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शनिवार, 12 मई 2018

गीत: जन-गण ने बस इतना चाहा

एक रचना:
*
जन-गण नेबस इतना चाहा, 
तुम वादों को कहो न जुमला.
*
सूख न जाए कहीं तुम्हारी, आँखों का पानी ही सारा. 
करो सफाई गंगा की तुम, गंगाजल हो जाए खारा.
कभी राम का, कभी कृष्ण का, कभी नाम शंकर का जपते- 
मस्जिद-गिरिजा क्या तुमको तो लगे मदरसा भी अब प्यारा. 
सीता, राधा, पार्वती को छोड़ 
अकारण कहो: 'न फिसला.'
जन-गण नेबस इतना चाहा, 
तुम वादों को कहो न जुमला.
*
हरिजन के घर भोजन करते, होटल से आता है खाना. 
सचमुच ही हो निपुण-कुशल अब, सीख गए हो बात बनाना.
'गोरख' का अनुयायी भी अब, सत्ता की माया का मारा-
'भाग मछन्दर' कहे न; उससे वोट माँगता सुगढ़-सयाना.
लोकतंत्र की खिली कमलिनी 
देख हरकतें जाए न कुम्हला.
जन-गण नेबस इतना चाहा, 
तुम वादों को कहो न जुमला.
*
'बात' बनाने में माहिर है, 'सपनों का सौदागर' माना.
सारी दुनिया में जाहिर है, चाहे सकल विरोध मिटाना.
लोकतंत्र की परिपाटी है, बनें विरोधी धुर हमजोली-
राष्ट्रवाद-हिंदुत्व डुगडुगी, बजा चाहते गाल बजाना.
पत्थर ह्रदय तुम्हारा, मरते 
देख कृषक को तनिक न पिघला.
जन-गण ने बस इतना चाहा, 
तुम वादों को कहो न जुमला.
*
मिलें अल्प सीटें तो भी तुम, येन-केन सरकार बनाते.
हे जुगाड़-तिकड़म के स्वामी!, गले लगा ठेंगा दिखलाते.
गिरगिट हारा रंग बदलते देख, करतबों से मरकट भी-
भारत की हर कुर्सी शंकित, जब से देखा आँख गड़ाते.
शिव-गण सस्ते पेट्रोल को, 
महँगाकर इठलाया-मचला.
जन-गण ने बस इतना चाहा, 
तुम वादों को कहो न जुमला.
*
शकुनी, कंस व माहुल मामा, का अवतार नया प्रगटा है ,  
जलें-मरें भांजियाँ बिचारी, यह निज सत्ता में सिमटा है.
कलप रहे पेंशनर बिचारे, रोजगार बिन युवा रो रहे- 
मेक-मेड इंडिया माल में, हर कुटीर उद्योग पिटा है.
नफरत काजल लगा, रतौंधी 
वाली आँख गयी क्या पगला?
जन-गण ने बस इतना चाहा, 
तुम वादों को कहो न जुमला.
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१२.५.२०१८ 
(इस रचना का किसी व्यक्ति या देश से कोई संबंध नहीं है.) 

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