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बुधवार, 2 मई 2018

दोहा सलिला

दोहा सलिला 
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वे पत्थरबाजी  करें, हम देते हैं फूल। 
काश! फूल को फूल दें, और शूल को शूल।।
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वैसी ही पूजा करें, जैसा देखें दैव। 
लतखोरों को लाट ही, भाती 'सलिल' सदैव।।
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चंद्र-भानु को साथ ही, देख गगन है मौन। 
किसकी सुषमा अधिक है, बता सकेगा कौन?
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सेंक रही रोटी सतत, राजनीति दिन-रात।
हुई कोयला सुलगकर, जन से करती घात।।
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देख चुनावी मेघ को, दादुर करते शोर। 
कहे भोर को रात यह, वह दोपहरी भोर।।
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कथ्य, भाव, लय, बिंब, रस, भाव, सार सोपान। ले समेट दोहा भरे, मन-नभ जीत उड़ान।। 
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सजन दूर मन खिन्न है, लिखना लगता त्रास
सजन निकट कैसे लिखूँ, दोहा हुआ उदास
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