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शनिवार, 12 मई 2018

साहित्य त्रिवेणी ३. सुरेन्द्र सिंह पवार बुंदेली लोक गीतों में छंद-वैविध्य

आलेख:
३. बुंदेली लोक गीतों में छंद-वैविध्य
इंजी. सुरेंद्र सिंह पवार
[लेखक परिचय: सुरेंद्र जी पेशे से सिविल इंजीनियर, मन से साहित्य प्रेमी तथा अध्यवसाय से समीक्षक हैं। बहुधा नए विषयों पर कलम चलाने के साथ-साथ वे विश्ववाणी हिंदी में तकनीकी लेखन के प्रति समर्पित हैं। राम सेतु पर उनके लेख को इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स कोलकाता ने 'राष्ट्र में तृतीय श्रेष्ठ लेख" का सम्मान दिया है। संप्रति सेवानिवृत्त कार्यपालन यंत्री जलसंसाधन विभाग म.प्र.] 
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“बुंदेली,पश्चिमी हिंदी की पाँच बोलियों में से एक है; इसका शुद्ध रूप उत्तरप्रदेश के झाँसी, जालौन, हमीरपुर व मध्यप्रदेश के टीकमगढ़, छतरपुर, सागर आदि जिलों में देखने को मिलता है।  दतिया और पन्ना की बुंदेली विशुद्ध न होकर मिश्रित रूप में है। ”—डॉ. ग्रियर्सन
सामान्यत: लोकगीतों को किसी छंद के दायरे में कसना कठिन होता है।  लोकगीतोंमें ध्वनियों की प्रधानता होती है।  लोक ध्वनियों से ही लोक गीतों की पहचान की जाती है। ये लोकगीत पेटेंट नहीं हैं। इन्हें रचनेवाले को सामान्यत: कोई नहीं जानता। पीढ़ी-दर- पीढ़ी वाचिक परंपरा से चले आ रहे ये लोकगीत ऐसे आजाद परिंदे हैं, जिन्हें उड़ने के लिए आसमान भी छोटा पड़ जाता है। ढोलक के अलावा अन्य गैर-परंपरागत वाद्य यथा-- लोटा, थाली, चमीटा, घुँघरू, करतालें आदि इनकी संगत दे देते हैं।  हाँ! उठती मधुर स्वर-लहरियों में मौज-मस्ती होती है, हँसी-ठिठोली होती है, उत्साह होता है, उमंग होती है, जीवन होता है, जीवन जीने की प्रेरणा होती है।  जहाँ तक बुंदेली का प्रश्न है, वह मध्यदेशीय शौरसेनी अपभ्रंश से उत्पन्न हिंदी का रूप है, जो बुंदेलखंड में प्रयुक्त होने से ‘बुंदेली’ कहलाया। यहाँ प्रचलित लोककथाओं, लोकगीतों, मुहावरों, कहावतों आदि की मूल भाषा बुंदेली है और वे ही बुंदेली लोक-साहित्य के आधार स्तंभ हैं,   विशेषकर ‘लोकगीत’। यहाँ गाए जानेवाले लोकगीतों को चार वर्गों में बाँटा जा सकता है,-
१. संस्कार गीत: बुंदेलखंडी जन-जीवन में षोडश-संस्कारों का पारंपरिक विधान प्रचलित है, परन्तु जन्म और विवाह ऐसे संस्कार हैं जिनमें उत्सव का विशेष माहौल रहता है। 
१.१ जन्म संस्कार: इनमें मुख्यत: चरुआ चढ़ाना, दष्टौन, बधावा, पालना और कुआँ-पूजन ऐसे अवसर हैं, जहाँ कोकिल-कंठियों के स्वर मन मोह लेते हैं। सोहर गीत, दादरा और बधाई जन्म-गीतों के प्रचलित रूप हैं। 
सोहर (चरुआ धराई): तुम तो अटरिया चढ़ जइयो, नेंग पिया हम दे दैंहें। 
                                 सासूजी आहें, चरुआ धराहें, चरुआ धराई नेंग माँगें, पिया हम दे दैंहें
                                 हम भी तुमरे, ललनवा तुमरे, लरका तुमाए घर नैयां, पिया हम दे दैंहें
                                 तिजोरी में तारो लगो.
इसी तरह ननद, जिठानी, देवरानी आदि को लेकर अपनी धुन में सोहरा आगे बढ़ता जाता है।  स्थायी टेक होती है, जिसे हर पंक्ति के बाद समवेत स्वर में दोहराया जाता है। सोहर गीत में अन्त्यानुप्रास आवश्यकहोता है। एक अन्य सोहर गीत का आनंद लें:  
                                 सोंठ गिरी के लड्डू, मेरी अम्मा ने भिजवाए री!
                                 उसमें से एक लड्डू, मेरी सासू ने चुराए री!!
                                 सासूजी का हाथ पकड़कर,कोठी अंदर कर दो जी!
                                 कोठी अंदर ना मानें तो, लोहिड़ी साँकल जड़ दो जी!!
                                 लोहिड़ी साँकल ना मानें तो, अलीगढ़ ताला जड़ दो जी!
                                 अलीगढ़ ताला ना माने तो, पुलिस हवाले कर दो जी!!
                                 पुलिस हवाले ना माने तो काला पानी भिजवा दो जी !... 
बधाई गीत:
किसी नये सदस्य का आगमन पूरे परिवार में उत्साह-उमंग भर देता है।  इस गीत में ननद अपनी भाभी से भतीजे के जन्म पर कंगन की माँग कर रही है, आपसी नोंक-झोंक में संबंधों की मधुरता, रिश्तों की मिठास ही ख़ास है।  
                                 कँगना माँगे ननदी!, लालन की बधाई। 
                                 जे कँगना मोरे मैके से ल्याई, रुपइया लै लो ननदी! लालन की बधाई.
                                 जे रुपइया मोरे ससुरा की कमाई, अठन्नी ले लो ननदी! लालन की बधाई.
१.२ विवाह गीत:
विवाह जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और आनंददायी संस्कार है।  विवाह संस्कार का उद्देश्य नए सृजन से सृष्टि के क्रम की निरंतरता है।  बुंदेलखंड की अपनी परंपरागत विवाह पद्धति है, जिसमें सगाई, फलदान, लगुन, मागर-माटी, सीधा छुआना, मंडपाच्छादन, मैहर का पानी, तेल चढ़ाना, हल्दी चढ़ाना, मातृका-पूजन, चीकट, कंकन पुराई, राछ फिराई, बारात निकासी, बाबा का स्वांग, द्वारचार, चढाव, कन्यादान, बेंई, भाँवरें, पाँव-पखराई, कुँवर कलेऊ, रहस बधाव, ज्योंनार, बिदाई, (बूड़े बब्बा की पूजा, बाती मिलाई, कंकन छुड़ाई- सं) मोंचायनों, दसमाननी इत्यादि रस्में हैं।  सामान्यत: विवाह-गीतों में बन्ना-बन्नी, गारी, बिदाई गीत प्रमुख हैं:
(अ) बनरा/ बन्ना गीत:  
                                 मोरे राम लखन से बनरा आली, कौने बिलमा लए री.
                                 उनके बाबुल ने बिलमा लये, माता कंठ लगा लए री.
संबंधों की लंबी फेहरिस्त में चाचा, मामा, मौसा, फूफा, बहनोई आदि दुल्हे को रोककर टीका करते हैं और चाची, मामी, फुआ, मौसी, बहिन गले से लगाती हैं। विवाह में भाँवर के पहले तक बनरा या बन्ना गाये जाते हैं।  बन्नी कन्या पक्ष में गाई जाती है और बनरा जैसी ही होती है—
                                 दूद पिलाये, बेटी पलना झुलाये, अब हमसे राखे ने जाय भले जू.
                                 जो कछु देने होय, सो देइये मोरे बाबुल, फिर तुमसे दव ने जाय भले जू.
दुल्हन का अपने माँ-बाप और अन्य रिश्तेदारों के साथ भावनात्मक वार्तालाप इन गीतों में होता है:—
-- बना की बनरी हेरें बाट,बना मोरे कब घर आबै जू 
--  बने दूला छबि देखौ भगवान की,दुल्हिन बनी सिया जानकी 
-- वारी सिया को चढत चढाव, हरे मंडप के नैचे जू 
(ब) गारी: 
यह शादी समारोह की बोझिलता को मृदुल हास्य में बदलने का गीत है। (इनमें नए जुड़े संबंधों को सहज-सरस बनाने तथा प्रारंभिक संकोच मिटाकर पारिवारिक आत्मीयता स्थापित करने के लिए छेड़-छाड़ और चुटकी काटने जैसी अभिव्यक्तियाँ की जाती हैं। महिलाओं का आशु कवित्व भी इनमें झलकता है जब वे दूल्हे के रिश्तेदारों के नाम ले-लेकर उनके स्थान, पेशे या व्यक्तित्व पर चुभती हुई फब्तियाँ कसती हैं। अशिक्षित जनों में अपमानजनक बातें कहीं जाने से ये गीत विवाद के कारण भी बनजाते हैं। आजकल संपन्न-शिक्षित समाज में इनका चलन घटता जा रहा है-सं):   
-- जा हरी रँगीली बाँसुरी, जा बाजत काए नईयां.
-- समदी के भाग में नईयां लुगाई, मैं कैसों करों भाई.
 -- मोरे नए जिजमान, कुत्ता पोसले, कुत्ता पोसले. जैसे कुत्ता की कुत्ता, वैसी समदी की मूंछ हत्ता फेर ले. कुत्ता पोस ले  
-- आसपास चोरैया बो दइ, बीच में दोना राई को, मरे जात बड़वारी खों.
-- सबके हो गये दो-दो ब्याव, समदी खों बांद दई बुकरिया, के बोल दारी बुकरी बोल- 
(स) बिदाई गीत:
विवाह के बाद बेटी को बिदा करते माँ–बाप और अन्य रिश्तेदार इन गीतों के माध्यम से वर-वधु को भविष्य के लिए सीख देते हैं। १६-१२ पर यति तथा अंत में ‘मोरे लाल’, ‘अहो बेटी’, ‘जू’ की आवृति गायन में मार्मिकता और करुणा का समावेश करती है:
जाओ लली! तुम फरियो-फूलियो, सदा सुहागन रहियो मोरे लाल.
सास-सुसर की सेवा करियो, पतिव्रत धर्म निभइयो मोरे लाल.
आगे उठियो, पीछे सोइयो, सबके पीछे जइयो मोरे लाल.
(द) दादरा:
-- छज्जे पे बेठी नार, उड़ा रई कनकैया.
    पेलों पेंच मोरे, सुसरा ने डारो,
    कर घूँघट की ओट, काट लई कनकैया.
-- लंबे ढकोरा करी ककरी, कबे आहो छैला हमारी बखरी.
-- राते कहरवा खूब सुनेरी मैंने.
-- धीरे चढ़ाओ मनिहार चूड़ियाँ
२. व्रत-त्यौहार गीत:
वैसे लोक अनंत भी है और आँगन भी।  वह अनंत को आँगन में उतार लेता है और घर के आँगन में अनंत की यात्रा करता है। लोक में ही वह शक्ति है कि वह आवाहन न जानते हुए भी सारे देवताओं को एक छोटा सा चौक पूरकर उसमें प्रतिष्ठित कर सकता है। लोक में ही वह साहस है कि वह देवता को स्थापित कर जब चाहे नदी में विसर्जित करते हुए आमंत्रण देता है कि अगले वर्ष फिर बुलाएँगे। बुंदेलखंड में हर दिन एक त्यौहार होता है और हर त्यौहार के अपने गीत हैं:
२.१ कार्तिक स्नान:
कार्तिक का महिना पवित्र माना गया है। महिलाएँ  एक माह तक भगवान कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए व्रत और उपवास रखतीं हैं, सुबह होने के साथ लोक संगीत फूट पड़ता है:
सखी री! मैं तो भई न बिरज की मोर.
बन में रहती, बन फल खाती, बन ई में करती किलोर.
उड़-उड़ पंख गिरैं धरती पे बीनै नंदकिशोर .
उन पंखन को मुकट बना के बाँधें जुगलकिशोर
चंद्र सखी भज बालकृष्ण छबि चरण कमल चितचोर. –(कतकारियों का गीत)
२.२ क्वांर/चैत्र नवरात्रि:
नौ दिनों तक भगतें, (जस, जवारे, अलाव गीत, भजन -सं.) और देवी गीत गाए जाते हैं। लोक कलाकार अपने लोक वाद्य ढोलक, नगड़िया, झेला, झाँझ, मजीरा,  लेकर झूम-झूम कर गाते हैं-
भगत:  कैसे के दरसन पाऊँ री!, माई तोरी सँकरी दुअरिया,
सँकरी दुअरिया, तोरी ऊँची अटरिया, कैसे के दरसन पाऊँ री!.
माई के दुआरे एक बाँझ पुकारे, देव लालन घर जाऊँ री!, कैसे के दरसन पाऊँ री!.
व्दारका गुप्त ’गुप्तेश्वर’ का एक देवी गीत “करत भगत हो आरती माई दोई बिरियाँ” गली-गली में सुना जाता है। 
२.३ जगदेव पंवारौ:
यह मात्रिक छंद है, ध्रुव पंक्ति में १८ मात्राएँ, अंत में ‘हो माँ’ की स्थायी टेक तथा अन्तरा में १२-९  पर यति और प्रथम अर्धाली के अंत में ‘रे’ का प्रभावशाली प्रयोग होता है :
राजा जगत के मामले हो मां!.
कौने रची पिरथवी (रे), दुनिया संसार. कौने रचे पंडवा, कौने कैलाश. राजा जगत--
२.४ होली/होरी:
होली या होरी में वर्ण्य विषय रंग-गुलाल खेलना है जिसमें राधा-कृष्ण की होली, देवर-भौजाई की होली, गोप-गोपियों की होली तथा राम-सीता की होली प्रमुख हैं. होली का गायन होलिकात्सव तक सीमित है.
अंगना में उड़त अबीर, बलम होली खों रिसाने.
कोरी चुनरिया कोरी है चोली, मैं कैसे खेलों उन संग होली.
तनकऊ धरे न धीर. बलम होली..... 
२.५ फाग:
फाग एक मात्रिक छंद है, जिसे वार्णिकता की कसौटी पर भी कसा जाता है।  गायकी में सुविधानुसार मात्राएँ गिराने या बढ़ाने ही नहीं अलग शब्द जोड़ने की भी स्वतंत्रता फाग-गायक ले लेता है जिससे उसकी गायकी औरों से भिन्न और विशिष्ट हो सके। सामान्यत: ‘अरे हाँ-- -- -,’ के दीर्घ आलाप के साथ फाग प्रारंभ होती है.फिर एक गायक मुखड़े (ध्रुव पंक्ति) को राग के साथ उठाता है, जिसे शेष गायक दो दलों में बँटकर गाते हैं। एक तरह के प्रतियोगी भाव से, दूसरे दल पर चढ़कर, उसे चारों खूँट चित्त करने की मुद्रा में गायकों का हाव-भाव, हाथ- पैरों की थिरकन और साजिंदों के साथ ताल-मेल, फाग-गायन की विशेषताएँ होती हैं। टिमकी, मृदंग और मजीरे के बिना फाग की कल्पना अधूरी है। फाग की प्रथम अर्धाली १९ मात्राओं की होती है, अर्धाली के अंत में दो गुरु (SS) या दो लघु एवं एक गुरु (IIS) या एक गुरु और दो
लघु (SII) होते हैं, मुखड़े की दूसरी अर्धाली १३ मात्रा की होती है तथा अंत में गुरु लघु(SI) होते हैं।  फाग के अंतरे २४-२४ मात्राओं के होते है, जिनके चार चरण होते है। पहले दो रोला छंद में ११-१३ मात्राओं और अंत में दो गुरु (SS) तथा अंतिम दो दोहे की २४ मात्राएँ होती है और अंत में गुरु लघु(SI)।  मुखड़े अथवा अंतरे की अंतिम अर्धाली से बाद वाला अंतरा प्रारंभ होता है। कहीं-कहीं  बालमा अथवा लाल शब्द जोड़कर विशेष लय-लोच के साथ फाग गाई जाती है। विषयानुसार रामावतारी, कृष्णावतारी, सुराजी, त्यौहारी, मतवारी, व्यवहारी, श्रृंगारी, हास्य-व्यंग अथवा किसानी फागें होती हैं।  ईसुरी की (१६-२२ मात्राओं की) चौकड़िया फागें प्रचलित हैं।  बलीराम तथा नीलकंठ फाग लेखन में ख्यात रहे। 
हम खों बिसरत नहीं बिसारी, हेरन हँसी तुम्हारी.
जुबान विशाल चाल मतवाली, पतरी कमर इकारी.
भौंह कमान बान सी ताने, नजर तिरीछी भारी.
'ईसुर' कात हमारे कोदें, तनक हेर लो प्यारी...   ( नायिका वर्णन, ईसुरी)
सेना सजी करन अलबेला की, दल पनिया पंथ दिखाय. (महाभारत, नीलकंठ)
दुल्हन बनी सियाजू बैठीं हैं, दूल्हा हैं राजाराम.  (मानस-फाग,  देवराज)
समर में जूझ गयीं दुर्गा रानी, जग जाहर कर लओ नाम. (वीर गाथा, आचार्य भगवत दुबे)
२.६ राई / राही :
राई की एक ही धुन है।  यह अलग बात है कि जिसके कंठ में ईश्वरीय प्रदत्त लोच, हरकतें व परिपक्वता होती है, उसके राई गायन में निखार आ जाता है। राई गायिका कभी ताल सहित गायन करती है, कभी ताल रहित। एक ही पंक्ति की पुनरावृत्ति होती है। इसमें ‘ए दैया’, ‘ऐ भईया’, ‘ऐ राजा’, ‘हाय’, ‘अरे’, ‘अरी’, ‘अर रा रा’ की टेक भावाभिव्यक्ति में सहायक होती है और कर्णप्रिय भी होती है।  ढोलक और मृदंग मुख्य वाद्य हैं। रमतूला, टिमकी, मँजीरा, घुँघरू और सारंगी का भी प्रयोग होता है।
 - टिमकी में गणेश, टिमकी मेंs गणेsश, ढोलक में बैठी मैया शारदा.
- ऊंसई लै ल्यो प्रान, ऊंsसई लै ल्यो प्राsन, हाय! तिरछी नजरिया नें घालियो.
- भोंरा बन गए नंदलाल, बेला कली बन गईं राधिका 
यह २९ मात्राओं का लोक-छंद है जिसमें सामान्यत: १०-१९ पर यति होती है. कई बार गायन की दृष्टि से मात्राएँ घट-बढ़ भी जाती हैं. प्रथम अर्धाली के अंत में गुरु-लघु(SI) तथा दूसरी के अंत में लघु –गुरु(IS) का उच्चारण रस उत्पन्न करता है।राई के साथ ख्याल, फाग, टोरा, फुंदरिया और स्वांग गाये जाते हैं-- -
२.७ टोरा:
जइयो ने गोरी कोउ मेला में, मेला में री, झमेला में. जइयो ने 
ओ मेला में सारी फटत है, जम्फर फटत पतेला में. जइयो ने 
ओ मेला में बड़ी बदनामी, पूछत ने कोई धेला में. जइयो ने-- -
२.८ स्वांग:
राई नृत्य की लम्बी और चरम उत्तेजना के शमन के लिए बीच-बीच में स्वांग किए जाते हैं। ये २ या ४ पंक्तियों के हल्के-फुल्के हास्य के साथ मार्मिक-व्यंग गीत होते हैं:
हातों में डरी हतकड़ी, पावन डरी जंजीर. जाय कहो उस छैल से, कोरट में करें अपील.
हमाये हिलमिल के छुड़ा लेहें बालमवा-- --
३. यात्रा गीत:
३.१ बंबुलिया:
संक्रांति, शिवरात्रि, बसंत पञ्चमी आदि पर्वों अथवा किसी भी दिन नर-नारी एक साथ बंबुलिया गाते हुए यात्रा करते जाते हैं। सामूहिक यात्राओं का उद्देश्य तीर्थ-स्नान, देव-दर्शन, पूजा-अर्चन, काँवर से जल लाकर इष्ट को अर्पण करना होता है। (व्यक्तिगत यात्राओं में मायके से ससुराल जाती लड़कियाँ नर्मदा को माँ मानते हुए इन्हें गाकर मनोभाव व्यक्त करती है। -सं.)  बंबुलिया का ताना-बाना मात्रिक है, परंतु वार्णिक अर्हताएँ भी हैं। इनमें चार पद होते हैं। प्रथम पद में १४ मात्राएँ  होती हैं जो पंक्ति के पहले 'अरे' जोड़ने से १७ हो जाती हैं। दूसरे पद में प्रथम पद की अंतिम ९ मात्राएँ लेकर ८ मात्राएँ नई जोड़ी जातीं हैं। तीसरे पद में १०  या १२ मात्राएँ होती हैं, चौथे पद में प्रथम पद की पुनरावृत्ति होती है। प्रथम पद नगण से प्रारंभ तथा दूसरी अर्धाली के अंत में गुरु (स) की उपस्थिति लालित्य प्रदान करती है। इसे बिना वाद्य के भी गाया जाता है। यात्रा में, खेत-खलिहान में तथा तीजा आदि उत्सवों पर गायक दो दलों में बँटकर बंबुलिया गाते हैं। बंबुलिया गीत यू ट्यूब पर भी उपलब्ध हैं। अधिक आनंद तब आता है जब महिलाओं व पुरुषों के प्रतिस्पर्धी दल हों:
- दरस की अरे, बेरा तो भई, बेरा तो भई, रेsss  पट खोलो, छबीले महराज हो, दरस की –
-  नरबदा मइया! ऐसी तो मिली रे, ऐसी तो मिली, जैसे मिले मतारी अरु बाप रेsss . नरबदा मैया हो
३.२ दिवारी:  बुंदेलखंड की गाथाओं को इसी श्रेणी में लिया जाता है. बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में चरवाही लोकगाथाएँ वाचिक परंपरा में आईं। वे प्राकृत की ‘गाहा’ यानि ‘गाथा’ पर आधारित हैं। संक्षिप्त आख्यान ‘गहनई’ कहा जाता है, जिसमें कन्हैया और गोपी की गाथा है। गहनई चौदहवीं सदी के आस-पास की मानी गयी हैं, कारसदेव और धर्मा साँवरी की गाथाएँ ‘गाहा’ के रूप में हैं जबकि उसके बाद की गहनई में दिवारी गीतों का लोक छंद अपनाया गया है। दिवारी-गीत नृत्य के साथ गाए जाते हैं जिनमें मोनिया नृत्य, जबाबी दिवारी और कछियानी दिवारी (गहनई का रूप) प्रमुख है।आमतौर पर इसमें दोहे होते है, कहीं-कहीं बीच में रसिया भी गाए जाते हैं:
- सदा भवानी दाहिने, सनमुख खड़े गणेश।
तीन देवता रक्षा करें, ब्रिम्हा बिस्नु महेस। (सुमरनी दिवारी)
-  ब्रिंदाबन की गैल में, इक पीपर इक आम।
जे तरे बैठे दो जने, इक राधा इक श्याम। ( मोनिया नृत्य, कन्हैया कैसेट टीकमगढ़ से)
- राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट।
अंत काल पछिताओगे, प्रान जाएँगे छूट। (अहीर नृत्य, सागर)
- राधा तू बड़भागिनी, कौन तपस्या कीन?
तीन लोक चौदह भुवन, सब तेरे आधीन। (कछियानी दिवारी, रसिया के बीच दोहा)
४. अन्य गीत:
इन गीतों में बुंदेलखंड की बहुविध झाँकिया दिखाई देती हैं। धर्म-आध्यात्म (भजन), घर-परिवार, आपसी नोंक-झोंक, बाल-गीत, लोरियाँ, खेल-गीत, नौरता, चक्की से नाज पीसती गातीं महिलाएँ (प्रभाती, हरबोले), खेतों में काम करते मेहनतकश लोग (बिलवारी), बदलते मौसम के गीत, कजली (कजरी), सैरा, ढिमरहाई (ढीमरों के लोकगीत), धुबियाई, (धोबियों के लोकगीत), मछरहाई (मछुआरों के लोकगीत) ,लुहरयाई (लुहारों के गीत), गाँव की चौपाल, गम्मत, आल्हा, अटका आदि अनेक प्रकार के लोकगीत वीर-प्रसू बुंदेली माटी और जन-मन को रस-सिक्त करते रहते हैं।
४.१ आल्हा:
वीरों का छंद आल्हा बुंदेलखंड की ही देन है। इसे वीर और लावणी (महाराष्ट्र में) भी कहा जाता है। आल्हा ‘सत’ और ‘पत’ पर मर मिटनेवाले बुंदेली वीरों का आख्यान है। आल्हा में १६-१५ मात्राओं पर यति होती है। पदांत में ताल (SI) आवश्यक है। जगनिक का ‘आल्ह-खंड’ एक प्रबंध काव्य है, जिसमें महोबा के कालजयी महावीर द्वय आल्हा-ऊदल के वीर चरित का विस्तृत वर्णन है। (आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैया बिन सें हार गयी तलवार -सं.) आल्हा बहुत ओज-पूर्ण छंद है, मेघ-गर्जन के साथ अल्हैतों (आल्हा-गायकों) का अंग-अंग फड़कने लगता है और श्रोताओं की हृदय गति बढ़ती जाती है और सुनाई देती है वीर-हुंकार:
बारह बरिस लों कूकर जिए, औ' तेरह लों जिए सियार।
बरिस अठारह छत्री जिए, आगे जीवन को धिक्कार।।
अपनी दीर्घ कालयात्रा में इन लोकगीतों का बहुत कुछ कलेवर बदल गया है, भाषा भी, कथ्य भी, सुनने वाले भी, सुनाने वाले भी। साहित्यिक रूप में सुरक्षित-संरक्षित न रहने पर भी जन-जन के कंठ का हार बने इन लोकगीतों की ध्वनियाँ-प्रतिध्वनियाँ अनेक बल खातीं हुईं अब तक चलीं आ रहीं हैं। अंत में; लोकगीतों-विशेषत; संस्कार गीतों के संबंध  में दो बातें प्रस्तुत कर इस आलेख को समाप्त करना चाहता हूँ।
१. संस्कार गीतों का अपना पैमाना होता है, उन्हें मापने के लिए दिल चाहिए, दिमाग नहीं। अग्रज आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' छंदशास्त्र पर महत्वपूर्ण, बृहद, मौलिक कार्य कर और करा रहे हैं। इन संस्कार गीतों को छंद-शास्त्र की कसौटी पर कसने कर इनके रचना-मानक निर्धारण की दिशा में सचेष्ट हैं। ऐसा करने का उद्देश्य लोकगीतों में अन्तर्निहित छंदों को पिंगलीय छंदों  के साथ जोड़ना है। वे ऐसा कर सके तो इन्हें स्थायित्व तथा पिंगल को विपुल नव छंद मिल सकेंगे।
२. संस्कार-गीत घर-परिवार की महिलाओं की थाती हैं। अवसर विशेष पर स्व-स्फूर्त वे प्रमुदित होकर गाने लगती हैं और वातावरण को अनुकूल बनातीं हैं। शनै:-शनै: यह परंपरा विलुप्त होती जा रही है। कहीं ऐसा न हो कि, राजपूताने की
रुदालियों जैसी बुंदेलखंड में बधावा और ब्याब पर बाहर से गानेवाली लाना पड़ें।
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संपर्क: २०१ शास्त्री नगर,गढ़ा, जबलपुर. चलभाष: ९३००१०४२९६, ७०००३८८३३२, ईमेल: pawarss2506@gmail.com
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