे हैं। उसकी घनी छाया सब ऋतुओं में सुख देनेवाली है।
मानहुँ तिमिर अरुनमय रासी। बिरची बिधि सँकेलि सुषमा सी॥
ए तरु सरित समीप गोसाँई। रघुबर परनकुटी जहँ छाई॥
मानो ब्रह्मा ने परम शोभा को एकत्र करके अंधकार और लालिमामयी राशि-सी रच दी है। हे गुसाईं! ये वृक्ष नदी के समीप हैं, जहाँ राम की पर्णकुटी छाई है।
तुलसी तरुबर बिबिध सुहाए। कहुँ कहुँ सियँ कहुँ लखन लगाए॥
बट छायाँ बेदिका बनाई। सियँ निज पानि सरोज सुहाई॥
वहाँ तुलसी के बहुत-से सुंदर वृक्ष सुशोभित हैं, जो कहीं-कहीं सीता ने और कहीं लक्ष्मण ने लगाए हैं। इसी बड़ की छाया में सीता ने अपने करकमलों से सुंदर वेदी बनाई है।
दो० - जहाँ बैठि मुनिगन सहित नित सिय रामु सुजान।
सुनहिं कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान॥ 237॥
जहाँ सुजान सीताराम मुनियों के वृन्द समेत बैठकर नित्य शास्त्र, वेद और पुराणों के सब कथा-इतिहास सुनते हैं॥ 237॥
सखा बचन सुनि बिटप निहारी। उमगे भरत बिलोचन बारी॥
करत प्रनाम चले दोउ भाई। कहत प्रीति सारद सकुचाई॥
सखा के वचन सुनकर और वृक्षों को देखकर भरत के नेत्रों में जल उमड़ आया। दोनों भाई प्रणाम करते हुए चले। उनके प्रेम का वर्णन करने में सरस्वती भी सकुचाती हैं।
हरषहिं निरखि राम पद अंका। मानहुँ पारसु पायउ रंका॥
रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं। रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं॥
राम के चरणचिह्न देखकर दोनों भाई ऐसे हर्षित होते हैं मानो दरिद्र पारस पा गया हो। वहाँ की रज को मस्तक पर रखकर हृदय में और नेत्रों में लगाते हैं और रघुनाथ के मिलने के समान सुख पाते हैं।
देखि भरत गति अकथ अतीवा। प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा॥
सखहि सनेह बिबस मग भूला। कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला॥
भरत की अत्यंत अनिर्वचनीय दशा देखकर वन के पशु, पक्षी और जड़ (वृक्षादि) जीव प्रेम में मग्न हो गए। प्रेम के विशेष वश होने से सखा निषादराज को भी रास्ता भूल गया। तब देवता सुंदर रास्ता बतलाकर फूल बरसाने लगे।
निरखि सिद्ध साधक अनुरागे। सहज सनेहु सराहन लागे॥
होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को॥
भरत के प्रेम की इस स्थिति को देखकर सिद्ध और साधक लोग भी अनुराग से भर गए और उनके स्वाभाविक प्रेम की प्रशंसा करने लगे कि यदि इस पृथ्वी तल पर भरत का जन्म (अथवा प्रेम) न होता, तो जड़ को चेतन और चेतन को जड़ कौन करता?
दो० - प्रेम अमिअ मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गँभीर।
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर॥ 238॥
प्रेम अमृत है, विरह मंदराचल पर्वत है, भरत गहरे समुद्र हैं। कृपा के समुद्र राम ने देवता और साधुओं के हित के लिए स्वयं (इस भरतरूपी गहरे समुद्र को अपने विरहरूपी मंदराचल से) मथकर यह प्रेमरूपी अमृत प्रकट किया है॥ 238॥
सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटा॥
भरत दीख प्रभु आश्रमु पावन। सकल सुमंगल सदनु सुहावन॥
सखा निषादराज सहित इस मनोहर जोड़ी को सघन वन की आड़ के कारण लक्ष्मण नहीं देख पाए। भरत ने प्रभु राम के समस्त सुमंगलों के धाम और सुंदर पवित्र आश्रम को देखा।
करत प्रबेस मिटे दुख दावा। जनु जोगीं परमारथु पावा॥
देखे भरत लखन प्रभु आगे। पूँछे बचन कहत अनुरागे॥
आश्रम में प्रवेश करते ही भरत का दुःख और दाह (जलन) मिट गया, मानो योगी को परमार्थ (परमतत्त्व) की प्राप्ति हो गई हो। भरत ने देखा कि लक्ष्मण प्रभु के आगे खड़े हैं और पूछे हुए वचन प्रेमपूर्वक कह रहे हैं (पूछी हुई बात का प्रेमपूर्वक उत्तर दे रहे हैं)।
सीस जटा कटि मुनि पट बाँधें। तून कसें कर सरु धनु काँधें॥
बेदी पर मुनि साधु समाजू। सीय सहित राजत रघुराजू॥
सिर पर जटा है। कमर में मुनियों का (वल्कल) वस्त्र बाँधे हैं और उसी में तरकस कसे हैं। हाथ में बाण तथा कंधे पर धनुष है। वेदी पर मुनि तथा साधुओं का समुदाय बैठा है और सीता सहित रघुनाथ विराजमान हैं।
बलकल बसन जटिल तनु स्यामा। जनु मुनिबेष कीन्ह रति कामा॥
कर कमलनि धनु सायकु फेरत। जिय की जरनि हरत हँसि हेरत॥
राम के वल्कल वस्त्र हैं, जटा धारण किए हैं, श्याम शरीर है। (सीताराम ऐसे लगते हैं) मानो रति और कामदेव ने मुनि का वेष धारण किया हो। राम अपने करकमलों से धनुष-बाण फेर रहे हैं, और हँसकर देखते ही जी की जलन हर लेते हैं (अर्थात जिसकी ओर भी एक बार हँसकर देख लेते हैं, उसी को परम आनंद और शांति मिल जाती है)।
दो० - लसत मंजु मुनि मंडली मध्य सीय रघुचंदु।
ग्यान सभाँ जनु तनु धरें भगति सच्चिदानंदु॥ 239॥
सुंदर मुनि मंडली के बीच में सीता और रघुकुलचंद्र राम ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो ज्ञान की सभा में साक्षात भक्ति और सच्चिदानंद शरीर धारण करके विराजमान हैं॥ 239॥
सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष सोक सुख दुख गन॥
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाईं। भूतल परे लकुट की नाईं॥
छोटे भाई शत्रुघ्न और सखा निषादराज समेत भरत का मन (प्रेम में) मग्न हो रहा है। हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि सब भूल गए। ‘हे नाथ! रक्षा कीजिए, हे गुसाईं! रक्षा कीजिए' ऐसा कहकर वे पृथ्वी पर दंड की तरह गिर पड़े।
बचन सप्रेम लखन पहिचाने। करत प्रनामु भरत जियँ जाने॥
बंधु सनेह सरस एहि ओरा। उत साहिब सेवा बस जोरा॥
प्रेमभरे वचनों से लक्ष्मण ने पहचान लिया और मन में जान लिया कि भरत प्रणाम कर रहे हैं। (वे राम की ओर मुँह किए खड़े थे, भरत पीठ- पीछे थे; इससे उन्होंने देखा नहीं।) अब इस ओर तो भाई भरत का सरस प्रेम और उधर स्वामी राम की सेवा की प्रबल परवशता।
मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनई। सुकबि लखन मन की गति भनई॥
रहे राखि सेवा पर भारू। चढ़ी चंग जनु खैंच खेलारू॥
न तो (क्षणभर के लिए भी सेवा से पृथक होकर) मिलते ही बनता है और न (प्रेमवश) छोड़ते (उपेक्षा करते) ही। कोई श्रेष्ठ कवि ही लक्ष्मण के चित्त की इस गति (दुविधा) का वर्णन कर सकता है। वे सेवा पर भार रखकर रह गए (सेवा को ही विशेष महत्त्वपूर्ण समझकर उसी में लगे रहे) मानो चढ़ी हुई पतंग को खिलाड़ी (पतंग उड़ानेवाला) खींच रहा हो।
कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा॥
उठे रामु सुनि प्रेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा॥
लक्ष्मण ने प्रेम सहित पृथ्वी पर मस्तक नवाकर कहा - हे रघुनाथ! भरत प्रणाम कर रहे हैं। यह सुनते ही रघुनाथ प्रेम में अधीर होकर उठे। कहीं वस्त्र गिरा, कहीं तरकस, कहीं धनुष और कहीं बाण।
दो० - बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान।
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान॥ 240॥
कृपानिधान राम ने उनको जबरदस्ती उठाकर हृदय से लगा लिया! भरत और राम के मिलने की रीति को देखकर सबको अपनी सुध भूल गई॥ 240॥
मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी॥
परम प्रेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई॥
मिलन की प्रीति कैसे बखानी जाए? वह तो कविकुल के लिए कर्म, मन, वाणी तीनों से अगम है। दोनों भाई (भरत और राम) मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को भुलाकर परम प्रेम से पूर्ण हो रहे हैं।
कहहु सुप्रेम प्रगट को करई। केहि छाया कबि मति अनुसरई॥
कबिहि अरथ आखर बलु साँचा। अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा॥
कहिए, उस श्रेष्ठ प्रेम को कौन प्रकट करे? कवि की बुद्धि किसकी छाया का अनुसरण करे? कवि को तो अक्षर और अर्थ का ही सच्चा बल है। नट ताल की गति के अनुसार ही नाचता है!
अगम सनेह भरत रघुबर को। जहँ न जाइ मनु बिधि हरि हर को॥
सो मैं कुमति कहौं केहि भाँति। बाज सुराग कि गाँडर ताँती॥
भरत और रघुनाथ का प्रेम अगम्य है, जहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का भी मन नहीं जा सकता। उस प्रेम को मैं कुबुद्धि किस प्रकार कहूँ! भला, गाँडर की ताँत से भी कहीं सुंदर राग बज सकता है?
(तालाबों और झीलों में एक तरह की घास होती है, उसे गाँडर कहते हैं।)
मिलनि बिलोकि भरत रघुबर की। सुरगन सभय धकधकी धरकी॥
समुझाए सुरगुरु जड़ जागे। बरषि प्रसून प्रसंसन लागे॥
भरत और राम के मिलने का ढंग देखकर देवता भयभीत हो गए, उनकी धुकधुकी धड़कने लगी। देव गुरु बृहस्पति ने समझाया, तब कहीं वे मूर्ख चेते और फूल बरसाकर प्रशंसा करने लगे।
दो० - मिलि सप्रेम रिपुसूदनहि केवटु भेंटेउ राम।
भूरि भायँ भेंटे भरत लछिमन करत प्रनाम॥ 241॥
फिर राम प्रेम के साथ शत्रुघ्न से मिलकर तब केवट (निषादराज) से मिले। प्रणाम करते हुए लक्ष्मण से भरत बड़े ही प्रेम से मिले॥ 241॥
भेंटेउ लखन ललकि लघु भाई। बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई॥
पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे। अभिमत आसिष पाइ अनंदे॥
तब लक्ष्मण ललककर (बड़ी उमंग के साथ) छोटे भाई शत्रुघ्न से मिले। फिर उन्होंने निषादराज को हृदय से लगा लिया। फिर भरत-शत्रुघ्न दोनों भाइयों ने (उपस्थित) मुनियों को प्रणाम किया और इच्छित आशीर्वाद पाकर वे आनंदित हुए।
सानुज भरत उमगि अनुरागा। धरि सिर सिय पद पदुम परागा॥
पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए। सिर कर कमल परसि बैठाए॥
छोटे भाई शत्रुघ्न सहित भरत प्रेम में उमँगकर सीता के चरण कमलों की रज सिर पर धारण कर बार-बार प्रणाम करने लगे। सीता ने उन्हें उठाकर उनके सिर को अपने करकमल से स्पर्श कर (सिर पर हाथ फेरकर) उन दोनों को बैठाया।
सीयँ असीस दीन्हि मन माहीं। मनग सनेहँ देह सुधि नाहीं॥
सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भे निसोच उर अपडर बीता॥
सीता ने मन-ही-मन आशीर्वाद दिया; क्योंकि वे स्नेह में मग्न हैं, उन्हें देह की सुध-बुध नहीं है। सीता को सब प्रकार से अपने अनुकूल देखकर भरत सोचरहित हो गए और उनके हृदय का कल्पित भय जाता रहा।
कोउ किछु कहई न कोउ किछु पूँछा। प्रेम भरा मन निज गति छूँछा॥
तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि। जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि॥
उस समय न तो कोई कुछ कहता है, न कोई कुछ पूछता है। मन प्रेम से परिपूर्ण है, वह अपनी गति से खाली है (अर्थात संकल्प-विकल्प और चांचल्य से शून्य है)। उस अवसर पर केवट (निषादराज) धीरज धर और हाथ जोड़कर प्रणाम करके विनती करने लगा -
दो० - नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग।
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग॥ 242॥
हे नाथ! मुनिनाथ वशिष्ठ के साथ सब माताएँ, नगरवासी, सेवक, सेनापति, मंत्री - सब आपके वियोग से व्याकुल होकर आए हैं॥ 242॥
सीलसिंधु सुनि गुर आगवनू। सिय समीप राखे रिपुदवनू॥
चले सबेग रामु तेहि काला। धीर धरम धुर दीनदयाला॥
गुरु का आगमन सुनकर शील के समुद्र राम ने सीता के पास शत्रुघ्न को रख दिया और वे परम धीर, धर्मधुरंधर, दीनदयालु राम उसी समय वेग के साथ चल पड़े।
गुरहि देखि सानुज अनुरागे। दंड प्रनाम करन प्रभु लागे॥
मुनिबर धाइ लिए उर लाई। प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई॥
गुरु के दर्शन करके लक्ष्मण सहित प्रभु राम प्रेम में भर गए और दंडवत प्रणाम करने लगे। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठ ने दौड़कर उन्हें हृदय से लगा लिया और प्रेम में उमँगकर वे दोनों भाइयों से मिले।
प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू॥
राम सखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा॥
फिर प्रेम से पुलकित होकर केवट (निषादराज) ने अपना नाम लेकर दूर से ही वशिष्ठ को दंडवत प्रणाम किया। ऋषि वशिष्ठ ने रामसखा जानकर उसको जबरदस्ती हृदय से लगा लिया। मानो जमीन पर लोटते हुए प्रेम को समेट लिया हो।
रघुपति भगति सुमंगल मूला। नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला॥
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं। बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं॥
रघुनाथ की भक्ति सुंदर मंगलों का मूल है इस प्रकार कहकर सराहना करते हुए देवता आकाश से फूल बरसाने लगे। वे कहने लगे - जगत में इसके समान सर्वथा नीच कोई नहीं और वशिष्ठ के समान बड़ा कौन है?
दो० - जेहि लखि लखनहु तें अधिक मिले मुदित मुनिराउ।
सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ॥ 243॥
जिस (निषाद) को देखकर मुनिराज वशिष्ठ लक्ष्मण से भी अधिक उससे आनंदित होकर मिले। यह सब सीतापति राम के भजन का प्रत्यक्ष प्रताप और प्रभाव है॥ 243॥
आरत लोग राम सबु जाना। करुनाकर सुजान भगवाना॥
जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी। तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी॥
दया की खान, सुजान भगवान राम ने सब लोगों को दुःखी (मिलने के लिए व्याकुल) जाना। तब जो जिस भाव से मिलने का अभिलाषी था, उस-उस का उस-उस प्रकार का रुख रखते हुए (उसकी रुचि के अनुसार)।
सानुज मिलि पल महुँ सब काहू। कीन्ह दूरि दुखु दारुन दाहू॥
यह बड़ि बात राम कै नाहीं। जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं॥
उन्होंने लक्ष्मण सहित पल भर में सब किसी से मिलकर उनके दुःख और कठिन संताप को दूर कर दिया। राम के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है। जैसे करोड़ों घड़ों में एक ही सूर्य की (पृथक-पृथक) छाया (प्रतिबिंब) एक साथ ही दिखती है।
मिलि केवटहि उमगि अनुरागा। पुरजन सकल सराहहिं भागा॥
देखीं राम दुखित महतारीं। जनु सुबेलि अवलीं हिम मारीं॥
समस्त पुरवासी प्रेम में उमँगकर केवट से मिलकर (उसके) भाग्य की सराहना करते हैं। राम ने सब माताओं को दुःखी देखा। मानो सुंदर लताओं की पंक्तियों को पाला मार गया हो।
प्रथम राम भेंटी कैकेई। सरल सुभायँ भगति मति भेई॥
पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी। काल करम बिधि सिर धरि खोरी॥
सबसे पहले राम कैकेयी से मिले और अपने सरल स्वभाव तथा भक्ति से उसकी बुद्धि को तर कर दिया। फिर चरणों में गिरकर काल, कर्म और विधाता के सिर दोष मढ़कर, राम ने उनको सांत्वना दी।
दो० - भेटीं रघुबर मातु सब करि प्रबोधु परितोषु।
अंब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु॥ 244॥
फिर रघुनाथ सब माताओं से मिले। उन्होंने सबको समझा-बुझाकर संतोष कराया कि हे माता! जगत ईश्वर के अधीन है। किसी को भी दोष नहीं देना चाहिए॥ 244॥
गुरतिय पद बंदे दुहु भाईं। सहित बिप्रतिय जे सँग आईं॥
गंग गौरिसम सब सनमानीं। देहिं असीस मुदित मृदु बानीं॥
फिर दोनों भाइयों ने ब्राह्मणों की स्त्रियों सहित - जो भरत के साथ आई थीं, गुरु की पत्नी अरुंधती के चरणों की वंदना की और उन सबका गंगा तथा गौरी के समान सम्मान किया। वे सब आनंदित होकर कोमल वाणी से आशीर्वाद देने लगीं।
गहि पद लगे सुमित्रा अंका। जनु भेंटी संपति अति रंका॥
पुनि जननी चरननि दोउ भ्राता। परे प्रेम ब्याकुल सब गाता॥
तब दोनों भाई पैर पकड़कर सुमित्रा की गोद में जा चिपटे। मानो किसी अत्यंत दरिद्र को संपत्ति से भेंट हो गई हो। फिर दोनों भाई माता कौसल्या के चरणों में गिर पड़े। प्रेम के मारे उनके सारे अंग शिथिल हैं।
अति अनुराग अंब उर लाए। नयन सनेह सलिल अन्हवाए॥
तेहि अवसर कर हरष बिषादू। किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू॥
बड़े ही स्नेह से माता ने उन्हें हृदय से लगा लिया और नेत्रों से बहे हुए प्रेमाश्रुओं के जल से उन्हें नहला दिया। उस समय के हर्ष और विषाद को कवि कैसे कहे? जैसे गूँगा स्वाद को कैसे बताए?
मिलि जननिहि सानुज रघुराऊ। गुर सन कहेउ कि धारिअ पाऊ॥
पुरजन पाइ मुनीस नियोगू। जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू॥
रघुनाथ ने छोटे भाई लक्ष्मण सहित माता कौसल्या से मिलकर गुरु से कहा कि आश्रम पर पधारिए। तदनंतर मुनीश्वर वशिष्ठ की आज्ञा पाकर अयोध्यावासी सब लोग जल और थल का सुभीता देख-देखकर उतर गए।
दो० - महिसुर मंत्री मातु गुरु गने लोग लिए साथ।
पावन आश्रम गवनु किय भरत लखन रघुनाथ॥ 245॥
ब्राह्मण, मंत्री, माताएँ और गुरु आदि गिने-चुने लोगों को साथ लिए हुए, भरत, लक्ष्मण और रघुनाथ पवित्र आश्रम को चले॥ 245॥
सीय आइ मुनिबर पग लागी। उचित असीस लही मन मागी॥
गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली प्रेमु कहि जाइ न जेता॥
सीता आकर मुनि श्रेष्ठ वशिष्ठ के चरणों लगीं और उन्होंने मनमाँगी उचित आशीष पाई। फिर मुनियों की स्त्रियों सहित गुरु पत्नी अरूंधती से मिलीं। उनका जितना प्रेम था, वह कहा नहीं जाता।
बंदि बंदि पग सिय सबही के। आसिरबचन लहे प्रिय जी के॥
सासु सकल सब सीयँ निहारीं। मूदे नयन सहमि सुकुमारीं॥
सीता ने सभी के चरणों की अलग-अलग वंदना करके अपने हृदय को प्रिय (अनुकूल) लगनेवाले आशीर्वाद पाए। जब सुकुमारी सीता ने सब सासुओं को देखा, तब उन्होंने सहमकर अपनी आँखें बंद कर लीं।
परीं बधिक बस मनहुँ मरालीं। काह कीन्ह करतार कुचालीं॥
तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा। सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा॥
(सासुओं की बुरी दशा देखकर) उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो राजहंसिनियाँ बधिक के वश में पड़ गई हों। (मन में सोचने लगीं कि) कुचाली विधाता ने क्या कर डाला? उन्होंने भी सीता को देखकर बड़ा दुःख पाया। (सोचा) जो कुछ दैव सहाए, वह सब सहना ही पड़ता है।
जनकसुता तब उर धरि धीरा। नील नलिन लोयन भरि नीरा॥
मिली सकल सासुन्ह सिय जाई। तेहि अवसर करुना महि छाई॥
तब जानकी हृदय में धीरज धरकर, नील कमल के समान नेत्रों में जल भरकर, सब सासुओं से जाकर मिलीं। उस समय पृथ्वी पर करुणा (करुण रस) छा गई।
दो० - लागि लागि पग सबनि सिय भेंटति अति अनुराग।
हृदयँ असीसहिं प्रेम बस रहिअहु भरी सोहाग॥ 246॥
सीता सबके पैरों लग-लगकर अत्यंत प्रेम से मिल रही हैं, और सब सासुएँ स्नेहवश हृदय से आशीर्वाद दे रही हैं कि तुम सुहाग से भरी रहो (अर्थात सदा सौभाग्यवती रहो)॥ 246॥
बिकल सनेहँ सीय सब रानीं। बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीं॥
कहि जग गति मायिक मुनिनाथा॥ कहे कछुक परमारथ गाथा॥
सीता और सब रानियाँ स्नेह के मारे व्याकुल हैं। तब ज्ञानी गुरु ने सबको बैठ जाने के लिए कहा। फिर मुनिनाथ वशिष्ठ ने जगत की गति को मायिक कहकर (अर्थात जगत माया का है, इसमें कुछ भी नित्य नहीं है, ऐसा कहकर) कुछ परमार्थ की कथाएँ (बातें) कहीं।
नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा। सुनि रघुनाथ दुसह दुखु पावा॥
मरन हेतु निज नेहु बिचारी। भे अति बिकल धीर धुर धारी॥
तदनंतर वशिष्ठ ने राजा दशरथ के स्वर्ग गमन की बात सुनाई। जिसे सुनकर रघुनाथ ने दुःसह दुःख पाया। और अपने प्रति उनके स्नेह को उनके मरने का कारण विचारकर धीरधुरंधर राम अत्यंत व्याकुल हो गए।
कुलिस कठोर सुनत कटु बानी। बिलपत लखन सीय सब रानी॥
सोक बिकल अति सकल समाजू। मानहूँ राजु अकाजेउ आजू॥
वज्र के समान कठोर, कड़वी वाणी सुनकर लक्ष्मण, सीता और सब रानियाँ विलाप करने लगीं। सारा समाज शोक से अत्यंत व्याकुल हो गया! मानो राजा आज ही मरे हों।
मुनिबर बहुरि राम समुझाए। सहित समाज सुसरित नहाए॥
ब्रत निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा। मुनिहु कहें जलु काहुँ न लीन्हा॥
फिर मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठ ने राम को समझाया। तब उन्होंने समाज सहित श्रेष्ठ नदी मंदाकिनी में स्नान किया। उस दिन प्रभु राम ने निर्जल व्रत किया। मुनि वशिष्ठ के कहने पर भी किसी ने जल ग्रहण नहीं किया।
दो० - भोरु भएँ रघुनंदनहि जो मुनि आयसु दीन्ह।
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह॥ 247॥
दूसरे दिन सबेरा होने पर मुनि वशिष्ठ ने रघुनाथ को जो-जो आज्ञा दी, वह सब कार्य प्रभु राम ने श्रद्धा-भक्ति सहित आदर के साथ किया॥ 247॥
करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी। भे पुनीत पातक तम तरनी॥
जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमंगल मूला॥
वेदों में जैसा कहा गया है, उसी के अनुसार पिता की क्रिया करके, पापरूपी अंधकार के नष्ट करनेवाले सूर्यरूप राम शुद्ध हुए! जिनका नाम पापरूपी रूई के (तुरंत जला डालने के) लिए अग्नि है; और जिनका स्मरण मात्र समस्त शुभ मंगलों का मूल है,
सुद्ध सो भयउ साधु संमत अस। तीरथ आवाहन सुसरि जस॥
सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते। बोले गुर सन राम पिरीते॥
वे (नित्य शुद्ध-बुद्ध) भगवान राम शुद्ध हुए! साधुओं की ऐसी सम्मति है कि उनका शुद्ध होना वैसे ही है जैसा तीर्थों के आवाहन से गंगा शुद्ध होती हैं! (गंगा तो स्वभाव से ही शुद्ध हैं, उनमें जिन तीर्थों का आवाहन किया जाता है उलटे वे ही गंगा के संपर्क में आने से शुद्ध हो जाते हैं। इसी प्रकार राम तो नित्य शुद्ध हैं, उनके संसर्ग से कर्म ही शुद्ध हो गए।) जब शुद्ध हुए दो दिन बीत गए तब राम प्रीति के साथ गुरु से बोले -
नाथ लोग सब निपट दुखारी। कंद मूल फल अंबु अहारी॥
सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता॥
हे नाथ! सब लोग यहाँ अत्यंत दुःखी हो रहे हैं। कंद, मूल, फल और जल का ही आहार करते हैं। भाई शत्रुघ्न सहित भरत को, मंत्रियों को और सब माताओं को देखकर मुझे एक-एक पल युग के समान बीत रहा है।
सब समेत पुर धारिअ पाऊ। आपु इहाँ अमरावति राऊ॥
बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई। उचित होइ तस करिअ गोसाँई॥
अतः सबके साथ आप अयोध्यापुरी को पधारिए (लौट जाइए)। आप यहाँ हैं और राजा अमरावती (स्वर्ग) में हैं (अयोध्या सूनी है)! मैंने बहुत कह डाला, यह सब बड़ी ढिठाई की है। हे गोसाईं! जैसा उचित हो, वैसा ही कीजिए।
दो० - धर्म सेतु करुनायतन कस न कहु अस राम।
लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम॥ 248॥
(वशिष्ठ ने कहा -) हे राम! तुम धर्म के सेतु और दया के धाम हो, तुम भला ऐसा क्यों न कहो? लोग दुःखी हैं। दो दिन तुम्हारा दर्शन कर शांति लाभ कर लें॥ 248॥
राम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू॥
सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुँ मारुत अनुकूला॥
राम के वचन सुनकर सारा समाज भयभीत हो गया। मानो बीच समुद्र में जहाज डगमगा गया हो। परंतु जब उन्होंने गुरु वशिष्ठ की श्रेष्ठ कल्याणमूलक वाणी सुनी, तो उस जहाज के लिए मानो हवा अनुकूल हो गई।
पावन पयँ तिहुँ काल नहाहीं। जो बिलोकि अघ ओघ नसाहीं॥
मंगलमूरति लोचन भरि भरि। निरखहिं हरषि दंडवत करि करि॥
सब लोग पवित्र पयस्विनी नदी में (अथवा पयस्विनी नदी के पवित्र जल में) तीनों समय (सबेरे, दोपहर और सायंकाल) स्नान करते हैं, जिसके दर्शन से ही पापों के समूह नष्ट हो जाते हैं और मंगल मूर्ति राम को दंडवत प्रणाम कर-करके उन्हें नेत्र भर-भरकर देखते हैं।
राम सैल बन देखन जाहीं। जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीं॥
झरना झरहिं सुधासम बारी। त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी॥
सब राम के पर्वत (कामदगिरि) और वन को देखने जाते हैं, जहाँ सभी सुख हैं और सभी दुःखों का अभाव है। झरने अमृत के समान जल झरते हैं और तीन प्रकार की (शीतल, मंद, सुगंध) हवा तीनों प्रकार के (आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक) तापों को हर लेती है।
बिटप बेलि तृन अगनित जाती। फल प्रसून पल्लव बहु भाँती॥
सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं॥
असंख्य जाति के वृक्ष, लताएँ और तृण हैं तथा बहुत तरह के फल, फूल और पत्ते हैं। सुंदर शिलाएँ हैं। वृक्षों की छाया सुख देनेवाली है। वन की शोभा किससे वर्णन की जा सकती है?
दो० - सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भृंग।
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग॥ 249॥
तालाबों में कमल खिल रहे हैं, जल के पक्षी कूज रहे हैं, भौंरे गुंजार कर रहे हैं और बहुत रंगों के पक्षी और पशु वन में वैर रहित होकर विहार कर रहे हैं॥ 249॥
कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी॥
भरि भरि परन पुटीं रचि रूरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी॥
कोल, किरात और भील आदि वन के रहनेवाले लोग पवित्र, सुंदर एवं अमृत के समान स्वादिष्ट मधु (शहद) को सुंदर दोने बनाकर और उनमें भर-भरकर तथा कंद, मूल, फल और अंकुर आदि की जूड़ियों (अँटियों) को।
सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा॥
देहिं लोग बहु मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं॥
सबको विनय और प्रणाम करके उन चीजों के अलग-अलग स्वाद, भेद (प्रकार), गुण और नाम बता-बताकर देते हैं। लोग उनका बहुत दाम देते हैं, पर वे नहीं लेते और लौटा देने में राम की दुहाई देते हैं।
कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानत साधु प्रेम पहिचानी॥
तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा॥
प्रेम में मग्न हुए वे कोमल वाणी से कहते हैं कि साधु लोग प्रेम को पहचानकर उसका सम्मान करते हैं (अर्थात आप साधु हैं, आप हमारे प्रेम को देखिए, दाम देकर या वस्तुएँ लौटाकर हमारे प्रेम का तिरस्कार न कीजिए)। आप तो पुण्यात्मा हैं, हम नीच निषाद हैं। राम की कृपा से ही हमने आप लोगों के दर्शन पाए हैं।
हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा। जस मरु धरनि देवधुनि धारा॥
राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा॥
हम लोगों को आपके दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं, जैसे मरुभूमि के लिए गंगा की धारा दुर्लभ है! (देखिए,) कृपालु राम ने निषाद पर कैसी कृपा की है। जैसे राजा हैं वैसा ही उनके परिवार और प्रजा को भी होना चाहिए।
दो० - यह जियँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु।
हमहि कृतारथ करनलगि फल तृन अंकुर लेहु॥ 250॥
हृदय में ऐसा जानकर संकोच छोड़कर और हमारा प्रेम देखकर कृपा कीजिए और हमको कृतार्थ करने के लिए ही फल, तृण और अंकुर लीजिए॥ 250॥
तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे। सेवा जोगु न भाग हमारे॥
देब काह हम तुम्हहि गोसाँई। ईंधनु पात किरात मिताई॥
आप प्रिय पाहुने वन में पधारे हैं। आपकी सेवा करने के योग्य हमारे भाग्य नहीं हैं। हे स्वामी! हम आपको क्या देंगे? भीलों की मित्रता तो बस, ईंधन (लकड़ी) और पत्तों ही तक है।
यह हमारि अति बड़ि सेवकाई। लेहिं न बासन बसन चोराई॥
हम जड़ जीव जीव गन घाती। कुटिल कुचाली कुमति कुजाती॥
हमारी तो यही बड़ी भारी सेवा है कि हम आपके कपड़े और बर्तन नहीं चुरा लेते। हम लोग जड़ जीव हैं, जीवों की हिंसा करनेवाले हैं; कुटिल, कुचाली, कुबुद्धि और कुजाति हैं।
पाप करत निसि बासर जाहीं। नहिं पट कटि नहिं पेट अघाहीं॥
सपनेहुँ धरमबुद्धि कस काऊ। यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ॥
हमारे दिन-रात पाप करते ही बीतते हैं। तो भी न तो हमारी कमर में कपड़ा है और न पेट ही भरते हैं। हममें स्वप्न में भी कभी धर्मबुद्धि कैसी? यह सब तो रघुनाथ के दर्शन का प्रभाव है।
जब तें प्रभु पद पदुम निहारे। मिटे दुसह दुख दोष हमारे॥
बचन सुनत पुरजन अनुरागे। तिन्ह के भाग सराहन लागे॥
जब से प्रभु के चरण कमल देखे, तब से हमारे दुःसह दुःख और दोष मिट गए। वनवासियों के वचन सुनकर अयोध्या के लोग प्रेम में भर गए और उनके भाग्य की सराहना करने लगे।
छं० - लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं।
बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं॥
नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा।
तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा॥
सब उनके भाग्य की सराहना करने लगे और प्रेम के वचन सुनाने लगे। उन लोगों के बोलने और मिलने का ढंग तथा सीताराम के चरणों में उनका प्रेम देखकर सब सुख पा रहे हैं। उन कोल-भीलों की वाणी सुनकर सभी नर-नारी अपने प्रेम का निरादर करते हैं (उसे धिक्कार देते हैं)। तुलसीदास कहते हैं कि यह रघुवंशमणि राम की कृपा है कि लोहा नौका को अपने ऊपर लेकर तैर गया।
सो० - बिहरहिं बन चहु ओर प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब।
जल ज्यों दादुर मोर भए पीन पावस प्रथम॥ 251॥
सब लोग दिनोंदिन परम आनंदित होते हुए वन में चारों ओर विचरते हैं। जैसे पहली वर्षा के जल से मेढ़क और मोर-मोटे हो जाते हैं (प्रसन्न होकर नाचते-कूदते हैं)॥ 251॥
पुर जन नारि मगन अति प्रीती। बासर जाहिं पलक सम बीती॥
सीय सासु प्रति बेष बनाई। सादर करइ सरिस सेवकाई॥
अयोध्यापुरी के पुरुष और स्त्री सभी प्रेम में अत्यंत मग्न हो रहे हैं। उनके दिन पल के समान बीत जाते हैं। जितनी सासुएँ थीं, उतने ही वेष (रूप) बनाकर सीता सब सासुओं की आदरपूर्वक एक-सी सेवा करती हैं।
लखा न मरमु राम बिनु काहूँ। माया सब सिय माया माहूँ॥
सीयँ सासु सेवा बस कीन्हीं। तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं॥
राम के सिवा इस भेद को और किसी ने नहीं जाना। सब मायाएँ सीता की माया में ही हैं। सीता ने सासुओं को सेवा से वश में कर लिया। उन्होंने सुख पाकर सीख और आशीर्वाद दिए।
लखि सिय सहित सरल दोउ भाई। कुटिल रानि पछितानि अघाई॥
अवनि जमहि जाचति कैकेई। महि न बीचु बिधि मीचु न देई॥
सीता समेत दोनों भाइयों (राम-लक्ष्मण) को सरल स्वभाव देखकर कुटिल रानी कैकेयी भरपेट पछताई। वह पृथ्वी तथा यमराज से याचना करती है, किंतु धरती बीच (फटकर समा जाने के लिए रास्ता) नहीं देती और विधाता मौत नहीं देता।
लोकहुँ बेद बिदित कबि कहहीं। राम बिमुख थलु नरक न लहहीं॥
यहु संसउ सब के मन माहीं। राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं॥
लोक और वेद में प्रसिद्ध है और कवि (ज्ञानी) भी कहते हैं कि जो राम से विमुख हैं, उन्हें नरक में भी ठौर नहीं मिलती। सबके मन में यह संदेह हो रहा था कि हे विधाता! राम का अयोध्या जाना होगा या नहीं।
दो० - निसि न नीद नहिं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच।
नीच कीच बिच मगन जस मीनहि सलिल सँकोच॥ 252॥
भरत को न तो रात को नींद आती है, न दिन में भूख ही लगती है। वे पवित्र सोच में ऐसे विकल हैं, जैसे नीचे (तल) के कीचड़ में डूबी हुई मछली को जल की कमी से व्याकुलता होती है॥ 252॥
कीन्हि मातु मिस काल कुचाली। ईति भीति जस पाकत साली॥
केहि बिधि होइ राम अभिषेकू। मोहि अवकलत उपाउ न एकू॥
(भरत सोचते हैं कि) माता के मिस से काल ने कुचाल की है। जैसे धान के पकते समय ईति का भय आ उपस्थित हो। अब राम का राज्याभिषेक किस प्रकार हो, मुझे तो एक भी उपाय नहीं सूझ पड़ता।
अवसि फिरहिं गुर आयसु मानी। मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी॥
मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुराऊ। राम जननि हठ करबि कि काऊ॥
गुरु की आज्ञा मानकर तो राम अवश्य ही अयोध्या को लौट चलेंगे। परंतु मुनि वशिष्ठ तो राम की रुचि जानकर ही कुछ कहेंगे। (अर्थात वे राम की रुचि देखे बिना जाने को नहीं कहेंगे)। माता कौसल्या के कहने से भी रघुनाथ लौट सकते हैं; पर भला, राम को जन्म देनेवाली माता क्या कभी हठ करेगी?
मोहि अनुचर कर केतिक बाता। तेहि महँ कुसमउ बाम बिधाता॥
जौं हठ करउँ त निपट कुकरमू। हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू॥
मुझ सेवक की तो बात ही कितनी है? उसमें भी समय खराब है (मेरे दिन अच्छे नहीं हैं) और विधाता प्रतिकूल है। यदि मैं हठ करता हूँ तो यह घोर कुकर्म (अधर्म) होगा, क्योंकि सेवक का धर्म शिव के पर्वत कैलास से भी भारी (निबाहने में कठिन) है।
एकउ जुगुति न मन ठहरानी। सोचत भरतहि रैनि बिहानी॥
प्रात नहाइ प्रभुहि सिर नाई। बैठत पठए रिषयँ बोलाई॥
एक भी युक्ति भरत के मन में न ठहरी। सोचते-ही-सोचते रात बीत गई। भरत प्रातःकाल स्नान करके और प्रभु राम को सिर नवाकर बैठे ही थे कि ऋषि वशिष्ठ ने उनको बुलवा भेजा।
दो० - गुर पद कमल प्रनामु करि बैठे आयसु पाइ।
बिप्र महाजन सचिव सब जुरे सभासद आइ॥ 253॥
भरत गुरु के चरणकमलों में प्रणाम करके आज्ञा पाकर बैठ गए। उसी समय ब्राह्मण, महाजन, मंत्री आदि सभी सभासद आकर जुट गए॥ 253॥
बोले मुनिबरु समय समाना। सुनहु सभासद भरत सुजाना॥
धरम धुरीन भानुकुल भानू। राजा रामु स्वबस भगवानू॥
श्रेष्ठ मुनि वशिष्ठ समयोचित वचन बोले - हे सभासदों! हे सुजान भरत! सुनो। सूर्यकुल के सूर्य महाराज राम धर्मधुरंधर और स्वतंत्र भगवान हैं।
सत्यसंध पालक श्रुति सेतू। राम जनमु जग मंगल हेतु॥
गुर पितु मातु बचन अनुसारी। खल दलु दलन देव हितकारी॥
वे सत्य प्रतिज्ञ हैं और वेद की मर्यादा के रक्षक हैं। राम का अवतार ही जगत के कल्याण के लिए हुआ है। वे गुरु, पिता और माता के वचनों के अनुसार चलनेवाले हैं। दुष्टों के दल का नाश करनेवाले और देवताओं के हितकारी हैं।
नीति प्रीति परमारथ स्वारथु। कोउ न राम सम जान जथारथु॥
बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला। माया जीव करम कुलि काला॥
नीति, प्रेम, परमार्थ और स्वार्थ को राम के समान यथार्थ (तत्त्व से) कोई नहीं जानता। ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, चंद्र, सूर्य, दिक्पाल, माया, जीव, सभी कर्म और काल,
अहिप महिप जहँ लगि प्रभुताई। जोग सिद्धि निगमागम गाई॥
करि बिचार जियँ देखहु नीकें। राम रजाइ सीस सब ही कें॥
शेष और (पृथ्वी एवं पाताल के अन्यान्य) राजा आदि जहाँ तक प्रभुता है, और योग की सिद्धियाँ, जो वेद और शास्त्रों में गाई गई हैं, हृदय में अच्छी तरह विचार कर देखो, (तो यह स्पष्ट दिखाई देगा कि) राम की आज्ञा इन सभी के सिर पर है (अर्थात राम ही सबके एक मात्र महान महेश्वर हैं)।
दो० - राखें राम रजाइ रुख हम सब कर हित होइ।
समुझि सयाने करहु अब सब मिलि संमत सोइ॥ 254॥
अतएव राम की आज्ञा और रुख रखने में ही हम सबका हित होगा। (इस तत्त्व और रहस्य को समझकर) अब तुम सयाने लोग जो सबको सम्मत हो, वही मिलकर करो॥ 254॥
सब कहुँ सुखद राम अभिषेकू। मंगल मोद मूल मग एकू॥
केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ। कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ॥
राम का राज्याभिषेक सबके लिए सुखदायक है। मंगल और आनंद का मूल यही एक मार्ग है। (अब) रघुनाथ अयोध्या किस प्रकार चलें? विचारकर कहो, वही उपाय किया जाए।
सब सादर सुनि मुनिबर बानी। नय परमारथ स्वारथ सानी॥
उतरु न आव लोग भए भोरे। तब सिरु नाइ भरत कर जोरे॥
मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठ की नीति, परमार्थ और स्वार्थ (लौकिक हित) में सनी हुई वाणी सबने आदरपूर्वक सुनी। पर किसी को कोई उत्तर नहीं आता, सब लोग भोले (विचार शक्ति से रहित) हो गए। तब भरत ने सिर नवाकर हाथ जोड़े।
भानुबंस भए भूप घनेरे। अधिक एक तें एक बड़ेरे॥
जनम हेतु सब कहँ पितु माता। करम सुभासुभ देइ बिधाता॥
(और कहा -) सूर्यवंश में एक-से-एक अधिक बड़े बहुत-से राजा हो गए हैं। सभी के जन्म के कारण पिता-माता होते हैं और शुभ-अशुभ कर्मों को (कर्मों का फल) विधाता देते हैं।
दलि दुख सजइ सकल कल्याना। अस असीस राउरि जगु जाना॥
सो गोसाइँ बिधि गति जेहिं छेंकी। सकइ को टारि टेक जो टेकी॥
आपका आशीष ही एक ऐसा है, जो दुःखों का दमन करके, समस्त कल्याणों को सज देते है; यह जगत जानता है। हे स्वामी! आप वही हैं, जिन्होंने विधाता की गति (विधान) को भी रोक दिया। आपने जो टेक टेक दी (जो निश्चय कर दिया) उसे कौन टाल सकता है?।
दो० - बूझिअ मोहि उपाउ अब सो सब मोर अभागु।
सुनि सनेहमय बचन गुर उर उमगा अनुरागु॥ 255॥
अब आप मुझसे उपाय पूछते हैं, यह सब मेरा अभाग्य है। भरत के प्रेममय वचनों को सुनकर गुरु के हृदय में प्रेम उमड़ आया॥ 255॥
तात बात फुरि राम कृपाहीं। राम बिमुख सिधि सपनेहुँ नाहीं॥
सकुचउँ तात कहत एक बाता। अरध तजहिं बुध सरबस जाता॥
(वे बोले -) हे तात! बात सत्य है, पर है राम की कृपा से ही। राम विमुख को तो स्वप्न में भी सिद्धि नहीं मिलती। हे तात! मैं एक बात कहने में सकुचाता हूँ। बुद्धिमान लोग सर्वस्व जाता देखकर (आधे की रक्षा के लिए) आधा छोड़ दिया करते हैं।
तुम्ह कानन गवनहु दोउ भाई। फेरिअहिं लखन सीय रघुराई॥
सुनि सुबचन हरषे दोउ भ्राता। भे प्रमोद परिपूरन गाता॥
अतः तुम दोनों भाई (भरत-शत्रुघ्न) वन को जाओ और लक्ष्मण, सीता और राम को लौटा दिया जाए। ये सुंदर वचन सुनकर दोनों भाई हर्षित हो गए। उनके सारे अंग परमानंद से परिपूर्ण हो गए।
मन प्रसन्न तन तेजु बिराजा। जनु जिय राउ रामु भए राजा॥
बहुत लाभ लोगन्ह लघु हानी। सम दुख सुख सब रोवहिं रानी॥
उनके मन प्रसन्न हो गए। शरीर में तेज सुशोभित हो गया। मानो राजा दशरथ जी उठे हों और राम राजा हो गए हों! अन्य लोगों को तो इसमें लाभ अधिक और हानि कम प्रतीत हुई। परंतु रानियों को दुःख-सुख समान ही थे (राम-लक्ष्मण वन में रहें या भरत-शत्रुघ्न, दो पुत्रों का वियोग तो रहेगा ही), यह समझकर वे सब रोने लगीं।
कहहिं भरतु मुनि कहा सो कीन्हे। फलु जग जीवन्ह अभिमत दीन्हे॥
कानन करउँ जनम भरि बासू। एहि तें अधिक न मोर सुपासू॥
भरत कहने लगे - मुनि ने जो कहा, वह करने से जगतभर के जीवों को उनकी इच्छित वस्तु देने का फल होगा। (चौदह वर्ष की कोई अवधि नहीं,) मैं जन्मभर वन में वास करूँगा। मेरे लिए इससे बढ़कर और कोई सुख नहीं है।
दो० - अंतरजामी रामु सिय तुम्ह सरबग्य सुजान।
जौं फुर कहहु त नाथ निज कीजिअ बचनु प्रवान॥ 256॥
राम और सीता हृदय की जाननेवाले हैं और आप सर्वज्ञ तथा सुजान हैं। यदि आप यह सत्य कह रहे हैं तो हे नाथ! अपने वचनों को प्रमाण कीजिए (उनके अनुसार व्यवस्था कीजिए)॥ 256॥
भरत बचन सुनि देखि सनेहू। सभा सहित मुनि भए बिदेहू॥
भरत महा महिमा जलरासी। मुनि मति ठाढ़ि तीर अबला सी॥
भरत के वचन सुनकर और उनका प्रेम देखकर सारी सभा सहित मुनि वशिष्ठ विदेह हो गए (किसी को अपने देह की सुधि न रही)। भरत की महान महिमा समुद्र है, मुनि की बुद्धि उसके तट पर अबला स्त्री के समान खड़ी है।
गा चह पार जतनु हियँ हेरा। पावति नाव न बोहितु बेरा॥
औरु करिहि को भरत बड़ाई। सरसी सीपि कि सिंधु समाई॥
वह (उस समुद्र के) पार जाना चाहती है, इसके लिए उसने हृदय में उपाय भी ढूँढ़े! पर (उसे पार करने का साधन) नाव, जहाज या बेड़ा कुछ भी नहीं पाती। भरत की बड़ाई और कौन करेगा? तलैया की सीपी में भी कहीं समुद्र समा सकता है?
भरतु मुनिहि मन भीतर भाए। सहित समाज राम पहिं आए॥
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह सुआसनु। बैठे सब सुनि मुनि अनुसासनु॥
मुनि वशिष्ठ की अंतरात्मा को भरत बहुत अच्छे लगे और वे समाज सहित राम के पास आए। प्रभु राम ने प्रणाम कर उत्तम आसन दिया। सब लोग मुनि की आज्ञा सुनकर बैठ गए।
बोले मुनिबरु बचन बिचारी। देस काल अवसर अनुहारी॥
सुनहु राम सरबग्य सुजाना। धरम नीति गुन ग्यान निधाना॥
श्रेष्ठ मुनि देश, काल और अवसर के अनुसार विचार करके वचन बोले - हे सर्वज्ञ! हे सुजान! हे धर्म, नीति, गुण और ज्ञान के भंडार राम! सुनिए -
दो० - सब के उर अंतर बसहु जानहु भाउ कुभाउ।
पुरजन जननी भरत हित होइ सो कहिअ उपाउ॥ 257॥
आप सबके हृदय के भीतर बसते हैं और सबके भले-बुरे भाव को जानते हैं। जिसमें पुरवासियों का, माताओं का और भरत का हित हो, वही उपाय बतलाइए॥ 257॥
आरत कहहिं बिचारि न काऊ। सूझ जुआरिहि आपन दाऊ॥
सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ॥ नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ॥
आर्त (दुःखी) लोग कभी विचारकर नहीं कहते। जुआरी को अपना ही दाँव सूझता है। मुनि के वचन सुनकर रघुनाथ कहने लगे - हे नाथ! उपाय तो आप ही के हाथ है।
सब कर हित रुख राउरि राखें। आयसु किएँ मुदित फुर भाषें॥
प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई। माथें मानि करौं सिख सोई॥
आपका रुख रखने में और आपकी आज्ञा को सत्य कहकर प्रसन्नता पूर्वक पालन करने में ही सबका हित है। पहले तो मुझे जो आज्ञा हो, मैं उसी शिक्षा को माथे पर चढ़ाकर करूँ।
पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाईं। सो सब भाँति घटिहि सेवकाईं॥
कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा। भरत सनेहँ बिचारु न राखा॥
फिर हे गोसाईं! आप जिसको जैसा कहेंगे वह सब तरह से सेवा में लग जाएगा (आज्ञा पालन करेगा)। मुनि वशिष्ठ कहने लगे - हे राम! तुमने सच कहा। पर भरत के प्रेम ने विचार को नहीं रहने दिया।
तेहि तें कहउँ बहोरि बहोरी। भरत भगति बस भइ मति मोरी॥
मोरें जान भरत रुचि राखी। जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी॥
इसीलिए मैं बार-बार कहता हूँ, मेरी बुद्धि भरत की भक्ति के वश हो गई है। मेरी समझ में तो भरत की रुचि रखकर जो कुछ किया जाएगा, शिव साक्षी हैं, वह सब शुभ ही होगा।
दो० - भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि।
करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि॥ 258॥
पहले भरत की विनती आदरपूर्वक सुन लीजिए, फिर उस पर विचार कीजिए। तब साधुमत, लोकमत, राजनीति और वेदों का निचोड़ (सार) निकालकर वैसा ही (उसी के अनुसार) कीजिए॥ 258॥
गुर अनुरागु भरत पर देखी। राम हृदयँ आनंदु बिसेषी॥
भरतहि धरम धुरंधर जानी। निज सेवक तन मानस बानी॥
भरत पर गुरु का स्नेह देखकर राम के हृदय में विशेष आनंद हुआ। भरत को धर्मधुरंधर और तन, मन, वचन से अपना सेवक जानकर -
बोले गुरु आयस अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगल मूला॥
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुअन भरत सम भाई॥
राम गुरु की आज्ञा अनुकूल मनोहर, कोमल और कल्याण के मूल वचन बोले - हे नाथ! आपकी सौगंध और पिता के चरणों की दुहाई है (मैं सत्य कहता हूँ कि) विश्वभर में भरत के समान कोई भाई हुआ ही नहीं।
जे गुर पद अंबुज अनुरागी। ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी॥
राउर जा पर अस अनुरागू। को कहि सकइ भरत कर भागू॥
जो लोग गुरु के चरणकमलों के अनुरागी हैं, वे लोक में (लौकिक दृष्टि से) भी और वेद में (परमार्थिक दृष्टि से) भी बड़भागी होते हैं! (फिर) जिस पर आप (गुरु) का ऐसा स्नेह है, उस भरत के भाग्य को कौन कह सकता है?
लखि लघु बंधु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई॥
भरतु कहहिं सोइ किएँ भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई॥
छोटा भाई जानकर भरत के मुँह पर उसकी बड़ाई करने में मेरी बुद्धि सकुचाती है। (फिर भी मैं तो यही कहूँगा कि) भरत जो कुछ कहें, वही करने में भलाई है। ऐसा कहकर राम चुप हो रहे।
दो० - तब मुनि बोले भरत सन सब सँकोचु तजि तात।
कृपासिंधु प्रिय बंधु सन कहहु हृदय कै बात॥ 259॥
तब मुनि भरत से बोले - हे तात! सब संकोच त्यागकर कृपा के समुद्र अपने प्यारे भाई से अपने हृदय की बात कहो॥ 259॥
सुनि मुनि बचन राम रुख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई॥
लखि अपनें सिर सबु छरु भारू। कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू॥
मुनि के वचन सुनकर और राम का रुख पाकर गुरु तथा स्वामी को भरपेट अपने अनुकूल जानकर सारा बोझ अपने ही ऊपर समझकर भरत कुछ कह नहीं सकते। वे विचार करने लगे।
पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े॥
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा॥
शरीर से पुलकित होकर वे सभा में खड़े हो गए। कमल के समान नेत्रों में प्रेमाश्रुओं की बाढ़ आ गई। (वे बोले -) मेरा कहना तो मुनिनाथ ने ही निबाह दिया (जो कुछ मैं कह सकता था वह उन्होंने ही कह दिया)। इससे अधिक मैं क्या कहूँ?
मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ॥
मो पर कृपा सनेहु बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी॥
अपने स्वामी का स्वभाव मैं जानता हूँ। वे अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं करते। मुझ पर तो उनकी विशेष कृपा और स्नेह है। मैंने खेल में भी कभी उनकी रिस (अप्रसन्नता) नहीं देखी।
सिसुपन तें परिहरेउँ न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू॥
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेहूँ खेल जितावहिं मोही॥
बचपन में ही मैंने उनका साथ नहीं छोड़ा और उन्होंने भी मेरे मन को कभी नहीं तोड़ा (मेरे मन के प्रतिकूल कोई काम नहीं किया)। मैंने प्रभु की कृपा की रीति को हृदय में भली-भाँति देखा है (अनुभव किया है)। मेरे हारने पर भी खेल में प्रभु मुझे जिता देते रहे हैं।
दो० - महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन।
दरसन तृपित न आजु लगि प्रेम पिआसे नैन॥ 260॥
मैंने भी प्रेम और संकोचवश कभी सामने मुँह नहीं खोला। प्रेम के प्यासे मेरे नेत्र आज तक प्रभु के दर्शन से तृप्त नहीं हुए॥ 260॥
बिधि न सकेऊ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा॥
यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनीं समुझि साधु सुचि को भा॥
परंतु विधाता मेरा दुलार न सह सका। उसने नीच माता के बहाने (मेरे और स्वामी के बीच) अंतर डाल दिया। यह भी कहना आज मुझे शोभा नहीं देता। क्योंकि अपनी समझ से कौन साधु और पवित्र हुआ है? (जिसको दूसरे साधु और पवित्र मानें, वही साधु है।)
मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली॥
फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकता प्रसव कि संबुक काली॥
माता नीच है और मैं सदाचारी और साधु हूँ, ऐसा हृदय में लाना ही करोड़ों दुराचारों के समान है। क्या कोदों की बाली उत्तम धान फल सकती है? क्या काली घोंघी मोती उत्पन्न कर सकती है?
सपनेहूँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू॥
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउँ जायँ जननि कहि काकू॥
स्वप्न में भी किसी को दोष का लेश भी नहीं है। मेरा अभाग्य ही अथाह समुद्र है। मैंने अपने पापों का परिणाम समझे बिना ही माता को कटु वचन कहकर व्यर्थ ही जलाया।
हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेहिं भल मोरा॥
गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू॥
मैं अपने हृदय में सब ओर खोज कर हार गया (मेरी भलाई का कोई साधन नहीं सूझता)। एक ही प्रकार भले ही (निश्चय ही) मेरा भला है। वह यह है कि गुरु महाराज सर्वसमर्थ हैं और सीताराम मेरे स्वामी हैं। इसी से परिणाम मुझे अच्छा जान पड़ता है।
दो० - साधु सभाँ गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सतिभाउ।
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ॥ 261॥
साधुओं की सभा में गुरु और स्वामी के समीप इस पवित्र तीर्थ स्थान में मैं सत्य भाव से कहता हूँ। यह प्रेम है या प्रपंच (छल-कपट)? झूठ है या सच? इसे (सर्वज्ञ) मुनि वशिष्ठ और (अंतर्यामी) रघुनाथ जानते हैं॥ 261॥
भूपति मरन प्रेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी॥
देखि न जाहिं बिकल महतारीं। जरहिं दुसह जर पुर नर नारीं॥
प्रेम के प्रण को निबाहकर महाराज (पिता) का मरना और माता की कुबुद्धि, दोनों का सारा संसार साक्षी है। माताएँ व्याकुल हैं, वे देखी नहीं जातीं। अवधपुरी के नर-नारी दुःसह ताप से जल रहे हैं।
महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला॥
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा॥
बिनु पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेउँ एहि घाएँ॥
बहुरि निहारि निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू॥
मैं ही इन सारे अनर्थों का मूल हूँ, यह सुन और समझकर मैंने सब दुःख सहा है। रघुनाथ लक्ष्मण और सीता के साथ मुनियों का-सा वेष धारणकर बिना जूते पहने पाँव-प्यादे (पैदल) ही वन को चले गए, यह सुनकर, शंकर साक्षी हैं, इस घाव से भी मैं जीता रह गया (यह सुनते ही मेरे प्राण नहीं निकल गए)! फिर निषादराज का प्रेम देखकर भी इस वज्र से भी कठोर हृदय में छेद नहीं हुआ (यह फटा नहीं)।
अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई॥
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी॥
अब यहाँ आकर सब आँखों देख लिया। यह जड़ जीव जीता रह कर सभी सहावेगा। जिनको देखकर रास्ते की साँपिनी और बीछी भी अपने भयानक विष और तीव्र क्रोध को त्याग देती हैं -
दो० - तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि॥ 262॥
वे ही रघुनंदन, लक्ष्मण और सीता जिसको शत्रु जान पड़े, उस कैकेयी के पुत्र मुझको छोड़कर दैव दुःसह दुःख और किसे सहावेगा॥ 262॥
सुनि अति बिकल भरत बर बानी। आरति प्रीति बिनय नय सानी॥
सोक मगन सब सभाँ खभारू। मनहुँ कमल बन परेउ तुसारू॥
अत्यंत व्याकुल तथा दुःख, प्रेम, विनय और नीति में सनी हुई भरत की श्रेष्ठ वाणी सुनकर सब लोग शोक में मग्न हो गए, सारी सभा में विषाद छा गया। मानो कमल के वन पर पाला पड़ गया हो।
कहि अनेक बिधि कथा पुरानी। भरत प्रबोधु कीन्ह मुनि ग्यानी॥
बोले उचित बचन रघुनंदू। दिनकर कुल कैरव बन चंदू॥
तब ज्ञानी मुनि वशिष्ठ ने अनेक प्रकार की पुरानी कथाएँ कहकर भरत का समाधान किया। फिर सूर्यकुलरूपी कुमुदवन के प्रफुल्लित करनेवाले चंद्रमा रघुनंदन उचित वचन बोले -
तात जायँ जियँ करहु गलानी। ईस अधीन जीव गति जानी॥
तीनि काल तिभुअन मत मोरें। पुन्यसिलोक तात तर तोरें॥
हे तात! तुम अपने हृदय में व्यर्थ ही ग्लानि करते हो। जीव की गति को ईश्वर के अधीन जानो। मेरे मत में (भूत, भविष्य, वर्तमान) तीनों कालों और (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल) तीनों लोकों के सब पुण्यात्मा पुरुष तुम से नीचे हैं।
उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई। जाइ लोकु परलोकु नसाई॥
दोसु देहिं जननिहि जड़ तेई। जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई॥
हृदय में भी तुम पर कुटिलता का आरोप करने से यह लोक (यहाँ के सुख, यश आदि) बिगड़ जाता है और परलोक भी नष्ट हो जाता है (मरने के बाद भी अच्छी गति नहीं मिलती)। माता कैकेयी को तो वे ही मूर्ख दोष देते हैं, जिन्होंने गुरु और साधुओं की सभा का सेवन नहीं किया है।
दो० - मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार।
लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार॥ 263॥
हे भरत! तुम्हारा नाम-स्मरण करते ही सब पाप, प्रपंच (अज्ञान) और समस्त अमंगलों के समूह मिट जाएँगे तथा इस लोक में सुंदर यश और परलोक में सुख प्राप्त होगा॥ 263॥
कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी॥
तात कुतरक करहु जनि जाएँ। बैर प्रेम नहिं दुरइ दुराएँ॥
हे भरत! मैं स्वभाव से ही सत्य कहता हूँ, शिव साक्षी हैं, यह पृथ्वी तुम्हारी ही रखी रह रही है। हे तात! तुम व्यर्थ कुतर्क न करो। वैर और प्रेम छिपाए नहीं छिपते।
मुनिगन निकट बिहग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं॥
हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना॥
पक्षी और पशु मुनियों के पास (बेधड़क) चले जाते हैं, पर हिंसा करनेवाले बधिकों को देखते ही भाग जाते हैं। मित्र और शत्रु को पशु-पक्षी भी पहचानते हैं। फिर मनुष्य शरीर तो गुण और ज्ञान का भंडार ही है।
तात तुम्हहि मैं जानउँ नीकें। करौं काह असमंजस जीकें॥
राखेउ रायँ सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ प्रेम पन लागी॥
हे तात! मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ। क्या करूँ? जी में बड़ा असमंजस (दुविधा) है। राजा ने मुझे त्याग कर सत्य को रखा और प्रेम-प्रण के लिए शरीर छोड़ दिया।
तासु बचन मेटत मन सोचू। तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू॥
ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा। अवसि जो कहहु चहउँ सोइ कीन्हा॥
उनके वचन को मेटते मन में सोच होता है। उससे भी बढ़कर तुम्हारा संकोच है। उस पर भी गुरु ने मुझे आज्ञा दी है। इसलिए अब तुम जो कुछ कहो, अवश्य ही मैं वही करना चाहता हूँ।
दो० - मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु।
सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु॥ 264॥
तुम मन को प्रसन्न कर और संकोच को त्याग कर जो कुछ कहो, मैं आज वही करूँ। सत्य प्रतिज्ञ रघुकुल श्रेष्ठ राम का यह वचन सुनकर सारा समाज सुखी हो गया॥ 264॥
सुर गन सहित सभय सुरराजू। सोचहिं चाहत होन अकाजू॥
बनत उपाउ करत कछु नाहीं। राम सरन सब गे मन माहीं॥
देवगणों सहित देवराज इंद्र भयभीत होकर सोचने लगे कि अब बना-बनाया काम बिगड़ना ही चाहता है। कुछ उपाय करते नहीं बनता। तब वे सब मन-ही-मन राम की शरण गए।
बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं। रघुपति भगत भगति बस अहहीं॥
सुधि करि अंबरीष दुरबासा। भे सुर सुरपति निपट निरासा॥
फिर वे विचार करके आपस में कहने लगे कि रघुनाथ तो भक्त की भक्ति के वश हैं। अंबरीष और दुर्वासा की (घटना) याद करके तो देवता और इंद्र बिल्कुल ही निराश हो गए।
सहे सुरन्ह बहु काल बिषादा। नरहरि किए प्रगट प्रहलादा॥
लगि लगि कान कहहिं धुनि माथा। अब सुर काज भरत के हाथा॥
पहले देवताओं ने बहुत समय तक दुःख सहे। तब भक्त प्रह्लाद ने ही नृसिंह भगवान को प्रकट किया था। सब देवता परस्पर कानों से लग-लगकर और सिर धुनकर कहते हैं कि अब (इस बार) देवताओं का काम भरत के हाथ है।
आन उपाउ न देखिअ देवा। मानत रामु सुसेवक सेवा॥
हियँ सप्रेम सुमिरहु सब भरतहि। निज गुन सील राम बस करतहि॥
हे देवताओ! और कोई उपाय नहीं दिखाई देता। राम अपने श्रेष्ठ सेवकों की सेवा को मानते हैं (अर्थात उनके भक्त की कोई सेवा करता है, तो उस पर बहुत प्रसन्न होते हैं)। अतएव अपने गुण और शील से राम को वश में करनेवाले भरत का ही सब लोग अपने-अपने हृदय में प्रेम सहित स्मरण करो।
दो० - सुनि सुर मत सुरगुर कहेउ भल तुम्हार बड़ भागु।
सकल सुमंगल मूल जग भरत चरन अनुरागु॥ 265॥
देवताओं का मत सुनकर देवगुरु बृहस्पति ने कहा - अच्छा विचार किया, तुम्हारे बड़े भाग्य हैं। भरत के चरणों का प्रेम जगत में समस्त शुभ मंगलों का मूल है॥ 265॥
सीतापति सेवक सेवकाई। कामधेनु सय सरिस सुहाई॥
भरत भगति तुम्हरें मन आई। तजहु सोचु बिधि बात बनाई॥
सीतानाथ राम के सेवक की सेवा सैकड़ों कामधेनुओं के समान सुंदर है। तुम्हारे मन में भरत की भक्ति आई है, तो अब सोच छोड़ दो। विधाता ने बात बना दी।
देखु देवपति भरत प्रभाऊ। सजह सुभायँ बिबस रघुराऊ॥
मन थिर करहु देव डरु नाहीं। भरतहि जानि राम परिछाहीं॥
हे देवराज! भरत का प्रभाव तो देखो। रघुनाथ सहज स्वभाव से ही उनके पूर्णरूप से वश में हैं। हे देवताओं ! भरत को राम की परछाईं (परछाईं की भाँति उनका अनुसरण करनेवाला) जानकर मन स्थिर करो, डर की बात नहीं है।
सुनि सुरगुर सुर संमत सोचू। अंतरजामी प्रभुहि सकोचू॥
निज सिर भारु भरत जियँ जाना। करत कोटि बिधि उर अनुमाना॥
देवगुरु बृहस्पति और देवताओं की सम्मति (आपस का विचार) और उनका सोच सुनकर अंतर्यामी प्रभु राम को संकोच हुआ। भरत ने अपने मन में सब बोझा अपने ही सिर जाना और वे हृदय में करोड़ों (अनेकों) प्रकार के अनुमान (विचार) करने लगे।
करि बिचारु मन दीन्ही ठीका। राम रजायस आपन नीका॥
निज पन तजि राखेउ पनु मोरा। छोहु सनेहु कीन्ह नहिं थोरा॥
सब तरह से विचार करके अंत में उन्होंने मन में यही निश्चय किया कि राम की आज्ञा में ही अपना कल्याण है। उन्होंने अपना प्रण छोड़कर मेरा प्रण रखा। यह कुछ कम कृपा और स्नेह नहीं किया (अर्थात अत्यंत ही अनुग्रह और स्नेह किया)।
दो० - कीन्ह अनुग्रह अमित अति सब बिधि सीतानाथ।
करि प्रनामु बोले भरतु जोरि जलज जुग हाथ॥ 266॥
जानकीनाथ ने सब प्रकार से मुझ पर अत्यंत अपार अनुग्रह किया। तदनंतर भरत दोनों करकमलों को जोड़कर प्रणाम करके बोले - ॥ 266॥
कहौं कहावौं का अब स्वामी। कृपा अंबुनिधि अंतरजामी॥
गुर प्रसन्न साहिब अनुकूला। मिटी मलिन मन कलपित सूला॥
हे स्वामी! हे कृपा के समुद्र! हे अंतर्यामी! अब मैं (अधिक) क्या कहूँ और क्या कहाऊँ? गुरु महाराज को प्रसन्न और स्वामी को अनुकूल जानकर मेरे मलिन मन की कल्पित पीड़ा मिट गई।
अपडर डरेउँ न सोच समूलें। रबिहि न दोसु देव दिसि भूलें॥
मोर अभागु मातु कुटिलाई। बिधि गति बिषम काल कठिनाई॥
मैं मिथ्या डर से ही डर गया था। मेरे सोच की जड़ ही न थी। दिशा भूल जाने पर हे देव! सूर्य का दोष नहीं है। मेरा दुर्भाग्य, माता की कुटिलता, विधाता की टेढ़ी चाल और काल की कठिनता,
पाउ रोपि सब मिलि मोहि घाला। प्रनतपाल पन आपन पाला॥
यह नइ रीति न राउरि होई। लोकहुँ बेद बिदित नहिं गोई॥
इन सबने मिलकर पैर रोपकर (प्रण करके) मुझे नष्ट कर दिया था। परंतु शरणागत के रक्षक आपने अपना (शरणागत की रक्षा का) प्रण निबाहा (मुझे बचा लिया)। यह आपकी कोई नई रीति नहीं है। यह लोक और वेदों में प्रकट है, छिपी नहीं है।
जगु अनभल भल एकु गोसाईं। कहिअ होइ भल कासु भलाईं॥
देउ देवतरु सरिस सुभाऊ। सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ॥
सारा जगत बुरा (करनेवाला) हो; किंतु हे स्वामी! केवल एक आप ही भले (अनुकूल) हों, तो फिर कहिए, किसकी भलाई से भला हो सकता है? हे देव! आपका स्वभाव कल्पवृक्ष के समान है; वह न कभी किसी के सम्मुख (अनुकूल) है, न विमुख (प्रतिकूल)।
दो० - जाइ निकट पहिचानि तरु छाहँ समनि सब सोच।
मागत अभिमत पाव जग राउ रंकु भल पोच॥ 267॥
उस वृक्ष (कल्पवृक्ष) को पहचानकर जो उसके पास जाए, तो उसकी छाया ही सारी चिंताओं का नाश करनेवाली है। राजा-रंक, भले-बुरे, जगत में सभी उससे माँगते ही मनचाही वस्तु पाते हैं॥ 267॥
लखि सब बिधि गुर स्वामि सनेहू। मिटेउ छोभु नहिं मन संदेहू॥
अब करुनाकर कीजिअ सोई। जन हित प्रभु चित छोभु न होई॥
गुरु और स्वामी का सब प्रकार से स्नेह देखकर मेरा क्षोभ मिट गया, मन में कुछ भी संदेह नहीं रहा। हे दया की खान! अब वही कीजिए जिससे दास के लिए प्रभु के चित्त में क्षोभ (किसी प्रकार का विचार) न हो।
जो सेवकु साहिबहि सँकोची। निज हित चहइ तासु मति पोची॥
सेवक हित साहिब सेवकाई। करै सकल सुख लोभ बिहाई॥
जो सेवक स्वामी को संकोच में डालकर अपना भला चाहता है, उसकी बुद्धि नीच है। सेवक का हित तो इसी में है कि वह समस्त सुखों और लोभों को छोड़कर स्वामी की सेवा ही करे।
स्वारथु नाथ फिरें सबही का। किएँ रजाइ कोटि बिधि नीका॥
यह स्वारथ परमारथ सारू। सकल सुकृत फल सुगति सिंगारू॥
हे नाथ! आपके लौटने में सभी का स्वार्थ है, और आपकी आज्ञा पालन करने में करोड़ों प्रकार से कल्याण है। यही स्वार्थ और परमार्थ का सार (निचोड़) है, समस्त पुण्यों का फल और संपूर्ण शुभ गतियों का श्रृंगार है।
देव एक बिनती सुनि मोरी। उचित होइ तस करब बहोरी॥
तिलक समाजु साजि सबु आना। करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना॥
हे देव! आप मेरी एक विनती सुनकर, फिर जैसा उचित हो वैसा ही कीजिए। राजतिलक की सब सामग्री सजाकर लाई गई है, जो प्रभु का मन माने तो उसे सफल कीजिए (उसका उपयोग कीजिए)।
दो० - सानुज पठइअ मोहि बन कीजिअ सबहि सनाथ।
नतरु फेरिअहिं बंधु दोउ नाथ चलौं मैं साथ॥ 268॥
छोटे भाई शत्रुघ्न समेत मुझे वन में भेज दीजिए और (अयोध्या लौटकर) सबको सनाथ कीजिए। नहीं तो किसी तरह भी (यदि आप अयोध्या जाने को तैयार न हों) हे नाथ! लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों भाइयों को लौटा दीजिए और मैं आपके साथ चलूँ॥ 268॥
नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई। बहुरिअ सीय सहित रघुराई॥
जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई। करुना सागर कीजिअ सोई॥
अथवा हम तीनों भाई वन चले जाएँ और हे रघुनाथ! आप सीता सहित (अयोध्या को) लौट जाइए। हे दयासागर! जिस प्रकार से प्रभु का मन प्रसन्न हो, वही कीजिए।
देवँ दीन्ह सबु मोहि अभारू। मोरें नीति न धरम बिचारू॥
कहउँ बचन सब स्वारथ हेतू। रहत न आरत कें चित चेतू॥
हे देव! आपने सारा भार (जिम्मेवारी) मुझ पर रख दिया। पर मुझमें न तो नीति का विचार है, न धर्म का। मैं तो अपने स्वार्थ के लिए सब बातें कह रहा हूँ। आर्त (दुःखी) मनुष्य के चित्त में चेत (विवेक) नहीं रहता।
उतरु देइ सुनि स्वामि रजाई। सो सेवकु लखि लाज लजाई॥
अस मैं अवगुन उदधि अगाधू। स्वामि सनेहँ सराहत साधू॥
स्वामी की आज्ञा सुनकर जो उत्तर दे, ऐसे सेवक को देखकर लज्जा भी लजा जाती है। मैं अवगुणों का ऐसा अथाह समुद्र हूँ (कि प्रभु को उत्तर दे रहा हूँ)। किंतु स्वामी (आप) स्नेह वश साधु कहकर मुझे सराहते हैं!
अब कृपाल मोहि सो मत भावा। सकुच स्वामि मन जाइँ न पावा॥
प्रभु पद सपथ कहउँ सति भाऊ। जग मंगल हित एक उपाऊ॥
हे कृपालु! अब तो वही मत मुझे भाता है, जिससे स्वामी का मन संकोच न पावे। प्रभु के चरणों की शपथ है, मैं सत्यभाव से कहता हूँ, जगत के कल्याण के लिए एक यही उपाय है।
दो० - प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देब।
सो सिर धरि धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब॥ 269॥
प्रसन्न मन से संकोच त्यागकर प्रभु जिसे जो आज्ञा देंगे, उसे सब लोग सिर चढ़ा-चढ़ाकर (पालन) करेंगे और सब उपद्रव और उलझनें मिट जाएँगी॥ 269॥
भरत बचन सुचि सुनि सुर हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे॥
असमंजस बस अवध नेवासी। प्रमुदित मन तापस बनबासी॥
भरत के पवित्र वचन सुनकर देवता हर्षित हुए और 'साधु-साधु' कहकर सराहना करते हुए देवताओं ने फूल बरसाए। अयोध्या निवासी असमंजस के वश हो गए (कि देखें अब राम क्या कहते हैं) तपस्वी तथा वनवासी लोग (राम के वन में बने रहने की आशा से) मन में परम आनंदित हुए।
चुपहिं रहे रघुनाथ सँकोची। प्रभु गति देखि सभा सब सोची॥
जनक दूत तेहि अवसर आए। मुनि बसिष्ठँ सुनि बेगि बोलाए॥
किंतु संकोची रघुनाथ चुप ही रह गए। प्रभु की यह स्थिति (मौन) देख सारी सभा सोच में पड़ गई। उसी समय जनक के दूत आए, यह सुनकर मुनि वशिष्ठ ने उन्हें तुरंत बुलवा लिया।
करि प्रनाम तिन्ह रामु निहारे। बेषु देखि भए निपट दुखारे॥
दूतन्ह मुनिबर बूझी बाता। कहहु बिदेह भूप कुसलाता॥
उन्होंने (आकर) प्रणाम करके राम को देखा। उनका (मुनियों का-सा) वेष देखकर वे बहुत ही दुःखी हुए। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठ ने दूतों से बात पूछी कि राजा जनक का कुशल समाचार कहो।
सुनि सकुचाइ नाइ महि माथा। बोले चरबर जोरें हाथा॥
बूझब राउर सादर साईं। कुसल हेतु सो भयउ गोसाईं॥
यह (मुनि का कुशल प्रश्न) सुनकर सकुचाकर पृथ्वी पर मस्तक नवाकर वे श्रेष्ठ दूत हाथ जोड़कर बोले - हे स्वामी! आपका आदर के साथ पूछना, यही हे गोसाईं! कुशल का कारण हो गया।
दो० - नाहिं त कोसलनाथ कें साथ कुसल गइ नाथ।
मिथिला अवध बिसेष तें जगु सब भयउ अनाथ॥ 270॥
नहीं तो हे नाथ! कुशल-क्षेम तो सब कोसलनाथ दशरथ के साथ ही चली गई। (उनके चले जाने से) यों तो सारा जगत ही अनाथ (स्वामी के बिना असहाय) हो गया, किंतु मिथिला और अवध तो विशेष रूप से अनाथ हो गये॥ 270॥
कोसलपति गति सुनि जनकौरा। भे सब लोक सोकबस बौरा॥
जेहिं देखे तेहि समय बिदेहू। नामु सत्य अस लाग न केहू॥
अयोध्यानाथ की गति (दशरथ का मरण) सुनकर जनकपुरवासीसभी लोग शोकवश बावले हो गए (सुध-बुध भूल गए)। उस समय जिन्होंने विदेह को (शोकमग्न) देखा, उनमें से किसी को ऐसा न लगा कि उनका विदेह (देहाभिमानरहित) नाम सत्य है! (क्योंकि देहाभिमान से शून्य पुरुष को शोक कैसा?)
रानि कुचालि सुनत नरपालहि। सूझ न कछु जस मनि बिनु ब्यालहि॥
भरत राज रघुबर बनबासू। भा मिथिलेसहि हृदयँ हराँसू॥
रानी की कुचाल सुनकर राजा जनक को कुछ सूझ न पड़ा, जैसे मणि के बिना साँप को नहीं सूझता। फिर भरत को राज्य और राम को वनवास सुनकर मिथिलेश्वर जनक के हृदय में बड़ा दुःख हुआ।
नृप बूझे बुध सचिव समाजू। कहहु बिचारि उचित का आजू॥
समुझि अवध असमंजस दोऊ। चलिअ कि रहिअ न कह कछु कोऊ॥
राजा ने विद्वानों और मंत्रियों के समाज से पूछा कि विचारकर कहिए, आज (इस समय) क्या करना उचित है? अयोध्या की दशा समझकर और दोनों प्रकार से असमंजस जानकर 'चलिए या रहिए?' किसी ने कुछ नहीं कहा।
नृपहिं धीर धरि हृदयँ बिचारी। पठए अवध चतुर चर चारी॥
बूझि भरत सति भाउ कुभाऊ। आएहु बेगि न होइ लखाऊ॥
(जब किसी ने कोई सम्मति नहीं दी) तब राजा ने धीरज धर हृदय में विचारकर चार चतुर गुप्तचर (जासूस) अयोध्या को भेजे (और उनसे कह दिया कि) तुम लोग (राम के प्रति) भरत के सद्भाव (अच्छे भाव, प्रेम) या दुर्भाव (बुरा भाव, विरोध) का (यथार्थ) पता लगाकर जल्दी लौट आना, किसी को तुम्हारा पता न लगने पाए।
दो० - गए अवध चर भरत गति बूझि देखि करतूति।
चले चित्रकूटहि भरतु चार चले तेरहूति॥ 271॥
गुप्तचर अवध को गए और भरत का ढंग जानकर और उनकी करनी देखकर, जैसे ही भरत चित्रकूट को चले, वे तिरहुत (मिथिला) को चल दिए॥ 271॥
दूतन्ह आइ भरत कइ करनी। जनक समाज जथामति बरनी॥
सुनि गुर परिजन सचिव महीपति। भे सब सोच सनेहँ बिकल अति॥
(गुप्त) दूतों ने आकर राजा जनक की सभा में भरत की करनी का अपनी बुद्धि के अनुसार वर्णन किया। उसे सुनकर गुरु, कुटुंबी, मंत्री और राजा सभी सोच और स्नेह से अत्यंत व्याकुल हो गए।
धरि धीरजु करि भरत बड़ाई। लिए सुभट साहनी बोलाई॥
घर पुर देस राखि रखवारे। हय गय रथ बहु जान सँवारे॥
फिर जनक ने धीरज धरकर और भरत की बड़ाई करके अच्छे योद्धाओं और साहनियों को बुलाया। घर, नगर और देश में रक्षकों को रखकर, घोड़े, हाथी, रथ आदि बहुत-सी सवारियाँ सजवाईं।
दुघरी साधि चले ततकाला। किए बिश्रामु न मग महिपाला॥
भोरहिं आजु नहाइ प्रयागा। चले जमुन उतरन सबु लागा॥
वे दुघड़िया मुहूर्त साधकर उसी समय चल पड़े। राजा ने रास्ते में कहीं विश्राम भी नहीं किया। आज ही सबेरे प्रयागराज में स्नान करके चले हैं। जब सब लोग यमुना उतरने लगे,
खबरि लेन हम पठए नाथा। तिन्ह कहि अस महि नायउ माथा॥
साथ किरात छ सातक दीन्हे। मुनिबर तुरत बिदा चर कीन्हे॥
तब हे नाथ! हमें खबर लेने को भेजा। उन्होंने (दूतों ने) ऐसा कहकर पृथ्वी पर सिर नवाया। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठ ने कोई छः-सात भीलों को साथ देकर दूतों को तुरंत विदा कर दिया।
दो० - सुनत जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु।
रघुनंदनहि सकोचु बड़ सोच बिबस सुरराजु॥ 272॥
जनक का आगमन सुनकर अयोध्या का सारा समाज हर्षित हो गया। राम को बड़ा संकोच हुआ और देवराज इंद्र तो विशेष रूप से सोच के वश में हो गए॥ 272॥
गरइ गलानि कुटिल कैकेई। काहि कहै केहि दूषनु देई॥
अस मन आनि मुदित नर नारी। भयउ बहोरि रहब दिन चारी॥
कुटिल कैकेयी मन-ही-मन ग्लानि (पश्चात्ताप) से गली जाती है। किससे कहे और किसको दोष दे? और सब नर-नारी मन में ऐसा विचार कर प्रसन्न हो रहे हैं कि (अच्छा हुआ, जनक के आने से) चार (कुछ) दिन और रहना हो गया।
एहि प्रकार गत बासर सोऊ। प्रात नहान लाग सबु कोऊ॥
करि मज्जनु पूजहिं नर नारी। गनप गौरि तिपुरारि तमारी॥
इस तरह वह दिन भी बीत गया। दूसरे दिन प्रातःकाल सब कोई स्नान करने लगे। स्नान करके सब नर-नारी गणेश, गौरी, महादेव और सूर्य भगवान की पूजा करते हैं।
रमा रमन पद बंदि बहोरी। बिनवहिं अंजुलि अंचल जोरी॥
राजा रामु जानकी रानी। आनँद अवधि अवध रजधानी॥
फिर लक्ष्मीपति भगवान विष्णु के चरणों की वंदना करके, दोनों हाथ जोड़कर, आँचल पसारकर विनती करते हैं कि राम राजा हों, जानकी रानी हों तथा राजधानी अयोध्या आनंद की सीमा होकर -
सुबस बसउ फिरि सहित समाजा। भरतहि रामु करहुँ जुबराजा॥
एहि सुख सुधाँ सींचि सब काहू। देव देहु जग जीवन लाहू॥
फिर समाज सहित सुखपूर्वक बसे और राम भरत को युवराज बनाएँ। हे देव! इस सुखरूपी अमृत से सींचकर सब किसी को जगत में जीने का लाभ दीजिए।
दो० - गुर समाज भाइन्ह सहित राम राजु पुर होउ।
अछत राम राजा अवध मरिअ माग सबु कोउ॥ 273॥
गुरु, समाज और भाइयों समेत राम का राज्य अवधपुरी में हो और राम के राजा रहते ही हम लोग अयोध्या में मरें। सब कोई यही माँगते हैं॥ 273॥
सुनि सनेहमय पुरजन बानी। निंदहिं जोग बिरति मुनि ग्यानी॥
एहि बिधि नित्यकरम करि पुरजन। रामहि करहिं प्रनाम पुलकि तन॥
अयोध्यावासियों की प्रेममयी वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि भी अपने योग और वैराग्य की निंदा करते हैं। अवधवासी इस प्रकार नित्यकर्म करके राम को पुलकित शरीर हो प्रणाम करते हैं।
ऊँच नीच मध्यम नर नारी। लहहिं दरसु निज निज अनुहारी॥
सावधान सबही सनमानहिं। सकल सराहत कृपानिधानहिं॥
ऊँच, नीच और मध्यम सभी श्रेणियों के स्त्री-पुरुष अपने-अपने भाव के अनुसार राम का दर्शन प्राप्त करते हैं। राम सावधानी के साथ सबका सम्मान करते हैं और सभी कृपानिधान राम की सराहना करते हैं।
लरिकाइहि तें रघुबर बानी। पालत नीति प्रीति पहिचानी॥
सील सकोच सिंधु रघुराऊ। सुमुख सुलोचन सरल सुभाऊ॥
राम की लड़कपन से ही यह बान है कि वे प्रेम को पहचानकर नीति का पालन करते हैं। रघुनाथ शील और संकोच के समुद्र हैं। वे सुंदर मुख के (या सबके अनुकूल रहनेवाले), सुंदर नेत्रवाले (या सबको कृपा और प्रेम की दृष्टि से देखनेवाले) और सरल स्वभाव हैं।
कहत राम गुन गन अनुरागे। सब निज भाग सराहन लागे॥
हम सम पुन्य पुंज जग थोरे। जिन्हहि रामु जानत करि मोरे॥
राम के गुणसमूहों को कहते-कहते सब लोग प्रेम में भर गए और अपने भाग्य की सराहना करने लगे कि जगत में हमारे समान पुण्य की बड़ी पूँजीवाले थोड़े ही हैं; जिन्हें राम अपना करके जानते हैं (ये मेरे हैं ऐसा जानते हैं)।
दो० - प्रेम मगन तेहि समय सब सुनि आवत मिथिलेसु।
सहित सभा संभ्रम उठेउ रबिकुल कमल दिनेसु॥ 274॥
उस समय सब लोग प्रेम में मग्न हैं। इतने में ही मिथिलापति जनक को आते हुए सुनकर सूर्यकुलरूपी कमल के सूर्य राम सभा सहित आदरपूर्वक जल्दी से उठ खड़े हुए॥ 274॥
भाइ सचिव गुर पुरजन साथा। आगें गवनु कीन्ह रघुनाथा॥
गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं। करि प्रनामु रथ त्यागेउ तबहीं॥
भाई, मंत्री, गुरु और पुरवासियों को साथ लेकर रघुनाथ आगे (जनक की अगवानी में) चले। जनक ने ज्यों ही पर्वत श्रेष्ठ कामदनाथ को देखा, त्यों ही प्रणाम करके उन्होंने रथ छोड़ दिया (पैदल चलना शुरू कर दिया।)
राम दरस लालसा उछाहू। पथ श्रम लेसु कलेसु न काहू॥
मन तहँ जहँ रघुबर बैदेही। बिनु मन तन दुख सुख सुधि केही॥
राम के दर्शन की लालसा और उत्साह के कारण किसी को रास्ते की थकावट और क्लेश जरा भी नहीं है। मन तो वहाँ है जहाँ राम और जानकी हैं। बिना मन के शरीर के सुख-दुःख की सुध किसको हो?
आवत जनकु चले एहि भाँती। सहित समाज प्रेम मति माती॥
आए निकट देखि अनुरागे। सादर मिलन परसपर लागे॥
जनक इस प्रकार चले आ रहे हैं। समाज सहित उनकी बुद्धि प्रेम में मतवाली हो रही है। निकट आए देखकर सब प्रेम में भर गए और आदरपूर्वक आपस में मिलने लगे।
लगे जनक मुनिजन पद बंदन। रिषिन्ह प्रनामु कीन्ह रघुनंदन॥
भाइन्ह सहित रामु मिलि राजहि। चले लवाइ समेत समाजहि॥
जनक (वशिष्ठ आदि अयोध्यावासी) मुनियों के चरणों की वंदना करने लगे और राम ने (शतानंद आदि जनकपुरवासी) ऋषियों को प्रणाम किया। फिर भाइयों समेत राम राजा जनक से मिलकर उन्हें समाज सहित अपने आश्रम को लिवा चले।
दो० - आश्रम सागर सांत रस पूरन पावन पाथु।
सेन मनहुँ करुना सरित लिएँ जाहिं रघुनाथु॥ 275॥
राम का आश्रम शांत रसरूपी पवित्र जल से परिपूर्ण समुद्र है। जनक की सेना (समाज) मानो करुणा (करुण रस) की नदी है, जिसे रघुनाथ (उस आश्रमरूपी शांत रस के समुद्र में मिलाने के लिए) लिए जा रहे हैं॥ 275॥
बोरति ग्यान बिराग करारे। बचन ससोक मिलत नद नारे॥
सोच उसास समीर तरंगा। धीरज तट तरुबर कर भंगा॥
यह करुणा की नदी (इतनी बढ़ी हुई है कि) ज्ञान-वैराग्यरूपी किनारों को डुबाती जाती है। शोक भरे वचन नद और नाले हैं, जो इस नदी में मिलते हैं; और सोच की लंबी साँसें (आहें) ही वायु के झकोरों से उठनेवाली तरंगें हैं, जो धैर्यरूपी किनारे के उत्तम वृक्षों को तोड़ रही हैं।
बिषम बिषाद तोरावति धारा। भय भ्रम भवँर अबर्त अपारा॥
केवट बुध बिद्या बड़ि नावा। सकहिं न खेइ ऐक नहिं आवा॥
भयानक विषाद (शोक) ही उस नदी की तेज धारा है। भय और भ्रम (मोह) ही उसके असंख्य भँवर और चक्र हैं। विद्वान मल्लाह हैं, विद्या ही बड़ी नाव है, परंतु वे उसे खे नहीं सकते हैं, (उस विद्या का उपयोग नहीं कर सकते हैं), किसी को उसकी अटकल ही नहीं आती है।
बनचर कोल किरात बिचारे। थके बिलोकि पथिक हियँ हारे॥
आश्रम उदधि मिली जब जाई। मनहुँ उठेउ अंबुधि अकुलाई॥
वन में विचरनेवाले बेचारे कोल-किरात ही यात्री हैं, जो उस नदी को देखकर हृदय में हारकर थक गए हैं। यह करुणा-नदी जब आश्रम-समुद्र में जाकर मिली, तो मानो वह समुद्र अकुला उठा (खौल उठा)।
सोक बिकल दोउ राज समाजा। रहा न ग्यानु न धीरजु लाजा॥
भूप रूप गुन सील सराही। रोवहिं सोक सिंधु अवगाही॥
दोनों राज समाज शोक से व्याकुल हो गए। किसी को न ज्ञान रहा, न धीरज और न लाज ही रही। राजा दशरथ के रूप, गुण और शील की सराहना करते हुए सब रो रहे हैं और शोक समुद्र में डुबकी लगा रहे हैं।
छं० - अवगाहि सोक समुद्र सोचहिं नारि नर ब्याकुल महा।
दै दोष सकल सरोष बोलहिं बाम बिधि कीन्हों कहा॥
सुर सिद्ध तापस जोगिजन मुनि देखि दसा बिदेह की।
तुलसी न समरथु कोउ जो तरि सकै सरित सनेह की॥
शोक समुद्र में डुबकी लगाते हुए सभी स्त्री-पुरुष महान व्याकुल होकर सोच (चिंता) कर रहे हैं। वे सब विधाता को दोष देते हुए क्रोधयुक्त होकर कह रहे हैं कि प्रतिकूल विधाता ने यह क्या किया? तुलसीदास कहते हैं कि देवता, सिद्ध, तपस्वी, योगी और मुनिगणों में कोई भी समर्थ नहीं है जो उस समय विदेह (जनकराज) की दशा देखकर प्रेम की नदी को पार कर सके (प्रेम में मग्न हुए बिना रह सके)।
सो० - किए अमित उपदेस जहँ तहँ लोगन्ह मुनिबरन्ह।
धीरजु धरिअ नरेस कहेउ बसिष्ठ बिदेह सन॥ 276॥
जहाँ-तहाँ श्रेष्ठ मुनियों ने लोगों को अपरिमित उपदेश दिए और वशिष्ठ ने विदेह (जनक) से कहा - हे राजन! आप धैर्य धारण कीजिए॥ 276॥
जासु ग्यान रबि भव निसि नासा। बचन किरन मुनि कमल बिकासा॥
तेहि कि मोह ममता निअराई। यह सिय राम सनेह बड़ाई॥
जिन राजा जनक का ज्ञानरूपी सूर्य भव (आवागमन) रूपी रात्रि का नाश कर देता है और जिनकी वचनरूपी किरणें मुनिरूपी कमलों को खिला देती हैं, (आनंदित करती हैं), क्या मोह और ममता उनके निकट भी आ सकते हैं? यह तो सीताराम के प्रेम की महिमा है! (अर्थात राजा जनक की यह दशा सीताराम के अलौकिक प्रेम के कारण हुई, लौकिक मोह-ममता के कारण नहीं। जो लौकिक मोह-ममता को पार कर चुके हैं उन पर भी सीताराम का प्रेम अपना प्रभाव दिखाए बिना नहीं रहता)।
बिषई साधक सिद्ध सयाने। त्रिबिध जीव जग बेद बखाने॥
राम सनेह सरस मन जासू। साधु सभाँ बड़ आदर तासू॥
विषयी, साधक और ज्ञानवान सिद्ध पुरुष - जगत में तीन प्रकार के जीव वेदों ने बताए हैं। इन तीनों में जिसका चित्त राम के स्नेह से सरस (सराबोर) रहता है, साधुओं की सभा में उसी का बड़ा आदर होता है।
सोह न राम प्रेम बिनु ग्यानू। करनधार बिनु जिमि जलजानू॥
मुनि बहुबिधि बिदेहु समुझाए। राम घाट सब लोग नहाए॥
राम के प्रेम के बिना ज्ञान शोभा नहीं देता, जैसे कर्णधार के बिना जहाज। वशिष्ठ ने विदेहराज (जनक) को बहुत प्रकार से समझाया। तदनंतर सब लोगों ने राम के घाट पर स्नान किया।
सकल सोक संकुल नर नारी। सो बासरु बीतेउ बिनु बारी॥
पसु खग मृगन्ह न कीन्ह अहारू। प्रिय परिजन कर कौन बिचारू॥
स्त्री-पुरुष सब शोक से पूर्ण थे। वह दिन बिना ही जल के बीत गया (भोजन की बात तो दूर रही, किसी ने जल तक नहीं पिया)। पशु-पक्षी और हिरनों तक ने कुछ आहार नहीं किया। तब प्रियजनों एवं कुटुंबियों का तो विचार ही क्या किया जाए?
दो० - दोउ समाज निमिराजु रघुराजु नहाने प्रात।
बैठे सब बट बिटप तर मन मलीन कृस गात॥ 277॥
निमिराज जनक और रघुराज राम तथा दोनों ओर के समाज ने दूसरे दिन सबेरे स्नान किया और सब बड़ के वृक्ष के नीचे जा बैठे। सबके मन उदास और शरीर दुबले हैं॥ 277॥
जे महिसुर दसरथ पुर बासी। जे मिथिलापति नगर निवासी॥
हंस बंस गुर जनक पुरोधा। जिन्ह जग मगु परमारथु सोधा॥
जो दशरथ की नगरी अयोध्या के रहनेवाले और जो मिथिलापति जनक के नगर जनकपुर के रहनेवाले ब्राह्मण थे, तथा सूर्यवंश के गुरु वशिष्ठ तथा जनक के पुरोहित शतानंद, जिन्होंने सांसारिक अभ्युदय का मार्ग तथा परमार्थ का मार्ग छान डाला था,
लगे कहन उपदेस अनेका। सहित धरम नय बिरति बिबेका॥
कौसिक कहि कहि कथा पुरानीं। समुझाई सब सभा सुबानीं॥
वे सब धर्म, नीति वैराग्य तथा विवेकयुक्त अनेकों उपदेश देने लगे। विश्वामित्र ने पुरानी कथाएँ (इतिहास) कह-कहकर सारी सभा को सुंदर वाणी से समझाया।
तब रघुनाथ कौसिकहि कहेऊ। नाथ कालि जल बिनु सुब रहेऊ॥
मुनि कह उचित कहत रघुराई। गयउ बीति दिन पहर अढ़ाई॥
तब रघुनाथ ने विश्वामित्र से कहा कि हे नाथ! कल सब लोग बिना जल पिए ही रह गए थे। (अब कुछ आहार करना चाहिए)। विश्वामित्र ने कहा कि रघुनाथ उचित ही कह रहे हैं। ढाई पहर दिन (आज भी) बीत गया।
रिषि रुख लखि कह तेरहुतिराजू। इहाँ उचित नहिं असन अनाजू॥
कहा भूप भल सबहि सोहाना। पाइ रजायसु चले नहाना॥
विश्वामित्र का रुख देखकर तिरहुत राज जनक ने कहा - यहाँ अन्न खाना उचित नहीं है। राजा का सुंदर कथन सबके मन को अच्छा लगा। सब आज्ञा पाकर नहाने चले।
दो० - तेहि अवसर फल फूल दल मूल अनेक प्रकार।
लइ आए बनचर बिपुल भरि भरि काँवरि भार॥ 278॥
उसी समय अनेकों प्रकार के बहुत-से फल, फूल, पत्ते, मूल आदि बहँगियों और बोझों में भर-भरकर वनवासी (कोल-किरात) लोग ले आए॥ 278॥
कामद भे गिरि राम प्रसादा। अवलोकत अपहरत बिषादा॥
सर सरिता बन भूमि बिभागा। जनु उमगत आनँद अनुरागा॥
राम की कृपा से सब पर्वत मनचाही वस्तु देनेवाले हो गए। वे देखने मात्र से ही दुःखों को सर्वथा हर लेते थे। वहाँ के तालाबों, नदियों, वन और पृथ्वी के सभी भागों में मानो आनंद और प्रेम उमड़ रहा है।
बेलि बिटप सब सफल सफूला। बोलत खग मृग अलि अनुकूला॥
तेहि अवसर बन अधिक उछाहू। त्रिबिध समीर सुखद सब काहू॥
बेलें और वृक्ष सभी फल और फूलों से युक्त हो गए। पक्षी, पशु और भौंरें अनुकूल बोलने लगे। उस अवसर पर वन में बहुत उत्साह (आनंद) था, सब किसी को सुख देनेवाली शीतल, मंद, सुगंध हवा चल रही थी।
जाइ न बरनि मनोहरताई। जनु महि करति जनक पहुनाई॥
तब सब लोग नहाइ नहाई। राम जनक मुनि आयसु पाई॥
देखि देखि तरुबर अनुरागे। जहँ तहँ पुरजन उतरन लागे॥
दल फल मूल कंद बिधि नाना। पावन सुंदर सुधा समाना॥
वन की मनोहरता वर्णन नहीं की जा सकती, मानो पृथ्वी जनक की पहुनाई कर रही है। तब जनकपुरवासी सब लोग नहा-नहाकर राम, जनक और मुनि की आज्ञा पाकर, सुंदर वृक्षों को देख-देखकर प्रेम में भरकर जहाँ-तहाँ उतरने लगे। पवित्र, सुंदर और अमृत के समान (स्वादिष्ट) अनेकों प्रकार के पत्ते, फल, मूल और कंद -
दो० - सादर सब कहँ रामगुर पठए भरि भरि भार।
पूजि पितर सुर अतिथि गुर लगे करन फरहार॥ 279॥
राम के गुरु वशिष्ठ ने सबके पास बोझे भर-भरकर आदरपूर्वक भेजे। तब वे पितर-देवता, अतिथि और गुरु की पूजा करके फलाहार करने लगे॥ 279॥
एहि बिधि बासर बीते चारी। रामु निरखि नर नारि सुखारी॥
दुहु समाज असि रुचि मन माहीं। बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं॥
इस प्रकार चार दिन बीत गए। राम को देखकर सभी नर-नारी सुखी हैं। दोनों समाजों के मन में ऐसी इच्छा है कि सीताराम के बिना लौटना अच्छा नहीं है।
सीता राम संग बनबासू। कोटि अमरपुर सरिस सुपासू॥
परिहरि लखन रामु बैदेही। जेहि घरु भाव बाम बिधि तेही॥
सीताराम के साथ वन में रहना करोड़ों देवलोकों के (निवास के) समान सुखदायक है। लक्ष्मण, राम और जानकी को छोड़कर जिसको घर अच्छा लगे, विधाता उसके विपरीत हैं।
दाहिन दइउ होइ जब सबही। राम समीप बसिअ बन तबही॥
मंदाकिनि मज्जनु तिहु काला। राम दरसु मुद मंगल माला॥
जब दैव सबके अनुकूल हो, तभी राम के पास वन में निवास हो सकता है। मंदाकिनी का तीनों समय स्नान और आनंद तथा मंगलों की माला (समूह) रूप राम का दर्शन,
अटनु राम गिरि बन तापस थल। असनु अमिअ सम कंद मूल फल॥
सुख समेत संबत दुइ साता। पल सम होहिं न जनिअहिं जाता॥
राम के पर्वत (कामदनाथ), वन और तपस्वियों के स्थानों में घूमना और अमृत के समान कंद, मूल, फलों का भोजन। चौदह वर्ष सुख के साथ पल के समान हो जाएँगे (बीत जाएँगे), जाते हुए जान ही न पड़ेंगे।
दो० - एहि सुख जोग न लोग सब कहहिं कहाँ अस भागु।
सहज सुभायँ समाज दुहु राम चरन अनुरागु॥ 280॥
सब लोग कह रहे हैं कि हम इस सुख के योग्य नहीं हैं, हमारे ऐसे भाग्य कहाँ? दोनों समाजों का राम के चरणों में सहज स्वभाव से ही प्रेम है॥ 280॥
एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। बचन सप्रेम सुनत मन हरहीं॥
सीय मातु तेहि समय पठाईं। दासीं देखि सुअवसरु आईं॥
इस प्रकार सब मनोरथ कर रहे हैं। उनके प्रेमयुक्त वचन सुनते ही (सुनने वालों के) मनों को हर लेते हैं। उसी समय सीता की माता सुनयना की भेजी हुई दासियाँ (कौसल्या आदि के मिलने का) सुंदर अवसर देखकर आईं।
सावकास सुनि सब सिय सासू। आयउ जनकराज रनिवासू॥
कौसल्याँ सादर सनमानी। आसन दिए समय सम आनी॥
उनसे यह सुनकर कि सीता की सब सासुएँ इस समय फुरसत में हैं, जनकराज का रनिवास उनसे मिलने आया। कौसल्या ने आदरपूर्वक उनका सम्मान किया और समयोचित आसन लाकर दिए।
सीलु सनेहु सकल दुहु ओरा। द्रवहिं देखि सुनि कुलिस कठोरा॥
पुलक सिथिल तन बारि बिलोचन। महि नख लिखन लगीं सब सोचन॥
दोनों ओर सबके शील और प्रेम को देखकर और सुनकर कठोर वज्र भी पिघल जाते हैं। शरीर पुलकित और शिथिल हैं और नेत्रों में (शोक और प्रेम के) आँसू हैं। सब अपने (पैरों के) नखों से जमीन कुरेदने और सोचने लगीं।
सब सिय राम प्रीति की सि मूरति। जनु करुना बहु बेष बिसूरति॥
सीय मातु कह बिधि बुधि बाँकी। जो पय फेनु फोर पबि टाँकी॥
सभी सीताराम के प्रेम की मूर्ति-सी हैं, मानो स्वयं करुणा ही बहुत-से वेष (रूप) धारण करके विसूर रही हो (दुःख कर रही हो)। सीता की माता सुनयना ने कहा - विधाता की बुद्धि बड़ी टेढ़ी है, जो दूध के फेन जैसी कोमल वस्तु को वज्र की टाँकी से फोड़ रहा है (अर्थात जो अत्यंत कोमल और निर्दोष हैं उन पर विपत्ति-पर-विपत्ति ढहा रहा है)।
दो० - सुनिअ सुधा देखि अहिं गरल सब करतूति कराल।
जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल॥ 281॥
अमृत केवल सुनने में आता है और विष जहाँ-तहाँ प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। विधाता की सभी करतूतें भयंकर हैं। जहाँ-तहाँ कौए, उल्लू और बगुले ही (दिखाई देते) हैं; हंस तो एक मानसरोवर में ही है॥ 281॥
सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा। बिधि गति बड़ि बिपरीत बिचित्रा॥
जो सृजि पालइ हरइ बहोरी। बालकेलि सम बिधि मति भोरी॥
यह सुनकर देवी सुमित्रा शोक के साथ कहने लगीं - विधाता की चाल बड़ी ही विपरीत और विचित्र है, जो सृष्टि को उत्पन्न करके पालता है और फिर नष्ट कर डालता है। विधाता की बुद्धि बालकों के खेल के समान भोली (विवेकशून्य) है।
कौसल्या कह दोसु न काहू। करम बिबस दुख सुख छति लाहू॥
कठिन करम गति जान बिधाता। जो सुभ असुभ सकल फल दाता॥
कौसल्या ने कहा - किसी का दोष नहीं है; दुःख-सुख, हानि-लाभ सब कर्म के अधीन हैं। कर्म की गति कठिन (दुर्विज्ञेय) है, उसे विधाता ही जानता है, जो शुभ और अशुभ सभी फलों का देनेवाला है।
ईस रजाइ सीस सबही कें। उतपति थिति लय बिषहु अमी कें॥
देबि मोह बस सोचिअ बादी। बिधि प्रपंचु अस अचल अनादी॥
ईश्वर की आज्ञा सभी के सिर पर है। उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और लय (संहार) तथा अमृत और विष के भी सिर पर है (ये सब भी उसी के अधीन हैं)। हे देवी! मोहवश सोच करना व्यर्थ है। विधाता का प्रपंच ऐसा ही अचल और अनादि है।
भूपति जिअब मरब उर आनी। सोचिअ सखि लखि निज हित हानी॥
सीय मातु कह सत्य सुबानी। सुकृती अवधि अवधपति रानी॥
महाराज के मरने और जीने की बात को हृदय में याद करके जो चिंता करती हैं, वह तो हे सखी! हम अपने ही हित की हानि देखकर (स्वार्थवश) करती हैं। सीता की माता ने कहा - आपका कथन उत्तम है और सत्य है। आप पुण्यात्माओं के सीमा रूप अवधपति (महाराज दशरथ) की ही तो रानी हैं। (फिर भला, ऐसा क्यों न कहेंगी।)
दो० - लखनु रामु सिय जाहुँ बन भल परिनाम न पोचु।
गहबरि हियँ कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु॥ 282॥
कौसल्या ने दुःख भरे हृदय से कहा - राम, लक्ष्मण और सीता वन में जाएँ, इसका परिणाम तो अच्छा ही होगा, बुरा नहीं। मुझे तो भरत की चिंता है॥ 282॥
ईस प्रसाद असीस तुम्हारी। सुत सुतबधू देवसरि बारी॥
राम सपथ मैं कीन्हि न काऊ। सो करि कहउँ सखी सति भाऊ॥
ईश्वर के अनुग्रह और आपके आशीर्वाद से मेरे (चारों) पुत्र और (चारों) बहुएँ गंगा के जल के समान पवित्र हैं। हे सखी! मैंने कभी राम की सौगंध नहीं की, सो आज राम की शपथ करके सत्य भाव से कहती हूँ -
भरत सील गुन बिनय बड़ाई। भायप भगति भरोस भलाई॥
कहत सारदहु कर मति हीचे। सागर सीप कि जाहिं उलीचे॥
भरत के शील, गुण, नम्रता, बड़प्पन, भाईपन, भक्ति, भरोसे और अच्छेपन का वर्णन करने में सरस्वती की बुद्धि भी हिचकती है। सीप से कहीं समुद्र उलीचे जा सकते हैं?
जानउँ सदा भरत कुलदीपा। बार बार मोहि कहेउ महीपा॥
कसें कनकु मनि पारिखि पाएँ। पुरुष परिखिअहिं समयँ सुभाएँ॥
मैं भरत को सदा कुल का दीपक जानती हूँ। महाराज ने भी बार-बार मुझे यही कहा था। सोना कसौटी पर कसे जाने पर और रत्न पारखी (जौहरी) के मिलने पर ही पहचाना जाता है। वैसे ही पुरुष की परीक्षा समय पड़ने पर उसके स्वभाव से ही (उसका चरित्र देखकर) हो जाती है।
अनुचित आजु कहब अस मोरा। सोक सनेहँ सयानप थोरा॥
सुनि सुरसरि सम पावनि बानी। भईं सनेह बिकल सब रानी॥
किंतु आज मेरा ऐसा कहना भी अनुचित है। शोक और स्नेह में सयानापन (विवेक) कम हो जाता है (लोग कहेंगे कि मैं स्नेहवश भरत की बड़ाई कर रही हूँ)। कौसल्या की गंगा के समान पवित्र करनेवाली वाणी सुनकर सब रानियाँ स्नेह के मारे विकल हो उठीं।
दो० - कौसल्या कह धीर धरि सुनहु देबि मिथिलेसि।
को बिबेकनिधि बल्लभहि तुम्हहि सकइ उपदेसि॥ 283॥
कौसल्या ने फिर धीरज धरकर कहा - हे देवी मिथिलेश्वरी! सुनिए, ज्ञान के भंडार जनक की प्रिया आपको कौन उपदेश दे सकता है?॥ 283॥
रानि राय सन अवसरु पाई। अपनी भाँति कहब समुझाई॥
रखिअहिं लखनु भरतु गवनहिं बन। जौं यह मत मानै महीप मन॥
हे रानी! मौका पाकर आप राजा को अपनी ओर से जहाँ तक हो सके समझाकर कहिएगा कि लक्ष्मण को घर रख लिया जाए और भरत वन को जाएँ। यदि यह राय राजा के मन में (ठीक) जँच जाए,
तौ भल जतनु करब सुबिचारी। मोरें सोचु भरत कर भारी॥
गूढ़ सनेह भरत मन माहीं। रहें नीक मोहि लागत नाहीं॥
तो भली-भाँति खूब विचारकर ऐसा यत्न करें। मुझे भरत का अत्यधिक सोच है। भरत के मन में गूढ़ प्रेम है। उनके घर रहने में मुझे भलाई नहीं जान पड़ती (यह डर लगता है कि उनके प्राणों को कोई भय न हो जाए)।
लखि सुभाउ सुनि सरल सुबानी। सब भइ मगन करुन रस रानी॥
नभ प्रसून झरि धन्य धन्य धुनि। सिथिल सनेहँ सिद्ध जोगी मुनि॥
कौसल्या का स्वभाव देखकर और उनकी सरल और उत्तम वाणी को सुनकर सब रानियाँ करुण रस में निमग्न हो गईं। आकाश से पुष्प वर्षा की झड़ी लग गई और धन्य-धन्य की ध्वनि होने लगी। सिद्ध, योगी और मुनि स्नेह से शिथिल हो गए।
सबु रनिवासु बिथकि लखि रहेऊ। तब धरि धीर सुमित्राँ कहेऊ॥
देबि दंड जुग जामिनि बीती। राम मातु सुनि उठी सप्रीती॥
सारा रनिवास देखकर चकित रह गया (निस्तब्ध हो गया), तब सुमित्रा ने धीरज करके कहा कि हे देवी! दो घड़ी रात बीत गई है। यह सुनकर राम की माता कौसल्या प्रेमपूर्वक उठीं -
दो० - बेगि पाउ धारिअ थलहि कह सनेहँ सतिभाय।
हमरें तौ अब ईस गति कै मिथिलेस सहाय॥ 284॥
और प्रेम सहित सद्भाव से बोलीं - अब आप शीघ्र डेरे को पधारिए। हमारे तो अब ईश्वर ही गति हैं, अथवा मिथिलेश्वर सहायक हैं॥ 284॥
लखि सनेह सुनि बचन बिनीता। जनकप्रिया गह पाय पुनीता॥
देबि उचित असि बिनय तुम्हारी। दसरथ घरिनि राम महतारी॥
कौसल्या के प्रेम को देखकर और उनके विनम्र वचनों को सुनकर जनक की प्रिय पत्नी ने उनके पवित्र चरण पकड़ लिए और कहा - हे देवी! आप राजा दशरथ की रानी और राम की माता हैं। आपकी ऐसी नम्रता उचित ही है।
प्रभु अपने नीचहु आदरहीं। अगिनि धूम गिरि सिर तिनु धरहीं॥
सेवकु राउ करम मन बानी। सदा सहाय महेसु भवानी॥
प्रभु अपने निज जनों का भी आदर करते हैं। अग्नि धुएँ को और पर्वत तृण (घास) को अपने सिर पर धारण करते हैं। हमारे राजा तो कर्म, मन और वाणी से आपके सेवक हैं और सदा सहायक तो महादेव-पार्वती हैं।
रउरे अंग जोगु जग को है। दीप सहाय की दिनकर सोहै॥
रामु जाइ बनु करि सुर काजू। अचल अवधपुर करिहहिं राजू॥
आपका सहायक होने योग्य जगत में कौन है? दीपक सूर्य की सहायता करने जाकर कहीं शोभा पा सकता है? राम वन में जाकर देवताओं का कार्य करके अवधपुरी में अचल राज्य करेंगे।
अमर नाग नर राम बाहुबल। सुख बसिहहिं अपनें अपनें थल॥
यह सब जागबलिक कहि राखा। देबि न होइ मुधा मुनि भाषा॥
देवता, नाग और मनुष्य सब राम की भुजाओं के बल पर अपने-अपने स्थानों (लोकों) में सुखपूर्वक बसेंगे। यह सब याज्ञवल्क्य मुनि ने पहले ही से कह रखा है। हे देवी! मुनि का कथन व्यर्थ (झूठा) नहीं हो सकता।
दो० - अस कहि पग परि प्रेम अति सिय हित बिनय सुनाइ।
सिय समेत सियमातु तब चली सुआयसु पाइ॥ 285॥
ऐसा कहकर बड़े प्रेम से पैरों पड़कर सीता (को साथ भेजने) के लिए विनती करके और सुंदर आज्ञा पाकर तब सीता समेत सीता की माता डेरे को चलीं॥ 285॥
प्रिय परिजनहि मिली बैदेही। जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही॥
तापस बेष जानकी देखी। भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी॥
जानकी अपने प्यारे कुटुंबियों से - जो जिस योग्य था, उससे उसी प्रकार मिलीं। जानकी को तपस्विनी के वेष में देखकर सभी शोक से अत्यंत व्याकुल हो गए।
जनक राम गुर आयसु पाई। चले थलहि सिय देखी आई॥
लीन्हि लाइ उर जनक जानकी। पाहुनि पावन प्रेम प्रान की॥
जनक राम के गुरु वशिष्ठ की आज्ञा पाकर डेरे को चले और आकर उन्होंने सीता को देखा। जनक ने अपने पवित्र प्रेम और प्राणों की पाहुनी जानकी को हृदय से लगा लिया।
उर उमगेउ अंबुधि अनुरागू। भयउ भूप मनु मनहुँ पयागू॥
सिय सनेह बटु बाढ़त जोहा। ता पर राम प्रेम सिसु सोहा॥
उनके हृदय में (वात्सल्य) प्रेम का समुद्र उमड़ पड़ा। राजा का मन मानो प्रयाग हो गया। उस समुद्र के अंदर उन्होंने (आदि शक्ति) सीता के (अलौकिक) स्नेहरूपी अक्षयवट को बढ़ते हुए देखा। उस (सीता के प्रेमरूपी वट) पर राम का प्रेमरूपी बालक (बाल रूप धारी भगवान) सुशोभित हो रहा है।
चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु। बूड़त लहेउ बाल अवलंबनु॥
मोह मगन मति नहिं बिदेह की। महिमा सिय रघुबर सनेह की॥
जनक का ज्ञानरूपी चिरंजीवी (मार्कण्डेय) मुनि व्याकुल होकर डूबते-डूबते मानो उस राम प्रेमरूपी बालक का सहारा पाकर बच गया। वस्तुतः (ज्ञानिशिरोमणि) विदेहराज की बुद्धि मोह में मग्न नहीं है। यह तो सीताराम के प्रेम की महिमा है (जिसने उन जैसे महान ज्ञानी के ज्ञान को भी विकल कर दिया)।
दो० - सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि।
धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समउ सुधरमु बिचारि॥ 286॥
पिता-माता के प्रेम के मारे सीता ऐसी विकल हो गईं कि अपने को सँभाल न सकीं। (परंतु परम धैर्यवती) पृथ्वी की कन्या सीता ने समय और सुंदर धर्म का विचार कर धैर्य धारण किया॥ 286॥
तापस बेष जनक सिय देखी। भयउ प्रेमु परितोषु बिसेषी॥
पुत्रि पबित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ॥
सीता को तपस्विनी वेष में देखकर जनक को विशेष प्रेम और संतोष हुआ। (उन्होंने कहा -) बेटी! तूने दोनों कुल पवित्र कर दिए। तेरे निर्मल यश से सारा जगत उज्ज्वल हो रहा है, ऐसा सब कोई कहते हैं।
जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी। गवनु कीन्ह बिधि अंड करोरी॥
गंग अवनि थल तीनि बड़ेरे। एहिं किए साधु समाज घनेरे॥
तेरी कीर्तिरूपी नदी देवनदी गंगा को भी जीतकर (जो एक ही ब्रह्मांड में बहती है) करोड़ों ब्रह्मांडों में बह चली है। गंगा ने तो पृथ्वी पर तीन ही स्थानों (हरिद्वार, प्रयागराज और गंगासागर) को बड़ा (तीर्थ) बनाया है। पर तेरी इस कीर्ति नदी ने तो अनेकों संत समाजरूपी तीर्थ स्थान बना दिए हैं।
पितु कह सत्य सनेहँ सुबानी। सीय सकुच महुँ मनहुँ समानी॥
पुनि पितु मातु लीन्हि उर लाई। सिख आसिष हित दीन्हि सुहाई॥
पिता जनक ने तो स्नेह से सच्ची सुंदर वाणी कही। परंतु अपनी बड़ाई सुनकर सीता मानो संकोच में समा गईं। पिता-माता ने उन्हें फिर हृदय से लगा लिया और हितभरी सुंदर सीख और आशीष दी।
कहति न सीय सकुचि मन माहीं। इहाँ बसब रजनीं भल नाहीं॥
लखि रुख रानि जनायउ राऊ। हृदयँ सराहत सीलु सुभाऊ॥
सीता कुछ कहती नहीं हैं, परंतु सकुचा रही हैं कि रात में (सासुओं की सेवा छोड़कर) यहाँ रहना अच्छा नहीं है। रानी सुनयना ने जानकी का रुख देखकर (उनके मन की बात समझकर) राजा जनक को जना दिया। तब दोनों अपने हृदयों में सीता के शील और स्वभाव की सराहना करने लगे।
दो० - बार बार मिलि भेंटि सिय बिदा कीन्हि सनमानि।
कही समय सिर भरत गति रानि सुबानि सयानि॥ 287॥
राजा-रानी ने बार-बार मिलकर और हृदय से लगाकर तथा सम्मान करके सीता को विदा किया। चतुर रानी ने समय पाकर राजा से सुंदर वाणी में भरत की दशा का वर्णन किया॥ 287॥
सुनि भूपाल भरत ब्यवहारू। सोन सुगंध सुधा ससि सारू॥
मूदे सजल नयन पुलके तन। सुजसु सराहन लगे मुदित मन॥
सोने में सुगंध और (समुद्र से निकली हुई) सुधा में चंद्रमा के सार अमृत के समान भरत का व्यवहार सुनकर राजा ने (प्रेम विह्वल होकर) अपने (प्रेमाश्रुओं के) जल से भरे नेत्रों को मूँद लिया (वे भरत के प्रेम में मानो ध्यानस्थ हो गए)। वे शरीर से पुलकित हो गए और मन में आनंदित होकर भरत के सुंदर यश की सराहना करने लगे।
सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनि। भरत कथा भव बंध बिमोचनि॥
धरम राजनय ब्रह्मबिचारू। इहाँ जथामति मोर प्रचारू॥
(वे बोले -) हे सुमुखि! हे सुनयनी! सावधान होकर सुनो। भरत की कथा संसार के बंधन से छुड़ानेवाली है। धर्म, राजनीति और ब्रह्मविचार - इन तीनों विषयों में अपनी बुद्धि के अनुसार मेरी (थोड़ी-बहुत) गति है (अर्थात इनके संबंध में मैं कुछ जानता हूँ)।
सो मति मोरि भरत महिमाही। कहै काह छलि छुअति न छाँही॥
बिधि गनपति अहिपति सिव सारद। कबि कोबिद बुध बुद्धि बिसारद॥
वह (धर्म, राजनीति और ब्रह्मज्ञान में प्रवेश रखनेवाली) मेरी बुद्धि भरत की महिमा का वर्णन तो क्या करे, छल करके भी उसकी छाया तक को नहीं छू पाती! ब्रह्मा, गणेश, शेष, महादेव, सरस्वती, कवि, ज्ञानी, पंडित और बुद्धिमान -
भरत चरित कीरति करतूती। धरम सील गुन बिमल बिभूती॥
समुझत सुनत सुखद सब काहू। सुचि सुरसरि रुचि निदर सुधाहू॥
सब किसी को भरत के चरित्र, कीर्ति, करनी, धर्म, शील, गुण और निर्मल ऐश्वर्य समझने में और सुनने में सुख देनेवाले हैं और पवित्रता में गंगा का तथा स्वाद (मधुरता) में अमृत का भी तिरस्कार करनेवाले हैं।
दो० - निरवधि गुन निरुपम पुरुषु भरतु भरत सम जानि।
कहिअ सुमेरु कि सेर सम कबिकुल मति सकुचानि॥ 288॥
भरत असीम गुण संपन्न और उपमारहित पुरुष हैं। भरत के समान बस, भरत ही हैं, ऐसा जानो। सुमेरु पर्वत को क्या सेर के बराबर कह सकते हैं? इसलिए (उन्हें किसी पुरुष के साथ उपमा देने में) कवि समाज की बुद्धि भी सकुचा गई!॥ 288॥
अगम सबहि बरनत बरबरनी। जिमि जलहीन मीन गमु धरनी॥
भरत अमित महिमा सुनु रानी। जानहिं रामु न सकहिं बखानी॥
हे श्रेष्ठ वर्णवाली! भरत की महिमा का वर्णन करना सभी के लिए वैसे ही अगम है जैसे जलरहित पृथ्वी पर मछली का चलना। हे रानी! सुनो, भरत की अपरिमित महिमा को एक राम ही जानते हैं, किंतु वे भी उसका वर्णन नहीं कर सकते।
बरनि सप्रेम भरत अनुभाऊ। तिय जिय की रुचि लखि कह राऊ॥
बहुरहिं लखनु भरतु बन जाहीं। सब कर भल सब के मन माहीं॥
इस प्रकार प्रेमपूर्वक भरत के प्रभाव का वर्णन करके, फिर पत्नी के मन की रुचि जानकर राजा ने कहा - लक्ष्मण लौट जाएँ और भरत वन को जाएँ, इसमें सभी का भला है और यही सबके मन में है।
देबि परंतु भरत रघुबर की। प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी॥
भरतु अवधि सनेह ममता की। जद्यपि रामु सीम समता की॥
परंतु हे देवी! भरत और राम का प्रेम और एक-दूसरे पर विश्वास, बुद्धि और विचार की सीमा में नहीं आ सकता। यद्यपि राम समता की सीमा हैं, तथापि भरत प्रेम और ममता की सीमा हैं।
परमारथ स्वारथ सुख सारे। भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे॥
साधन सिद्धि राम पग नेहू। मोहि लखि परत भरत मत एहू॥
(राम के प्रति अनन्य प्रेम को छोड़कर) भरत ने समस्त परमार्थ, स्वार्थ और सुखों की ओर स्वप्न में भी मन से भी नहीं ताका है। राम के चरणों का प्रेम ही उनका साधन है और वही सिद्धि है। मुझे तो भरत का बस, यही एक मात्र सिद्धांत जान पड़ता है।
दो० - भोरेहुँ भरत न पेलिहहिं मनसहुँ राम रजाइ।
करिअ न सोचु सनेह बस कहेउ भूप बिलखाइ॥ 289॥
राजा ने बिलखकर (प्रेम से गद्गद होकर) कहा - भरत भूलकर भी राम की आज्ञा को मन से भी नहीं टालेंगे। अतः स्नेह के वश होकर चिंता नहीं करनी चाहिए॥ 289॥
राम भरत गुन गनत सप्रीती। निसि दंपतिहि पलक सम बीती॥
राज समाज प्रात जुग जागे। न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे॥
राम और भरत के गुणों की प्रेमपूर्वक गणना करते (कहते-सुनते) पति-पत्नी को रात पलक के समान बीत गई। प्रातःकाल दोनों राजसमाज जागे और नहा-नहाकर देवताओं की पूजा करने लगे।
गे नहाइ गुर पहिं रघुराई। बंदि चरन बोले रुख पाई॥
नाथ भरतु पुरजन महतारी। सोक बिकल बनबास दुखारी॥
रघुनाथ स्नान करके गुरु वशिष्ठ के पास गए और चरणों की वंदना करके उनका रुख पाकर बोले - हे नाथ! भरत, अवधपुरवासी तथा माताएँ, सब शोक से व्याकुल और वनवास से दुःखी हैं।
सहित समाज राउ मिथिलेसू। बहुत दिवस भए सहत कलेसू॥
उचित होइ सोइ कीजिअ नाथा। हित सबही कर रौरें हाथा॥
मिथिलापति राजा जनक को भी समाज सहित क्लेश सहते बहुत दिन हो गए। इसलिए हे नाथ! जो उचित हो वही कीजिए। आप ही के हाथ सभी का हित है।
अस कहि अति सकुचे रघुराऊ। मुनि पुल के लखि सीलु सुभाऊ॥
तुम्ह बिनु राम सकल सुख साजा। नरक सरिस दुहु राज समाजा॥
ऐसा कहकर रघुनाथ अत्यंत ही सकुचा गए। उनका शील-स्वभाव देखकर (प्रेम और आनंद से) मुनि वशिष्ठ पुलकित हो गए। (उन्होंने खुलकर कहा -) हे राम! तुम्हारे बिना (घर-बार आदि) संपूर्ण सुखों के साज दोनों राजसमाजों को नरक के समान हैं।
दो० - प्रान-प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम।
तुम्ह तजि तात सोहात गृह जिन्हहि तिन्हहि बिधि बाम॥ 290॥
हे राम! तुम प्राणों के भी प्राण, आत्मा के भी आत्मा और सुख के भी सुख हो। हे तात! तुम्हें छोड़कर जिन्हें घर सुहाता है, उन्हे विधाता विपरीत है॥ 290॥
सो सुखु करमु धरमु जरि जाऊ। जहँ न राम पद पंकज भाऊ॥
जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू। जहँ नहिं राम प्रेम परधानू॥
जहाँ राम के चरण कमलों में प्रेम नहीं है, वह सुख, कर्म और धर्म जल जाए। जिसमें राम प्रेम की प्रधानता नहीं है, वह योग कुयोग है और वह ज्ञान अज्ञान है।
तुम्ह बिनु दुखी सुखी तुम्ह तेहीं। तुम्ह जानहु जिय जो जेहि केहीं॥
राउर आयसु सिर सबही कें। बिदित कृपालहि गति सब नीकें॥
तुम्हारे बिना ही सब दुःखी हैं और जो सुखी हैं वे तुम्हीं से सुखी हैं। जिस किसी के जी में जो कुछ है तुम सब जानते हो। आपकी आज्ञा सभी के सिर पर है। कृपालु (आप) को सभी की स्थिति अच्छी तरह मालूम है।
आपु आश्रमहि धारिअ पाऊ। भयउ सनेह सिथिल मुनिराऊ॥
करि प्रनामु तब रामु सिधाए। रिषि धरि धीर जनक पहिं आए॥
अतः आप आश्रम को पधारिए। इतना कह मुनिराज स्नेह से शिथिल हो गए। तब राम प्रणाम करके चले गए और ऋषि वशिष्ठ धीरज धरकर जनक के पास आए।
राम बचन गुरु नृपहि सुनाए। सील सनेह सुभायँ सुहाए॥
महाराज अब कीजिअ सोई। सब कर धरम सहित हित होई॥
गुरु ने राम के शील और स्नेह से युक्त स्वभाव से ही सुंदर वचन राजा जनक को सुनाए (और कहा -) हे महाराज! अब वही कीजिए जिसमें सबका धर्म सहित हित हो।
दो० - ग्यान निधान सुजान सुचि धरम धीर नरपाल।
तुम्ह बिनु असमंजस समन को समरथ एहि काल॥ 291॥
हे राजन! तुम ज्ञान के भंडार, सुजान, पवित्र और धर्म में धीर हो। इस समय तुम्हारे बिना इस दुविधा को दूर करने में और कौन समर्थ है?॥ 291॥
सुनि मुनि बचन जनक अनुरागे। लखि गति ग्यानु बिरागु बिरागे॥
सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं। आए इहाँ कीन्ह भल नाहीं॥
मुनि वशिष्ठ के वचन सुनकर जनक प्रेम में मग्न हो गए। उनकी दशा देखकर ज्ञान और वैराग्य को भी वैराग्य हो गया (अर्थात उनके ज्ञान-वैराग्य छूट-से गए)। वे प्रेम से शिथिल हो गए और मन में विचार करने लगे कि हम यहाँ आए, यह अच्छा नहीं किया।
रामहि रायँ कहेउ बन जाना। कीन्ह आपु प्रिय प्रेम प्रवाना॥
हम अब बन तें बनहि पठाई। प्रमुदित फिरब बिबेक बड़ाई॥
राजा दशरथ ने राम को वन जाने के लिए कहा और स्वयं अपने प्रिय के प्रेम को प्रमाणित (सच्चा) कर दिया (प्रिय वियोग में प्राण त्याग दिए)। परंतु हम अब इन्हें वन से (और गहन) वन को भेजकर अपने विवेक की बड़ाई में आनंदित होते हुए लौटेंगे (कि हमें जरा भी मोह नहीं है; हम राम को वन में छोड़कर चले आए, दशरथ की तरह मरे नहीं!)।
तापस मुनि महिसुर सुनि देखी। भए प्रेम बस बिकल बिसेषी॥
समउ समुझि धरि धीरजु राजा। चले भरत पहिं सहित समाजा॥
तपस्वी, मुनि और ब्राह्मण यह सब सुन और देखकर प्रेमवश बहुत ही व्याकुल हो गए। समय का विचार करके राजा जनक धीरज धरकर समाज सहित भरत के पास चले।
भरत आइ आगें भइ लीन्हे। अवसर सरिस सुआसन दीन्हे॥
तात भरत कह तेरहुति राऊ। तुम्हहि बिदित रघुबीर सुभाऊ॥
भरत ने आकर उन्हें आगे होकर लिया (सामने आकर उनका स्वागत किया) और समयानुकूल अच्छे आसन दिए। तिरहुतराज जनक कहने लगे - हे तात भरत! तुमको राम का स्वभाव मालूम ही है।
दो० - राम सत्यब्रत धरम रत सब कर सीलु स्नेहु।
संकट सहत सकोच बस कहिअ जो आयसु देहु॥ 292॥
राम सत्यव्रती और धर्मपरायण हैं, सबका शील और स्नेह रखनेवाले हैं। इसीलिए वे संकोचवश संकट सह रहे हैं; अब तुम जो आज्ञा दो, वह उनसे कही जाए॥ 292॥
सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी। बोले भरतु धीर धरि भारी॥
प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू। कुलगुरु सम हित माय न बापू॥
भरत यह सुनकर पुलकित शरीर हो नेत्रों में जल भरकर बड़ा भारी धीरज धरकर बोले - हे प्रभो! आप हमारे पिता के समान प्रिय और पूज्य हैं और कुल गुरु वशिष्ठ के समान हितैषी तो माता-पिता भी नहीं है।
कौसिकादि मुनि सचिव समाजू। ग्यान अंबुनिधि आपुनु आजू॥
सिसु सेवकु आयसु अनुगामी। जानि मोहि सिख देइअ स्वामी॥
विश्वामित्र आदि मुनियों और मंत्रियों का समाज है। और आज के दिन ज्ञान के समुद्र आप भी उपस्थित हैं। हे स्वामी! मुझे अपना बच्चा, सेवक और आज्ञानुसार चलनेवाला समझकर शिक्षा दीजिए।
एहिं समाज थल बूझब राउर। मौन मलिन मैं बोलब बाउर॥
छोटे बदन कहउँ बड़ि बाता। छमब तात लखि बाम बिधाता॥
इस समाज और (पुण्य) स्थल में आप (जैसे ज्ञानी और पूज्य) का पूछना! इस पर यदि मैं मौन रहता हूँ तो मलिन समझा जाऊँगा; और बोलना पागलपन होगा तथापि मैं छोटे मुँह बड़ी बात कहता हूँ। हे तात! विधाता को प्रतिकूल जानकर क्षमा कीजिएगा।
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। सेवाधरमु कठिन जगु जाना॥
स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू। बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू॥
वेद, शास्त्र और पुराणों में प्रसिद्ध है और जगत जानता है कि सेवा धर्म बड़ा कठिन है। स्वामी धर्म में (स्वामी के प्रति कर्तव्य पालन में) और स्वार्थ में विरोध है (दोनों एक साथ नहीं निभ सकते) वैर अंधा होता है और प्रेम को ज्ञान नहीं रहता (मैं स्वार्थवश कहूँगा या प्रेमवश, दोनों में ही भूल होने का भय है)।
दो० - राखि राम रुख धरमु ब्रतु पराधीन मोहि जानि।
सब कें संमत सर्ब हित करिअ प्रेमु पहिचानि॥ 293॥
अतएव मुझे पराधीन जानकर (मुझसे न पूछकर) राम के रुख (रुचि), धर्म और (सत्य के) व्रत को रखते हुए, जो सबके सम्मत और सबके लिए हितकारी हो आप सबका प्रेम पहचानकर वही कीजिए॥ 293॥
भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ। सहित समाज सराहत राऊ॥
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथु अमित अति आखर थोरे॥
भरत के वचन सुनकर और उनका स्वभाव देखकर समाज सहित राजा जनक उनकी सराहना करने लगे। भरत के वचन सुगम और अगम, सुंदर, कोमल और कठोर हैं। उनमें अक्षर थोड़े हैं, परंतु अर्थ अत्यंत अपार भरा हुआ है।
ज्यों मुखु मुकुर मुकुरु निज पानी। गहि न जाइ अस अदभुत बानी॥
भूप भरतू मुनि सहित समाजू। गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू॥
जैसे मुख (का प्रतिबिंब) दर्पण में दिखता है और दर्पण अपने हाथ में है, फिर भी वह (मुख का प्रतिबिंब) पकड़ा नहीं जाता, इसी प्रकार भरत की यह अद्भुत वाणी भी पकड़ में नहीं आती (शब्दों से उसका आशय समझ में नहीं आता)। (किसी से कुछ उत्तर देते नहीं बना) तब राजा जनक, भरत तथा मुनि वशिष्ठ समाज के साथ वहाँ गए, जहाँ देवतारूपी कुमुदों को खिलानेवाले (सुख देनेवाले) चंद्रमा राम थे।
सुनि सुधि सोच बिकल सब लोगा। मनहुँ मीनगन नव जल जोगा॥
देवँ प्रथम कुलगुर गति देखी। निरखि बिदेह सनेह बिसेषी॥
यह समाचार सुनकर सब लोग सोच से व्याकुल हो गए, जैसे नए (पहली वर्षा के) जल के संयोग से मछलियाँ व्याकुल होती हैं। देवताओं ने पहले कुलगुरु वशिष्ठ की (प्रेमविह्वल) दशा देखी, फिर विदेह के विशेष स्नेह को देखा,
राम भगतिमय भरतु निहारे। सुर स्वारथी हहरि हियँ हारे॥
सब कोउ राम प्रेममय पेखा। भए अलेख सोच बस लेखा॥
और तब रामभक्ति से ओतप्रोत भरत को देखा। इन सबको देखकर स्वार्थी देवता घबड़ाकर हृदय में हार मान गए (निराश हो गए)। उन्होंने सब किसी को राम प्रेम में सराबोर देखा। इससे देवता इतने सोच के वश हो गए कि जिसका कोई हिसाब नहीं।
दो० - रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराजु।
रचहु प्रपंचहि पंच मिलि नाहिं त भयउ अकाजु॥ 294॥
देवराज इंद्र सोच में भरकर कहने लगे कि राम तो स्नेह और संकोच के वश में हैं। इसलिए सब लोग मिलकर कुछ प्रपंच (माया) रचो; नहीं तो काम बिगड़ा (ही समझो)॥ 294॥
सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही। देबि देव सरनागत पाही॥
फेरि भरत मति करि निज माया। पालु बिबुध कुल करि छल छाया॥
देवताओं ने सरस्वती का स्मरण कर उनकी सराहना (स्तुति) की और कहा - हे देवी! देवता आपके शरणागत हैं, उनकी रक्षा कीजिए। अपनी माया रचकर भरत की बुद्धि को फेर दीजिए और छल की छाया कर देवताओं के कुल का पालन (रक्षा) कीजिए।
बिबुध बिनय सुनि देबि सयानी। बोली सुर स्वारथ जड़ जानी॥
मो सन कहहु भरत मति फेरू। लोचन सहस न सूझ सुमेरू॥
देवताओं की विनती सुनकर और देवताओं को स्वार्थ के वश होने से मूर्ख जानकर बुद्धिमती सरस्वती बोलीं - मुझसे कह रहे हो कि भरत की मति पलट दो! हजार नेत्रों से भी तुमको सुमेरु नहीं सूझ पड़ता!
बिधि हरि हर माया बड़ि भारी। सोउ न भरत मति सकइ निहारी॥
सो मति मोहि कहत करु भोरी। चंदिनि कर कि चंडकर चोरी॥
ब्रह्मा, विष्णु और महेश की माया बड़ी प्रबल है! किंतु वह भी भरत की बुद्धि की ओर ताक नहीं सकती। उस बुद्धि को, तुम मुझसे कह रहे हो कि, भोली कर दो (भुलावे में डाल दो)! अरे! चाँदनी कहीं प्रचंड किरणवाले सूर्य को चुरा सकती है?
भरत हृदयँ सिय राम निवासू। तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू॥
अस कहि सारद गइ बिधि लोका। बिबुध बिकल निसि मानहुँ कोका॥
भरत के हृदय में सीताराम का निवास है। जहाँ सूर्य का प्रकाश है, वहाँ कहीं अँधेरा रह सकता है? ऐसा कहकर सरस्वती ब्रह्मलोक को चली गईं। देवता ऐसे व्याकुल हुए जैसे रात्रि में चकवा व्याकुल होता है।
दो० - सुर स्वारथी मलीन मन कीन्ह कुमंत्र कुठाटु।
रचि प्रपंच माया प्रबल भय भ्रम अरति उचाटु॥ 295॥
मलिन मनवाले स्वार्थी देवताओं ने बुरी सलाह करके बुरा ठाट (षड्यंत्र) रचा। प्रबल माया-जाल रचकर भय, भ्रम, अप्रीति और उच्चाटन फैला दिया॥ 295॥
करि कुचालि सोचत सुरराजू। भरत हाथ सबु काजु अकाजू॥
गए जनकु रघुनाथ समीपा। सनमाने सब रबिकुल दीपा॥
कुचाल करके देवराज इंद्र सोचने लगे कि काम का बनना-बिगड़ना सब भरत के हाथ है। इधर राजा जनक (मुनि वशिष्ठ आदि के साथ) रघुनाथ के पास गए। सूर्यकुल के दीपक राम ने सबका सम्मान किया,
समय समाज धरम अबिरोधा। बोले तब रघुबंस पुरोधा॥
जनक भरत संबादु सुनाई। भरत कहाउति कही सुहाई॥
तब रघुकुल के पुरोहित वशिष्ठ समय, समाज और धर्म के अविरोधी (अर्थात अनुकूल) वचन बोले। उन्होंने पहले जनक और भरत का संवाद सुनाया। फिर भरत की कही हुई सुंदर बातें कह सुनाईं।
तात राम जस आयसु देहू। सो सबु करै मोर मत एहू॥
सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी। बोले सत्य सरल मृदु बानी॥
(फिर बोले -) हे तात राम! मेरा मत तो यह है कि तुम जैसी आज्ञा दो, वैसा ही सब करें! यह सुनकर दोनों हाथ जोड़कर रघुनाथ सत्य, सरल और कोमल वाणी बोले -
बिद्यमान आपुनि मिथिलेसू। मोर कहब सब भाँति भदेसू॥
राउर राय रजायसु होई। राउरि सपथ सही सिर सोई॥
आपके और मिथिलेश्वर जनक के विद्यमान रहते मेरा कुछ कहना सब प्रकार से भद्दा (अनुचित) है। आपकी और महाराज की जो आज्ञा होगी, मैं आपकी शपथ करके कहता हूँ वह सत्य ही सबको शिरोधार्य होगी।
दो० - राम सपथ सुनि मुनि जनकु सकुचे सभा समेत।
सकल बिलोकत भरत मुखु बनइ न ऊतरु देत॥ 296॥
राम की शपथ सुनकर सभा समेत मुनि और जनक सकुचा गए (स्तंभित रह गए)। किसी से उत्तर देते नहीं बनता, सब लोग भरत का मुँह ताक रहे हैं॥ 296॥
सभा सकुच बस भरत निहारी। राम बंधु धरि धीरजु भारी॥
कुसमउ देखि सनेहु सँभारा। बढ़त बिंधि जिमि घटज निवारा॥
भरत ने सभा को संकोच के वश देखा। रामबंधु (भरत) ने बड़ा भारी धीरज धरकर और कुसमय देखकर अपने (उमड़ते हुए) प्रेम को सँभाला, जैसे बढ़ते हुए विंध्याचल को अगस्त्य ने रोका था।
सोक कनकलोचन मति छोनी। हरी बिमल गुन गन जगजोनी॥
भरत बिबेक बराहँ बिसाला। अनायास उधरी तेहि काला॥
शोकरूपी हिरण्याक्ष ने (सारी सभा की) बुद्धिरूपी पृथ्वी को हर लिया जो विमल गुणसमूहरूपी जगत की योनि (उत्पन्न करनेवाली) थी। भरत के विवेकरूपी विशाल वराह (वराहरूप धारी भगवान) ने (शोकरूपी हिरण्याक्ष को नष्ट कर) बिना ही परिश्रम उसका उद्धार कर दिया!
करि प्रनामु सब कहँ कर जोरे। रामु राउ गुर साधु निहोरे॥
छमब आजु अति अनुचित मोरा। कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा॥
भरत ने प्रणाम करके सबके प्रति हाथ जोड़े तथा राम, राजा जनक, गुरु वशिष्ठ और साधु-संत सबसे विनती की और कहा - आज मेरे इस अत्यंत अनुचित बर्ताव को क्षमा कीजिएगा। मैं कोमल (छोटे) मुख से कठोर (धृष्टतापूर्ण) वचन कह रहा हूँ।
हियँ सुमिरी सारदा सुहाई। मानस तें मुख पंकज आई॥
बिमल बिबेक धरम नय साली। भरत भारती मंजु मराली॥
फिर उन्होंने हृदय में सुहावनी सरस्वती का स्मरण किया। वे मानस से (उनके मनरूपी मानसरोवर से) उनके मुखारविंद पर आ विराजीं। निर्मल विवेक, धर्म और नीति से युक्त भरत की वाणी सुंदर हंसिनी (के समान गुण-दोष का विवेचन करनेवाली) है।
दो० - निरखि बिबेक बिलोचनन्हि सिथिल सनेहँ समाजु।
करि प्रनामु बोले भरतु सुमिरि सीय रघुराजु॥ 297॥
विवेक के नेत्रों से सारे समाज को प्रेम से शिथिल देख, सबको प्रणाम कर, सीता और रघुनाथ का स्मरण करके भरत बोले - ॥ 297॥
प्रभु पितु मातु सुहृद गुर स्वामी। पूज्य परम हित अंतरजामी॥
सरल सुसाहिबु सील निधानू। प्रनतपाल सर्बग्य सुजानू॥
हे प्रभु! आप पिता, माता, सुहृद (मित्र), गुरु, स्वामी, पूज्य, परम हितैषी और अंतर्यामी हैं। सरल हृदय, श्रेष्ठ मालिक, शील के भंडार, शरणागत की रक्षा करनेवाले, सर्वज्ञ, सुजान,
समरथ सरनागत हितकारी। गुनगाहकु अवगुन अघ हारी॥
स्वामि गोसाँइहि सरिस गोसाईं। मोहि समान मैं साइँ दोहाईं॥
समर्थ, शरणागत का हित करनेवाले, गुणों का आदर करनेवाले और अवगुणों तथा पापों को हरनेवाले हैं। हे गोसाईं! आप-सरीखे स्वामी आप ही हैं और स्वामी के साथ द्रोह करने में मेरे समान मैं ही हूँ।
प्रभु पितु बचन मोह बस पेली। आयउँ इहाँ समाजु सकेली॥
जग भल पोच ऊँच अरु नीचू। अमिअ अमरपद माहुरु मीचू॥
मैं मोहवश प्रभु (आप) के और पिता के वचनों का उल्लंघन कर और समाज बटोरकर यहाँ आया हूँ। जगत में भले-बुरे, ऊँचे और नीचे, अमृत और अमर पद (देवताओं का पद), विष और मृत्यु आदि -
राम रजाइ मेट मन माहीं। देखा सुना कतहुँ कोउ नाहीं॥
सो मैं सब बिधि कीन्हि ढिठाई। प्रभु मानी सनेह सेवकाई॥
किसी को भी कहीं ऐसा नहीं देखा-सुना जो मन में भी राम (आप) की आज्ञा को मेट दे। मैंने सब प्रकार से वही ढिठाई की, परंतु प्रभु ने उस ढिठाई को स्नेह और सेवा मान लिया!
दो० - कृपाँ भलाईं आपनी नाथ कीन्ह भल मोर।
दूषन भे भूषन सरिस सुजसु चारु चहु ओर॥ 298॥
हे नाथ! आपने अपनी कृपा और भलाई से मेरा भला किया, जिससे मेरे दूषण (दोष) भी भूषण (गुण) के समान हो गए और चारों ओर मेरा सुंदर यश छा गया॥ 298॥
राउरि रीति सुबानि बड़ाई। जगत बिदित निगमागम गाई॥
कूर कुटिल खल कुमति कलंकी। नीच निसील निरीस निसंकी॥
हे नाथ! आपकी रीति और सुंदर स्वभाव की बड़ाई जगत में प्रसिद्ध है, और वेद-शास्त्रों ने गाई है। जो क्रूर, कुटिल, दुष्ट, कुबुद्धि, कलंकी, नीच, शीलरहित, निरीश्वरवादी (नास्तिक) और निःशंक (निडर) हैं।
तेउ सुनि सरन सामुहें आए। सकृत प्रनामु किहें अपनाए॥
देखि दोष कबहुँ न उर आने। सुनि गुन साधु समाज बखाने॥
उन्हें भी आपने शरण में सम्मुख आया सुनकर एक बार प्रणाम करने पर ही अपना लिया। उन (शरणागतों) के दोषों को देखकर भी आप कभी हृदय में नहीं लाए और उनके गुणों को सुनकर साधुओं के समाज में उनका बखान किया।
को साहिब सेवकहि नेवाजी। आपु समाज साज सब साजी॥
निज करतूति न समुझिअ सपनें। सेवक सकुच सोचु उर अपनें॥
ऐसा सेवक पर कृपा करनेवाला स्वामी कौन है जो आप ही सेवक का सारा साज-सामान सज दे (उसकी सारी आवश्यकताओं को पूर्ण कर दे) और स्वप्न में भी अपनी कोई करनी न समझकर (अर्थात मैंने सेवक के लिए कुछ किया है ऐसा न जानकर) उलटा सेवक को संकोच होगा, इसका सोच अपने हृदय में रखे!
सो गोसाइँ नहिं दूसर कोपी। भुजा उठाइ कहउँ पन रोपी॥
पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना। गुन गति नट पाठक आधीना॥
मैं भुजा उठाकर और प्रण रोपकर (बड़े जोर के साथ) कहता हूँ, ऐसा स्वामी आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है। (बंदर आदि) पशु नाचते और तोते (सीखे हुए) पाठ में प्रवीण हो जाते हैं। परंतु तोते का (पाठ प्रवीणता रूप) गुण और पशु के नाचने की गति (क्रमशः) पढ़ानेवाले और नचानेवाले के अधीन है।
दो० - यों सुधारि सनमानि जन किए साधु सिरमोर।
को कृपाल बिनु पालिहै बिरिदावलि बरजोर॥ 299॥
इस प्रकार अपने सेवकों की (बिगड़ी) बात सुधारकर और सम्मान देकर आपने उन्हें साधुओं का शिरोमणि बना दिया। कृपालु (आप) के सिवा अपनी विरदावली का और कौन जबरदस्ती (हठपूर्वक) पालन करेगा?॥ 299॥
सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ। आयउँ लाइ रजायसु बाएँ॥
तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा। सबहि भाँति भल मानेउ मोरा॥
मैं शोक से या स्नेह से या बालक स्वभाव से आज्ञा को बाएँ लाकर (न मानकर) चला आया, तो भी कृपालु स्वामी (आप) ने अपनी ओर देखकर सभी प्रकार से मेरा भला ही माना (मेरे इस अनुचित कार्य को अच्छा ही समझा)।
देखेउँ पाय सुमंगल मूला। जानेउँ स्वामि सहज अनुकूला।
बड़ें समाज बिलोकेउँ भागू। बड़ीं चूक साहिब अनुरागू॥
मैंने सुंदर मंगलों के मूल आपके चरणों का दर्शन किया, और यह जान लिया कि स्वामी मुझ पर स्वभाव से ही अनुकूल हैं। इस बड़े समाज में अपने भाग्य को देखा कि इतनी बड़ी चूक होने पर भी स्वामी का मुझ पर कितना अनुराग है!
कृपा अनुग्रहु अंगु अघाई। कीन्हि कृपानिधि सब अधिकाई॥
राखा मोर दुलार गोसाईं। अपनें सील सुभायँ भलाई॥
कृपानिधान ने मुझ पर सांगोपांग भरपेट कृपा और अनुग्रह, सब अधिक ही किए हैं (अर्थात मैं जिसके जरा भी लायक नहीं था, उतनी अधिक सर्वांगपूर्ण कृपा आपने मुझ पर की है)। हे गोसाईं! आपने अपने शील, स्वभाव और भलाई से मेरा दुलार रखा।
नाथ निपट मैं कीन्हि ढिठाई। स्वामि समाज सकोच बिहाई॥
अबिनय बिनय जथारुचि बानी। छमिहि देउ अति आरति जानी॥
हे नाथ! मैंने स्वामी और समाज के संकोच को छोड़कर अविनय या विनयभरी जैसी रुचि हुई वैसी ही वाणी कहकर सर्वथा ढिठाई की है। हे देव! मेरे आर्तभाव (आतुरता) को जानकर आप क्षमा करेंगे।
दो० - सुहृद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि।
आयसु देइअ देव अब सबइ सुधारी मोरि॥ 300॥
सुहृद (बिना ही हेतु के हित करनेवाले), बुद्धिमान और श्रेष्ठ मालिक से बहुत कहना बड़ा अपराध है, इसलिए हे देव! अब मुझे आज्ञा दीजिए, आपने मेरी सभी बात सुधार दी॥ 300॥
प्रभु पद पदुम पराग दोहाई। सत्य सुकृत सुख सीवँ सुहाई॥
सो करि कहउँ हिए अपने की। रुचि जागत सोवत सपने की॥
प्रभु (आप) के चरणकमलों की रज, जो सत्य, सुकृत (पुण्य) और सुख की सुहावनी सीमा (अवधि) है, उसकी दुहाई करके मैं अपने हृदय को जागते, सोते और स्वप्न में भी बनी रहनेवाली रुचि (इच्छा) कहता हूँ।
सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई। स्वारथ छल फल चारि बिहाई॥
अग्या सम न सुसाहिब सेवा। सो प्रसादु जन पावै देवा॥
वह रुचि है - कपट, स्वार्थ और (अर्थ-धर्म-काम-मोक्षरूप) चारों फलों को छोड़कर स्वाभाविक प्रेम से स्वामी की सेवा करना। और आज्ञा पालन के समान श्रेष्ठ स्वामी की और कोई सेवा नहीं है। हे देव! अब वही आज्ञा रूप प्रसाद सेवक को मिल जाए।
अस कहि प्रेम बिबस भए भारी। पुलक सरीर बिलोचन बारी॥
प्रभु पद कमल गहे अकुलाई। समउ सनेहु न सो कहि जाई॥
भरत ऐसा कहकर प्रेम के बहुत ही विवश हो गए। शरीर पुलकित हो उठा, नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया। अकुलाकर (व्याकुल होकर) उन्होंने प्रभु राम के चरणकमल पकड़ लिए। उस समय को और स्नेह को कहा नहीं जा सकता।
कृपासिंधु सनमानि सुबानी। बैठाए समीप गहि पानी॥
भरत बिनय सुनिदेखि सुभाऊ। सिथिल सनेहँ सभा रघुराऊ॥
कृपासिंधु राम ने सुंदर वाणी से भरत का सम्मान करके हाथ पकड़कर उनको अपने पास बिठा लिया। भरत की विनती सुनकर और उनका स्वभाव देखकर सारी सभा और रघुनाथ स्नेह से शिथिल हो गए।
छं० - रघुराउ सिथिल सनेहँ साधु समाज मुनि मिथिला धनी।
मन महुँ सराहत भरत भायप भगति की महिमा घनी॥
भरतहि प्रसंसत बिबुध बरषत सुमन मानस मलिन से।
तुलसी बिकल सब लोग सुनि सकुचे निसागम नलिन से॥
रघुनाथ, साधुओं का समाज, मुनि वशिष्ठ और मिथिलापति जनक स्नेह से शिथिल हो गए। सब मन-ही-मन भरत के भाईपन और उनकी भक्ति की अतिशय महिमा को सराहने लगे। देवता मलिन से मन से भरत की प्रशंसा करते हुए उन पर फूल बरसाने लगे। तुलसीदास कहते हैं - सब लोग भरत का भाषण सुनकर व्याकुल हो गए और ऐसे सकुचा गए जैसे रात्रि के आगमन से कमल!
सो० - देखि दुखारी दीन दुहु समाज नर नारि सब।
मघवा महा मलीन मुए मारि मंगल चहत॥ 301॥
दोनों समाजों के सभी नर-नारियों को दीन और दुःखी देखकर महामलिन- मन इंद्र मरे हुओं को मारकर अपना मंगल चाहता है॥ 301॥
कपट कुचालि सीवँ सुरराजू। पर अकाज प्रिय आपन काजू॥
काक समान पाकरिपु रीती। छली मलीन कतहुँ न प्रतीती॥
देवराज इंद्र कपट और कुचाल की सीमा है। उसे पराई हानि और अपना लाभ ही प्रिय है। इंद्र की रीति कौए के समान है। वह छली और मलिन- मन है, उसका कहीं किसी पर विश्वास नहीं है।
प्रथम कुमत करि कपटु सँकेला। सो उचाटु सब कें सिर मेला॥
सुरमायाँ सब लोग बिमोहे। राम प्रेम अतिसय न बिछोहे॥
पहले तो कुमत (बुरा विचार) करके कपट को बटोरा (अनेक प्रकार के कपट का साज सजा)। फिर वह (कपटजनित) उचाट सबके सिर पर डाल दिया। फिर देवमाया से सब लोगों को विशेष रूप से मोहित कर दिया। किंतु राम के प्रेम से उनका अत्यंत बिछोह नहीं हुआ (अर्थात उनका राम के प्रति प्रेम कुछ तो बना ही रहा)।
भय उचाट बस मन थिर नाहीं। छन बन रुचि छन सदन सोहाहीं॥
दुबिध मनोगति प्रजा दुखारी। सरित सिंधु संगम जनु बारी॥
भय और उचाट के वश किसी का मन स्थिर नहीं है। क्षण में उनकी वन में रहने की इच्छा होती है और क्षण में उन्हें घर अच्छे लगने लगते हैं। मन की इस प्रकार की दुविधामयी स्थिति से प्रजा दुःखी हो रही है। मानो नदी और समुद्र के संगम का जल क्षुब्ध हो रहा हो। (जैसे नदी और समुद्र के संगम का जल स्थिर नहीं रहता, कभी इधर आता और कभी उधर जाता है, उसी प्रकार की दशा प्रजा के मन की हो गई।)
दुचित कतहुँ परितोषु न लहहीं। एक एक सन मरमु न कहहीं॥
लखि हियँ हँसि कह कृपानिधानू। सरिस स्वान मघवान जुबानू॥
चित्त दोतरफा हो जाने से वे कहीं संतोष नहीं पाते और एक-दूसरे से अपना मर्म भी नहीं कहते। कृपानिधान राम यह दशा देखकर हृदय में हँसकर कहने लगे - कुत्ता, इंद्र और नवयुवक (कामी पुरुष) एक-सरीखे (एक ही स्वभाव के) हैं। (पाणिनीय व्याकरण के अनुसार, श्वन, युवन और मघवन शब्दों के रूप भी एक-सरीखे होते हैं।)
दो० - भरतु जनकु मुनिजन सचिव साधु सचेत बिहाइ।
लागि देवमाया सबहि जथाजोगु जनु पाइ॥ 302॥
भरत, जनक, मुनिजन, मंत्री और ज्ञानी साधु-संतों को छोड़कर अन्य सभी पर जिस मनुष्य को जिस योग्य (जिस प्रकृति और जिस स्थिति का) पाया, उस पर वैसे ही देवमाया लग गई॥ 302॥
कृपासिंधु लखि लोग दुखारे। निज सनेहँ सुरपति छल भारे॥
सभा राउ गुर महिसुर मंत्री। भरत भगति सब कै मति जंत्री॥
कृपासिंधु राम ने लोगों को अपने स्नेह और देवराज इंद्र के भारी छल से दुःखी देखा। सभा, राजा जनक, गुरु, ब्राह्मण और मंत्री आदि सभी की बुद्धि को भरत की भक्ति ने कील दिया।
रामहि चितवत चित्र लिखे से। सकुचत बोलत बचन सिखे से॥
भरत प्रीति नति बिनय बड़ाई। सुनत सुखद बरनत कठिनाई॥
सब लोग चित्रलिखे-से राम की ओर देख रहे हैं। सकुचाते हुए सिखाए हुए-से वचन बोलते हैं। भरत की प्रीति, नम्रता, विनय और बड़ाई सुनने में सुख देनेवाली है, पर उसका वर्णन करने में कठिनता है।
जासु बिलोकि भगति लवलेसू। प्रेम मगन मुनिगन मिथिलेसू॥
महिमा तासु कहै किमि तुलसी। भगति सुभायँ सुमति हियँ हुलसी॥
जिनकी भक्ति का लवलेश देखकर मुनिगण और मिथिलेश्वर जनक प्रेम में मग्न हो गए, उन भरत की महिमा तुलसीदास कैसे कहे? उनकी भक्ति और सुंदर भाव से (कवि के) हृदय में सुबुद्धि हुलस रही है (विकसित हो रही है)।
आपु छोटि महिमा बड़ि जानी। कबिकुल कानि मानि सकुचानी॥
कहि न सकति गुन रुचि अधिकाई। मति गति बाल बचन की नाई॥
परंतु वह बुद्धि अपने को छोटी और भरत की महिमा को बड़ी जानकर कवि परंपरा की मर्यादा को मानकर सकुचा गई (उसका वर्णन करने का साहस नहीं कर सकी)। उसकी गुणों में रुचि तो बहुत है; पर उन्हें कह नहीं सकती। बुद्धि की गति बालक के वचनों की तरह हो गई (वह कुंठित हो गई)!
दो० - भरत बिमल जसु बिमल बिधु सुमति चकोरकुमारि।
उदित बिमल जन हृदय नभ एकटक रही निहारि॥ 303॥
भरत का निर्मल यश निर्मल चंद्रमा है और कवि की सुबुद्धि चकोरी है, जो भक्तों के हृदयरूपी निर्मल आकाश में उस चंद्रमा को उदित देखकर उसकी ओर टकटकी लगाए देखती ही रह गई है (तब उसका वर्णन कौन करे?)॥ 303॥
भरत सुभाउ न सुगम निगमहूँ। लघु मति चापलता कबि छमहूँ॥
कहत सुनत सति भाउ भरत को। सीय राम पद होइ न रत को॥
भरत के स्वभाव का वर्णन वेदों के लिए भी सुगम नहीं है। (अतः) मेरी तुच्छ बुद्धि की चंचलता को कवि लोग क्षमा करें! भरत के सद्भाव को कहते-सुनते कौन मनुष्य सीताराम के चरणों में अनुरक्त न हो जाएगा।
सुमिरत भरतहि प्रेमु राम को। जेहि न सुलभु तेहि सरिस बाम को॥
देखि दयाल दसा सबही की। राम सुजान जानि जन जी की॥
भरत का स्मरण करने से जिसको राम का प्रेम सुलभ न हुआ, उसके समान वाम (अभागा) और कौन होगा? दयालु और सुजान राम ने सभी की दशा देखकर और भक्त (भरत) के हृदय की स्थिति जानकर,
धरम धुरीन धीर नय नागर। सत्य सनेह सील सुख सागर॥
देसु कालु लखि समउ समाजू। नीति प्रीति पालक रघुराजू॥
धर्मधुरंधर, धीर, नीति में चतुर, सत्य, स्नेह, शील और सुख के समुद्र, नीति और प्रीति के पालन करनेवाले रघुनाथ देश, काल, अवसर और समाज को देखकर,
बोले बचन बानि सरबसु से। हित परिनाम सुनत ससि रसु से॥
तात भरत तुम्ह धरम धुरीना। लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना॥
(तदनुसार) ऐसे वचन बोले जो मानो वाणी के सर्वस्व ही थे, परिणाम में हितकारी थे और सुनने में चंद्रमा के रस (अमृत)-सरीखे थे। (उन्होंने कहा -) हे तात भरत! तुम धर्म की धुरी को धारण करनेवाले हो, लोक और वेद दोनों के जाननेवाले और प्रेम में प्रवीण हो।
दो० - करम बचन मानस बिमल तुम्ह समान तुम्ह तात।
गुर समाज लघु बंधु गुन कुसमयँ किमि कहि जात॥ 304॥
हे तात! कर्म से, वचन से और मन से निर्मल तुम्हारे समान तुम्हीं हो। गुरुजनों के समाज में और ऐसे कुसमय में छोटे भाई के गुण किस तरह कहे जा सकते हैं?॥ 304॥
जानहु तात तरनि कुल रीती। सत्यसंध पितु कीरति प्रीती॥
समउ समाजु लाज गुरजन की। उदासीन हित अनहित मन की॥
हे तात! तुम सूर्यकुल की रीति को, सत्यप्रतिज्ञ पिता की कीर्ति और प्रीति को, समय, समाज और गुरुजनों की लज्जा (मर्यादा) को तथा उदासीन, मित्र और शत्रु सबके मन की बात को जानते हो।
तुम्हहि बिदित सबही कर करमू। आपन मोर परम हित धरमू॥
मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा। तदपि कहउँ अवसर अनुसारा॥
तुमको सबके कर्मों (कर्तव्यों) का और अपने तथा मेरे परम हितकारी धर्म का पता है। यद्यपि मुझे तुम्हारा सब प्रकार से भरोसा है, तथापि मैं समय के अनुसार कुछ कहता हूँ।
तात तात बिनु बात हमारी। केवल गुरकुल कृपाँ सँभारी॥
नतरु प्रजा परिजन परिवारू। हमहि सहित सबु होत खुआरू॥
हे तात! पिता के बिना (उनकी अनुपस्थिति में) हमारी बात केवल गुरुवंश की कृपा ने ही सम्हाल रखी है, नहीं तो हमारे समेत प्रजा, कुटुंब, परिवार सभी बर्बाद हो जाते।
जौं बिनु अवसर अथवँ दिनेसू। जग केहि कहहु न होइ कलेसू॥
तस उतपातु तात बिधि कीन्हा। मुनि मिथिलेस राखि सबु लीन्हा॥
यदि बिना समय के (संध्या से पूर्व ही) सूर्य अस्त हो जाए, तो कहो जगत में किस को क्लेश न होगा? हे तात! उसी प्रकार का उत्पात विधाता ने यह (पिता की असामयिक मृत्यु) किया है। पर मुनि महाराज ने तथा मिथिलेश्वर ने सबको बचा लिया।
दो० - राज काज सब लाज पति धरम धरनि धन धाम।
गुर प्रभाउ पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम॥ 305॥
राज्य का सब कार्य, लज्जा, प्रतिष्ठा, धर्म, पृथ्वी, धन, घर - इन सभी का पालन (रक्षण) गुरु का प्रभाव (सामर्थ्य) करेगा और परिणाम शुभ होगा॥ 305॥
सहित समाज तुम्हार हमारा। घर बन गुर प्रसाद रखवारा॥
मातु पिता गुर स्वामि निदेसू। सकल धरम धरनीधर सेसू॥
गुरु का प्रसाद (अनुग्रह) ही घर में और वन में समाज सहित तुम्हारा और हमारा रक्षक है। माता, पिता, गुरु और स्वामी की आज्ञा (का पालन) समस्त धर्मरूपी पृथ्वी को धारण करने में शेष के समान है।
सो तुम्ह करहु करावहु मोहू। तात तरनिकुल पालक होहू॥
साधक एक सकल सिधि देनी। कीरति सुगति भूतिमय बेनी॥
हे तात! तुम वही करो और मुझसे भी कराओ तथा सूर्यकुल के रक्षक बनो। साधक के लिए यह एक ही (आज्ञापालनरूपी साधना) संपूर्ण सिद्धियों की देनेवाली, कीर्तिमयी, सद्गतिमयी और ऐश्वर्यमयी त्रिवेणी है।
सो बिचारि सहि संकटु भारी। करहु प्रजा परिवारू सुखारी॥
बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई। तुम्हहि अवधि भरि बड़ि कठिनाई॥
इसे विचारकर भारी संकट सहकर भी प्रजा और परिवार को सुखी करो। हे भाई! मेरी विपत्ति सभी ने बाँट ली है, परंतु तुमको तो अवधि (चौदह वर्ष) तक बड़ी कठिनाई है (सबसे अधिक दुःख है)।
जानि तुम्हहि मृदु कहउँ कठोरा। कुसमयँ तात न अनुचित मोरा॥
होहिं कुठायँ सुबंधु सहाए। ओड़िअहिं हाथ असनिहु के घाए॥
तुमको कोमल जानकर भी मैं कठोर (वियोग की बात) कह रहा हूँ। हे तात! बुरे समय में मेरे लिए यह कोई अनुचित बात नहीं है। कुठौर (कुअवसर) में श्रेष्ठ भाई ही सहायक होते हैं। वज्र के आघात भी हाथ से ही रोके जाते हैं।
दो० - सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ।
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ॥ 306॥
सेवक हाथ, पैर और नेत्रों के समान और स्वामी मुख के समान होना चाहिए। तुलसीदास कहते हैं कि सेवक-स्वामी की ऐसी प्रीति की रीति सुनकर सुकवि उसकी सराहना करते हैं॥ 306॥
सभा सकल सुनि रघुबर बानी। प्रेम पयोधि अमिअँ जनु सानी॥
सिथिल समाज सनेह समाधी। देखि दसा चुप सारद साधी॥
रघुनाथ की वाणी सुनकर, जो मानो प्रेमरूपी समुद्र के (मंथन से निकले हुए) अमृत में सनी हुई थी, सारा समाज शिथिल हो गया; सबको प्रेम समाधि लग गई। यह दशा देखकर सरस्वती ने चुप साध ली।
भरतहि भयउ परम संतोषू। सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू॥
मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू। भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू॥
भरत को परम संतोष हुआ। स्वामी के सम्मुख (अनुकूल) होते ही उनके दुःख और दोषों ने मुँह मोड़ लिया (वे उन्हें छोड़कर भाग गए)। उनका मुख प्रसन्न हो गया और मन का विषाद मिट गया। मानो गूँगे पर सरस्वती की कृपा हो गई हो।
कीन्ह सप्रेम प्रनामु बहोरी। बोले पानि पंकरुह जोरी॥
नाथ भयउ सुखु साथ गए को। लहेउँ लाहु जग जनमु भए को॥
उन्होंने फिर प्रेमपूर्वक प्रणाम किया और करकमलों को जोड़कर वे बोले - हे नाथ! मुझे आपके साथ जाने का सुख प्राप्त हो गया और मैंने जगत में जन्म लेने का लाभ भी पा लिया।
अब कृपाल जस आयसु होई। करौं सीस धरि सादर सोई॥
सो अवलंब देव मोहि देई। अवधि पारु पावौं जेहि सेई॥
हे कृपालु! अब जैसी आज्ञा हो, उसी को मैं सिर पर धरकर आदरपूर्वक करूँ! परंतु देव! आप मुझे वह अवलंबन (कोई सहारा) दें, जिसकी सेवा कर मैं अवधि का पार पा जाऊँ (अवधि को बिता दूँ)।
दो० - देव देव अभिषेक हित गुर अनुसासनु पाइ।
आनेउँ सब तीरथ सलिलु तेहि कहँ काह रजाइ॥ 307॥
हे देव! स्वामी (आप) के अभिषेक के लिए गुरु की आज्ञा पाकर मैं सब तीर्थों का जल लेता आया हूँ; उसके लिए क्या आज्ञा होती है?॥ 307॥
एकु मनोरथु बड़ मन माहीं। सभयँ सकोच जात कहि नाहीं॥
कहहु तात प्रभु आयसु पाई। बोले बानि सनेह सुहाई॥
मेरे मन में एक और बड़ा मनोरथ है, जो भय और संकोच के कारण कहा नहीं जाता। (राम ने कहा -) हे भाई! कहो। तब प्रभु की आज्ञा पाकर भरत स्नेहपूर्ण सुंदर वाणी बोले -
चित्रकूट सुचि थल तीरथ बन। खग मृग सर सरि निर्झर गिरिगन॥
प्रभु पद अंकित अवनि बिसेषी। आयसु होइ त आवौं देखी॥
आज्ञा हो तो चित्रकूट के पवित्र स्थान, तीर्थ, वन, पक्षी-पशु, तालाब-नदी, झरने और पर्वतों के समूह तथा विशेष कर प्रभु (आप) के चरण चिह्नों से अंकित भूमि को देख आऊँ।
अवसि अत्रि आयसु सिर धरहू। तात बिगतभय कानन चरहू॥
मुनि प्रसाद बनु मंगल दाता। पावन परम सुहावन भ्राता॥
(रघुनाथ बोले -) अवश्य ही अत्रि ऋषि की आज्ञा को सिर पर धारण करो (उनसे पूछकर वे जैसा कहें वैसा करो) और निर्भय होकर वन में विचरो। हे भाई! अत्रि मुनि के प्रसाद से वन मंगलों का देनेवाला, परम पवित्र और अत्यंत सुंदर है -
रिषिनायकु जहँ आयसु देहीं। राखेहु तीरथ जलु थल तेहीं॥
सुनि प्रभु बचन भरत सुखु पावा। मुनि पद कमल मुदित सिरु नावा॥
और ऋषियों के प्रमुख अत्रि जहाँ आज्ञा दें, वहीं (लाया हुआ) तीर्थों का जल स्थापित कर देना। प्रभु के वचन सुनकर भरत ने सुख पाया और आनंदित होकर मुनि अत्रि के चरणकमलों में सिर नवाया।
दो० - भरत राम संबादु सुनि सकल सुमंगल मूल।
सुर स्वारथी सराहि कुल बरषत सुरतरु फूल॥ 308॥
समस्त सुंदर मंगलों का मूल भरत और राम का संवाद सुनकर स्वार्थी देवता रघुकुल की सराहना करके कल्पवृक्ष के फूल बरसाने लगे॥ 308॥
धन्य भरत जय राम गोसाईं। कहत देव हरषत बरिआईं॥
मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू। भरत बचन सुनि भयउ उछाहू॥
'भरत धन्य हैं, स्वामी राम की जय हो!' ऐसा कहते हुए देवता बलपूर्वक (अत्यधिक) हर्षित होने लगे। भरत के वचन सुनकर मुनि वशिष्ठ, मिथिलापति जनक और सभा में सब किसी को बड़ा उत्साह (आनंद) हुआ।
भरत राम गुन ग्राम सनेहू। पुलकि प्रसंसत राउ बिदेहू॥
सेवक स्वामि सुभाउ सुहावन। नेमु प्रेमु अति पावन पावन॥
भरत और राम के गुणसमूह की तथा प्रेम की विदेहराज जनक पुलकित होकर प्रशंसा कर रहे हैं। सेवक और स्वामी दोनों का सुंदर स्वभाव है। इनके नियम और प्रेम पवित्र को भी अत्यंत पवित्र करनेवाले हैं।
मति अनुसार सराहन लागे। सचिव सभासद सब अनुरागे॥
सुनि सुनि राम भरत संबादू। दुहु समाज हियँ हरषु बिषादू॥
मंत्री और सभासद सभी प्रेममुग्ध होकर अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार सराहना करने लगे। राम और भरत का संवाद सुन-सुनकर दोनों समाजों के हृदयों में हर्ष और विषाद (भरत के सेवा धर्म को देखकर हर्ष और रामवियोग की संभावना से विषाद) दोनों हुए।
राम मातु दुखु सुखु सम जानी। कहि गुन राम प्रबोधीं रानी॥
एक कहहिं रघुबीर बड़ाई। एक सराहत भरत भलाई॥
राम की माता कौसल्या ने दुःख और सुख को समान जानकर राम के गुण कहकर दूसरी रानियों को धैर्य बँधाया। कोई राम की बड़ाई (बड़प्पन) की चर्चा कर रहे हैं, तो कोई भरत के अच्छेपन की सराहना करते हैं।
 
दो० - अत्रि कहेउ तब भरत सन सैल समीप सुकूप।
राखिअ तीरथ तोय तहँ पावन अमिअ अनूप॥ 309॥
तब अत्रि ने भरत से कहा - इस पर्वत के समीप ही एक सुंदर कुआँ है। इस पवित्र, अनुपम और अमृत-जैसे तीर्थजल को उसी में स्थापित कर दीजिए॥ 309॥
भरत अत्रि अनुसासन पाई। जल भाजन सब दिए चलाई॥
सानुज आपु अत्रि मुनि साधू। सहित गए जहँ कूप अगाधू॥
भरत ने अत्रिमुनि की आज्ञा पाकर जल के सब पात्र रवाना कर दिए और छोटे भाई शत्रुघ्न, अत्रि मुनि तथा अन्य साधु-संतों सहित आप वहाँ गए, जहाँ वह अथाह कुआँ था।
पावन पाथ पुन्यथल राखा। प्रमुदित प्रेम अत्रि अस भाषा॥
तात अनादि सिद्ध थल एहू। लोपेउ काल बिदित नहिं केहू॥
और उस पवित्र जल को उस पुण्य स्थल में रख दिया। तब अत्रि ऋषि ने प्रेम से आनंदित होकर ऐसा कहा - हे तात! यह अनादि सिद्धस्थल है। कालक्रम से यह लोप हो गया था इसलिए किसी को इसका पता नहीं था।
तब सेवकन्ह सरस थलु देखा। कीन्ह सुजल हित कूप बिसेषा॥
बिधि बस भयउ बिस्व उपकारू। सुगम अगम अति धरम बिचारू॥
तब (भरत के) सेवकों ने उस जलयुक्त स्थान को देखा और उस सुंदर (तीर्थों के) जल के लिए एक खास कुआँ बना लिया। दैवयोग से विश्वभर का उपकार हो गया। धर्म का विचार जो अत्यंत अगम था, वह (इस कूप के प्रभाव से) सुगम हो गया।
भरतकूप अब कहिहहिं लोगा। अति पावन तीरथ जल जोगा॥
प्रेम सनेम निमज्जत प्रानी। होइहहिं बिमल करम मन बानी॥
अब इसको लोग भरतकूप कहेंगे। तीर्थों के जल के संयोग से तो यह अत्यंत ही पवित्र हो गया। इसमें प्रेमपूर्वक नियम से स्नान करने पर प्राणी मन, वचन और कर्म से निर्मल हो जाएँगे।
दो० - कहत कूप महिमा सकल गए जहाँ रघुराउ।
अत्रि सुनायउ रघुबरहि तीरथ पुन्य प्रभाउ॥ 310॥
कूप की महिमा कहते हुए सब लोग वहाँ गए जहाँ रघुनाथ थे। रघुनाथ को अत्रि ने उस तीर्थ का पुण्य प्रभाव सुनाया॥ 310॥
कहत धरम इतिहास सप्रीती। भयउ भोरु निसि सो सुख बीती॥
नित्य निबाहि भरत दोउ भाई। राम अत्रि गुर आयसु पाई॥
प्रेमपूर्वक धर्म के इतिहास कहते वह रात सुख से बीत गई और सबेरा हो गया। भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई नित्यक्रिया पूरी करके, राम, अत्रि और गुरु वशिष्ठ की आज्ञा पाकर,
सहित समाज साज सब सादें। चले राम बन अटन पयादें॥
कोमल चरन चलत बिनु पनहीं। भइ मृदु भूमि सकुचि मन मनहीं॥
समाज सहित सब सादे साज से राम के वन में भ्रमण (प्रदक्षिणा) करने के लिए पैदल ही चले। कोमल चरण हैं और बिना जूते के चल रहे हैं, यह देखकर पृथ्वी मन-ही-मन सकुचाकर कोमल हो गई।
कुस कंटक काँकरीं कुराईं। कटुक कठोर कुबस्तु दुराईं॥
महि मंजुल मृदु मारग कीन्हे। बहत समीर त्रिबिध सुख लीन्हे॥
कुश, काँटे, कंकड़ी, दरारें आदि कड़वी, कठोर और बुरी वस्तुओं को छिपाकर पृथ्वी ने सुंदर और कोमल मार्ग कर दिए। सुखों को साथ लिए (सुखदायक) शीतल, मंद, सुगंध हवा चलने लगी।
सुमन बरषि सुर घन करि छाहीं। बिटप फूलि फलि तृन मृदुताहीं॥
मृग बिलोकि खग बोलि सुबानी। सेवहिं सकल राम प्रिय जानी॥
रास्ते में देवता फूल बरसाकर, बादल छाया करके, वृक्ष फूल-फलकर, तृण अपनी कोमलता से, मृग (पशु) देखकर और पक्षी सुंदर वाणी बोलकर सभी भरत को राम के प्यारे जानकर उनकी सेवा करने लगे।
दो० - सुलभ सिद्धि सब प्राकृतहु राम कहत जमुहात।
राम प्रानप्रिय भरत कहुँ यह न होइ बड़ि बात॥ 311॥
जब एक साधारण मनुष्य को भी (आलस्य से) जँभाई लेते समय 'राम' कह देने से ही सब सिद्धियाँ सुलभ हो जाती हैं, तब राम के प्राण प्यारे भरत के लिए यह कोई बड़ी (आश्चर्य की) बात नहीं है॥ 311॥
एहि बिधि भरतु फिरत बन माहीं। नेमु प्रेमु लखि मुनि सकुचाहीं॥
पुन्य जलाश्रय भूमि बिभागा। खग मृग तरु तृन गिरि बन बागा॥
इस प्रकार भरत वन में फिर रहे हैं। उनके नियम और प्रेम को देखकर मुनि भी सकुचा जाते हैं। पवित्र जल के स्थान (नदी, बावली, कुंड आदि) पृथ्वी के पृथक-पृथक भाग, पक्षी, पशु, वृक्ष, तृण (घास), पर्वत, वन और बगीचे -
चारु बिचित्र पबित्र बिसेषी। बूझत भरतु दिब्य सब देखी॥
सुनि मन मुदित कहत रिषिराऊ। हेतु नाम गुन पुन्य प्रभाऊ॥
सभी विशेष रूप से सुंदर, विचित्र, पवित्र और दिव्य देखकर भरत पूछते हैं और उनका प्रश्न सुनकर ऋषिराज अत्रि प्रसन्न मन से सबके कारण, नाम, गुण और पुण्य-प्रभाव को कहते हैं।
कतहुँ निमज्जन कतहुँ प्रनामा। कतहुँ बिलोकत मन अभिरामा॥
कतहुँ बैठि मुनि आयसु पाई। सुमिरत सीय सहित दोउ भाई॥
भरत कहीं स्नान करते हैं, कहीं प्रणाम करते हैं, कहीं मनोहर स्थानों के दर्शन करते हैं और कहीं मुनि अत्रि की आज्ञा पाकर बैठकर, सीता सहित राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों का स्मरण करते हैं।
देखि सुभाउ सनेहु सुसेवा। देहिं असीस मुदित बनदेवा॥
फिरहिं गएँ दिनु पहर अढ़ाई। प्रभु पद कमल बिलोकहिं आई॥
भरत के स्वभाव, प्रेम और सुंदर सेवाभाव को देखकर वनदेवता आनंदित होकर आशीर्वाद देते हैं। यों घूम-फिरकर ढाई पहर दिन बीतने पर लौट पड़ते हैं और आकर प्रभु रघुनाथ के चरणकमलों का दर्शन करते हैं।
दो० - देखे थल तीरथ सकल भरत पाँच दिन माझ।
कहत सुनत हरि हर सुजसु गयउ दिवसु भइ साँझ॥ 312॥
भरत ने पाँच दिन में सब तीर्थ स्थानों के दर्शन कर लिए। भगवान विष्णु और महादेव का सुंदर यश कहते-सुनते वह (पाँचवाँ) दिन भी बीत गया, संध्या हो गई॥ 312॥
भोर न्हाइ सबु जुरा समाजू। भरत भूमिसुर तेरहुति राजू॥
भल दिन आजु जानि मन माहीं। रामु कृपाल कहत सकुचाहीं॥
(अगले छठे दिन) सबेरे स्नान करके भरत, ब्राह्मण, राजा जनक और सारा समाज आ जुटा। आज सबको विदा करने के लिए अच्छा दिन है, यह मन में जानकर भी कृपालु राम कहने में सकुचा रहे हैं।
गुर नृप भरत सभा अवलोकी। सकुचि राम फिरि अवनि बिलोकी॥
सील सराहि सभा सब सोची। कहुँ न राम सम स्वामि सँकोची॥
राम ने गुरु वशिष्ठ, राजा जनक, भरत और सारी सभा की ओर देखा, किंतु फिर सकुचाकर दृष्टि फेरकर वे पृथ्वी की ओर ताकने लगे। सभा उनके शील की सराहना करके सोचती है कि राम के समान संकोची स्वामी कहीं नहीं है।
भरत सुजान राम रुख देखी। उठि सप्रेम धरि धीर बिसेषी॥
करि दंडवत कहत कर जोरी। राखीं नाथ सकल रुचि मोरी॥
सुजान भरत राम का रुख देखकर प्रेमपूर्वक उठकर, विशेष रूप से धीरज धारण कर दंडवत करके हाथ जोड़कर कहने लगे - हे नाथ! आपने मेरी सभी रुचियाँ रखीं।
मोहि लगि सहेउ सबहिं संतापू। बहुत भाँति दुखु पावा आपू॥
अब गोसाइँ मोहि देउ रजाई। सेवौं अवध अवधि भरि जाई॥
मेरे लिए सब लोगों ने संताप सहा और आपने भी बहुत प्रकार से दुःख पाया। अब स्वामी मुझे आज्ञा दें। मैं जाकर अवधिभर (चौदह वर्ष तक) अवध का सेवन करूँ।
दो० - जेहिं उपाय पुनि पाय जनु देखै दीनदयाल।
सो सिख देइअ अवधि लगि कोसलपाल कृपाल॥ 313॥
हे दीनदयालु! जिस उपाय से यह दास फिर चरणों का दर्शन करे - हे कोसलाधीश! हे कृपालु! अवधिभर के लिए मुझे वही शिक्षा दीजिए॥ 313॥
पुरजन परिजन प्रजा गोसाईं। सब सुचि सरस सनेहँ सगाईं॥
राउर बदि भल भव दुख दाहू। प्रभु बिनु बादि परम पद लाहू॥
हे गोसाईं! आपके प्रेम और संबंध में अवधपुरवासी, कुटुंबी और प्रजा सभी पवित्र और रस (आनंद) से युक्त हैं। आपके लिए भवदुःख (जन्म-मरण के दुःख) की ज्वाला में जलना भी अच्छा है और प्रभु (आप) के बिना परमपद (मोक्ष) का लाभ भी व्यर्थ है।
स्वामि सुजानु जानि सब ही की। रुचि लालसा रहनि जन जी की॥
प्रनतपालु पालिहि सब काहू। देउ दुहू दिसि ओर निबाहू॥
हे स्वामी! आप सुजान हैं, सभी के हृदय की और मुझ सेवक के मन की रुचि, लालसा (अभिलाषा) और रहनी जानकर, हे प्रणतपाल! आप सब किसी का पालन करेंगे और हे देव! दोनों ओर अंत तक निबाहेंगे।
अस मोहि सब बिधि भूरि भरोसो। किएँ बिचारु न सोचु खरो सो॥
आरति मोर नाथ कर छोहू। दुहुँ मिलि कीन्ह ढीठु हठि मोहू॥
मुझे सब प्रकार से ऐसा बहुत बड़ा भरोसा है। विचार करने पर तिनके के बराबर (जरा-सा) भी सोच नहीं रह जाता! मेरी दीनता और स्वामी का स्नेह दोनों ने मिलकर मुझे जबरदस्ती ढीठ बना दिया है।
यह बड़ दोषु दूरि करि स्वामी। तजि सकोच सिखइअ अनुगामी॥
भरत बिनय सुनि सबहिं प्रसंसी। खीर नीर बिबरन गति हंसी॥
हे स्वामी! इस बड़े दोष को दूर करके संकोच त्याग कर मुझ सेवक को शिक्षा दीजिए। दूध और जल को अलग-अलग करने में हंसिनी की-सी गतिवाली भरत की विनती सुनकर उसकी सभी ने प्रशंसा की।
दो० - दीनबंधु सुनि बंधु के वचन दीन छलहीन।
देस काल अवसर सरिस बोले रामु प्रबीन॥ 314॥
दीनबंधु और परम चतुर राम ने भाई भरत के दीन और छलरहित वचन सुनकर देश, काल और अवसर के अनुकूल वचन बोले - ॥ 314॥
तात तुम्हारि मोरि परिजन की। चिंता गुरहि नृपहि घर बन की॥
माथे पर गुर मुनि मिथिलेसू। हमहि तुम्हहि सपनेहूँ न कलेसू॥
हे तात! तुम्हारी, मेरी, परिवार की, घर की और वन की सारी चिंता गुरु वशिष्ठ और महाराज जनक को है। हमारे सिर पर जब गुरु, मुनि विश्वामित्र और मिथिलापति जनक हैं, तब हमें और तुम्हें स्वप्न नें भी क्लेश नहीं है।
मोर तुम्हार परम पुरुषारथु। स्वारथु सुजसु धरमु परमारथु॥
पितु आयसु पालिहिं दुहु भाईं। लोक बेद भल भूप भलाईं॥
मेरा और तुम्हारा तो परम पुरुषार्थ, स्वार्थ, सुयश, धर्म और परमार्थ इसी में है कि हम दोनों भाई पिता की आज्ञा का पालन करें। राजा की भलाई (उनके व्रत की रक्षा) से ही लोक और वेद दोनों में भला है।
गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें। चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें॥
अस बिचारि सब सोच बिहाई। पालहु अवध अवधि भरि जाई॥
गुरु, पिता, माता और स्वामी की शिक्षा (आज्ञा) का पालन करने से कुमार्ग पर भी चलने पर पैर गड्ढे में नहीं पड़ता (पतन नहीं होता)। ऐसा विचार कर सब सोच छोड़कर अवध जाकर अवधिभर उसका पालन करो।
देसु कोसु परिजन परिवारू। गुर पद रजहिं लाग छरुभारू॥
तुम्ह मुनि मातु सचिव सिख मानी। पालेहु पुहुमि प्रजा रजधानी॥
देश, खजाना, कुटुंब, परिवार आदि सबकी जिम्मेदारी तो गुरु की चरण रज पर है। तुम तो मुनि वशिष्ठ, माताओं और मंत्रियों की शिक्षा मानकर तदनुसार पृथ्वी, प्रजा और राजधानी का पालन (रक्षा) भर करते रहना।
दो० - मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक॥ 315॥
तुलसीदास कहते हैं - (राम ने कहा -) मुखिया मुख के समान होना चाहिए, जो खाने-पीने को तो एक (अकेला) है, परंतु विवेकपूर्वक सब अंगों का पालन-पोषण करता है॥ 315॥
राजधरम सरबसु एतनोई। जिमि मन माहँ मनोरथ गोई॥
बंधु प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती। बिनु अधार मन तोषु न साँती॥
राजधर्म का सर्वस्व (सार) भी इतना ही है। जैसे मन के भीतर मनोरथ छिपा रहता है। रघुनाथ ने भाई भरत को बहुत प्रकार से समझाया, परंतु कोई अवलंबन पाए बिना उनके मन में न संतोष हुआ, न शांति।
भरत सील गुर सचिव समाजू। सकुच सनेह बिबस रघुराजू॥
प्रभु करि कृपा पाँवरीं दीन्हीं। सादर भरत सीस धरि लीन्हीं॥
इधर तो भरत का शील (प्रेम) और उधर गुरुजनों, मंत्रियों तथा समाज की उपस्थिति! यह देखकर रघुनाथ संकोच तथा स्नेह के विशेष वशीभूत हो गए। (अर्थात भरत के प्रेमवश उन्हें पाँवरी देना चाहते हैं, किंतु साथ ही गुरु आदि का संकोच भी होता है।) आखिर (भरत के प्रेमवश) प्रभु राम ने कृपा कर खड़ाऊँ दे दीं और भरत ने उन्हें आदरपूर्वक सिर पर धारण कर लिया।
चरनपीठ करुनानिधान के। जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के॥
संपुट भरत सनेह रतन के। आखर जुग जनु जीव जतन के॥
करुणानिधान राम के दोनों ख़ड़ाऊँ प्रजा के प्राणों की रक्षा के लिए मानो दो पहरेदार हैं। भरत के प्रेमरूपी रत्न के लिए मानो डिब्बा है और जीव के साधन के लिए मानो राम-नाम के दो अक्षर हैं।
कुल कपाट कर कुसल करम के। बिमल नयन सेवा सुधरम के॥
भरत मुदित अवलंब लहे तें। अस सुख जस सिय रामु रहे तें॥
रघुकुल (की रक्षा) के लिए दो किवाड़ हैं। कुशल (श्रेष्ठ) कर्म करने के लिए दो हाथ की भाँति (सहायक) हैं। और सेवारूपी श्रेष्ठ धर्म के सुझाने के लिए निर्मल नेत्र हैं। भरत इस अवलंब के मिल जाने से परम आनंदित हैं। उन्हें ऐसा ही सुख हुआ, जैसा सीताराम के रहने से होता।
दो० - मागेउ बिदा प्रनामु करि राम लिए उर लाइ।
लोग उचाटे अमरपति कुटिल कुअवसरु पाइ॥ 316॥
भरत ने प्रणाम करके विदा माँगी, तब राम ने उन्हें हृदय से लगा लिया। इधर कुटिल इंद्र ने बुरा मौका पाकर लोगों का उच्चाटन कर दिया॥ 316॥
सो कुचालि सब कहँ भइ नीकी। अवधि आस सम जीवनि जी की॥
नतरु लखन सिय राम बियोगा। हहरि मरत सब लोग कुरोगा॥
वह कुचाल भी सबके लिए हितकर हो गई। अवधि की आशा के समान ही वह जीवन के लिए संजीवनी हो गई। नहीं तो (उच्चाटन न होता तो) लक्ष्मण, सीता और राम के वियोगरूपी बुरे रोग से सब लोग घबड़ाकर (हाय-हाय करके) मर ही जाते।
रामकृपाँ अवरेब सुधारी। बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी॥
भेंटत भुज भरि भाइ भरत सो। राम प्रेम रसु न कहि न परत सो॥
राम की कृपा ने सारी उलझन सुधार दी। देवताओं की सेना जो लूटने आई थी, वही गुणदायक (हितकरी) और रक्षक बन गई। राम भुजाओं में भरकर भाई भरत से मिल रहे हैं। राम के प्रेम का वह रस (आनंद) कहते नहीं बनता।
तन मन बचन उमग अनुरागा। धीर धुरंधर धीरजु त्यागा॥
बारिज लोचन मोचत बारी। देखि दसा सुर सभा दुखारी॥
तन, मन और वचन तीनों में प्रेम उमड़ पड़ा। धीरज की धुरी को धारण करनेवाले रघुनाथ ने भी धीरज त्याग दिया। वे कमल सदृश नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बहाने लगे। उनकी यह दशा देखकर देवताओं की सभा (समाज) दुःखी हो गई।
मुनिगन गुर धुर धीर जनक से। ग्यान अनल मन कसें कनक से॥
जे बिरंचि निरलेप उपाए। पदुम पत्र जिमि जग जल जाए॥
मुनिगण, गुरु वशिष्ठ और जनक-सरीखे धीरधुरंधर जो अपने मनों को ज्ञानरूपी अग्नि में सोने के समान कस चुके थे, जिनको ब्रह्मा ने निर्लेप ही रचा और जो जगतरूपी जल में कमल के पत्ते की तरह ही (जगत में रहते हुए भी जगत से अनासक्त) पैदा हुए।
दो० - तेउ बिलोकि रघुबर भरत प्रीति अनूप अपार।
भए मगन मन तन बचन सहित बिराग बिचार॥ 317॥
वे भी राम और भरत के उपमारहित अपार प्रेम को देखकर वैराग्य और विवेक सहित तन, मन, वचन से उस प्रेम में मग्न हो गए॥ 317॥
जहाँ जनक गुरु गति मति भोरी। प्राकृत प्रीति कहत बड़ि खोरी॥
बरनत रघुबर भरत बियोगू। सुनि कठोर कबि जानिहि लोगू॥
जहाँ जनक और गुरु वशिष्ठ की बुद्धि की गति कुंठित हो, उस दिव्य प्रेम को प्राकृत (लौकिक) कहने में बड़ा दोष है। राम और भरत के वियोग का वर्णन करते सुनकर लोग कवि को कठोर हृदय समझेंगे।
सो सकोच रसु अकथ सुबानी। समउ सनेहु सुमिरि सकुचानी॥
भेंटि भरतु रघुबर समुझाए। पुनि रिपुदवनु हरषि हियँ लाए॥
वह संकोच-रस अकथनीय है। अतएव कवि की सुंदर वाणी उस समय उसके प्रेम को स्मरण करके सकुचा गई। भरत को भेंट कर रघुनाथ ने उनको समझाया। फिर हर्षित होकर शत्रुघ्न को हृदय से लगा लिया।
सेवक सचिव भरत रुख पाई। निज निज काज लगे सब जाई॥
सुनि दारुन दुखु दुहूँ समाजा। लगे चलन के साजन साजा॥
सेवक और मंत्री भरत का रुख पाकर सब अपने-अपने काम में जा लगे। यह सुनकर दोनों समाजों में दारुण दुःख छा गया। वे चलने की तैयारियाँ करने लगे।
प्रभु पद पदुम बंदि दोउ भाई। चले सीस धरि राम रजाई॥
मुनि तापस बनदेव निहोरी। सब सनमानि बहोरि बहोरी॥
प्रभु के चरणकमलों की वंदना करके तथा राम की आज्ञा को सिर पर रखकर भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई चले। मुनि, तपस्वी और वनदेवता सबका बार-बार सम्मान करके उनकी विनती की।
दो० - लखनहि भेंटि प्रनामु करि सिर धरि सिय पद धूरि।
चले सप्रेम असीस सुनि सकल सुमंगल मूरि॥ 318॥
फिर लक्ष्मण को क्रमशः भेंटकर तथा प्रणाम करके और सीता के चरणों की धूलि को सिर पर धारण करके और समस्त मंगलों के मूल आशीर्वाद सुनकर वे प्रेमसहित चले॥ 318॥
सानुज राम नृपहि सिर नाई। कीन्हि बहुत बिधि बिनय बड़ाई॥
देव दया बस बड़ दुखु पायउ। सहित समाज काननहिं आयउ॥
छोटे भाई लक्ष्मण समेत राम ने राजा जनक को सिर नवाकर उनकी बहुत प्रकार से विनती और बड़ाई की (और कहा -) हे देव! दयावश आपने बहुत दुःख पाया। आप समाज सहित वन में आए।
पुर पगु धारिअ देइ असीसा। कीन्ह धीर धरि गवनु महीसा॥
मुनि महिदेव साधु सनमाने। बिदा किए हरि हर सम जाने॥
अब आशीर्वाद देकर नगर को पधारिए। यह सुन राजा जनक ने धीरज धरकर गमन किया। फिर राम ने मुनि, ब्राह्मण और साधुओं को विष्णु और शिव के समान जानकर सम्मान करके उनको विदा किया।
सासु समीप गए दोउ भाई। फिरे बंदि पग आसिष पाई॥
कौसिक बामदेव जाबाली। पुरजन परिजन सचिव सुचाली॥
तब राम-लक्ष्मण दोनों भाई सास (सुनयना) के पास गए और उनके चरणों की वंदना करके आशीर्वाद पाकर लौट आए। फिर विश्वामित्र, वामदेव, जाबालि और शुभ आचरणवाले कुटुंबी, नगर निवासी और मंत्री -
जथा जोगु करि बिनय प्रनामा। बिदा किए सब सानुज रामा॥
नारि पुरुष लघु मध्य बड़ेरे। सब सनमानि कृपानिधि फेरे॥
सबको छोटे भाई लक्ष्मण सहित राम ने यथायोग्य विनय एवं प्रणाम करके विदा किया। कृपानिधान राम ने छोटे, मध्यम (मझले) और बड़े सभी श्रेणी के स्त्री-पुरुषों का सम्मान करके उनको लौटाया।
दो० - भरत मातु पद बंदि प्रभु सुचि सनेहँ मिलि भेंटि।
बिदा कीन्ह सजि पालकी सकुच सोच सब मेटि॥ 319॥
भरत की माता कैकेयी के चरणों की वंदना करके प्रभु राम ने पवित्र (निश्छल) प्रेम के साथ उनसे मिल-भेंट कर तथा उनके सारे संकोच और सोच को मिटाकर पालकी सजाकर उनको विदा किया॥ 319॥
परिजन मातु पितहि मिलि सीता। फिरी प्रानप्रिय प्रेम पुनीता॥
करि प्रनामु भेंटीं सब सासू। प्रीति कहत कबि हियँ न हुलासू॥
प्राणप्रिय पति राम के साथ पवित्र प्रेम करनेवाली सीता नैहर के कुटुंबियों से तथा माता-पिता से मिलकर लौट आईं। फिर प्रणाम करके सब सासुओं से गले लगकर मिलीं। उनके प्रेम का वर्णन करने के लिए कवि के हृदय में हुलास (उत्साह) नहीं होता।
सुनि सिख अभिमत आसिष पाई। रही सीय दुहु प्रीति समाई॥
रघुपति पटु पालकीं मगाईं। करि प्रबोध सब मातु चढ़ाईं॥
उनकी शिक्षा सुनकर और मनचाहा आशीर्वाद पाकर सीता सासुओं तथा माता-पिता दोनों ओर की प्रीति में समाई (बहुत देर तक निमग्न) रहीं! (तब) रघुनाथ ने सुंदर पालकियाँ मँगवाईं और सब माताओं को आश्वासन देकर उन पर चढ़ाया।
बार बार हिलि मिलि दुहु भाईं। सम सनेहँ जननीं पहुँचाईं॥
साजि बाजि गज बाहन नाना। भरत भूप दल कीन्ह पयाना॥
दोनों भाइयों ने माताओं से समान प्रेम से बार-बार मिल-जुलकर उनको पहुँचाया। भरत और राजा जनक के दलों ने घोड़े, हाथी और अनेकों तरह की सवारियाँ सजाकर प्रस्थान किया।
हृदयँ रामु सिय लखन समेता। चले जाहिं सब लोग अचेता॥
बसह बाजि गज पसु हियँ हारें। चले जाहिं परबस मन मारें॥
सीता एवं लक्ष्मण सहित राम को हृदय में रखकर सब लोग बेसुध हुए चले जा रहे हैं। बैल-घोड़े, हाथी आदि पशु हृदय में हारे (शिथिल) हुए परवश मन मारे चले जा रहे हैं।
दो० - गुर गुरतिय पद बंदि प्रभु सीता लखन समेत।
फिरे हरष बिसमय सहित आए परन निकेत॥ 320॥
गुरु वशिष्ठ और गुरु पत्नी अरुंधती के चरणों की वंदना करके सीता और लक्ष्मण सहित प्रभु राम हर्ष और विषाद के साथ लौटकर पर्णकुटी पर आए॥ 320॥
बिदा कीन्ह सनमानि निषादू। चलेउ हृदयँ बड़ बिरह बिषादू॥
कोल किरात भिल्ल बनचारी। फेरे फिरे जोहारि जोहारी॥
फिर सम्मान करके निषादराज को विदा किया। वह चला तो सही, किंतु उसके हृदय में विरह का भारी विषाद था। फिर राम ने कोल, किरात, भील आदि वनवासी लोगों को लौटाया। वे सब जोहार-जोहार कर (वंदना कर-करके) लौटे।
प्रभु सिय लखन बैठि बट छाहीं। प्रिय परिजन बियोग बिलखाहीं॥
भरत सनेह सुभाउ सुबानी। प्रिया अनुज सन कहत बखानी॥
प्रभु राम, सीता और लक्ष्मण बड़ की छाया में बैठकर प्रियजन एवं परिवार के वियोग से दुःखी हो रहे हैं। भरत के स्नेह, स्वभाव और सुंदर वाणी को बखान-बखान कर वे प्रिय पत्नी सीता और छोटे भाई लक्ष्मण से कहने लगे।
प्रीति प्रतीति बचन मन करनी। श्रीमुख राम प्रेम बस बरनी॥
तेहि अवसर खग मृग जल मीना। चित्रकूट चर अचर मलीना॥
राम ने प्रेम के वश होकर भरत के वचन, मन, कर्म की प्रीति तथा विश्वास का अपने श्रीमुख से वर्णन किया। उस समय पक्षी, पशु और जल की मछलियाँ, चित्रकूट के सभी चेतन और जड़ जीव उदास हो गए।
बिबुध बिलोकि दसा रघुबर की। बरषि सुमन कहि गति घर घर की॥
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह भरोसो। चले मुदित मन डर न खरो सो॥
रघुनाथ की दशा देखकर देवताओं ने उन पर फूल बरसाकर अपनी घर-घर की दशा कही (दुखड़ा सुनाया)। प्रभु राम ने उन्हें प्रणाम कर आश्वासन दिया। तब वे प्रसन्न होकर चले, मन में जरा-सा भी डर न रहा।
दो० - सानुज सीय समेत प्रभु राजत परन कुटीर।
भगति ग्यानु बैराग्य जनु सोहत धरें सरीर॥ 321॥
छोटे भाई लक्ष्मण और सीता समेत प्रभु राम पर्णकुटी में ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो वैराग्य, भक्ति और ज्ञान शरीर धारण करके शोभित हो रहे हों॥ 321॥
मुनि महिसुर गुर भरत भुआलू। राम बिरहँ सबु साजु बिहालू।
प्रभु गुन ग्राम गनत मन माहीं। सब चुपचाप चले मग जाहीं॥
मुनि, ब्राह्मण, गुरु वशिष्ठ, भरत और राजा जनक - सारा समाज राम के विरह में विह्वल है। प्रभु के गुणसमूहों का मन में स्मरण करते हुए सब लोग मार्ग में चुपचाप चले जा रहे हैं।
जमुना उतरि पार सबु भयऊ। सो बासरु बिनु भोजन गयऊ॥
उतरि देवसरि दूसर बासू। रामसखाँ सब कीन्ह सुपासू॥
(पहले दिन) सब लोग यमुना उतरकर पार हुए। वह दिन बिना भोजन के ही बीत गया। दूसरा मुकाम गंगा उतरकर (गंगापार श्रृंगवेरपुर में) हुआ। वहाँ राम सखा निषादराज ने सब सुप्रबंध कर दिया।
सई उतरि गोमतीं नहाए। चौथें दिवस अवधपुर आए॥
जनकु रहे पुर बासर चारी। राज काज सब साज सँभारी॥
फिर सई उतरकर गोमती में स्नान किया और चौथे दिन सब अयोध्या जा पहुँचे। जनक चार दिन अयोध्या में रहे और राजकाज एवं सब साज-सामान को सम्हालकर,
सौंपि सचिव गुर भरतहिं राजू। तेरहुति चले साजि सबु साजू॥
नगर नारि नर गुर सिख मानी। बसे सुखेन राम रजधानी॥
तथा मंत्री, गुरु तथा भरत को राज्य सौंपकर, सारा साज-सामान ठीक करके तिरहुत को चले। नगर के स्त्री-पुरुष गुरु की शिक्षा मानकर राम की राजधानी अयोध्या में सुखपूर्वक रहने लगे।
दो० - राम दरस लगि लोग सब करत नेम उपबास।
तजि तजि भूषन भोग सुख जिअत अवधि कीं आस॥ 322॥
सब लोग राम के दर्शन के लिए नियम और उपवास करने लगे। वे भूषण और भोग-सुखों को छोड़-छाड़कर अवधि की आशा पर जी रहे हैं॥ 322॥
सचिव सुसेवक भरत प्रबोधे। निज निज काज पाइ सिख ओधे॥
पुनि सिख दीन्हि बोलि लघु भाई। सौंपी सकल मातु सेवकाई॥
भरत ने मंत्रियों और विश्वासी सेवकों को समझाकर उद्यत किया। वे सब सीख पाकर अपने-अपने काम में लग गए। फिर छोटे भाई शत्रुघ्न को बुलाकर शिक्षा दी और सब माताओं की सेवा उनको सौंपी।
भूसुर बोलि भरत कर जोरे। करि प्रनाम बय बिनय निहोरे॥
ऊँच नीच कारजु भल पोचू। आयसु देब न करब सँकोचू॥
ब्राह्मणों को बुलाकर भरत ने हाथ जोड़कर प्रणाम कर अवस्था के अनुसार विनय और निहोरा किया कि आप लोग ऊँचा-नीचा (छोटा-बड़ा), अच्छा-मंदा जो कुछ भी कार्य हो, उसके लिए आज्ञा दीजिएगा। संकोच न कीजिएगा।
परिजन पुरजन प्रजा बोलाए। समाधानु करि सुबस बसाए॥
सानुज गे गुर गेहँ बहोरी। करि दंडवत कहत कर जोरी॥
भरत ने फिर परिवार के लोगों को, नागरिकों को तथा अन्य प्रजा को बुलाकर, उनका समाधान करके उनको सुखपूर्वक बसाया। फिर छोटे भाई शत्रुघ्न सहित वे गुरु के घर गए और दंडवत करके हाथ जोड़कर बोले -
आयसु होइ त रहौं सनेमा। बोले मुनि तन पुलकि सपेमा॥
समुझब कहब करब तुम्ह जोई। धरम सारु जग होइहि सोई॥
आज्ञा हो तो मैं नियमपूर्वक रहूँ! मुनि वशिष्ठ पुलकित शरीर हो प्रेम के साथ बोले - हे भरत! तुम जो कुछ समझोगे, कहोगे और करोगे, वही जगत में धर्म का सार होगा।
दो० - सुनि सिख पाइ असीस बड़ि गनक बोलि दिनु साधि।
सिंघासन प्रभु पादुका बैठारे निरुपाधि॥ 323॥
भरत ने यह सुनकर और शिक्षा तथा बड़ा आशीर्वाद पाकर ज्योतिषियों को बुलाया और दिन (अच्छा मुहूर्त) साधकर प्रभु की चरणपादुकाओं को निर्विघ्नतापूर्वक सिंहासन पर विराजित कराया॥ 323॥
राम मातु गुर पद सिरु नाई। प्रभु पद पीठ रजायसु पाई॥
नंदिगाँव करि परन कुटीरा। कीन्ह निवासु धरम धुर धीरा॥
फिर राम की माता कौसल्या और गुरु के चरणों में सिर नवाकर और प्रभु की चरणपादुकाओं की आज्ञा पाकर धर्म की धुरी धारण करने में धीर भरत ने नंदिग्राम में पर्णकुटी बनाकर उसी में निवास किया।
जटाजूट सिर मुनिपट धारी। महि खनि कुस साँथरी सँवारी॥
असन बसन बासन ब्रत नेमा। करत कठिन रिषिधरम सप्रेमा॥
सिर पर जटाजूट और शरीर में मुनियों के (वल्कल) वस्त्र धारण कर, पृथ्वी को खोदकर उसके अंदर कुश की आसनी बिछाई। भोजन, वस्त्र, बरतन, व्रत, नियम - सभी बातों में वे ऋषियों के कठिन धर्म का प्रेम सहित आचरण करने लगे।
भूषन बसन भोग सुख भूरी। मन तन बचन तजे तिन तूरी॥
अवध राजु सुर राजु सिहाई। दसरथ धनु सुनि धनदु लजाई॥
गहने-कपड़े और अनेकों प्रकार के भोग-सुखों को मन, तन और वचन से तृण तोड़कर (प्रतिज्ञा करके) त्याग दिया। जिस अयोध्या के राज्य को देवराज इंद्र सिहाते थे और (जहाँ के राजा) दशरथ की संपत्ति सुनकर कुबेर भी लजा जाते थे,
तेहिं पुर बसत भरत बिनु रागा। चंचरीक जिमि चंपक बागा॥
रमा बिलासु राम अनुरागी। तजत बमन जिमि जन बड़भागी॥
उसी अयोध्यापुरी में भरत अनासक्त होकर इस प्रकार निवास कर रहे हैं, जैसे चंपा के बाग में भौंरा। राम के प्रेमी बड़भागी पुरुष लक्ष्मी के विलास (भोगैश्वर्य) को वमन की भाँति त्याग देते हैं (फिर उसकी ओर ताकते भी नहीं)।
दो० - राम प्रेम भाजन भरतु बड़े न एहिं करतूति।
चातक हंस सराहिअत टेंक बिबेक बिभूति॥ 324॥
फिर भरत तो (स्वयं) राम के प्रेम के पात्र हैं। वे इस (भोगैश्वर्यत्यागरूप) करनी से बड़े नहीं हुए (अर्थात उनके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है)। (पृथ्वी पर का जल न पीने की) टेक से चातक की और नीर-क्षीर-विवेक की विभूति (शक्ति) से हंस की भी सराहना होती है॥ 324॥
देह दिनहुँ दिन दूबरि होई। घटइ तेजु बलु मुखछबि सोई॥
नित नव राम प्रेम पनु पीना। बढ़त धरम दलु मनु न मलीना॥
भरत का शरीर दिनों-दिन दुबला होता जाता है। तेज (अन्न, घृत आदि से उत्पन्न होनेवाला मेद) घट रहा है। बल और मुख छवि (मुख की कांति अथवा शोभा) वैसी ही बनी हुई है। राम प्रेम का प्रण नित्य नया और पुष्ट होता है, धर्म का दल बढ़ता है और मन उदास नहीं है (अर्थात प्रसन्न है)।
 
जिमि जलु निघटत सरद प्रकासे। बिलसत बेतस बनज बिकासे॥
सम दम संजम नियम उपासा। नखत भरत हिय बिमल अकासा॥
जैसे शरद ऋतु के प्रकाश (विकास) से जल घटता है, किंतु बेंत शोभा पाते हैं और कमल विकसित होते हैं। शम, दम, संयम, नियम और उपवास आदि भरत के हृदयरूपी निर्मल आकाश के नक्षत्र (तारागण) हैं।
ध्रुव बिस्वासु अवधि राका सी। स्वामि सुरति सुरबीथि बिकासी॥
राम प्रेम बिधु अचल अदोषा। सहित समाज सोह नित चोखा॥
विश्वास ही (उस आकाश में) ध्रुव तारा है, चौदह वर्ष की अवधि (का ध्यान) पूर्णिमा के समान है और स्वामी राम की सुरति (स्मृति) आकाशगंगा-सरीखी प्रकाशित है। राम प्रेम ही अचल (सदा रहनेवाला) और कलंकरहित चंद्रमा है। वह अपने समाज (नक्षत्रों) सहित नित्य सुंदर सुशोभित है।
भरत रहनि समुझनि करतूती। भगति बिरति गुन बिमल बिभूती॥
बरनत सकल सुकबि सकुचाहीं। सेस गनेस गिरा गमु नाहीं॥
भरत की रहनी, समझ, करनी, भक्ति, वैराग्य, निर्मल, गुण और ऐश्वर्य का वर्णन करने में सभी सुकवि सकुचाते हैं; क्योंकि वहाँ (औरों की तो बात ही क्या) स्वयं शेष, गणेश और सरस्वती की भी पहुँच नहीं है।
दो० - नित पूजत प्रभु पाँवरी प्रीति न हृदयँ समाति।
मागि मागि आयसु करत राज काज बहु भाँति॥ 325॥
वे नित्य प्रति प्रभु की पादुकाओं का पूजन करते हैं, हृदय में प्रेम समाता नहीं है। पादुकाओं से आज्ञा माँग-माँगकर वे बहुत प्रकार (सब प्रकार के) राज-काज करते हैं॥ 325॥
पुलक गात हियँ सिय रघुबीरू। जीह नामु जप लोचन नीरू॥
लखन राम सिय कानन बसहीं। भरतु भवन बसि तप तनु कसहीं॥
शरीर पुलकित है, हृदय में सीताराम हैं। जीभ राम-नाम जप रही है, नेत्रों में प्रेम का जल भरा है। लक्ष्मण, राम और सीता तो वन में बसते हैं, परंतु भरत घर ही में रहकर तप के द्वारा शरीर को कस रहे हैं।
दोउ दिसि समुझि कहत सबु लोगू। सब बिधि भरत सराहन जोगू॥
सुनि ब्रत नेम साधु सकुचाहीं। देखि दसा मुनिराज लजाहीं॥
दोनों ओर की स्थिति समझकर सब लोग कहते हैं कि भरत सब प्रकार से सराहने योग्य हैं। उनके व्रत और नियमों को सुनकर साधु-संत भी सकुचा जाते हैं और उनकी स्थिति देखकर मुनिराज भी लज्जित होते हैं।
परम पुनीत भरत आचरनू। मधुर मंजु मुद मंगल करनू॥
हरन कठिन कलि कलुष कलेसू। महामोह निसि दलन दिनेसू॥
भरत का परम पवित्र आचरण (चरित्र) मधुर, सुंदर और आनंद-मंगलों का करनेवाला है। कलियुग के कठिन पापों और क्लेशों को हरनेवाला है। महामोहरूपी रात्रि को नष्ट करने के लिए सूर्य के समान है।
पाप पुंज कुंजर मृगराजू। समन सकल संताप समाजू॥
जन रंजन भंजन भव भारू। राम सनेह सुधाकर सारू॥
पाप समूहरूपी हाथी के लिए सिंह है। सारे संतापों के दल का नाश करनेवाला है। भक्तों को आनंद देनेवाला और भव के भार (संसार के दुःख) का भंजन करनेवाला तथा राम प्रेमरूपी चंद्रमा का सार (अमृत) है।
छं० - सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को।
मुनि मन अगम जम नियम सम दम बिषम ब्रत आचरत को॥
दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को।
कलिकाल तुलसी से सठन्हि हठि राम सनमुख करत को॥
सीताराम के प्रेमरूपी अमृत से परिपूर्ण भरत का जन्म यदि न होता, तो मुनियों के मन को भी अगम यम, नियम, शम, दम आदि कठिन व्रतों का आचरण कौन करता? दुःख, संताप, दरिद्रता, दंभ आदि दोषों को अपने सुयश के बहाने कौन हरण करता? तथा कलिकाल में तुलसीदास-जैसे शठों को हठपूर्वक कौन राम के सम्मुख करता?
सो० - भरत चरित करि नेमु तुलसी जो सादर सुनहिं।
सीय राम पद प्रेमु अवसि होइ भव रस बिरति॥ 326॥
तुलसीदास कहते हैं - जो कोई भरत के चरित्र को नियम से आदरपूर्वक सुनेंगे, उनको अवश्य ही सीताराम के चरणों में प्रेम होगा और सांसारिक विषय-रस से वैराग्य होगा॥ 326॥


इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने द्वितीयः सोपानः समाप्तः।
कलियुग के संपूर्ण पापों को विध्वंस करनेवाले श्री रामचरितमानस का यह दूसरा सोपान समाप्त हुआ॥

(अयोध्याकांड समाप्त)

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