मुनियों की आज्ञा से शिव और पार्वती ने गणेश का पूजन किया। मन में देवताओं को अनादि समझकर कोई इस बात को सुनकर शंका न करे (कि गणेश तो शिव-पार्वती की संतान हैं, अभी विवाह से पूर्व ही वे कहाँ से आ गए?)॥ 100॥
जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥
गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥
गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥
वेदों में विवाह की जैसी रीति कही गई है, महामुनियों ने वह सभी रीति करवाई। पर्वतराज हिमाचल ने हाथ में कुश लेकर तथा कन्या का हाथ पकड़कर उन्हें भवानी (शिवपत्नी) जानकर शिव को समर्पण किया।
पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हियँ हरषे तब सकल सुरेसा॥
बेदमंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥
बेदमंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥
जब महेश्वर (शिव) ने पार्वती का पाणिग्रहण किया, तब (इंद्रादि) सब देवता हृदय में बड़े ही हर्षित हुए। श्रेष्ठ मुनिगण वेदमंत्रों का उच्चारण करने लगे और देवगण शिव का जय-जयकार करने लगे।
बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥
अनेकों प्रकार के बाजे बजने लगे। आकाश से नाना प्रकार के फूलों की वर्षा हुई। शिव-पार्वती का विवाह हो गया। सारे ब्रह्मांड में आनंद भर गया।
दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥
अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥
अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥
दासी, दास, रथ, घोड़े, हाथी, गायें, वस्त्र और मणि आदि अनेक प्रकार की चीजें, अन्न तथा सोने के बर्तन गाड़ियों में लदवाकर दहेज में दिए, जिनका वर्णन नहीं हो सकता।
छं० - दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।
का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥
सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।
पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥
का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥
सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।
पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥
बहुत प्रकार का दहेज देकर, फिर हाथ जोड़कर हिमाचल ने कहा - हे शंकर! आप पूर्णकाम हैं, मैं आपको क्या दे सकता हूँ? (इतना कहकर) वे शिव के चरणकमल पकड़कर रह गए। तब कृपा के सागर शिव ने अपने ससुर का सभी प्रकार से समाधान किया। फिर प्रेम से परिपूर्ण हृदय मैना ने शिव के चरण कमल पकड़े (और कहा -)
दो० - नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥ 101॥
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥ 101॥
हे नाथ! यह उमा मुझे मेरे प्राणों के समान (प्यारी) है। आप इसे अपने घर की टहलनी बनाइएगा और इसके सब अपराधों को क्षमा करते रहिएगा। अब प्रसन्न होकर मुझे यही वर दीजिए॥ 101॥
बहु बिधि संभु सासु समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥
शिव ने बहुत तरह से अपनी सास को समझाया। तब वे शिव के चरणों में सिर नवाकर घर गईं। फिर माता ने पार्वती को बुला लिया और गोद में बिठाकर यह सुंदर सीख दी -
करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥
बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥
बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥
हे पार्वती! तू सदाशिव के चरणों की पूजा करना, नारियों का यही धर्म है। उनके लिए पति ही देवता है और कोई देवता नहीं है। इस प्रकार की बातें कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू भर आए और उन्होंने कन्या को छाती से चिपटा लिया।
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥
(फिर बोलीं कि) विधाता ने जगत में स्त्री जाति को क्यों पैदा किया? पराधीन को सपने में भी सुख नहीं मिलता। यों कहती हुई माता प्रेम में अत्यंत विकल हो गईं, परंतु कुसमय जानकर (दुःख करने का अवसर न जानकर) उन्होंने धीरज धरा।
पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेमु कछु जाइ न बरना॥
सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥
सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥
मैना बार-बार मिलती हैं और (पार्वती के) चरणों को पकड़कर गिर पड़ती हैं। बड़ा ही प्रेम है, कुछ वर्णन नहीं किया जाता। भवानी सब स्त्रियों से मिल-भेंटकर फिर अपनी माता के हृदय से जा लिपटीं।
छं० - जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं॥
जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं॥
जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥
पार्वती माता से फिर मिलकर चलीं, सब किसी ने उन्हें योग्य आशीर्वाद दिए। पार्वती फिर-फिरकर माता की ओर देखती जाती थीं। तब सखियाँ उन्हें शिव के पास ले गईं। महादेव सब याचकों को संतुष्ट कर पार्वती के साथ घर (कैलास) को चले। सब देवता प्रसन्न होकर फूलों की वर्षा करने लगे और आकाश में सुंदर नगाड़े बजाने लगे।
दो० - चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥ 102॥
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥ 102॥
तब हिमवान अत्यंत प्रेम से शिव को पहुँचाने के लिए साथ चले। वृषकेतु (शिव) ने बहुत तरह से उन्हें संतोष कराकर विदा किया॥ 102॥
तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥
आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥
आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥
पर्वतराज हिमाचल तुरंत घर आए और उन्होंने सब पर्वतों और सरोवरों को बुलाया। हिमवान ने आदर, दान, विनय और बहुत सम्मानपूर्वक सबकी विदाई की।
जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥
जगत मातु पितु संभु भवानी। तेहिं सिंगारु न कहउँ बखानी॥
जगत मातु पितु संभु भवानी। तेहिं सिंगारु न कहउँ बखानी॥
जब शिव कैलास पर्वत पर पहुँचे, तब सब देवता अपने-अपने लोकों को चले गए। (तुलसीदास कहते हैं कि) पार्वती और शिव जगत के माता-पिता हैं, इसलिए मैं उनके श्रृंगार का वर्णन नहीं करता।
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥
शिव-पार्वती विविध प्रकार के भोग-विलास करते हुए अपने गणों सहित कैलास पर रहने लगे। वे नित्य नए विहार करते थे। इस प्रकार बहुत समय बीत गया।
तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुरु समर जेहिं मारा॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥
तब छह मुखवाले पुत्र (स्वामिकार्तिक) का जन्म हुआ, जिन्होंने (बड़े होने पर) युद्ध में तारकासुर को मारा। वेद, शास्त्र और पुराणों में स्वामिकार्तिक के जन्म की कथा प्रसिद्ध है और सारा जगत उसे जानता है।
छं० - जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥
यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥
यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥
षडानन (स्वामिकार्तिक) के जन्म, कर्म, प्रताप और महान पुरुषार्थ को सारा जगत जानता है। इसलिए मैंने वृषकेतु (शिव) के पुत्र का चरित्र संक्षेप में ही कहा है। शिव-पार्वती के विवाह की इस कथा को जो स्त्री-पुरुष कहेंगे और गाएँगे, वे कल्याण के कार्यों और विवाहादि मंगलों में सदा सुख पाएँगे।
दो० - चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु।
बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥ 103॥
बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥ 103॥
गिरिजापति महादेव का चरित्र समुद्र के समान (अपार) है, उसका पार वेद भी नहीं पाते। तब अत्यंत मंदबुद्धि और गँवार तुलसीदास उसका वर्णन कैसे कर सकता है!॥ 103॥
संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुखु पावा॥
बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥
बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥
शिव के रसीले और सुहावने चरित्र को सुनकर मुनि भरद्वाज ने बहुत ही सुख पाया। कथा सुनने की उनकी लालसा बहुत बढ़ गई। नेत्रों में जल भर आया तथा रोमावली खड़ी हो गई।
प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥
अहो धन्य तब जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥
अहो धन्य तब जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥
वे प्रेम में मुग्ध हो गए, मुख से वाणी नहीं निकल रही थी। उनकी यह दशा देखकर ज्ञानी मुनि याज्ञवल्क्य बहुत प्रसन्न हुए (और बोले -) हे मुनीश! अहा! तुम्हारा जन्म धन्य है, तुमको गौरीपति शिव प्राणों के समान प्रिय हैं।
सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥
शिव के चरण कमलों में जिनकी प्रीति नहीं है, वे राम को स्वप्न में भी अच्छे नहीं लगते। विश्वनाथ शिव के चरणों में निष्कपट (विशुद्ध) प्रेम होना यही रामभक्त का लक्षण है।
सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥
पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥
पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥
शिव के समान रघुनाथ (की भक्ति) का व्रत धारण करनेवाला कौन है? जिन्होंने बिना ही पाप के सती जैसी स्त्री को त्याग दिया और प्रतिज्ञा करके रघुनाथ की भक्ति को दिखा दिया। हे भाई! राम को शिव के समान और कौन प्यारा है?
दो० - प्रथमहिं मैं कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।
सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥ 104॥
सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥ 104॥
मैंने पहले ही शिव का चरित्र कहकर तुम्हारा भेद समझ लिया। तुम राम के पवित्र सेवक हो और समस्त दोषों से रहित हो॥ 104॥
मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥
सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥
सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥
मैंने तुम्हारा गुण और शील जान लिया। अब मैं रघुनाथ की लीला कहता हूँ, सुनो। हे मुनि! सुनो, आज तुम्हारे मिलने से मेरे मन में जो आनंद हुआ है, वह कहा नहीं जा सकता।
राम चरित अति अमित मुनीसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥
तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥
तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥
हे मुनीश्वर! रामचरित्र अत्यंत अपार है। सौ करोड़ शेष भी उसे नहीं कह सकते। तथापि जैसा मैंने सुना है, वैसा वाणी के स्वामी (प्रेरक) और हाथ में धनुष लिए हुए प्रभु राम का स्मरण करके कहता हूँ।
सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
सरस्वती कठपुतली के समान हैं और अंतर्यामी स्वामी राम (सूत पकड़कर कठपुतली को नचानेवाले) सूत्रधार हैं। अपना भक्त जानकर जिस कवि पर वे कृपा करते हैं, उसके हृदयरूपी आँगन में सरस्वती को वे नचाया करते हैं।
प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥
परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥
परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥
उन्हीं कृपालु रघुनाथ को मैं प्रणाम करता हूँ और उन्हीं के निर्मल गुणों की कथा कहता हूँ। कैलास पर्वतों में श्रेष्ठ और बहुत ही रमणीय है, जहाँ शिव-पार्वती सदा निवास करते हैं।
दो० - सिद्ध तपोधन जोगिजन सुर किंनर मुनिबृंद।
बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिव सुखकंद॥ 105॥
बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिव सुखकंद॥ 105॥
सिद्ध, तपस्वी, योगीगण, देवता, किन्नर और मुनियों के समूह उस पर्वत पर रहते हैं। वे सब बड़े पुण्यात्मा हैं और आनंदकंद महादेव की सेवा करते हैं॥ 105॥
हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥
जो भगवान विष्णु और महादेव से विमुख हैं और जिनकी धर्म में प्रीति नहीं है, वे लोग स्वप्न में भी वहाँ नहीं जा सकते। उस पर्वत पर एक विशाल बरगद का पेड़ है, जो नित्य नवीन और सब काल (छहों ऋतुओं) में सुंदर रहता है।
त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥
वहाँ तीनों प्रकार की (शीतल, मंद और सुगंध) वायु बहती रहती है और उसकी छाया बड़ी ठंडी रहती है। वह शिव के विश्राम करने का वृक्ष है, जिसे वेदों ने गाया है। एक बार प्रभु शिव उस वृक्ष के नीचे गए और उसे देखकर उनके हृदय में बहुत आनंद हुआ।
निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठे सहजहिं संभु कृपाला॥
कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥
कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥
अपने हाथ से बाघंबर बिछाकर कृपालु शिव स्वभाव से ही (बिना किसी खास प्रयोजन के) वहाँ बैठ गए। कुंद के पुष्प, चंद्रमा और शंख के समान उनका गौर शरीर था। बड़ी लंबी भुजाएँ थीं और वे मुनियों के-से (वल्कल) वस्त्र धारण किए हुए थे।
तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी॥
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी॥
उनके चरण नए (पूर्ण रूप से खिले हुए) लाल कमल के समान थे, नखों की ज्योति भक्तों के हृदय का अंधकार हरनेवाली थी। साँप और भस्म ही उनके भूषण थे और उन त्रिपुरासुर के शत्रु शिव का मुख शरद (पूर्णिमा) के चंद्रमा की शोभा को भी हरनेवाला (फीकी करनेवाला) था।
दो० - जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।
नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥ 106॥
नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥ 106॥
उनके सिर पर जटाओं का मुकुट और गंगा (शोभायमान) थीं। कमल के समान बड़े-बड़े नेत्र थे। उनका नील कंठ था और वे सुंदरता के भंडार थे। उनके मस्तक पर द्वितीया का चंद्रमा शोभित था॥ 106॥
बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥
पारबती भल अवसरु जानी। गईं संभु पहिं मातु भवानी॥
पारबती भल अवसरु जानी। गईं संभु पहिं मातु भवानी॥
कामदेव के शत्रु शिव वहाँ बैठे हुए ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो शांत रस ही शरीर धारण किए बैठा हो। अच्छा मौका जानकर शिवपत्नी माता पार्वती उनके पास गईं।
जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥
बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥
बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥
अपनी प्यारी पत्नी जानकार शिव ने उनका बहुत आदर-सत्कार किया और अपनी बाईं ओर बैठने के लिए आसन दिया। पार्वती प्रसन्न होकर शिव के पास बैठ गईं। उन्हें पिछले जन्म की कथा स्मरण हो आई।
पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥
कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैल कुमारी॥
कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैल कुमारी॥
स्वामी के हृदय में (अपने ऊपर पहले की अपेक्षा) अधिक प्रेम समझकर पार्वती हँसकर प्रिय वचन बोलीं। (याज्ञवल्क्य कहते हैं कि) जो कथा सब लोगों का हित करनेवाली है, उसे ही पार्वती पूछना चाहती हैं।
बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा॥
चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा॥
(पार्वती ने कहा -) हे संसार के स्वामी! हे मेरे नाथ! हे त्रिपुरासुर का वध करनेवाले! आपकी महिमा तीनों लोकों में विख्यात है। चर, अचर, नाग, मनुष्य और देवता सभी आपके चरण कमलों की सेवा करते हैं।
दो० - प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम।
जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥ 107॥
जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥ 107॥
हे प्रभो! आप समर्थ, सर्वज्ञ और कल्याणस्वरूप हैं। सब कलाओं और गुणों के निधान हैं और योग, ज्ञान तथा वैराग्य के भंडार हैं। आपका नाम शरणागतों के लिए कल्पवृक्ष है॥ 107॥
जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥
तौ प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥
तौ प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥
हे सुख की राशि ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और सचमुच मुझे अपनी दासी (या अपनी सच्ची दासी) जानते हैं, तो हे प्रभो! आप रघुनाथ की नाना प्रकार की कथा कहकर मेरा अज्ञान दूर कीजिए।
जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥
जिसका घर कल्पवृक्ष के नीचे हो, वह भला दरिद्रता से उत्पन्न दुःख को क्यों सहेगा? हे शशिभूषण! हे नाथ! हृदय में ऐसा विचार कर मेरी बुद्धि के भारी भ्रम को दूर कीजिए।
प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥
सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥
सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥
हे प्रभो! जो परमार्थतत्त्व (ब्रह्म) के ज्ञाता और वक्ता मुनि हैं, वे राम को अनादि ब्रह्म कहते हैं और शेष, सरस्वती, वेद और पुराण सभी रघुनाथ का गुण गाते हैं।
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥
रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥
रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥
और हे कामदेव के शत्रु! आप भी दिन-रात आदरपूर्वक राम-राम जपा करते हैं - ये राम वही अयोध्या के राजा के पुत्र हैं? या अजन्मे, निर्गुण और अगोचर कोई और राम हैं?
दो० - जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।
देखि चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥ 108॥
देखि चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥ 108॥
यदि वे राजपुत्र हैं तो ब्रह्म कैसे? (और यदि ब्रह्म हैं तो) स्त्री के विरह में उनकी मति बावली कैसे हो गई? इधर उनके ऐसे चरित्र देखकर और उधर उनकी महिमा सुनकर मेरी बुद्धि अत्यंत चकरा रही है॥ 108॥
जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥
यदि इच्छारहित, व्यापक, समर्थ ब्रह्म कोई और है, तो हे नाथ! मुझे उसे समझाकर कहिए। मुझे नादान समझकर मन में क्रोध न लाइए। जिस तरह मेरा मोह दूर हो, वही कीजिए।
मैं बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥
तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥
तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥
मैंने (पिछले जन्म में) वन में राम की प्रभुता देखी थी, परंतु अत्यंत भयभीत होने के कारण मैंने वह बात आपको सुनाई नहीं। तो भी मेरे मलिन मन को बोध न हुआ। उसका फल भी मैंने अच्छी तरह पा लिया।
अजहूँ कछु संसउ मन मोरें। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें॥
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥
अब भी मेरे मन में कुछ संदेह है। आप कृपा कीजिए, मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ। हे प्रभो! आपने उस समय मुझे बहुत तरह से समझाया था (फिर भी मेरा संदेह नहीं गया), हे नाथ! यह सोचकर मुझ पर क्रोध न कीजिए।
तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥
कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥
कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥
मुझे अब पहले जैसा मोह नहीं है, अब तो मेरे मन में रामकथा सुनने की रुचि है। हे शेषनाग को अलंकार रूप में धारण करनेवाले देवताओं के नाथ! आप राम के गुणों की पवित्र कथा कहिए।
दो० - बंदउँ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥ 109॥
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥ 109॥
मैं पृथ्वी पर सिर टेककर आपके चरणों की वंदना करती हूँ और हाथ जोड़कर विनती करती हूँ। आप वेदों के सिद्धांत को निचोड़कर रघुनाथ का निर्मल यश वर्णन कीजिए॥ 109॥
जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥
गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥
गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥
यद्यपि स्त्री होने के कारण मैं उसे सुनने की अधिकारिणी नहीं हूँ, तथापि मैं मन, वचन और कर्म से आपकी दासी हूँ। संत लोग जहाँ आर्त अधिकारी पाते हैं, वहाँ गूढ़ तत्त्व भी उससे नहीं छिपाते।
अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥
हे देवताओं के स्वामी! मैं बहुत ही आर्तभाव (दीनता) से पूछती हूँ, आप मुझ पर दया करके रघुनाथ की कथा कहिए। पहले तो वह कारण विचारकर बतलाइए, जिससे निर्गुण ब्रह्म सगुण रूप धारण करता है॥
पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥
कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥
कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥
फिर हे प्रभु! राम के अवतार (जन्म) की कथा कहिए तथा उनका उदार बाल चरित्र कहिए। फिर जिस प्रकार उन्होंने जानकी से विवाह किया, वह कथा कहिए और फिर यह बतलाइए कि उन्होंने जो राज्य छोड़ा सो किस दोष से।
बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखसीला॥
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखसीला॥
हे नाथ! फिर उन्होंने वन में रहकर जो अपार चरित्र किए तथा जिस तरह रावण को मारा, वह कहिए। हे सुखस्वरूप शंकर! फिर आप उन सारी लीलाओं को कहिए जो उन्होंने राज्य (सिंहासन) पर बैठकर की थीं।
दो० - बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥ 110॥
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥ 110॥
हे कृपाधाम! फिर वह अद्भुत चरित्र कहिए जो राम ने किया - वे रघुकुल शिरोमणि प्रजा सहित किस प्रकार अपने धाम को गए?॥ 110॥
पुनि प्रभु कहहु सो तत्त्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥
हे प्रभु! फिर आप उस तत्त्व को समझाकर कहिए, जिसकी अनुभूति में ज्ञानी मुनिगण सदा मग्न रहते हैं और फिर भक्ति, ज्ञान, विज्ञान और वैराग्य का विभाग सहित वर्णन कीजिए।
औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥
जो प्रभु मैं पूछा नहिं होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥
जो प्रभु मैं पूछा नहिं होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥
(इसके सिवा) राम के और भी जो अनेक रहस्य (छिपे हुए भाव अथवा चरित्र) हैं, उनको कहिए। हे नाथ! आपका ज्ञान अत्यंत निर्मल है। हे प्रभो! जो बात मैंने न भी पूछी हो, हे दयालु! उसे भी आप छिपा न रखिएगा।
तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥
प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥
प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥
वेदों ने आपको तीनों लोकों का गुरु कहा है। दूसरे पामर जीव इस रहस्य को क्या जानें! पार्वती के सहज सुंदर और छलरहित (सरल) प्रश्न सुनकर शिव के मन को बहुत अच्छे लगे।
हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥
श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥
श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥
महादेव के हृदय में सारे रामचरित्र आ गए। प्रेम के मारे उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में जल भर आया। रघुनाथ का रूप उनके हृदय में आ गया, जिससे स्वयं परमानंदस्वरूप शिव ने भी अपार सुख पाया।
दो० - मगन ध्यान रस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥ 111।
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥ 111।
शिव दो घड़ी तक ध्यान के रस (आनंद) में डूबे रहे, फिर उन्होंने मन को बाहर खींचा और तब वे प्रसन्न होकर रघुनाथ का चरित्र वर्णन करने लगे॥ 111॥
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥
जिसके बिना जाने झूठ भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है; और जिसके जान लेने पर जगत का उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम जाता रहता है।
बंदउँ बालरूप सोइ रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥
मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥
मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥
मैं उन्हीं राम के बाल रूप की वंदना करता हूँ, जिनका नाम जपने से सब सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। मंगल के धाम, अमंगल के हरनेवाले और दशरथ के आँगन में खेलनेवाले (बालरूप) राम मुझ पर कृपा करें।
करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥
त्रिपुरासुर का वध करनेवाले शिव राम को प्रणाम करके आनंद में भरकर अमृत के समान वाणी बोले - हे गिरिराजकुमारी पार्वती! तुम धन्य हो! धन्य हो!! तुम्हारे समान कोई उपकारी नहीं है।
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी॥
जो तुमने रघुनाथ की कथा का प्रसंग पूछा है, जो कथा समस्त लोकों के लिए जगत को पवित्र करनेवाली गंगा के समान है। तुमने जगत के कल्याण के लिए ही प्रश्न पूछे हैं। तुम रघुनाथ के चरणों में प्रेम रखनेवाली हो।
दो० - राम कृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।
सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥ 112॥
सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥ 112॥
हे पार्वती! मेरे विचार में तो राम की कृपा से तुम्हारे मन में स्वप्न में भी शोक, मोह, संदेह और भ्रम कुछ भी नहीं है॥ 112॥
तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥
जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥
जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥
फिर भी तुमने इसीलिए वही (पुरानी) शंका की है कि इस प्रसंग के कहने-सुनने से सबका कल्याण होगा। जिन्होंने अपने कानों से भगवान की कथा नहीं सुनी, उनके कानों के छिद्र साँप के बिल के समान हैं।
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥
ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥
ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥
जिन्होंने अपने नेत्रों से संतों के दर्शन नहीं किए, उनके वे नेत्र मोर के पंखों पर दिखनेवाली नकली आँखों की गिनती में हैं। वे सिर कड़वी तूँबी के समान हैं, जो हरि और गुरु के चरणतल पर नहीं झुकते।
जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥
जिन्होंने भगवान की भक्ति को अपने हृदय में स्थान नहीं दिया, वे प्राणी जीते हुए ही मुर्दे के समान हैं। जो जीभ राम के गुणों का गान नहीं करती, वह मेढ़क की जीभ के समान है।
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥
गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥
गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥
वह हृदय वज्र के समान कड़ा और निष्ठुर है, जो भगवान के चरित्र सुनकर हर्षित नहीं होता। हे पार्वती! राम की लीला सुनो, यह देवताओं का कल्याण करनेवाली और दैत्यों को विशेष रूप से मोहित करनेवाली है।
दो० - रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥ 113॥
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥ 113॥
राम की कथा कामधेनु के समान सेवा करने से सब सुखों को देनेवाली है, और सत्पुरुषों के समाज ही सब देवताओं के लोक हैं, ऐसा जानकर इसे कौन न सुनेगा!॥ 113॥
रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥
राम की कथा हाथ की सुंदर ताली है, जो संदेहरूपी पक्षियों को उड़ा देती है। फिर रामकथा कलियुगरूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है। हे गिरिराजकुमारी! तुम इसे आदरपूर्वक सुनो।
राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥
जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥
जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥
वेदों ने राम के सुंदर नाम, गुण, चरित्र, जन्म और कर्म सभी अनगिनत कहे हैं। जिस प्रकार भगवान राम अनंत हैं, उसी तरह उनकी कथा, कीर्ति और गुण भी अनंत हैं।
तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥
तो भी तुम्हारी अत्यंत प्रीति देखकर, जैसा कुछ मैंने सुना है और जैसी मेरी बुद्धि है, उसी के अनुसार मैं कहूँगा। हे पार्वती! तुम्हारा प्रश्न स्वाभाविक ही सुंदर, सुखदायक और संतसम्मत है और मुझे तो बहुत ही अच्छा लगा है।
एक बात नहिं मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥
तुम्ह जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥
तुम्ह जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥
परंतु हे पार्वती! एक बात मुझे अच्छी नहीं लगी, यद्यपि वह तुमने मोह के वश होकर ही कही है। तुमने जो यह कहा कि वे राम कोई और हैं, जिन्हें वेद गाते और मुनिजन जिनका ध्यान धरते हैं - ।
दो० - कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥ 114॥
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥ 114॥
जो मोहरूपी पिशाच के द्वारा ग्रस्त हैं, पाखंडी हैं, भगवान के चरणों से विमुख हैं और जो झूठ-सच कुछ भी नहीं जानते, ऐसे अधम मनुष्य ही इस तरह कहते-सुनते हैं॥ 114॥
अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकुर मन लागी॥
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥
जो अज्ञानी, मूर्ख, अंधे और भाग्यहीन हैं और जिनके मनरूपी दर्पण पर विषयरूपी काई जमी हुई है, जो व्यभिचारी, छली और बड़े कुटिल हैं और जिन्होंने कभी स्वप्न में भी संत समाज के दर्शन नहीं किए;
कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥
मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥
मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥
और जिन्हें अपने लाभ-हानि नहीं सूझती, वे ही ऐसी वेदविरुद्ध बातें कहा करते हैं, जिनका हृदयरूपी दर्पण मैला है और जो नेत्रों से हीन हैं, वे बेचारे राम का रूप कैसे देखें!
जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥
जिनको निर्गुण-सगुण का कुछ भी विवेक नहीं है, जो अनेक मनगढ़ंत बातें बका करते हैं, जो हरि की माया के वश में होकर जगत में (जन्म-मृत्यु के चक्र में) भ्रमते फिरते हैं, उनके लिए कुछ भी कह डालना असंभव नहीं है।
बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥
जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना॥
जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना॥
जिन्हें वायु का रोग (सन्निपात, उन्माद आदि) हो गया हो, जो भूत के वश हो गए हैं और जो नशे में चूर हैं, ऐसे लोग विचारकर वचन नहीं बोलते। जिन्होंने महामोहरूपी मदिरा पी रखी है, उनके कहने पर कान नहीं देना चाहिए।
सो० - अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥ 115॥
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥ 115॥
अपने हृदय में ऐसा विचार कर संदेह छोड़ दो और राम के चरणों को भजो। हे पार्वती! भ्रमरूपी अंधकार के नाश करने के लिए सूर्य की किरणों के समान मेरे वचनों को सुनो!॥ 115॥
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥
सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है - मुनि, पुराण, पंडित और वेद सभी ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, अरूप (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है।
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥
जो निर्गुण है वही सगुण कैसे है? जैसे जल और ओले में भेद नहीं। (दोनों जल ही हैं, ऐसे ही निर्गुण और सगुण एक ही हैं।) जिसका नाम भ्रमरूपी अंधकार के मिटाने के लिए सूर्य है, उसके लिए मोह का प्रसंग भी कैसे कहा जा सकता है?
राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥
सहज प्रकासरूप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥
सहज प्रकासरूप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥
राम सच्चिदानंदस्वरूप सूर्य हैं। वहाँ मोहरूपी रात्रि का लवलेश भी नहीं है। वे स्वभाव से ही प्रकाश रूप और (षडैश्वर्ययुक्त) भगवान है, वहाँ तो विज्ञानरूपी प्रातःकाल भी नहीं होता (अज्ञानरूपी रात्रि हो तब तो विज्ञानरूपी प्रातःकाल हो; भगवान तो नित्य ज्ञानस्वरूप हैं)।
हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानंद परेस पुराना॥
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानंद परेस पुराना॥
हर्ष, शोक, ज्ञान, अज्ञान, अहंता और अभिमान - ये सब जीव के धर्म हैं। राम तो व्यापक ब्रह्म, परमानंदस्वरूप, परात्पर प्रभु और पुराण पुरुष हैं। इस बात को सारा जगत जानता है।
दो० - पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ।
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥ 116॥
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥ 116॥
जो (पुराण) पुरुष प्रसिद्ध हैं, प्रकाश के भंडार हैं, सब रूपों में प्रकट हैं, जीव, माया और जगत सबके स्वामी हैं, वे ही रघुकुल मणि राम मेरे स्वामी हैं - ऐसा कहकर शिव ने उनको मस्तक नवाया॥ 116॥
निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥
जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहहिं कुबिचारी॥
जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहहिं कुबिचारी॥
अज्ञानी मनुष्य अपने भ्रम को तो समझते नहीं और वे मूर्ख प्रभु राम पर उसका आरोप करते हैं, जैसे आकाश में बादलों का परदा देखकर कुविचारी (अज्ञानी) लोग कहते हैं कि बादलों ने सूर्य को ढँक लिया।
चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥
उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥
उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥
जो मनुष्य आँख में उँगली लगाकर देखता है, उसके लिए तो दो चंद्रमा प्रकट (प्रत्यक्ष) हैं। हे पार्वती! राम के विषय में इस प्रकार मोह की कल्पना करना वैसा ही है, जैसा आकाश में अंधकार, धुएँ और धूल का सोहना (दिखना)। (आकाश जैसे निर्मल और निर्लेप है, उसको कोई मलिन या स्पर्श नहीं कर सकता, इसी प्रकार भगवान राम नित्य निर्मल और निर्लेप हैं।)
बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥
सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥
सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥
विषय, इंद्रियाँ, इंद्रियों के देवता और जीवात्मा - ये सब एक की सहायता से एक चेतन होते हैं। (अर्थात विषयों का प्रकाश इंद्रियों से, इंद्रियों का इंद्रियों के देवताओं से और इंद्रिय-देवताओं का चेतन जीवात्मा से प्रकाश होता है।) इन सबका जो परम प्रकाशक है (अर्थात जिससे इन सबका प्रकाश होता है), वही अनादि ब्रह्म अयोध्या नरेश राम हैं।
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥
जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥
यह जगत प्रकाश्य है और राम इसके प्रकाशक हैं। वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं। जिनकी सत्ता से, मोह की सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य-सी भासित होती है।
दो० - रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि।
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥ 117॥
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥ 117॥
जैसे सीप में चाँदी की और सूर्य की किरणों में पानी की (बिना हुए भी) प्रतीति होती है। यद्यपि यह प्रतीति तीनों कालों में झूठ है, तथापि इस भ्रम को कोई हटा नहीं सकता॥ 117॥
एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥
इसी तरह यह संसार भगवान के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता ही है, जिस तरह स्वप्न में कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता।
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥
आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥
आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥
हे पार्वती! जिनकी कृपा से इस प्रकार का भ्रम मिट जाता है, वही कृपालु रघुनाथ हैं। जिनका आदि और अंत किसी ने नहीं (जान) पाया। वेदों ने अपनी बुद्धि से अनुमान करके इस प्रकार (नीचे लिखे अनुसार) गाया है -
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥
वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है, बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह (जिह्वा) के ही सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना वाणी के बहुत योग्य वक्ता है।
तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥
वह बिना शरीर (त्वचा) के ही स्पर्श करता है, आँखों के बिना ही देखता है और बिना नाक के सब गंधों को ग्रहण करता है (सूँघता है)। उस ब्रह्म की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती।
दो० - जेहि इमि गावहिं बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान।
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥ 118॥
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥ 118॥
जिसका वेद और पंडित इस प्रकार वर्णन करते हैं और मुनि जिसका ध्यान धरते हैं, वही दशरथनंदन, भक्तों के हितकारी, अयोध्या के स्वामी भगवान राम हैं॥ 118॥
कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥
(हे पार्वती!) जिनके नाम के बल से काशी में मरते हुए प्राणी को देखकर मैं उसे (राम मंत्र देकर) शोकरहित कर देता हूँ (मुक्त कर देता हूँ), वही मेरे प्रभु रघुश्रेष्ठ राम जड़-चेतन के स्वामी और सबके हृदय के भीतर की जाननेवाले हैं।
बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥
सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥
सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥
विवश होकर (बिना इच्छा के) भी जिनका नाम लेने से मनुष्यों के अनेक जन्मों में किए हुए पाप जल जाते हैं। फिर जो मनुष्य आदरपूर्वक उनका स्मरण करते हैं, वे तो संसाररूपी (दुस्तर) समुद्र को गाय के खुर से बने हुए गड्ढे के समान (अर्थात बिना किसी परिश्रम के) पार कर जाते हैं।
राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥
अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥
अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥
हे पार्वती! वही परमात्मा राम हैं। उनमें भ्रम (देखने में आता) है, तुम्हारा ऐसा कहना अत्यंत ही अनुचित है। इस प्रकार का संदेह मन में लाते ही मनुष्य के ज्ञान, वैराग्य आदि सारे सद्गुण नष्ट हो जाते हैं।
सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥
भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती॥
भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती॥
शिव के भ्रमनाशक वचनों को सुनकर पार्वती के सब कुतर्कों की रचना मिट गई। रघुनाथ के चरणों में उनका प्रेम और विश्वास हो गया और कठिन असंभावना (जिसका होना सम्भव नहीं, ऐसी मिथ्या कल्पना) जाती रही!
दो० - पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि।
बोलीं गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥ 119॥
बोलीं गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥ 119॥
बार- बार स्वामी (शिव) के चरणकमलों को पकड़कर और अपने कमल के समान हाथों को जोड़कर पार्वती मानो प्रेमरस में सानकर सुंदर वचन बोलीं॥ 119॥
ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥
तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ॥
तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ॥
आपकी चंद्रमा की किरणों के समान शीतल वाणी सुनकर मेरा अज्ञानरूपी शरद-ऋतु (क्वार) की धूप का भारी ताप मिट गया। हे कृपालु! आपने मेरा सब संदेह हर लिया, अब राम का यथार्थ स्वरूप मेरी समझ में आ गया।
नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥
अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड़ नारि अयानी॥
अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड़ नारि अयानी॥
हे नाथ! आपकी कृपा से अब मेरा विषाद जाता रहा और आपके चरणों के अनुग्रह से मैं सुखी हो गई। यद्यपि मैं स्त्री होने के कारण स्वभाव से ही मूर्ख और ज्ञानहीन हूँ, तो भी अब आप मुझे अपनी दासी जानकर -
प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥
हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो जो बात मैंने पहले आपसे पूछी थी, वही कहिए। (यह सत्य है कि) राम ब्रह्म हैं, चिन्मय (ज्ञानस्वरूप) हैं, अविनाशी हैं, सबसे रहित और सबके हृदयरूपी नगरी में निवास करनेवाले हैं।
नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥
उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥
उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥
फिर हे नाथ! उन्होंने मनुष्य का शरीर किस कारण से धारण किया? हे धर्म की ध्वजा धारण करनेवाले प्रभो! यह मुझे समझाकर कहिए। पार्वती के अत्यंत नम्र वचन सुनकर और राम की कथा में उनका विशुद्ध प्रेम देखकर -
दो० - हियँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान।
बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान॥ 120(क)॥
बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान॥ 120(क)॥
तब कामदेव के शत्रु, स्वाभाविक ही सुजान, कृपा-निधान शिव मन में बहुत ही हर्षित हुए और बहुत प्रकार से पार्वती की बड़ाई करके फिर बोले - ॥ 120(क)॥
सो० - सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड़॥ 120(ख)॥
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड़॥ 120(ख)॥
हे पार्वती! निर्मल रामचरितमानस की वह मंगलमयी कथा सुनो जिसे काकभुशुंडि ने विस्तार से कहा और पक्षियों के राजा गरुड़ ने सुना था॥ 120(ख)॥
सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।
सुनहु राम अवतार चरति परम सुंदर अनघ॥ 120(ग)॥
सुनहु राम अवतार चरति परम सुंदर अनघ॥ 120(ग)॥
वह श्रेष्ठ संवाद जिस प्रकार हुआ, वह मैं आगे कहूँगा। अभी तुम राम के अवतार का परम सुंदर और पवित्र (पापनाशक) चरित्र सुनो॥ 120(ग)॥
हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥ 120(घ)॥
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥ 120(घ)॥
हरि के गुण, मान, कथा और रूप सभी अपार, अगणित और असीम हैं। फिर भी हे पार्वती! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहता हूँ, तुम आदरपूर्वक सुनो॥ 120(घ)॥
सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥
हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥
हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥
हे पार्वती! सुनो, वेद-शास्त्रों ने हरि के सुंदर, विस्तृत और निर्मल चरित्रों का गान किया है। हरि का अवतार जिस कारण से होता है, वह कारण 'बस यही है' ऐसा नहीं कहा जा सकता (अनेकों कारण हो सकते हैं और ऐसे भी हो सकते हैं, जिन्हें कोई जान ही नहीं सकता)।
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥
तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥
तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥
हे सयानी! सुनो, हमारा मत तो यह है कि बुद्धि, मन और वाणी से राम की तर्कना नहीं की जा सकती। तथापि संत, मुनि, वेद और पुराण अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार जैसा कुछ कहते हैं।
तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥
जब जब होई धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥
जब जब होई धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥
और जैसा कुछ मेरी समझ में आता है, हे सुमुखि! वही कारण मैं तुमको सुनाता हूँ। जब-जब धर्म का ह्रास होता है और नीच अभिमानी राक्षस बढ़ जाते हैं।
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥
और वे ऐसा अन्याय करते हैं कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता तथा ब्राह्मण, गो, देवता और पृथ्वी कष्ट पाते हैं, तब-तब वे कृपानिधान प्रभु भाँति-भाँति के (दिव्य) शरीर धारण कर सज्जनों की पीड़ा हरते हैं।
दो० - असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥ 121॥
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥ 121॥
वे असुरों को मारकर देवताओं को स्थापित करते हैं, अपने (श्वास रूप) वेदों की मर्यादा की रक्षा करते हैं और जगत में अपना निर्मल यश फैलाते हैं। राम के अवतार का यह कारण है॥ 121॥
सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥
राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥
राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥
उसी यश को गा-गाकर भक्तजन भवसागर से तर जाते हैं। कृपासागर भगवान भक्तों के हित के लिए शरीर धारण करते हैं। राम के जन्म लेने के अनेक कारण हैं, जो एक-से-एक बढ़कर विचित्र हैं।
जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥
हे सुंदर बुद्धिवाली भवानी! मैं उनके दो-एक जन्मों का विस्तार से वर्णन करता हूँ, तुम सावधान होकर सुनो। हरि के जय और विजय दो प्यारे द्वारपाल हैं, जिनको सब कोई जानते हैं।
बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥
कनककसिपु अरु हाटकलोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥
कनककसिपु अरु हाटकलोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥
उन दोनों भाइयों ने ब्राह्मण (सनकादि) के शाप से असुरों का तामसी शरीर पाया। एक का नाम था हिरण्यकशिपु और दूसरे का हिरण्याक्ष। ये देवराज इंद्र के गर्व को छुड़ानेवाले सारे जगत में प्रसिद्ध हुए।
बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥
होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥
होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥
वे युद्ध में विजय पानेवाले विख्यात वीर थे। इनमें से एक (हिरण्याक्ष) को भगवान ने वराह (सूअर) का शरीर धारण करके मारा, फिर दूसरे (हिरण्यकशिपु) का नरसिंह रूप धारण करके वध किया और अपने भक्त प्रह्लाद का सुंदर यश फैलाया।
दो० - भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।
कुंभकरन रावन सुभट सुर बिजई जग जान॥ 122॥
कुंभकरन रावन सुभट सुर बिजई जग जान॥ 122॥
वे ही (दोनों) जाकर देवताओं को जीतनेवाले तथा बड़े योद्धा, रावण और कुंभकर्ण नामक बड़े बलवान और महावीर राक्षस हुए, जिन्हें सारा जगत जानता है॥ 122॥
मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥
एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥
एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥
भगवान के द्वारा मारे जाने पर भी वे (हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु) इसीलिए मुक्त नहीं हुए कि ब्राह्मण के वचन (शाप) का प्रमाण तीन जन्म के लिए था। अतः एक बार उनके कल्याण के लिए भक्तप्रेमी भगवान ने फिर अवतार लिया।
कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥
एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित पवित्र किए संसारा॥
एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित पवित्र किए संसारा॥
वहाँ (उस अवतार में) कश्यप और अदिति उनके माता-पिता हुए, जो दशरथ और कौसल्या के नाम से प्रसिद्ध थे। एक कल्प में इस प्रकार अवतार लेकर उन्होंने संसार में पवित्र लीलाएँ कीं।
एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥
संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥
संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥
एक कल्प में सब देवताओं को जलंधर दैत्य से युद्ध में हार जाने के कारण दुःखी देखकर शिव ने उसके साथ बड़ा घोर युद्ध किया, पर वह महाबली दैत्य मारे नहीं मरता था।
परम सती असुराधिप नारी। तेहिं बल ताहि न जितहिं पुरारी॥
उस दैत्यराज की स्त्री परम सती (बड़ी ही पतिव्रता) थी। उसी के प्रताप से त्रिपुरासुर (जैसे अजेय शत्रु) का विनाश करनेवाले शिव भी उस दैत्य को नहीं जीत सके।
दो० - छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह।
जब तेहिं जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥ 123॥
जब तेहिं जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥ 123॥
प्रभु ने छल से उस स्त्री का व्रत भंग कर देवताओं का काम किया। जब उस स्त्री ने यह भेद जाना, तब उसने क्रोध करके भगवान को शाप दिया॥ 123॥
तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥
तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥
तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥
लीलाओं के भंडार कृपालु हरि ने उस स्त्री के शाप को प्रामाण्य दिया (स्वीकार किया)। वही जलंधर उस कल्प में रावण हुआ, जिसे राम ने युद्ध में मारकर परमपद दिया।
एक जनम कर कारन एहा। जेहि लगि राम धरी नरदेहा॥
प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥
प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥
एक जन्म का कारण यह था, जिससे राम ने मनुष्य देह धारण किया। हे भरद्वाज मुनि! सुनो, प्रभु के प्रत्येक अवतार की कथा का कवियों ने नाना प्रकार से वर्णन किया है।
नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥
गिरिजा चकित भईं सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानी॥
गिरिजा चकित भईं सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानी॥
एक बार नारद ने शाप दिया, अतः एक कल्प में उसके लिए अवतार हुआ। यह बात सुनकर पार्वती बड़ी चकित हुईं (और बोलीं कि) नारद तो विष्णु भक्त और ज्ञानी हैं।
कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥
मुनि ने भगवान को शाप किस कारण से दिया। लक्ष्मीपति भगवान ने उनका क्या अपराध किया था? हे पुरारि (शंकर)! यह कथा मुझसे कहिए। मुनि नारद के मन में मोह होना बड़े आश्चर्य की बात है।
दो० - बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥ 124(क)॥
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥ 124(क)॥
तब महादेव ने हँसकर कहा - न कोई ज्ञानी है न मूर्ख। रघुनाथ जब जिसको जैसा करते हैं, वह उसी क्षण वैसा ही हो जाता है॥ 124(क)॥
सो० - कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।
भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥ 124(ख)॥
भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥ 124(ख)॥
(याज्ञवल्क्य कहते हैं -) हे भरद्वाज! मैं राम के गुणों की कथा कहता हूँ, तुम आदर से सुनो। तुलसीदास कहते हैं - मान और मद को छोड़कर आवागमन का नाश करनेवाले रघुनाथ को भजो॥ 124(ख)॥
हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥
आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥
आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥
हिमालय पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा थी। उसके समीप ही सुंदर गंगा बहती थीं। वह परम पवित्र सुंदर आश्रम देखने पर नारद के मन को बहुत ही सुहावना लगा।
निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥
पर्वत, नदी और वन के (सुंदर) विभागों को देखकर नादर का लक्ष्मीकांत भगवान के चरणों में प्रेम हो गया। भगवान का स्मरण करते ही उन (नारद मुनि) के शाप की (जो शाप उन्हें दक्ष प्रजापति ने दिया था और जिसके कारण वे एक स्थान पर नहीं ठहर सकते थे) गति रुक गई और मन के स्वाभाविक ही निर्मल होने से उनकी समाधि लग गई।
मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह सनमाना॥
सहित सहाय जाहु मम हेतू। चलेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥
सहित सहाय जाहु मम हेतू। चलेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥
नारद मुनि की (यह तपोमयी) स्थिति देखकर देवराज इंद्र डर गया। उसने कामदेव को बुलाकर उसका आदर-सत्कार किया (और कहा कि) मेरे (हित के) लिए तुम अपने सहायकों सहित (नारद की समाधि भंग करने को) जाओ। (यह सुनकर) मीनध्वज कामदेव मन में प्रसन्न होकर चला।
सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥
जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥
जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥
इंद्र के मन में यह डर हुआ कि देवर्षि नारद मेरी पुरी (अमरावती) का निवास (राज्य) चाहते हैं। जगत में जो कामी और लोभी होते हैं, वे कुटिल कौए की तरह सबसे डरते हैं।
दो० - सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥ 125॥
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥ 125॥
जैसे मूर्ख कुत्ता सिंह को देखकर सूखी हड्डी लेकर भागे और वह मूर्ख यह समझे कि कहीं उस हड्डी को सिंह छीन न ले, वैसे ही इंद्र को (नारद मेरा राज्य छीन लेंगे, ऐसा सोचते) लाज नहीं आई॥ 125॥
तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहिं भृंगा॥
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहिं भृंगा॥
जब कामदेव उस आश्रम में गया, तब उसने अपनी माया से वहाँ वसंत ऋतु को उत्पन्न किया। तरह-तरह के वृक्षों पर रंग-बिरंगे फूल खिल गए, उन पर कोयलें कूकने लगीं और भौंरे गुंजार करने लगे।
चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥
रंभादिक सुर नारि नबीना। सकल असमसर कला प्रबीना॥
रंभादिक सुर नारि नबीना। सकल असमसर कला प्रबीना॥
कामाग्नि को भड़कानेवाली तीन प्रकार की (शीतल, मंद और सुगंध) सुहावनी हवा चलने लगी। रंभा आदि नवयुवती देवांगनाएँ, जो सब की सब कामकला में निपुण थीं,
करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हिं पानि पतंगा॥
देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥
देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥
बहुत प्रकार की तानों की तरंग के साथ गाने लगीं और हाथ में गेंद लेकर नाना प्रकार के खेल खेलने लगीं। कामदेव अपने इन सहायकों को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और फिर उसने नाना प्रकार के मायाजाल किए।
काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासू। बड़ रखवार रमापति जासू॥
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासू। बड़ रखवार रमापति जासू॥
परंतु कामदेव की कोई भी कला मुनि पर असर न कर सकी। तब तो पापी कामदेव अपने ही (नाश के) भय से डर गया। लक्ष्मीपति भगवान जिसके बड़े रक्षक हों, भला, उसकी सीमा (मर्यादा) को कोई दबा सकता है?
दो० - सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।
गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥ 126॥
गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥ 126॥
तब अपने सहायकों समेत कामदेव ने बहुत डरकर और अपने मन में हार मानकर बहुत ही आर्त (दीन) वचन कहते हुए मुनि के चरणों को जा पकड़ा॥ 126॥
भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥
नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥
नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥
नारद के मन में कुछ भी क्रोध न आया। उन्होंने प्रिय वचन कहकर कामदेव का समाधान किया। तब मुनि के चरणों में सिर नवाकर और उनकी आज्ञा पाकर कामदेव अपने सहायकों सहित लौट गया।
मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥
सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥
सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥
देवराज इंद्र की सभा में जाकर उसने मुनि की सुशीलता और अपनी करतूत सब कही, जिसे सुनकर सबके मन में आश्चर्य हुआ और उन्होंने मुनि की बड़ाई करके हरि को सिर नवाया।
तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥
मार चरति संकरहि सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥
मार चरति संकरहि सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥
तब नारद शिव के पास गए। उनके मन में इस बात का अहंकार हो गया कि हमने कामदेव को जीत लिया। उन्होंने कामदेव के चरित्र शिव को सुनाए और महादेव ने उन (नारद) को अत्यंत प्रिय जानकर (इस प्रकार) शिक्षा दी -
बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूँ॥
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूँ॥
हे मुनि! मैं तुमसे बार-बार विनती करता हूँ कि जिस तरह यह कथा तुमने मुझे सुनाई है, उस तरह भगवान हरि को कभी मत सुनाना। चर्चा चले तब भी इसको छिपा जाना।
दो० - संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥ 127॥
भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥ 127॥
यद्यपि शिव ने यह हित की शिक्षा दी, पर नारद को वह अच्छी न लगी। हे भरद्वाज! अब कौतुक (तमाशा) सुनो। हरि की इच्छा बड़ी बलवान है॥ 127॥
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥
संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥
राम जो करना चाहते हैं, वही होता है, ऐसा कोई नहीं जो उसके विरुद्ध कर सके। शिव के वचन नारद के मन को अच्छे नहीं लगे, तब वे वहाँ से ब्रह्मलोक को चल दिए।
एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥
छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बसनिवास श्रुतिमाथा॥
छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बसनिवास श्रुतिमाथा॥
एक बार गानविद्या में निपुण मुनिनाथ नारद हाथ में सुंदर वीणा लिए, हरिगुण गाते हुए क्षीरसागर को गए, जहाँ वेदों के मस्तकस्वरूप (मूर्तिमान वेदांतत्त्व) लक्ष्मी निवास भगवान नारायण रहते हैं।
हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥
बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥
बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥
रमानिवास भगवान उठकर बड़े आनंद से उनसे मिले और ऋषि (नारद) के साथ आसन पर बैठ गए। चराचर के स्वामी भगवान हँसकर बोले - हे मुनि! आज आपने बहुत दिनों पर दया की।
काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥
अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥
अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥
यद्यपि शिव ने उन्हें पहले से ही बरज रखा था, तो भी नारद ने कामदेव का सारा चरित्र भगवान को कह सुनाया। रघुनाथ की माया बड़ी ही प्रबल है। जगत में ऐसा कौन जन्मा है, जिसे वे मोहित न कर दें।
दो० - रूख बदन करि बचन मृदु बोलेभगवान।
तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥ 128॥
तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥ 128॥
भगवान रूखा मुँह करके कोमल वचन बोले - हे मुनिराज! आपका स्मरण करने से दूसरों के मोह, काम, मद और अभिमान मिट जाते हैं (फिर आपके लिए तो कहना ही क्या है?)॥ 128॥
सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाकें॥
ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥
ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥
हे मुनि! सुनिए, मोह तो उसके मन में होता है, जिसके हृदय में ज्ञान-वैराग्य नहीं है। आप तो ब्रह्मचर्य व्रत में तत्पर और बड़े धीर बुद्धि हैं। भला, कहीं आपको भी कामदेव सता सकता है?
नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥
करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥
करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥
नारद ने अभिमान के साथ कहा - भगवन! यह सब आपकी कृपा है। करुणानिधान भगवान ने मन में विचारकर देखा कि इनके मन में गर्व के भारी वृक्ष का अंकुर पैदा हो गया है।
बेगि सो मैं डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥
मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मैं सोई॥
मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मैं सोई॥
मैं उसे तुरंत ही उखाड़ फेंकूँगा, क्योंकि सेवकों का हित करना हमारा प्रण है। मैं अवश्य ही वह उपाय करूँगा, जिससे मुनि का कल्याण और मेरा खेल हो।
तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥
श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥
श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥
तब नारद भगवान के चरणों में सिर नवाकर चले। उनके हृदय में अभिमान और भी बढ़ गया। तब लक्ष्मीपति भगवान ने अपनी माया को प्रेरित किया। अब उसकी कठिन करनी सुनो।
दो० - बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।
श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥ 129॥
श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥ 129॥
उस (हरिमाया) ने रास्ते में सौ योजन (चार सौ कोस) का एक नगर रचा। उस नगर की भाँति-भाँति की रचनाएँ लक्ष्मीनिवास भगवान विष्णु के नगर (बैकुंठ) से भी अधिक सुंदर थीं॥ 129॥
बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥
तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥
तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥
उस नगर में ऐसे सुंदर नर-नारी बसते थे, मानो बहुत-से कामदेव और (उसकी स्त्री) रति ही मनुष्य शरीर धारण किए हुए हों। उस नगर में शीलनिधि नाम का राजा रहता था, जिसके यहाँ असंख्य घोड़े, हाथी और सेना के समूह (टुकड़ियाँ) थे।
सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥
बिस्वमोहनी तासु कुमारी। बिमोह जिसु रूपु निहारी॥
बिस्वमोहनी तासु कुमारी। बिमोह जिसु रूपु निहारी॥
उसका वैभव और विलास सौ इंद्रों के समान था। वह रूप, तेज, बल और नीति का घर था। उसके विश्वमोहिनी नाम की एक (ऐसी रूपवती) कन्या थी, जिसके रूप को देखकर लक्ष्मी भी मोहित हो जाएँ।
सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी॥
करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥
करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥
वह सब गुणों की खान भगवान की माया ही थी। उसकी शोभा का वर्णन कैसे किया जा सकता है। वह राजकुमारी स्वयंवर करना चाहती थी, इससे वहाँ अगणित राजा आए हुए थे।
मुनि कौतुकी नगर तेहि गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥
सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥
सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥
खिलवाड़ी मुनि नारद उस नगर में गए और नगरवासियों से उन्होंने सब हाल पूछा। सब समाचार सुनकर वे राजा के महल में आए। राजा ने पूजा करके मुनि को (आसन पर) बैठाया।
दो० - आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि।
कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥ 130॥
कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥ 130॥
(फिर) राजा ने राजकुमारी को लाकर नारद को दिखलाया (और पूछा कि -) हे नाथ! आप अपने हृदय में विचार कर इसके सब गुण-दोष कहिए॥ 130॥
देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥
लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥
लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥
उसके रूप को देखकर मुनि वैराग्य भूल गए और बड़ी देर तक उसकी ओर देखते ही रह गए। उसके लक्षण देखकर मुनि अपने आपको भी भूल गए और हृदय में हर्षित हुए, पर प्रकट रूप में उन लक्षणों को नहीं कहा।
जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई॥
सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥
सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥
(लक्षणों को सोचकर वे मन में कहने लगे कि) जो इसे ब्याहेगा, वह अमर हो जाएगा और रणभूमि में कोई उसे जीत न सकेगा। यह शीलनिधि की कन्या जिसको वरेगी, सब चर-अचर जीव उसकी सेवा करेंगे।
लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥
सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥
सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥
सब लक्षणों को विचारकर मुनि ने अपने हृदय में रख लिया और राजा से कुछ अपनी ओर से बनाकर कह दिए। राजा से लड़की के सुलक्षण कहकर नारद चल दिए। पर उनके मन में यह चिंता थी कि -
करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥
जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥
जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥
मैं जाकर सोच-विचारकर अब वही उपाय करूँ, जिससे यह कन्या मुझे ही वरे। इस समय जप-तप से तो कुछ हो नहीं सकता। हे विधाता! मुझे यह कन्या किस तरह मिलेगी?
दो० - एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल।
जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥ 131॥
जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥ 131॥
इस समय तो बड़ी भारी शोभा और विशाल (सुंदर) रूप चाहिए, जिसे देखकर राजकुमारी मुझ पर रीझ जाए और तब जयमाल (मेरे गले में) डाल दे॥ 131॥
हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥
(एक काम करूँ कि) भगवान से सुंदरता माँगूँ; पर भाई! उनके पास जाने में तो बहुत देर हो जाएगी। किंतु हरि के समान मेरा हितू भी कोई नहीं है, इसलिए इस समय वे ही मेरे सहायक हों।
बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥
प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥
प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥
उस समय नारद ने भगवान की बहुत प्रकार से विनती की। तब लीलामय कृपालु प्रभु (वहीं) प्रकट हो गए। स्वामी को देखकर नारद के नेत्र शीतल हो गए और वे मन में बड़े ही हर्षित हुए कि अब तो काम बन ही जाएगा।
अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥
आपन रूप देहु प्रभु मोहीं। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥
आपन रूप देहु प्रभु मोहीं। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥
नारद ने बहुत आर्त (दीन) होकर सब कथा कह सुनाई (और प्रार्थना की कि) कृपा कीजिए और कृपा करके मेरे सहायक बनिए। हे प्रभो! आप अपना रूप मुझको दीजिए, अन्य किसी प्रकार से मैं उस (राजकन्या) को नहीं पा सकता।
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥
निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥
निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥
हे नाथ! जिस तरह मेरा हित हो, आप वही शीघ्र कीजिए। मैं आपका दास हूँ। अपनी माया का विशाल बल देख दीनदयालु भगवान मन-ही-मन हँसकर बोले -
दो० - जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥ 132॥
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥ 132॥
हे नारद! सुनो, जिस प्रकार आपका परम हित होगा, हम वही करेंगे, दूसरा कुछ नहीं। हमारा वचन असत्य नहीं होता॥ 132॥
कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥
हे योगी मुनि! सुनिए, रोग से व्याकुल रोगी कुपथ्य माँगे तो वैद्य उसे नहीं देता। इसी प्रकार मैंने भी तुम्हारा हित करने की ठान ली है। ऐसा कहकर भगवान अंतर्धान हो गए।
माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥
गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥
गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥
(भगवान की) माया के वशीभूत हुए मुनि ऐसे मूढ़ हो गए कि वे भगवान की अगूढ़ (स्पष्ट) वाणी को भी न समझ सके। ऋषिराज नारद तुरंत वहाँ गए जहाँ स्वयंवर की भूमि बनाई गई थी।
निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥
मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बरिहि न भोरें॥
मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बरिहि न भोरें॥
राजा लोग खूब सज-धजकर समाज सहित अपने-अपने आसन पर बैठे थे। मुनि (नारद) मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे थे कि मेरा रूप बड़ा सुंदर है, मुझे छोड़ कन्या भूलकर भी दूसरे को न वरेगी।
मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥
सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥
सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥
कृपानिधान भगवान ने मुनि के कल्याण के लिए उन्हें ऐसा कुरूप बना दिया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता, पर यह चरित कोई भी न जान सका। सबने उन्हें नारद ही जानकर प्रणाम किया।
दो० - रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥ 133॥
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥ 133॥
वहाँ शिव के दो गण भी थे। वे सब भेद जानते थे और ब्राह्मण का वेष बनाकर सारी लीला देखते-फिरते थे। वे भी बड़े मौजी थे॥ 133॥
जेहिं समाज बैठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥
तहँ बैठे महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥
तहँ बैठे महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥
नारद अपने हृदय में रूप का बड़ा अभिमान लेकर जिस समाज (पंक्ति) में जाकर बैठे थे, ये शिव के दोनों गण भी वहीं बैठ गए। ब्राह्मण के वेष में होने के कारण उनकी इस चाल को कोई न जान सका।
करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥
रीझिहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥
रीझिहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥
वे नारद को सुना-सुनाकर, व्यंग्य वचन कहते थे - भगवान ने इनको अच्छी 'सुंदरता' दी है। इनकी शोभा देखकर राजकुमारी रीझ ही जाएगी और 'हरि' (वानर) जानकर इन्हीं को खास तौर से वरेगी।
मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ॥
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥
नारद मुनि को मोह हो रहा था, क्योंकि उनका मन दूसरे के हाथ (माया के वश) में था। शिव के गण बहुत प्रसन्न होकर हँस रहे थे। यद्यपि मुनि उनकी अटपटी बातें सुन रहे थे, पर बुद्धि भ्रम में सनी हुई होने के कारण वे बातें उनकी समझ में नहीं आती थीं (उनकी बातों को वे अपनी प्रशंसा समझ रहे थे)।
काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥
मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥
मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥
इस विशेष चरित को और किसी ने नहीं जाना, केवल राजकन्या ने (नारद का) वह रूप देखा। उनका बंदर का-सा मुँह और भयंकर शरीर देखते ही कन्या के हृदय में क्रोध उत्पन्न हो गया।
दो० - सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।
देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥ 134॥
देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥ 134॥
तब राजकुमारी सखियों को साथ लेकर इस तरह चली मानो राजहंसिनी चल रही है। वह अपने कमल जैसे हाथों में जयमाला लिए सब राजाओं को देखती हुई घूमने लगी॥ 134॥
जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि तेहिं न बिलोकी भूली॥
पुनि-पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसुकाहीं॥
पुनि-पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसुकाहीं॥
जिस ओर नारद (रूप के गर्व में) फूले बैठे थे, उस ओर उसने भूलकर भी नहीं ताका। नारद मुनि बार-बार उचकते और छटपटाते हैं। उनकी दशा देखकर शिव के गण मुसकराते हैं।
धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥
दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥
दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥
कृपालु भगवान भी राजा का शरीर धारण कर वहाँ जा पहुँचे। राजकुमारी ने हर्षित होकर उनके गले में जयमाला डाल दी। लक्ष्मीनिवास भगवान दुलहिन को ले गए। सारी राजमंडली निराश हो गई।
मुनि अति बिकल मोहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥
तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥
तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥
मोह के कारण मुनि की बुद्धि नष्ट हो गई थी, इससे वे (राजकुमारी को गई देख) बहुत ही विकल हो गए। मानो गाँठ से छूटकर मणि गिर गई हो। तब शिव के गणों ने मुसकराकर कहा - जाकर दर्पण में अपना मुँह तो देखिए!
अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी॥
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥
ऐसा कहकर वे दोनों बहुत भयभीत होकर भागे। मुनि ने जल में झाँककर अपना मुँह देखा। अपना रूप देखकर उनका क्रोध बहुत बढ़ गया। उन्होंने शिव के उन गणों को अत्यंत कठोर शाप दिया -
दो० - होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥ 135॥
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥ 135॥
तुम दोनों कपटी और पापी जाकर राक्षस हो जाओ। तुमने हमारी हँसी की, उसका फल चखो। अब फिर किसी मुनि की हँसी करना॥ 135॥
पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा॥
फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदि चले कमलापति पाहीं॥
फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदि चले कमलापति पाहीं॥
मुनि ने फिर जल में देखा, तो उन्हें अपना (असली) रूप प्राप्त हो गया, तब भी उन्हें संतोष नहीं हुआ। उनके होठ फड़क रहे थे और मन में क्रोध (भरा) था। तुरंत ही वे भगवान कमलापति के पास चले।
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोरि उपहास कराई॥
बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी॥
बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी॥
(मन में सोचते जाते थे -) जाकर या तो शाप दूँगा या प्राण दे दूँगा। उन्होंने जगत में मेरी हँसी कराई। दैत्यों के शत्रु भगवान हरि उन्हें बीच रास्ते में ही मिल गए। साथ में लक्ष्मी और वही राजकुमारी थीं।
बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥
देवताओं के स्वामी भगवान ने मीठी वाणी में कहा - हे मुनि! व्याकुल की तरह कहाँ चले? ये शब्द सुनते ही नारद को बड़ा क्रोध आया, माया के वशीभूत होने के कारण मन में चेत नहीं रहा।
पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥
मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरि बिष पान करायहु॥
मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरि बिष पान करायहु॥
(मुनि ने कहा -) तुम दूसरों की संपदा नहीं देख सकते, तुममें ईर्ष्या और कपट बहुत है। समुद्र मथते समय तुमने शिव को बावला बना दिया और देवताओं को प्रेरित करके उन्हें विषपान कराया।
दो० - असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥ 136॥
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥ 136॥
असुरों को मदिरा और शिव को विष देकर तुमने स्वयं लक्ष्मी और सुंदर (कौस्तुभ) मणि ले ली। तुम बड़े धोखेबाज और मतलबी हो। सदा कपट का व्यवहार करते हो॥ 136॥
परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥
भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥
भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥
तुम परम स्वतंत्र हो, सिर पर तो कोई है नहीं, इससे जब जो मन को भाता है, (स्वच्छंदता से) वही करते हो। भले को बुरा और बुरे को भला कर देते हो। हृदय में हर्ष-विषाद कुछ भी नहीं लाते।
डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू॥
करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥
करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥
सबको ठग-ठगकर परक गए हो और अत्यंत निडर हो गए हो, इसी से (ठगने के काम में) मन में सदा उत्साह रहता है। शुभ-अशुभ कर्म तुम्हें बाधा नहीं देते। अब तक तुम्हें किसी ने ठीक नहीं किया था।
भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥
अबकी तुमने अच्छे घर बैना दिया है (मेरे जैसे जबरदस्त आदमी से छेड़खानी की है)। अतः अपने किए का फल अवश्य पाओगे। जिस शरीर को धारण करके तुमने मुझे ठगा है, तुम भी वही शरीर धारण करो, यह मेरा शाप है।
कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥
मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी। नारि बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥
मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी। नारि बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥
तुमने हमारा रूप बंदर का-सा बना दिया था, इससे बंदर ही तुम्हारी सहायता करेंगे। (मैं जिस स्त्री को चाहता था, उससे मेरा वियोग कराकर) तुमने मेरा बड़ा अहित किया है, इससे तुम भी स्त्री के वियोग में दुःखी होगे।
दो० - श्राप सीस धरि हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि॥
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥ 137॥
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥ 137॥
शाप को सिर पर चढ़ाकर, हृदय में हर्षित होते हुए प्रभु ने नारद से बहुत विनती की और कृपानिधान भगवान ने अपनी माया की प्रबलता खींच ली॥ 137॥
जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥
तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥
तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥
जब भगवान ने अपनी माया को हटा लिया, तब वहाँ न लक्ष्मी ही रह गईं, न राजकुमारी ही। तब मुनि ने अत्यंत भयभीत होकर हरि के चरण पकड़ लिए और कहा - हे शरणागत के दुःखों को हरनेवाले! मेरी रक्षा कीजिए।
मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥
हे कृपालु! मेरा शाप मिथ्या हो जाए। तब दीनों पर दया करनेवाले भगवान ने कहा कि यह सब मेरी ही इच्छा (से हुआ) है। मुनि ने कहा - मैंने आप को अनेक खोटे वचन कहे हैं। मेरे पाप कैसे मिटेंगे?
जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरत बिश्रामा॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥
(भगवान ने कहा -) जाकर शंकर के शतनाम का जप करो, इससे हृदय में तुरंत शांति होगी। शिव के समान मुझे कोई प्रिय नहीं है, इस विश्वास को भूलकर भी न छोड़ना।
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥
अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई॥
अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई॥
हे मुनि ! पुरारि (शिव) जिस पर कृपा नहीं करते, वह मेरी भक्ति नहीं पाता। हृदय में ऐसा निश्चय करके जाकर पृथ्वी पर विचरो। अब मेरी माया तुम्हारे निकट नहीं आएगी।
दो० - बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान।
सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान॥ 138॥
सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान॥ 138॥
बहुत प्रकार से मुनि को समझा-बुझाकर (ढाढ़स देकर) तब प्रभु अंतर्धान हो गए और नारद राम के गुणों का गान करते हुए सत्य लोक (ब्रह्मलोक) को चले॥ 138॥
हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगत मोह मन हरष बिसेषी॥
अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए॥
अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए॥
शिव के गणों ने जब मुनि को मोहरहित और मन में बहुत प्रसन्न होकर मार्ग में जाते हुए देखा तब वे अत्यंत भयभीत होकर नारद के पास आए और उनके चरण पकड़कर दीन वचन बोले -
हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया॥
श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥
श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥
हे मुनिराज! हम ब्राह्मण नहीं हैं, शिव के गण हैं। हमने बड़ा अपराध किया, जिसका फल हमने पा लिया। हे कृपालु! अब शाप दूर करने की कृपा कीजिए। दीनों पर दया करनेवाले नारद ने कहा -
निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥
भुज बल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ॥
भुज बल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ॥
तुम दोनों जाकर राक्षस होओ; तुम्हें महान ऐश्वर्य, तेज और बल की प्राप्ति हो। तुम अपनी भुजाओं के बल से जब सारे विश्व को जीत लोगे, तब भगवान विष्णु मनुष्य का शरीर धारण करेंगे।
समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा॥
चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई॥
चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई॥
युद्ध में हरि के हाथ से तुम्हारी मृत्यु होगी, जिससे तुम मुक्त हो जाओगे और फिर संसार में जन्म नहीं लोगे। वे दोनों मुनि के चरणों में सिर नवाकर चले और समय पाकर राक्षस हुए।
दो० - एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार।
सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार॥ 139॥
सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार॥ 139॥
देवताओं को प्रसन्न करनेवाले, सज्जनों को सुख देनेवाले और पृथ्वी का भार हरण करनेवाले भगवान ने एक कल्प में इसी कारण मनुष्य का अवतार लिया था॥ 139॥
एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥
कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥
कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥
इस प्रकार भगवान के अनेक सुंदर, सुखदायक और अलौकिक जन्म और कर्म हैं। प्रत्येक कल्प में जब-जब भगवान अवतार लेते हैं और नाना प्रकार की सुंदर लीलाएँ करते हैं,
तब-तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई॥
बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने॥
बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने॥
तब-तब मुनीश्वरों ने परम पवित्र काव्य रचना करके उनकी कथाओं का गान किया है और भाँति-भाँति के अनुपम प्रसंगों का वर्णन किया है, जिनको सुनकर समझदार (विवेकी) लोग आश्चर्य नहीं करते।
हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥
हरि अनंत हैं (उनका कोई पार नहीं पा सकता) और उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं। रामचंद्र के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते।
यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी॥
प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी। सेवत सुलभ सकल दुखहारी॥
प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी। सेवत सुलभ सकल दुखहारी॥
(शिव कहते हैं कि) हे पार्वती! मैंने यह बताने के लिए इस प्रसंग को कहा कि ज्ञानी मुनि भी भगवान की माया से मोहित हो जाते हैं। प्रभु कौतुकी (लीलामय) हैं और शरणागत का हित करनेवाले हैं। वे सेवा करने में बहुत सुलभ और सब दुःखों के हरनेवाले हैं।
सो० - सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल।
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥ 140॥
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥ 140॥
देवता, मनुष्य और मुनियों में ऐसा कोई नहीं है, जिसे भगवान की महान बलवती माया मोहित न कर दे। मन में ऐसा विचारकर उस महामाया के स्वामी (प्रेरक) भगवान का भजन करना चाहिए॥ 140॥
अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥
जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥
जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥
हे गिरिराजकुमारी! अब भगवान के अवतार का वह दूसरा कारण सुनो - मैं उसकी विचित्र कथा विस्तार करके कहता हूँ - जिस कारण से जन्मरहित, निर्गुण और रूपरहित ब्रह्म अयोध्यापुरी के राजा हुए।
जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें मुनिबेषा॥
जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥
जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥
जिन प्रभु राम को तुमने भाई लक्ष्मण के साथ मुनियों का-सा वेष धारण किए वन में फिरते देखा था और हे भवानी! जिनके चरित्र देखकर सती के शरीर में तुम ऐसी बावली हो गई थीं कि -
अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥
लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा॥
लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा॥
अब भी तुम्हारे उस बावलेपन की छाया नहीं मिटती, उन्हीं के भ्रमरूपी रोग के हरण करनेवाले चरित्र सुनो। उस अवतार में भगवान ने जो-जो लीला की, वह सब मैं अपनी बुद्धि के अनुसार तुम्हें कहूँगा।
भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसुकानी॥
लगे बहुरि बरनै बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥
लगे बहुरि बरनै बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥
(याज्ञवल्क्य ने कहा -) हे भरद्वाज! शंकर के वचन सुनकर पार्वती सकुचाकर प्रेमसहित मुसकराईं। फिर वृषकेतु शिव जिस कारण से भगवान का वह अवतार हुआ था, उसका वर्णन करने लगे।
दो० - सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाइ।
रामकथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ॥ 141॥
रामकथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ॥ 141॥
हे मुनीश्वर भरद्वाज! मैं वह सब तुमसे कहता हूँ, मन लगाकर सुनो। राम की कथा कलियुग के पापों को हरनेवाली, कल्याण करनेवाली और बड़ी सुंदर है॥ 141॥
स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥
दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥
दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥
स्वायंभुव मनु और (उनकी पत्नी) शतरूपा, जिनसे मनुष्यों की यह अनुपम सृष्टि हुई, इन दोनों पति-पत्नी के धर्म और आचरण बहुत अच्छे थे। आज भी वेद जिनकी मर्यादा का गान करते हैं।
नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरिभगत भयउ सुत जासू॥
लघु सुत नाम प्रियब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहिं जाही॥
लघु सुत नाम प्रियब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहिं जाही॥
राजा उत्तानपाद उनके पुत्र थे, जिनके पुत्र (प्रसिद्ध) हरिभक्त ध्रुव हुए। उन (मनु) के छोटे लड़के का नाम प्रियव्रत था, जिनकी प्रशंसा वेद और पुराण करते हैं।
देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥
आदि देव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥
आदि देव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥
पुनः देवहूति उनकी कन्या थी, जो कर्दम मुनि की प्यारी पत्नी हुई और जिन्होंने आदि देव, दीनों पर दया करनेवाले समर्थ एवं कृपालु भगवान कपिल को गर्भ में धारण किया।
सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्त्व बिचार निपुन भगवाना॥
तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥
तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥
तत्त्वों का विचार करने में अत्यंत निपुण जिन (कपिल) भगवान ने सांख्य शास्त्र का प्रकट रूप में वर्णन किया, उन (स्वायंभुव) मनु ने बहुत समय तक राज्य किया और सब प्रकार से भगवान की आज्ञा का पालन किया।
सो० - होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन॥
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥ 142॥
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥ 142॥
घर में रहते बुढ़ापा आ गया, परंतु विषयों से वैराग्य नहीं होता (इस बात को सोचकर) उनके मन में बड़ा दुःख हुआ कि हरि की भक्ति बिना जन्म यों ही चला गया॥ 142॥
बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥
तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥
तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥
तब मनु ने अपने पुत्र को जबरदस्ती राज्य देकर स्वयं स्त्री सहित वन को गमन किया। अत्यंत पवित्र और साधकों को सिद्धि देनेवाला तीर्थों में श्रेष्ठ नैमिषारण्य प्रसिद्ध है।
बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥
पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥
पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥
वहाँ मुनियों और सिद्धों के समूह बसते हैं। राजा मनु हृदय में हर्षित होकर वहीं चले। वे धीर बुद्धिवाले राजा-रानी मार्ग में जाते हुए ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों ज्ञान और भक्ति ही शरीर धारण किए जा रहे हों।
पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥
आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी॥
आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी॥
(चलते-चलते) वे गोमती के किनारे जा पहुँचे। हर्षित होकर उन्होंने निर्मल जल में स्नान किया। उनको धर्मधुरंधर राजर्षि जानकर सिद्ध और ज्ञानी मुनि उनसे मिलने आए।
जहँ जहँ तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए॥
कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना॥
कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना॥
जहाँ-जहाँ सुंदर तीर्थ थे, मुनियों ने आदरपूर्वक सभी तीर्थ उनको करा दिए। उनका शरीर दुर्बल हो गया था। वे मुनियों के-से (वल्कल) वस्त्र धारण करते थे और संतों के समाज में नित्य पुराण सुनते थे।
दो० - द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥ 143॥
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥ 143॥
और द्वादशाक्षर मंत्र (ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) का प्रेम सहित जप करते थे। भगवान वासुदेव के चरणकमलों में उन राजा-रानी का मन बहुत ही लग गया॥ 143॥
करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा॥
पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥
पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥
वे साग, फल और कंद का आहार करते थे और सच्चिदानंद ब्रह्म का स्मरण करते थे। फिर वे हरि के लिए तप करने लगे और मूल-फल को त्यागकर केवल जल के आधार पर रहने लगे।
उर अभिलाष निरंतर होई। देखिअ नयन परम प्रभु सोई॥
अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥
अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥
हृदय में निरंतर यही अभिलाषा हुआ करती कि हम (कैसे) उन परम प्रभु को आँखों से देखें, जो निर्गुण, अखंड, अनंत और अनादि हैं और परमार्थवादी (ब्रह्मज्ञानी, तत्त्ववेत्ता) लोग जिनका चिंतन किया करते हैं।
नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥
जिन्हें वेद 'नेति-नेति' (यह भी नहीं, यह भी नहीं) कहकर निरूपण करते हैं। जो आनंदस्वरूप, उपाधिरहित और अनुपम हैं एवं जिनके अंश से अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु भगवान प्रकट होते हैं।
ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजिहि अभिलाषा॥
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजिहि अभिलाषा॥
ऐसे (महान) प्रभु भी सेवक के वश में हैं और भक्तों के लिए (दिव्य) लीला विग्रह धारण करते हैं। यदि वेदों में यह वचन सत्य कहा है, तो हमारी अभिलाषा भी अवश्य पूरी होगी।
दो० - एहि बिधि बीते बरष षट सहस बारि आहार।
संबत सप्त सहस्र पुनि रहे समीर अधार॥ 144॥
संबत सप्त सहस्र पुनि रहे समीर अधार॥ 144॥
इस प्रकार जल का आहार (करके तप) करते छह हजार वर्ष बीत गए। फिर सात हजार वर्ष वे वायु के आधार पर रहे॥ 144॥
बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ ॥
बिधि हरि हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥
बिधि हरि हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥
दस हजार वर्ष तक उन्होंने वायु का आधार भी छोड़ दिया। दोनों एक पैर से खड़े रहे। उनका अपार तप देखकर ब्रह्मा, विष्णु और शिव कई बार मनु के पास आए।
मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥
उन्होंने इन्हें अनेक प्रकार से ललचाया और कहा कि कुछ वर माँगो। पर ये परम धैर्यवान (राजा-रानी अपने तप से किसी के) डिगाए नहीं डिगे। यद्यपि उनका शरीर हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया था, फिर भी उनके मन में जरा भी पीड़ा नहीं थी।
प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥
मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥
मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥
सर्वज्ञ प्रभु ने अनन्य गति (आश्रय)वाले तपस्वी राजा-रानी को 'निज दास' जाना। तब परम गंभीर और कृपारूपी अमृत से सनी हुई यह आकाशवाणी हुई कि 'वर माँगो'।
मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रवन रंध्र होइ उर जब आई॥
हृष्ट पुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥
हृष्ट पुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥
मुर्दे को भी जिला देनेवाली यह सुंदर वाणी कानों के छेदों से होकर जब हृदय में आई, तब राजा-रानी के शरीर ऐसे सुंदर और हृष्ट-पुष्ट हो गए, मानो अभी घर से आए हैं।
दो० - श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात।
बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात॥ 145॥
बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात॥ 145॥
कानों में अमृत के समान लगनेवाले वचन सुनते ही उनका शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया। तब मनु दंडवत करके बोले, प्रेम हृदय में समाता न था - ॥ 145॥
सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥
सेवत सुलभ सकल सुखदायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥
सेवत सुलभ सकल सुखदायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥
हे प्रभो! सुनिए, आप सेवकों के लिए कल्पवृक्ष और कामधेनु हैं। आपके चरण रज की ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी वंदना करते हैं। आप सेवा करने में सुलभ हैं तथा सब सुखों के देनेवाले हैं। आप शरणागत के रक्षक और जड़-चेतन के स्वामी हैं।
जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होई यह बर देहू॥
जोसरूप बस सिव मन माहीं। जेहिं कारन मुनि जतन कराहीं॥
जोसरूप बस सिव मन माहीं। जेहिं कारन मुनि जतन कराहीं॥
हे अनाथों का कल्याण करनेवाले! यदि हम लोगों पर आपका स्नेह है, तो प्रसन्न होकर यह वर दीजिए कि आपका जो स्वरूप शिव के मन में बसता है और जिस (की प्राप्ति) के लिए मुनि लोग यत्न करते हैं।
जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥
जो काकभुशुंडि के मनरूपी मान सरोवर में विहार करनेवाला हंस है, सगुण और निर्गुण कहकर वेद जिसकी प्रशंसा करते हैं, हे शरणागत के दुःख मिटानेवाले प्रभो! ऐसी कृपा कीजिए कि हम उसी रूप को नेत्र भरकर देखें।
दंपति बचन परम प्रिय लागे। मृदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥
राजा-रानी के कोमल, विनययुक्त और प्रेमरस में पगे हुए वचन भगवान को बहुत ही प्रिय लगे। भक्तवत्सल, कृपानिधान, संपूर्ण विश्व के निवास स्थान (या समस्त विश्व में व्यापक), सर्वसमर्थ भगवान प्रकट हो गए।
दो० - नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥ 146॥
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥ 146॥
भगवान के नीले कमल, नीलमणि और नीले (जलयुक्त) मेघ के समान (कोमल, प्रकाशमय और सरस) श्यामवर्ण शरीर की शोभा देखकर करोड़ों कामदेव भी लजा जाते हैं॥ 146॥
सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥
अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥
अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥
उनका मुख शरद (पूर्णिमा) के चंद्रमा के समान छवि की सीमास्वरूप था। गाल और ठोड़ी बहुत सुंदर थे, गला शंख के समान (त्रिरेखायुक्त, चढ़ाव-उतारवाला) था। लाल होठ, दाँत और नाक अत्यंत सुंदर थे। हँसी चंद्रमा की किरणावली को नीचा दिखानेवाली थी।
नव अंबुज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँतीजी की॥
भृकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥
भृकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥
नेत्रों की छवि नए (खिले हुए) कमल के समान बड़ी सुंदर थी। मनोहर चितवन जी को बहुत प्यारी लगती थी। टेढ़ी भौंहें कामदेव के धनुष की शोभा को हरनेवाली थीं। ललाट पटल पर प्रकाशमय तिलक था।
कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥
उरबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥
उरबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥
कानों में मकराकृत (मछली के आकार के) कुंडल और सिर पर मुकुट सुशोभित था। टेढ़े (घुँघराले) काले बाल ऐसे सघन थे, मानो भौंरों के झुंड हों। हृदय परवत्स, सुंदर वनमाला, रत्नजड़ित हार और मणियों के आभूषण सुशोभित थे।
केहरि कंधर चारु जनेऊ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥
मकरि कर सरिस सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा॥
मकरि कर सरिस सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा॥
सिंह की-सी गर्दन थी, सुंदर जनेऊ था। भुजाओं में जो गहने थे, वे भी सुंदर थे। हाथी की सूँड़ के समान (उतार-चढ़ाववाले) सुंदर भुजदंड थे। कमर में तरकस और हाथ में बाण और धनुष (शोभा पा रहे) थे।
दो० - तड़ित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि।
नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भँवर छबि छीनि॥ 147॥
नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भँवर छबि छीनि॥ 147॥
(स्वर्ण-वर्ण का प्रकाशमय) पीतांबर बिजली को लजानेवाला था। पेट पर सुंदर तीन रेखाएँ (त्रिवली) थीं। नाभि ऐसी मनोहर थी, मानो यमुना के भँवरों की छवि को छीने लेती हो॥ 147॥
पद राजीव बरनि नहिं जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥
बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥
बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥
जिनमें मुनियों के मनरूपी भौंरे बसते हैं, भगवान के उन चरणकमलों का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। भगवान के बाएँ भाग में सदा अनुकूल रहनेवाली, शोभा की राशि जगत की मूलकारणरूपा आदि शक्ति जानकी सुशोभित हैं।
जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥
भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई॥
भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई॥
जिनके अंश से गुणों की खान अगणित लक्ष्मी, पार्वती और ब्रह्माणी (त्रिदेवों की शक्तियाँ) उत्पन्न होती हैं तथा जिनकी भौंह के इशारे से ही जगत की रचना हो जाती है, वही (भगवान की स्वरूपा-शक्ति) सीता राम की बाईं ओर स्थित हैं।
छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी॥
चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥
चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥
शोभा के समुद्र हरि के रूप को देखकर मनु-शतरूपा नेत्रों के पट (पलकें) रोके हुए एकटक (स्तब्ध) रह गए। उस अनुपम रूप को वे आदर सहित देख रहे थे और देखते-देखते अघाते ही न थे।
हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी॥
सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा॥
सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा॥
आनंद के अधिक वश में हो जाने के कारण उन्हें अपने देह की सुधि भूल गई। वे हाथों से भगवान के चरण पकड़कर दंड की तरह (सीधे) भूमि पर गिर पड़े। कृपा की राशि प्रभु ने अपने करकमलों से उनके मस्तकों का स्पर्श किया और उन्हें तुरंत ही उठा लिया।
दो० - बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।
मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥ 148॥
मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥ 148॥
फिर कृपानिधान भगवान बोले - मुझे अत्यंत प्रसन्न जानकर और बड़ा भारी दानी मानकर, जो मन को भाए वही वर माँग लो॥ 148॥
सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥
नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥
नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥
प्रभु के वचन सुनकर, दोनों हाथ जोड़कर और धीरज धरकर राजा ने कोमल वाणी कही - हे नाथ! आपके चरणकमलों को देखकर अब हमारी सारी मनःकामनाएँ पूरी हो गईं।
एक लालसा बड़ि उर माहीं। सुगम अगम कहि जाति सो नाहीं॥
तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥
तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥
फिर भी मन में एक बड़ी लालसा है। उसका पूरा होना सहज भी है और अत्यंत कठिन भी, इसी से उसे कहते नहीं बनता। हे स्वामी! आपके लिए तो उसका पूरा करना बहुत सहज है, पर मुझे अपनी कृपणता (दीनता) के कारण वह अत्यंत कठिन मालूम होता है।
जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥
तासु प्रभाउ जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥
तासु प्रभाउ जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥
जैसे कोई दरिद्र कल्पवृक्ष को पाकर भी अधिक द्रव्य माँगने में संकोच करता है, क्योंकि वह उसके प्रभाव को नहीं जानता, वैसे ही मेरे हृदय में संशय हो रहा है।
सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥
सकुच बिहाइ मागु नृप मोही। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥
सकुच बिहाइ मागु नृप मोही। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥
हे स्वामी! आप अंतर्यामी हैं, इसलिए उसे जानते ही हैं। मेरा वह मनोरथ पूरा कीजिए। (भगवान ने कहा -) हे राजन! संकोच छोड़कर मुझसे माँगो। तुम्हें न दे सकूँ ऐसा मेरे पास कुछ भी नहीं है।
दो० - दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ।
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥ 149॥
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥ 149॥
(राजा ने कहा -) हे दानियों के शिरोमणि! हे कृपानिधान! हे नाथ! मैं अपने मन का सच्चा भाव कहता हूँ कि मैं आपके समान पुत्र चाहता हूँ। प्रभु से भला क्या छिपाना!॥ 149॥
देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥
राजा की प्रीति देखकर और उनके अमूल्य वचन सुनकर करुणानिधान भगवान बोले - ऐसा ही हो। हे राजन! मैं अपने समान (दूसरा) कहाँ जाकर खोजूँ! अतः स्वयं ही आकर तुम्हारा पुत्र बनूँगा।
सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरें॥
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥
शतरूपा को हाथ जोड़े देखकर भगवान ने कहा - हे देवी! तुम्हारी जो इच्छा हो, सो वर माँग लो। (शतरूपा ने कहा -) हे नाथ! चतुर राजा ने जो वर माँगा, हे कृपालु! वह मुझे बहुत ही प्रिय लगा।
प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥
परंतु हे प्रभु! बहुत ढिठाई हो रही है, यद्यपि हे भक्तों का हित करनेवाले! वह ढिठाई भी आपको अच्छी ही लगती है। आप ब्रह्मा आदि के भी पिता (उत्पन्न करनेवाले), जगत के स्वामी और सबके हृदय के भीतर की जाननेवाले ब्रह्म हैं।
अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥
जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥
जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥
ऐसा समझने पर मन में संदेह होता है, फिर भी प्रभु ने जो कहा वही प्रमाण (सत्य) है। (मैं तो यह माँगती हूँ कि) हे नाथ! आपके जो निज जन हैं, वे जो (अलौकिक, अखंड) सुख पाते हैं और जिस परम गति को प्राप्त होते हैं।
दो० - सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु।
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥ 150॥
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥ 150॥
हे प्रभो! वही सुख, वही गति, वही भक्ति, वही अपने चरणों में प्रेम, वही ज्ञान और वही रहन-सहन कृपा करके हमें दीजिए॥ 150॥
सुनि मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना॥
जो कछु रुचि तुम्हरे मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं॥
जो कछु रुचि तुम्हरे मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं॥
(रानी की) कोमल, गूढ़ और मनोहर श्रेष्ठ वाक्य रचना सुनकर कृपा के समुद्र भगवान कोमल वचन बोले - तुम्हारे मन में जो कुछ इच्छा है, वह सब मैंने तुमको दिया, इसमें कोई संदेह न समझना।
मातु बिबेक अलौकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें॥
बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनती प्रभु मोरी॥
बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनती प्रभु मोरी॥
हे माता! मेरी कृपा से तुम्हारा अलौकिक ज्ञान कभी नष्ट न होगा। तब मनु ने भगवान के चरणों की वंदना करके फिर कहा - हे प्रभु! मेरी एक विनती और है -
सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ॥
मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना॥
मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना॥
आपके चरणों में मेरी वैसी ही प्रीति हो जैसी पुत्र के लिए पिता की होती है, चाहे मुझे कोई बड़ा भारी मूर्ख ही क्यों न कहे। जैसे मणि के बिना साँप और जल के बिना मछली (नहीं रह सकती), वैसे ही मेरा जीवन आपके अधीन रहे (आपके बिना न रह सके)।
अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ॥
अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी॥
अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी॥
ऐसा वर माँगकर राजा भगवान के चरण पकड़े रह गए। तब दया के निधान भगवान ने कहा - ऐसा ही हो। अब तुम मेरी आज्ञा मानकर देवराज इंद्र की राजधानी (अमरावती) में जाकर वास करो।
दो० - तहँ करि भोग बिसाल तात गएँ कछु काल पुनि।
होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत॥ 151॥
होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत॥ 151॥
हे तात! वहाँ (स्वर्ग के) बहुत-से भोग भोगकर, कुछ काल बीत जाने पर, तुम अवध के राजा होगे। तब मैं तुम्हारा पुत्र होऊँगा॥ 151॥
इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारें॥
अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता॥
अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता॥
इच्छानिर्मित मनुष्य रूप सजकर मैं तुम्हारे घर प्रकट होऊँगा। हे तात! मैं अपने अंशों सहित देह धारण करके भक्तों को सुख देनेवाले चरित्र करूँगा।
जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी॥
आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया॥
आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया॥
जिन (चरित्रों) को बड़े भाग्यशाली मनुष्य आदरसहित सुनकर, ममता और मद त्यागकर, भवसागर से तर जाएँगे। आदिशक्ति यह मेरी (स्वरूपभूता) माया भी, जिसने जगत को उत्पन्न किया है, अवतार लेगी।
पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य हमारा॥
पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अंतरधान भए भगवाना॥
पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अंतरधान भए भगवाना॥
इस प्रकार मैं तुम्हारी अभिलाषा पूरी करूँगा। मेरा प्रण सत्य है, सत्य है, सत्य है। कृपानिधान भगवान बार-बार ऐसा कहकर अंतर्धान हो गए।
दंपति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला॥
समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावति बासा॥
समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावति बासा॥
वे स्त्री-पुरुष (राजा-रानी) भक्तों पर कृपा करनेवाले भगवान को हृदय में धारण करके कुछ काल तक उस आश्रम में रहे। फिर उन्होंने समय पाकर, सहज ही (बिना किसी कष्ट के) शरीर छोड़कर, अमरावती (इंद्र की पुरी) में जाकर वास किया।
दो० - यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु।
भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु॥ 152॥
भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु॥ 152॥
(याज्ञवल्क्य कहते हैं -) हे भरद्वाज! इस अत्यंत पवित्र इतिहास को शिव ने पार्वती से कहा था। अब राम के अवतार लेने का दूसरा कारण सुनो॥ 152॥
सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति संभु बखानी॥
बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥
बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥
हे मुनि! वह पवित्र और प्राचीन कथा सुनो, जो शिव ने पार्वती से कही थी। संसार में प्रसिद्ध एक कैकय देश है। वहाँ सत्यकेतु नाम का राजा रहता (राज्य करता) था।
धरम धुरंधर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना॥
तेहि कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा॥
तेहि कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा॥
वह धर्म की धुरी को धारण करनेवाला, नीति की खान, तेजस्वी, प्रतापी, सुशील और बलवान था, उसके दो वीर पुत्र हुए, जो सब गुणों के भंडार और बड़े ही रणधीर थे।
राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही॥
अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल संग्रामा॥
अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल संग्रामा॥
राज्य का उत्तराधिकारी जो बड़ा लड़का था, उसका नाम प्रतापभानु था। दूसरे पुत्र का नाम अरिमर्दन था, जिसकी भुजाओं में अपार बल था और जो युद्ध में (पर्वत के समान) अटल रहता था।
भाइहि भाइहि परम समीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती॥
जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा॥
जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा॥
भाई-भाई में बड़ा मेल और सब प्रकार के दोषों और छलों से रहित (सच्ची) प्रीति थी। राजा ने जेठ पुत्र को राज्य दे दिया और आप भगवान (के भजन) के लिए वन को चल दिया।
दो० - जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस।
प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस॥ 153॥
प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस॥ 153॥
जब प्रतापभानु राजा हुआ, देश में उसकी दुहाई फिर गई। वह वेद में बताई हुई विधि के अनुसार उत्तम रीति से प्रजा का पालन करने लगा। उसके राज्य में पाप का कहीं लेश भी नहीं रह गया॥ 153॥
नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना॥
सचिव सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज रनधीरा॥
सचिव सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज रनधीरा॥
राजा का हित करनेवाला और शुक्राचार्य के समान बुद्धिमान धर्मरुचि नामक उसका मंत्री था। इस प्रकार बुद्धिमान मंत्री और बलवान तथा वीर भाई के साथ ही स्वयं राजा भी बड़ा प्रतापी और रणधीर था।
सेन संग चतुरंग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा॥
सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना॥
सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना॥
साथ में अपार चतुरंगिणी सेना थी, जिसमें असंख्य योद्धा थे, जो सब के सब रण में जूझ मरनेवाले थे। अपनी सेना को देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और घमाघम नगाड़े बजने लगे।
बिजय हेतु कटकई बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई॥
जहँ तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआईं॥
जहँ तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआईं॥
दिग्विजय के लिए सेना सजाकर वह राजा शुभ दिन (मुहूर्त) साधकर और डंका बजाकर चला। जहाँ-तहाँ बहुत-सी लड़ाइयाँ हुईं। उसने सब राजाओं को बलपूर्वक जीत लिया।
सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हे॥
सकल अवनि मंडल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला॥
सकल अवनि मंडल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला॥
अपनी भुजाओं के बल से उसने सातों द्वीपों (भूमिखंडों) को वश में कर लिया और राजाओं से दंड (कर) ले-लेकर उन्हें छोड़ दिया। संपूर्ण पृथ्वी मंडल का उस समय प्रतापभानु ही एकमात्र (चक्रवर्ती) राजा था।
दो० - स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु।
अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु॥ 154॥
अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु॥ 154॥
संसार भर को अपनी भुजाओं के बल से वश में करके राजा ने अपने नगर में प्रवेश किया। राजा अर्थ, धर्म और काम आदि के सुखों का समयानुसार सेवन करता था॥ 154॥
भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई॥
सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुंदर नर नारी॥
सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुंदर नर नारी॥
राजा प्रतापभानु का बल पाकर भूमि सुंदर कामधेनु (मनचाही वस्तु देनेवाली) हो गई। (उनके राज्य में) प्रजा सब (प्रकार के) दुःखों से रहित और सुखी थी और सभी स्त्री-पुरुष सुंदर और धर्मात्मा थे।
सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती॥
गुर सुर संत पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा॥
गुर सुर संत पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा॥
धर्मरुचि मंत्री का हरि के चरणों में प्रेम था। वह राजा के हित के लिए सदा उसको नीति सिखाया करता था। राजा गुरु, देवता, संत, पितर और ब्राह्मण - इन सबकी सदा सेवा करता रहता था।
भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सुख माने॥
दिन प्रति देइ बिबिध बिधि दाना। सुनइ सास्त्र बर बेद पुराना॥
दिन प्रति देइ बिबिध बिधि दाना। सुनइ सास्त्र बर बेद पुराना॥
वेदों में राजाओं के जो धर्म बताए गए हैं, राजा सदा आदरपूर्वक और सुख मानकर उन सबका पालन करता था। प्रतिदिन अनेक प्रकार के दान देता और उत्तम शास्त्र, वेद और पुराण सुनता था।
नाना बापीं कूप तड़ागा। सुमन बाटिका सुंदर बागा॥
बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए॥
बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए॥
उसने बहुत-सी बावलियाँ, कुएँ, तालाब, फुलवाड़ियाँ सुंदर बगीचे, ब्राह्मणों के लिए घर और देवताओं के सुंदर विचित्र मंदिर सब तीर्थों में बनवाए।
दो० - जहँ लजि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग।
बार सहस्र सहस्र नृप किए सहित अनुराग॥ 155॥
बार सहस्र सहस्र नृप किए सहित अनुराग॥ 155॥
वेद और पुराणों में जितने प्रकार के यज्ञ कहे गए हैं, राजा ने एक-एक करके उन सब यज्ञों को प्रेम सहित हजार-हजार बार किया॥ 155॥
हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥
करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥
करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥
(राजा के) हृदय में किसी फल की टोह (कामना) न थी। राजा बड़ा ही बुद्धिमान और ज्ञानी था। वह ज्ञानी राजा कर्म, मन और वाणी से जो कुछ भी धर्म करता था, सब भगवान वासुदेव को अर्पित करते रहता था।
चढ़ि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा॥
बिंध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ॥
बिंध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ॥
एक बार वह राजा एक अच्छे घोड़े पर सवार होकर, शिकार का सब सामान सजाकर विंध्याचल के घने जंगल में गया और वहाँ उसने बहुत-से उत्तम-उत्तम हिरन मारे।
फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू॥
बड़ बिधु नहिं समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोध बस उगिलत नाहीं॥
बड़ बिधु नहिं समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोध बस उगिलत नाहीं॥
राजा ने वन में फिरते हुए एक सूअर को देखा। (दाँतों के कारण वह ऐसा दिख पड़ता था) मानो चंद्रमा को ग्रसकर (मुँह में पकड़कर) राहु वन में आ छिपा हो। चंद्रमा बड़ा होने से उसके मुँह में समाता नहीं है और मानो क्रोधवश वह भी उसे उगलता नहीं है।
कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई॥
घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ॥
घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ॥
यह तो सूअर के भयानक दाँतों की शोभा कही गई। (इधर) उसका शरीर भी बहुत विशाल और मोटा था। घोड़े की आहट पाकर वह घुरघुराता हुआ कान उठाए चौकन्ना होकर देख रहा था।
दो० - नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु।
चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु॥ 156॥
चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु॥ 156॥
नील पर्वत के शिखर के समान विशाल (शरीरवाले) उस सूअर को देखकर राजा घोड़े को चाबुक लगाकर तेजी से चला और उसने सूअर को ललकारा कि अब तेरा बचाव नहीं हो सकता॥ 156॥
आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी॥
तुरत कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना॥
तुरत कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना॥
अधिक शब्द करते हुए घोड़े को (अपनी तरफ) आता देखकर सूअर पवन वेग से भाग चला। राजा ने तुरंत ही बाण को धनुष पर चढ़ाया। सूअर बाण को देखते ही धरती में दुबक गया।
तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर बचावा॥
प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ सँग लागा॥
प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ सँग लागा॥
राजा तक-तककर तीर चलाता है, परंतु सूअर छल करके शरीर को बचाता जाता है। वह पशु कभी प्रकट होता और कभी छिपता हुआ भाग जाता था और राजा भी क्रोध के वश उसके साथ (पीछे) लगा चला जाता था।
गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू॥
अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजइ नरेसू॥
अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजइ नरेसू॥
सूअर बहुत दूर ऐसे घने जंगल में चला गया, जहाँ हाथी-घोड़े का निबाह (गमन) नहीं था। राजा बिलकुल अकेला था और वन में क्लेश भी बहुत था, फिर भी राजा ने उस पशु का पीछा नहीं छोड़ा।
कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा॥
अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई॥
अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई॥
राजा को बड़ा धैर्यवान देखकर, सूअर भागकर पहाड़ की एक गहरी गुफा में जा घुसा। उसमें जाना कठिन देखकर राजा को बहुत पछताकर लौटना पड़ा, पर उस घोर वन में वह रास्ता भूल गया।
दो० - खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत।
खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत॥ 157॥
खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत॥ 157॥
बहुत परिश्रम करने से थका हुआ और घोड़े समेत भूख-प्यास से व्याकुल राजा नदी-तालाब खोजता-खोजता पानी बिना बेहाल हो गया॥ 157॥
फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा॥
जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई॥
जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई॥
वन में फिरते-फिरते उसने एक आश्रम देखा, वहाँ कपट से मुनि का वेष बनाए एक राजा रहता था, जिसका देश राजा प्रतापभानु ने छीन लिया था और जो सेना को छोड़कर युद्ध से भाग गया था।
समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी॥
गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी॥
गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी॥
प्रतापभानु का समय (अच्छे दिन) जानकर और अपना कुसमय (बुरे दिन) अनुमान कर उसके मन में बड़ी ग्लानि हुई। इससे वह न तो घर गया और न अभिमानी होने के कारण राजा प्रतापभानु से ही मिला (मेल किया)।
रिस उर मारि रंक जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस कें साजा॥
तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहिं तब चीन्हा॥
तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहिं तब चीन्हा॥
दरिद्र की भाँति मन ही में क्रोध को मारकर वह राजा तपस्वी के वेष में वन में रहता था। राजा (प्रतापभानु) उसी के पास गया। उसने तुरंत पहचान लिया कि यह प्रतापभानु है।
राउ तृषित नहिं सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि जाना॥
उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा॥
उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा॥
राजा प्यासा होने के कारण (व्याकुलता में) उसे पहचान न सका। सुंदर वेष देखकर राजा ने उसे महामुनि समझा और घोड़े से उतरकर उसे प्रणाम किया, परंतु बड़ा चतुर होने के कारण राजा ने उसे अपना नाम नहीं बताया।
दो० - भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरू दीन्ह देखाइ।
मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ॥ 158॥
मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ॥ 158॥
राजा को प्यासा देखकर उसने सरोवर दिखला दिया। हर्षित होकर राजा ने घोड़े सहित उसमें स्नान और जलपान किया॥ 158॥
गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ॥
आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥
आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥
सारी थकावट मिट गई, राजा सुखी हो गया। तब तपस्वी उसे अपने आश्रम में ले गया और सूर्यास्त का समय जानकर उसने (राजा को बैठने के लिए) आसन दिया। फिर वह तपस्वी कोमल वाणी से बोला -
को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुंदर जुबा जीव परहेलें॥
चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरें॥
चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरें॥
तुम कौन हो? सुंदर युवक होकर, जीवन की परवाह न करके वन में अकेले क्यों फिर रहे हो? तुम्हारे चक्रवर्ती राजा के से लक्षण देखकर मुझे बड़ी दया आती है।
नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा॥
फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बड़ें भाग देखेउँ पद आई॥
फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बड़ें भाग देखेउँ पद आई॥
(राजा ने कहा -) हे मुनीश्वर! सुनिए, प्रतापभानु नाम का एक राजा है, मैं उसका मंत्री हूँ। शिकार के लिए फिरते हुए राह भूल गया हूँ। बड़े भाग्य से यहाँ आकर मैंने आपके चरणों के दर्शन पाए हैं।
हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा॥
कह मुनि तात भयउ अँधिआरा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा॥
कह मुनि तात भयउ अँधिआरा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा॥
हमें आपका दर्शन दुर्लभ था, इससे जान पड़ता है कुछ भला होनेवाला है। मुनि ने कहा - हे तात! अँधेरा हो गया। तुम्हारा नगर यहाँ से सत्तर योजन पर है।
दो० - निसा घोर गंभीर बन पंथ न सुनहु सुजान।
बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान॥ 15 (क)॥
बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान॥ 15 (क)॥
हे सुजान! सुनो, घोर अँधेरी रात है, घना जंगल है, रास्ता नहीं है, ऐसा समझकर तुम आज यहीं ठहर जाओ, सबेरा होते ही चले जाना॥ 159(क)॥
तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ॥ 159(ख)॥
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ॥ 159(ख)॥
तुलसीदास कहते हैं - जैसी भवितव्यता (होनहार) होती है, वैसी ही सहायता मिल जाती है। या तो वह आप ही उसके पास आती है या उसको वहाँ ले जाती है॥ 159(ख)॥
भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा॥
नृप बहु भाँति प्रसंसेउ ताही। चरन बंदि निज भाग्य सराही॥
नृप बहु भाँति प्रसंसेउ ताही। चरन बंदि निज भाग्य सराही॥
हे नाथ! बहुत अच्छा, ऐसा कहकर और उसकी आज्ञा सिर चढ़ाकर, घोड़े को वृक्ष से बाँधकर राजा बैठ गया। राजा ने उसकी बहुत प्रकार से प्रशंसा की और उसके चरणों की वंदना करके अपने भाग्य की सराहना की।
पुनि बोलेउ मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई॥
मोहि मुनीस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी॥
मोहि मुनीस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी॥
फिर सुंदर कोमल वाणी से कहा - हे प्रभो! आपको पिता जानकर मैं ढिठाई करता हूँ। हे मुनीश्वर! मुझे अपना पुत्र और सेवक जानकर अपना नाम (धाम) विस्तार से बतलाइए।
तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुहृद सो कपट सयाना॥
बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा॥
बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा॥
राजा ने उसको नहीं पहचाना था, पर वह राजा को पहचान गया था। राजा तो शुद्ध-हृदय था और वह कपट करने में चतुर था। एक तो वैरी, फिर जाति का क्षत्रिय, फिर राजा। वह छल-बल से अपना काम बनाना चाहता था।
समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगइ छाती॥
ससरल बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना॥
ससरल बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना॥
वह शत्रु अपने राज्य सुख को समझ करके (स्मरण करके) दुःखी था। उसकी छाती (कुम्हार के) आँवे की आग की तरह (भीतर-ही-भीतर) सुलग रही थी। राजा के सरल वचन कान से सुनकर, अपने वैर को यादकर वह हृदय में हर्षित हुआ।
दो० - कपट बोरि बानी मृदल बोलेउ जुगुति समेत।
नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेत॥ 160॥
नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेत॥ 160॥
वह कपट में डुबोकर बड़ी युक्ति के साथ कोमल वाणी बोला - अब हमारा नाम भिखारी है, क्योंकि हम निर्धन और अनिकेत (घर-द्वारहीन) हैं॥ 160॥
कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना॥
सदा रहहिं अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ॥
सदा रहहिं अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ॥
राजा ने कहा - जो आपके सदृश विज्ञान के निधान और सर्वथा अभिमानरहित होते हैं, वे अपने स्वरूप को सदा छिपाए रहते हैं, क्योंकि कुवेष बनाकर रहने में ही सब तरह का कल्याण है (प्रकट संत वेश में मान होने की संभावना है और मान से पतन की)।
तेहि तें कहहिं संत श्रुति टेरें। परम अकिंचन प्रिय हरि केरें॥
तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरंचि सिवहि संदेहा॥
तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरंचि सिवहि संदेहा॥
इसी से तो संत और वेद पुकारकर कहते हैं कि परम अकिंचन (सर्वथा अहंकार, ममता और मानरहित) ही भगवान को प्रिय होते हैं। आप सरीखे निर्धन, भिखारी और गृहहीनों को देखकर ब्रह्मा और शिव को भी संदेह हो जाता है (कि वे वास्तविक संत हैं या भिखारी)।
जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब स्वामी॥
सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी॥
सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी॥
आप जो हों सो हों (अर्थात जो कोई भी हों), मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ। हे स्वामी! अब मुझ पर कृपा कीजिए। अपने ऊपर राजा की स्वाभाविक प्रीति और अपने विषय में उसका अधिक विश्वास देखकर -
सब प्रकार राजहि अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह जनाई॥
सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला॥
सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला॥
सब प्रकार से राजा को अपने वश में करके, अधिक स्नेह दिखाता हुआ वह (कपट-तपस्वी) बोला - हे राजन! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, मुझे यहाँ रहते बहुत समय बीत गया।
दो० - अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु।
लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु॥ 161(क)॥
लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु॥ 161(क)॥
अब तक न तो कोई मुझसे मिला और न मैं अपने को किसी पर प्रकट करता हूँ, क्योंकि लोक में प्रतिष्ठा अग्नि के समान है, जो तपरूपी वन को भस्म कर डालती है॥ 161(क)॥
सो० - तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर।
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि॥ 161(ख)॥
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि॥ 161(ख)॥
तुलसीदास कहते हैं - सुंदर वेष देखकर मूढ़ नहीं (मूढ़ तो मूढ़ ही हैं), चतुर मनुष्य भी धोखा खा जाते हैं। सुंदर मोर को देखो, उसका वचन तो अमृत के समान है और आहार साँप का है॥ 161(ख)॥
तातें गुपुत रहउँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं॥
प्रभु जानत सब बिनहिं जनाए। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ॥
प्रभु जानत सब बिनहिं जनाए। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ॥
(कपट-तपस्वी ने कहा -) इसी से मैं जगत में छिपकर रहता हूँ। हरि को छोड़कर किसी से कुछ भी प्रयोजन नहीं रखता। प्रभु तो बिना जनाए ही सब जानते हैं। फिर कहो संसार को रिझाने से क्या सिद्धि मिलेगी।
तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें॥
अब जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही॥
अब जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही॥
तुम पवित्र और सुंदर बुद्धिवाले हो, इससे मुझे बहुत ही प्यारे हो और तुम्हारी भी मुझ पर प्रीति और विश्वास है। हे तात! अब यदि मैं तुमसे कुछ छिपाता हूँ, तो मुझे बहुत ही भयानक दोष लगेगा।
जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा॥
देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी॥
देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी॥
ज्यों-ज्यों वह तपस्वी उदासीनता की बातें कहता था, त्यों ही त्यों राजा को विश्वास उत्पन्न होता जाता था। जब उस बगुले की तरह ध्यान लगानेवाले (कपटी) मुनि ने राजा को कर्म, मन और वचन से अपने वश में जाना, तब वह बोला -
नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोलेउ पुनि सिरु नाई॥
कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी॥
कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी॥
हे भाई! हमारा नाम एकतनु है। यह सुनकर राजा ने फिर सिर नवाकर कहा - मुझे अपना अत्यंत (अनुरागी) सेवक जानकर अपने नाम का अर्थ समझाकर कहिए।
दो० - आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि।
नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि॥ 162॥
नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि॥ 162॥
(कपटी मुनि ने कहा -) जब सबसे पहले सृष्टि उत्पन्न हुई थी, तभी मेरी उत्पत्ति हुई थी। तबसे मैंने फिर दूसरी देह नहीं धारण की, इसी से मेरा नाम एकतनु है॥ 162॥
जनि आचरजु करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं॥
तप बल तें जग सृजइ बिधाता। तप बल बिष्नु भए परित्राता॥
तप बल तें जग सृजइ बिधाता। तप बल बिष्नु भए परित्राता॥
हे पुत्र! मन में आश्चर्य मत करो, तप से कुछ भी दुर्लभ नहीं है, तप के बल से ब्रह्मा जगत को रचते हैं। तप के ही बल से विष्णु संसार का पालन करनेवाले बने हैं।
तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा॥
भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा॥
भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा॥
तप ही के बल से रुद्र संहार करते हैं। संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं जो तप से न मिल सके। यह सुनकर राजा को बड़ा अनुराग हुआ। तब वह (तपस्वी) पुरानी कथाएँ कहने लगा।
करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति बिबेका॥
उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी॥
उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी॥
कर्म, धर्म और अनेकों प्रकार के इतिहास कहकर वह वैराग्य और ज्ञान का निरूपण करने लगा। सृष्टि की उत्पत्ति, पालन (स्थिति) और संहार (प्रलय) की अपार आश्चर्यभरी कथाएँ उसने विस्तार से कहीं।
सुनि महीप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहन तब लयउ॥
कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही॥
कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही॥
राजा सुनकर उस तपस्वी के वश में हो गया और तब वह उसे अपना नाम बताने लगा। तपस्वी ने कहा - राजन ! मैं तुमको जानता हूँ। तुमने कपट किया, वह मुझे अच्छा लगा।
सो० - सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप।
मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव॥ 163॥
मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव॥ 163॥
हे राजन! सुनो, ऐसी नीति है कि राजा लोग जहाँ-तहाँ अपना नाम नहीं कहते। तुम्हारी वही चतुराई समझकर तुम पर मेरा बड़ा प्रेम हो गया है॥ 163॥
नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा॥
गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा॥
गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा॥
तुम्हारा नाम प्रतापभानु है, सत्यकेतु तुम्हारे पिता थे। हे राजन! गुरु की कृपा से मैं सब जानता हूँ, पर अपनी हानि समझकर कहता नहीं।
देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई॥
उपजि परी ममता मन मोरें। कहउँ कथा निज पूछे तोरें॥
उपजि परी ममता मन मोरें। कहउँ कथा निज पूछे तोरें॥
हे तात! तुम्हारा स्वाभाविक सीधापन (सरलता), प्रेम, विश्वास और नीति में निपुणता देखकर मेरे मन में तुम्हारे ऊपर बड़ी ममता उत्पन्न हो गई है, इसीलिए मैं तुम्हारे पूछने पर अपनी कथा कहता हूँ।
अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन माहीं॥
सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना॥
सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना॥
अब मैं प्रसन्न हूँ, इसमें संदेह न करना। हे राजन! जो मन को भावे वही माँग लो। सुंदर (प्रिय) वचन सुनकर राजा हर्षित हो गया और (मुनि के) पैर पकड़कर उसने बहुत प्रकार से विनती की।
कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल मोरें॥
प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर होउँ असोकी॥
प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर होउँ असोकी॥
हे दयासागर मुनि! आपके दर्शन से ही चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) मेरी मुट्ठी में आ गए। तो भी स्वामी को प्रसन्न देखकर मैं यह दुर्लभ वर माँगकर (क्यों न) शोकरहित हो जाऊँ।
दो० - जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ।
एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥ 164॥
एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥ 164॥
मेरा शरीर वृद्धावस्था, मृत्यु और दुःख से रहित हो जाए, मुझे युद्ध में कोई जीत न सके और पृथ्वी पर मेरा सौ कल्प तक एकछत्र अकंटक राज्य हो॥ 164॥
कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ॥
कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा॥
कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा॥
तपस्वी ने कहा - हे राजन! ऐसा ही हो, पर एक बात कठिन है, उसे भी सुन लो। हे पृथ्वी के स्वामी! केवल ब्राह्मण कुल को छोड़ काल भी तुम्हारे चरणों पर सिर नवाएगा।
तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा॥
जौं बिप्रन्ह बस करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥
जौं बिप्रन्ह बस करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥
तप के बल से ब्राह्मण सदा बलवान रहते हैं। उनके क्रोध से रक्षा करनेवाला कोई नहीं है। हे नरपति! यदि तुम ब्राह्मणों को वश में कर लो, तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी तुम्हारे अधीन हो जाएँगे।
चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई॥
बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहिं कवनेहुँ काला॥
बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहिं कवनेहुँ काला॥
ब्राह्मण कुल से जोर-जबरदस्ती नहीं चल सकती, मैं दोनों भुजा उठाकर सत्य कहता हूँ। हे राजन! सुनो, ब्राह्मणों के शाप बिना तुम्हारा नाश किसी काल में नहीं होगा।
हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अब नासू॥
तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्बकाल कल्याना॥
तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्बकाल कल्याना॥
राजा उसके वचन सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ और कहने लगा - हे स्वामी! मेरा नाश अब नहीं होगा। हे कृपानिधान प्रभु! आपकी कृपा से मेरा सब समय कल्याण होगा।
दो० - एवमस्तु कहि कपट मुनि बोला कुटिल बहोरि।
मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि॥ 165॥
मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि॥ 165॥
'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहकर वह कुटिल कपटी मुनि फिर बोला - (किंतु) तुम मेरे मिलने तथा अपने राह भूल जाने की बात किसी से (कहना नहीं, यदि) कह दोगे, तो हमारा दोष नहीं॥ 165॥
तातें मैं तोहि बरजउँ राजा। कहें कथा तव परम अकाजा॥
छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी॥
छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी॥
हे राजन! मैं तुमको इसलिए मना करता हूँ कि इस प्रसंग को कहने से तुम्हारी बड़ी हानि होगी। छठे कान में यह बात पड़ते ही तुम्हारा नाश हो जाएगा, मेरा यह वचन सत्य जानना।
यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु भानुप्रतापा॥
आन उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं॥
आन उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं॥
हे प्रतापभानु! सुनो, इस बात के प्रकट करने से अथवा ब्राह्मणों के शाप से तुम्हारा नाश होगा और किसी उपाय से, चाहे ब्रह्मा और शंकर भी मन में क्रोध करें, तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी।
सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा॥
राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥
राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥
राजा ने मुनि के चरण पकड़कर कहा - हे स्वामी! सत्य ही है। ब्राह्मण और गुरु के क्रोध से, कहिए, कौन रक्षा कर सकता है? यदि ब्रह्मा भी क्रोध करें, तो गुरु बचा लेते हैं, पर गुरु से विरोध करने पर जगत में कोई भी बचानेवाला नहीं है।
जौं न चलब हम कहे तुम्हारें। होउ नास नहिं सोच हमारें॥
एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा॥
एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा॥
यदि मैं आपके कथन के अनुसार नहीं चलूँगा, तो (भले ही) मेरा नाश हो जाए। मुझे इसकी चिंता नहीं है। मेरा मन तो हे प्रभो! (केवल) एक ही डर से डर रहा है कि ब्राह्मणों का शाप बड़ा भयानक होता है।
दो० - होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ।
तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउ॥ 166॥
तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउ॥ 166॥
वे ब्राह्मण किस प्रकार से वश में हो सकते हैं, कृपा करके वह भी बताइए। हे दीनदयालु! आपको छोड़कर और किसी को मैं अपना हितू नहीं देखता॥ 166॥
सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं॥
अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परंतु एक कठिनाई॥
अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परंतु एक कठिनाई॥
(तपस्वी ने कहा -) हे राजन! सुनो, संसार में उपाय तो बहुत हैं; पर वे कष्ट-साध्य हैं (बड़ी कठिनता से बनने में आते हैं) और इस पर भी सिद्ध हों या न हों (उनकी सफलता निश्चित नहीं है) हाँ, एक उपाय बहुत सहज है; परंतु उसमें भी एक कठिनता है।
मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई॥
आजु लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ॥2॥
आजु लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ॥2॥
हे राजन! वह युक्ति तो मेरे हाथ है, पर मेरा जाना तुम्हारे नगर में हो नहीं सकता। जब से पैदा हुआ हूँ, तब से आज तक मैं किसी के घर अथवा गाँव नहीं गया।
जौं न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमंजस आजू॥
सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी॥
सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी॥
परंतु यदि नहीं जाता हूँ, तो तुम्हारा काम बिगड़ता है। आज यह बड़ा असमंजस आ पड़ा है। यह सुनकर राजा कोमल वाणी से बोला, हे नाथ! वेदों में ऐसी नीति कही है कि -
बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं॥
जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू॥
जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू॥
बड़े लोग छोटों पर स्नेह करते ही हैं। पर्वत अपने सिरों पर सदा तृण (घास) को धारण किए रहते हैं। अगाध समुद्र अपने मस्तक पर फेन को धारण करता है और धरती अपने सिर पर सदा धूलि को धारण किए रहती है।
दो० - अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल।
मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल॥ 167॥
मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल॥ 167॥
ऐसा कहकर राजा ने मुनि के चरण पकड़ लिए। (और कहा -) हे स्वामी! कृपा कीजिए। आप संत हैं। दीनदयालु हैं। (अतः) हे प्रभो! मेरे लिए इतना कष्ट (अवश्य) सहिए॥ 167॥
जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना॥
सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥
सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥
राजा को अपने अधीन जानकर कपट में प्रवीण तपस्वी बोला - हे राजन! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, जगत में मुझे कुछ भी दुर्लभ नहीं है।
अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा॥
जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ॥
जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ॥
मैं तुम्हारा काम अवश्य करूँगा, (क्योंकि) तुम, मन, वाणी और शरीर (तीनों) से मेरे भक्त हो। पर योग, युक्ति, तप और मंत्रों का प्रभाव तभी फलीभूत होता है जब वे छिपाकर किए जाते हैं।
जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई॥
अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई॥
अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई॥
हे नरपति! मैं यदि रसोई बनाऊँ और तुम उसे परोसो और मुझे कोई जानने न पाए, तो उस अन्न को जो-जो खाएगा, सो-सो तुम्हारा आज्ञाकारी बन जाएगा।
पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु सोऊ॥
जाइ उपाय रचहु नृप एहू। संबत भरि संकलप करेहू॥
जाइ उपाय रचहु नृप एहू। संबत भरि संकलप करेहू॥
यही नहीं, उन (भोजन करने वालों) के घर भी जो कोई भोजन करेगा, हे राजन! सुनो, वह भी तुम्हारे अधीन हो जाएगा। हे राजन! जाकर यही उपाय करो और वर्ष भर (भोजन कराने) का संकल्प कर लेना।
दो० - नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार।
मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिं करबि जेवनार॥ 168॥
मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिं करबि जेवनार॥ 168॥
नित्य नए एक लाख ब्राह्मणों को कुटुंब सहित निमंत्रित करना। मैं तुम्हारे सकंल्प (के काल अर्थात एक वर्ष) तक प्रतिदिन भोजन बना दिया करूँगा॥ 168॥
एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें॥
करिहहिं बिप्र होम मख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा॥
करिहहिं बिप्र होम मख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा॥
हे राजन! इस प्रकार बहुत ही थोड़े परिश्रम से सब ब्राह्मण तुम्हारे वश में हो जाएँगे। ब्राह्मण हवन, यज्ञ और सेवा-पूजा करेंगे, तो उस प्रसंग (संबंध) से देवता भी सहज ही वश में हो जाएँगे।
और एक तोहि कहउँ लखाऊ। मैं एहिं बेष न आउब काऊ॥
तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया॥
तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया॥
मैं एक और पहचान तुमको बताए देता हूँ कि मैं इस रूप में कभी न आऊँगा। हे राजन! मैं अपनी माया से तुम्हारे पुरोहित को हर लाऊँगा।
तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परवाना॥
मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा॥
मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा॥
तप के बल से उसे अपने समान बनाकर एक वर्ष यहाँ रखूँगा और हे राजन! सुनो, मैं उसका रूप बनाकर सब प्रकार से तुम्हारा काम सिद्ध करूँगा।
गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे॥
मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचैहउँ सोवतहि निकेता॥
मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचैहउँ सोवतहि निकेता॥
हे राजन! रात बहुत बीत गई, अब सो जाओ। आज से तीसरे दिन मुझसे तुम्हारी भेंट होगी। तप के बल से मैं घोड़े सहित तुमको सोते ही में घर पहुँचा दूँगा।
दो० - मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि।
जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि॥ 169॥
जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि॥ 169॥
मैं वही (पुरोहित का) वेश धरकर आऊँगा। जब एकांत में तुमको बुलाकर सब कथा सुनाऊँगा, तब तुम मुझे पहचान लेना॥ 169॥
सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी॥
श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥
श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥
राजा ने आज्ञा मानकर शयन किया और वह कपट-ज्ञानी आसन पर जा बैठा। राजा थका था, (उसे) खूब (गहरी) नींद आ गई। पर वह कपटी कैसे सोता। उसे तो बहुत चिंता हो रही थी।
कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा॥
परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा॥
परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा॥
(उसी समय) वहाँ कालकेतु राक्षस आया, जिसने सूअर बनकर राजा को भटकाया था। वह तपस्वी राजा का बड़ा मित्र था और खूब छल-प्रपंच जानता था।
तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई॥
प्रथमहिं भूप समर सब मारे। बिप्र संत सुर देखि दुखारे॥
प्रथमहिं भूप समर सब मारे। बिप्र संत सुर देखि दुखारे॥
उसके सौ पुत्र और दस भाई थे, जो बड़े ही दुष्ट, किसी से न जीते जानेवाले और देवताओं को दुःख देनेवाले थे। ब्राह्मणों, संतों और देवताओं को दुःखी देखकर राजा ने उन सबको पहले ही युद्ध में मार डाला था।
तेहिं खल पाछिल बयरु सँभारा। तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा॥
जेहिं रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ॥
जेहिं रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ॥
उस दुष्ट ने पिछला बैर याद करके तपस्वी राजा से मिलकर सलाह की और जिस प्रकार शत्रु का नाश हो, वही उपाय रचा। भावीवश राजा (प्रतापभानु) कुछ भी न समझ सका।
दो० - रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु।
अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु॥ 170॥
अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु॥ 170॥
तेजस्वी शत्रु अकेला भी हो तो भी उसे छोटा नहीं समझना चाहिए। जिसका सिर मात्र बचा था, वह राहु आज तक सूर्य-चंद्रमा को दुःख देता है॥ 170॥
तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी॥
मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई॥
मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई॥
तपस्वी राजा अपने मित्र को देख प्रसन्न हो उठकर मिला और सुखी हुआ। उसने मित्र को सब कथा कह सुनाई, तब राक्षस आनंदित होकर बोला।
अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा॥
परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई॥
परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई॥
हे राजन! सुनो, जब तुमने मेरे कहने के अनुसार (इतना) काम कर लिया, तो अब मैंने शत्रु को काबू में कर ही लिया (समझो)। तुम अब चिंता त्याग सो रहो। विधाता ने बिना ही दवा के रोग दूर कर दिया।
कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथें दिवस मिलब मैं आई॥
तापस नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी॥
तापस नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी॥
कुल सहित शत्रु को जड़-मूल से उखाड़-बहाकर, (आज से) चौथे दिन मैं तुमसे आ मिलूँगा। (इस प्रकार) तपस्वी राजा को खूब दिलासा देकर वह महामायावी और अत्यंत क्रोधी राक्षस चला।
भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता॥
नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई॥
नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई॥
उसने प्रतापभानु राजा को घोड़े सहित क्षणभर में घर पहुँचा दिया। राजा को रानी के पास सुलाकर घोड़े को अच्छी तरह से घुड़साल में बाँध दिया।
दो० - राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि।
लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि॥ 171॥
लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि॥ 171॥
फिर वह राजा के पुरोहित को उठा ले गया और माया से उसकी बुद्धि को भ्रम में डालकर उसे उसने पहाड़ की खोह में ला रखा॥ 171॥
आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा॥
जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना॥
जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना॥
वह आप पुरोहित का रूप बनाकर उसकी सुंदर सेज पर जा लेटा। राजा सबेरा होने से पहले ही जागा और अपना घर देखकर उसने बड़ा ही आश्चर्य माना।
मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहिं जेहिं जान न रानी॥
कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं॥
कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं॥
मन में मुनि की महिमा का अनुमान करके वह धीरे से उठा, जिसमें रानी न जान पाए। फिर उसी घोड़े पर चढ़कर वन को चला गया। नगर के किसी भी स्त्री-पुरुष को पता नहीं चला।
गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा॥
उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोक सुमिरि सोइ काजा॥
उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोक सुमिरि सोइ काजा॥
दो पहर बीत जाने पर राजा आया। घर-घर उत्सव होने लगे और बधावा बजने लगा। जब राजा ने पुरोहित को देखा, तब वह (अपने) उसी कार्य का स्मरण कर उसे आश्चर्य से देखने लगा।
जुग सम नृपहि गए दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी॥
समय जान उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा॥
समय जान उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा॥
राजा को तीन दिन युग के समान बीते। उसकी बुद्धि कपटी मुनि के चरणों में लगी रही। निश्चित समय जानकर पुरोहित (बना हुआ राक्षस) आया और राजा के साथ की हुई गुप्त सलाह के अनुसार (उसने अपने) सब विचार उसे समझाकर कह दिए।
दो० - नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत।
बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत॥ 172॥
बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत॥ 172॥
(संकेत के अनुसार) गुरु को (उस रूप में) पहचानकर राजा प्रसन्न हुआ। भ्रमवश उसे चेत न रहा (कि यह तापस मुनि है या कालकेतु राक्षस)। उसने तुरंत एक लाख उत्तम ब्राह्मणों को कुटुंब सहित निमंत्रण दे दिया॥ 172॥
उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई॥
मायामय तेहिं कीन्हि रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई॥
मायामय तेहिं कीन्हि रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई॥
पुरोहित ने छह रस और चार प्रकार के भोजन, जैसा कि वेदों में वर्णन है, बनाए। उसने मायामयी रसोई तैयार की और इतने व्यंजन बनाए, जिन्हें कोई गिन नहीं सकता।
बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा॥
भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए॥
भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए॥
अनेक प्रकार के पशुओं का मांस पकाया और उसमें उस दुष्ट ने ब्राह्मणों का मांस मिला दिया। सब ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलाया और चरण धोकर आदर सहित बैठाया।
परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला॥
बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू॥
बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू॥
ज्यों ही राजा परोसने लगा, उसी काल (कालकेतुकृत) आकाशवाणी हुई - हे ब्राह्मणो! उठ-उठकर अपने घर जाओ, यह अन्न मत खाओ। इस (के खाने) में बड़ी हानि है।
भयउ रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू॥
भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस न आव मुख बानी॥
भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस न आव मुख बानी॥
रसोई में ब्राह्मणों का मांस बना है। (आकाशवाणी का) विश्वास मानकर सब ब्राह्मण उठ खड़े हुए। राजा व्याकुल हो गया (परंतु), उसकी बुद्धि मोह में भूली हुई थी। होनहारवश उसके मुँह से (एक) बात (भी) न निकली।
दो० - बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार।
जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार॥ 173॥
जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार॥ 173॥
तब ब्राह्मण क्रोध सहित बोल उठे - उन्होंने कुछ भी विचार नहीं किया - अरे मूर्ख राजा! तू जाकर परिवार सहित राक्षस हो॥ 173॥
छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई॥
ईश्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥
ईश्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥
रे नीच क्षत्रिय! तूने तो परिवार सहित ब्राह्मणों को बुलाकर उन्हें नष्ट करना चाहा था, ईश्वर ने हमारे धर्म की रक्षा की। अब तू परिवार सहित नष्ट होगा।
संबत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ॥
नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा॥
नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा॥
एक वर्ष के भीतर तेरा नाश हो जाए, तेरे कुल में कोई पानी देनेवाला तक न रहेगा। शाप सुनकर राजा भय के मारे अत्यंत व्याकुल हो गया। फिर सुंदर आकाशवाणी हुई -
बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा॥
चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥
चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥
हे ब्राह्मणो! तुमने विचार कर शाप नहीं दिया। राजा ने कुछ भी अपराध नहीं किया। आकाशवाणी सुनकर सब ब्राह्मण चकित हो गए। तब राजा वहाँ गया, जहाँ भोजन बना था।
तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा॥
सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई॥
सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई॥
(देखा तो) वहाँ न भोजन था, न रसोइया ब्राह्मण ही था। तब राजा मन में अपार चिंता करता हुआ लौटा। उसने ब्राह्मणों को सब वृत्तांत सुनाया और (बड़ा ही) भयभीत और व्याकुल होकर वह पृथ्वी पर गिर पड़ा।
दो० - भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर।
किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर॥ 174॥
किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर॥ 174॥
हे राजन! यद्यपि तुम्हारा दोष नहीं है, तो भी होनहार नहीं मिटता। ब्राह्मणों का शाप बहुत ही भयानक होता है, यह किसी तरह भी टाले टल नहीं सकता॥ 174॥
अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए॥
सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिरचत हंस काग किय जेहीं॥
सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिरचत हंस काग किय जेहीं॥
ऐसा कहकर सब ब्राह्मण चले गए। नगरवासियों ने (जब) यह समाचार पाया, तो वे चिंता करने और विधाता को दोष देने लगे, जिसने हंस बनाते-बनाते कौआ कर दिया (ऐसे पुण्यात्मा राजा को देवता बनाना चाहिए था, पर राक्षस बना दिया)।
उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर तापसहि खबरि जनाई॥
तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए॥
तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए॥
पुरोहित को उसके घर पहुँचाकर असुर (कालकेतु) ने (कपटी) तपस्वी को खबर दी। उस दुष्ट ने जहाँ-तहाँ पत्र भेजे, जिससे सब (बैरी) राजा सेना सजा-सजाकर (चढ़) दौड़े।
घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होइ लराई॥
जूझे सकल सुभट करि करनी। बंधु समेत परेउ नृप धरनी॥
जूझे सकल सुभट करि करनी। बंधु समेत परेउ नृप धरनी॥
और उन्होंने डंका बजाकर नगर को घेर लिया। नित्य प्रति अनेक प्रकार से लड़ाई होने लगी। (प्रतापभानु के) सब योद्धा (शूरवीरों की) करनी करके रण में जूझ मरे। राजा भी भाई सहित खेत रहा।
सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा। बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा॥
रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु पाई॥
रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु पाई॥
सत्यकेतु के कुल में कोई नहीं बचा। ब्राह्मणों का शाप झूठा कैसे हो सकता था। शत्रु को जीतकर, नगर को (फिर से) बसाकर सब राजा विजय और यश पाकर अपने-अपने नगर को चले गए।
दो० - भरद्वाज सुनु जाहि जब होई बिधाता बाम।
धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम॥ 175॥
(याज्ञवल्क्य कहते हैं -) हे भरद्वाज! सुनो, विधाता जब जिसके विपरीत होते हैं, तब उसके लिए धूल सुमेरु पर्वत के समान (भारी और कुचल डालनेवाली), पिता यम के समान (कालरूप) और रस्सी साँप के समान (काट खानेवाली) हो जाती है॥ 175॥
काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा॥
दस सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर बरिबंडा॥
हे मुनि! सुनो, समय पाकर वही राजा परिवार सहित रावण नामक राक्षस हुआ। उसके दस सिर और बीस भुजाएँ थीं और वह बड़ा ही प्रचंड शूरवीर था।
भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयउ सो कुंभकरन बलधामा॥
सचिव जो रहा धरमरुचि जासू। भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू॥
अरिमर्दन नामक जो राजा का छोटा भाई था, वह बल का धाम कुंभकर्ण हुआ। उसका जो मंत्री था, जिसका नाम धर्मरुचि था, वह रावण का सौतेला छोटा भाई हुआ।
नाम बिभीषन जेहि जग जाना। बिष्नुभगत बिग्यान निधाना॥
रहे जे सुत सेवक नृप केरे। भए निसाचर घोर घनेरे॥
उसका विभीषण नाम था, जिसे सारा जगत जानता है। वह विष्णुभक्त और ज्ञान-विज्ञान का भंडार था और जो राजा के पुत्र और सेवक थे, वे सभी बड़े भयानक राक्षस हुए।
कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयंकर बिगत बिबेका॥
कृपा रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिस्व परितापी॥
वे सब अनेकों जाति के, मनमाना रूप धारण करनेवाले, दुष्ट, कुटिल, भयंकर, विवेकरहित, निर्दयी, हिंसक, पापी और संसार भर को दुःख देनेवाले हुए, उनका वर्णन नहीं हो सकता।
दो० - उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप।
तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप॥ 176॥
यद्यपि वे पुलस्त्य ऋषि के पवित्र, निर्मल और अनुपम कुल में उत्पन्न हुए, तथापि ब्राह्मणों के शाप के कारण वे सब पाप रूप हुए॥ 176॥
कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई॥
गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता॥
तीनों भाइयों ने अनेकों प्रकार की बड़ी ही कठिन तपस्या की, जिसका वर्णन नहीं हो सकता। (उनका उग्र) तप देखकर ब्रह्मा उनके पास गए और बोले - हे तात! मैं प्रसन्न हूँ, वर माँगो।
करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा॥
हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारें॥
रावण ने विनय करके और चरण पकड़कर कहा - हे जगदीश्वर! सुनिए, वानर और मनुष्य - इन दो जातियों को छोड़कर हम और किसी के मारे न मरें। (यह वर दीजिए)।
एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा॥
पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ॥
(शिव कहते हैं कि -) मैंने और ब्रह्मा ने मिलकर उसे वर दिया कि ऐसा ही हो, तुमने बड़ा तप किया है। फिर ब्रह्मा कुंभकर्ण के पास गए। उसे देखकर उनके मन में बड़ा आश्चर्य हुआ।
जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू॥
सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी॥
जो यह दुष्ट नित्य आहार करेगा, तो सारा संसार ही उजाड़ हो जाएगा। (ऐसा विचारकर) ब्रह्मा ने सरस्वती को प्रेरणा करके उसकी बुद्धि फेर दी। (जिससे) उसने छह महीने की नींद माँगी।
दो० - गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु।
तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु॥ 177॥
फिर ब्रह्मा विभीषण के पास गए और बोले - हे पुत्र! वर माँगो। उसने भगवान के चरणकमलों में निर्मल (निष्काम और अनन्य) प्रेम माँगा॥ 177॥
तिन्हहि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए॥
मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा॥
उनको वर देकर ब्रह्मा चले गए और वे (तीनों भाई) हर्षित हेकर अपने घर लौट आए। मय दानव की मंदोदरी नाम की कन्या परम सुंदरी और स्त्रियों में शिरोमणि थी।
सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी॥
हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई॥
मय ने उसे लाकर रावण को दिया। उसने जान लिया कि यह राक्षसों का राजा होगा। अच्छी स्त्री पाकर रावण प्रसन्न हुआ और फिर उसने जाकर दोनों भाइयों का विवाह कर दिया।
गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी॥
सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनि भवन अपारा॥
समुद्र के बीच में त्रिकूट नामक पर्वत पर ब्रह्मा का बनाया हुआ एक बड़ा भारी किला था। (महान मायावी और निपुण कारीगर) मय दानव ने उसको फिर से सजा दिया। उसमें मणियों से जड़े हुए सोने के अनगिनत महल थे।
भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा॥
तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि लंका॥
जैसी नागकुल के रहने की (पाताल लोक में) भोगावती पुरी है और इंद्र के रहने की (स्वर्गलोक में) अमरावती पुरी है, उनसे भी अधिक सुंदर और बाँका वह दुर्ग था। जगत में उसका नाम लंका प्रसिद्ध हुआ।
दो० - खाईं सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव।
कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव॥ 178(क)॥
उसे चारों ओर से समुद्र की अत्यंत गहरी खाई घेरे हुए है। उस (दुर्ग) के मणियों से जड़ा हुआ सोने का मजबूत परकोटा है, जिसकी कारीगरी का वर्णन नहीं किया जा सकता॥ 178(क)॥
हरि प्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ।
सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ॥ 178(ख)॥
भगवान की प्रेरणा से जिस कल्प में जो राक्षसों का राजा (रावण) होता है, वही शूर, प्रतापी, अतुलित बलवान अपनी सेना सहित उस पुरी में बसता है॥ 178(ख)॥
रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर संघारे॥
अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे॥
(पहले) वहाँ बड़े-बड़े योद्धा राक्षस रहते थे। देवताओं ने उन सबको युद्ध में मार डाला। अब इंद्र की प्रेरणा से वहाँ कुबेर के एक करोड़ रक्षक (यक्ष लोग) रहते हैं।
दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई॥
देखि बिकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई॥
रावण को कहीं ऐसी खबर मिली, तब उसने सेना सजाकर किले को जा घेरा। उस बड़े विकट योद्धा और उसकी बड़ी सेना को देखकर यक्ष अपने प्राण लेकर भाग गए।
फिरि सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा॥
सुंदर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी॥
तब रावण ने घूम-फिरकर सारा नगर देखा। उसकी (स्थान संबंधी) चिंता मिट गई और उसे बहुत ही सुख हुआ। उस पुरी को स्वाभाविक ही सुंदर और (बाहरवालों के लिए) दुर्गम अनुमान करके रावण ने वहाँ अपनी राजधानी कायम की।
जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हें॥
एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा॥
योग्यता के अनुसार घरों को बाँटकर रावण ने सब राक्षसों को सुखी किया। एक बार वह कुबेर पर चढ़ दौड़ा और उससे पुष्पक विमान को जीतकर ले आया।
दो० - कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ।
मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ॥ 179॥
फिर उसने जाकर (एक बार) खिलवाड़ ही में कैलास पर्वत को उठा लिया और मानो अपनी भुजाओं का बल तौलकर, बहुत सुख पाकर वह वहाँ से चला आया॥ 179॥
सुख संपति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई॥
नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई॥
सुख, संपत्ति, पुत्र, सेना, सहायक, जय, प्रताप, बल, बुद्धि और बड़ाई - ये सब उसके नित्य नए (वैसे ही) बढ़ते जाते थे, जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता है।
अतिबल कुंभकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता॥
करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहूँ पुर त्रासा॥
अत्यंत बलवान कुंभकर्ण-सा उसका भाई था, जिसके जोड़ का योद्धा जगत में पैदा ही नहीं हुआ। वह मदिरा पीकर छह महीने सोया करता था। उसके जागते ही तीनों लोकों में तहलका मच जाता था।
जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट होई॥
समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित बीर बलवाना॥
यदि वह प्रतिदिन भोजन करता, तब तो संपूर्ण विश्व शीघ्र ही चौपट (खाली) हो जाता। रणधीर ऐसा था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। (लंका में) उसके ऐसे असंख्य बलवान वीर थे।
बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू॥
जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई॥
मेघनाद रावण का बड़ा लड़का था, जिसका जगत के योद्धाओं में पहला नंबर था। रण में कोई भी उसका सामना नहीं कर सकता था। स्वर्ग में तो (उसके भय से) नित्य भगदड़ मची रहती थी।
दो० - कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय।
एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय॥ 180॥
(इनके अतिरिक्त) दुर्मुख, अकम्पन, वज्रदंत, धूमकेतु और अतिकाय आदि ऐसे अनेक योद्धा थे, जो अकेले ही सारे जगत को जीत सकते थे॥ 180॥
कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया॥
दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥
सभी राक्षस मनमाना रूप बना सकते थे और (आसुरी) माया जानते थे। उनके दया-धर्म स्वप्न में भी नहीं था। एक बार सभा में बैठे हुए रावण ने अपने अगणित परिवार को देखा -
सुत समूह जन परिजन नाती। गनै को पार निसाचर जाती॥
सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी॥
पुत्र-पौत्र, कुटुंबी और सेवक ढेर-के-ढेर थे। राक्षसों की (सारी) जातियों को तो गिन ही कौन सकता था! अपनी सेना को देखकर स्वभाव से ही अभिमानी रावण क्रोध और गर्व में सनी हुई वाणी बोला -
सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा॥
ते सनमुख नहिं करहिं लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई॥
हे समस्त राक्षसों के दलो! सुनो, देवतागण हमारे शत्रु हैं। वे सामने आकर युद्ध नहीं करते। बलवान शत्रु को देखकर भाग जाते हैं।
तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई॥
द्विजभोजन मख होम सराधा। सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा॥
उनका मरण एक ही उपाय से हो सकता है, मैं समझाकर कहता हूँ। अब उसे सुनो। (उनके बल को बढ़ानेवाले) ब्राह्मण भोजन, यज्ञ, हवन और श्राद्ध - इन सबमें जाकर तुम बाधा डालो।
दो० - छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ।
तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ॥ 181॥
भूख से दुर्बल और बलहीन होकर देवता सहज ही में आ मिलेंगे। तब उनको मैं मार डालूँगा अथवा भली-भाँति अपने अधीन करके (सर्वथा पराधीन करके) छोड़ दूँगा॥ 181॥
मेघनाद कहूँ पुनि हँकरावा। दीन्हीं सिख बलु बयरु बढ़ावा॥
जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥
फिर उसने मेघनाद को बुलवाया और सिखा-पढ़ाकर उसके बल और देवताओं के प्रति बैरभाव को उत्तेजना दी। (फिर कहा -) हे पुत्र! जो देवता रण में धीर और बलवान हैं और जिन्हें लड़ने का अभिमान है,
तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँधी॥
एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही॥
उन्हें युद्ध में जीतकर बाँध लाना। बेटे ने उठकर पिता की आज्ञा को शिरोधार्य किया। इसी तरह उसने सबको आज्ञा दी और आप भी हाथ में गदा लेकर चल दिया।
चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्रवहिं सुर रवनी॥
रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा॥
रावण के चलने से पृथ्वी डगमगाने लगी और उसकी गर्जना से देवरमणियों के गर्भ गिरने लगे। रावण को क्रोध सहित आते हुए सुनकर देवताओं ने सुमेरु पर्वत की गुफाएँ तकीं (भागकर सुमेरु की गुफाओं का आश्रय लिया)।
दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए॥
पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी॥
दिग्पालों के सारे सुंदर लोकों को रावण ने सूना पाया। वह बार-बार भारी सिंहगर्जना करके देवताओं को ललकार-ललकारकर गालियाँ देता था।
रन मद मत्त फिरइ जग धावा। प्रतिभट खोजत कतहुँ न पावा॥
रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी॥
रण के मद में मतवाला होकर वह अपनी जोड़ी का योद्धा खोजता हुआ जगत भर में दौड़ता फिरा, परंतु उसे ऐसा योद्धा कहीं नहीं मिला। सूर्य, चंद्रमा, वायु, वरुण, कुबेर, अग्नि, काल और यम आदि सब अधिकारी,
किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पंथहिं लागा॥
ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी॥
किन्नर, सिद्ध, मनुष्य, देवता और नाग - सभी के पीछे वह हठपूर्वक पड़ गया (किसी को भी उसने शांतिपूर्वक नहीं बैठने दिया)। ब्रह्मा की सृष्टि में जहाँ तक शरीरधारी स्त्री-पुरुष थे, सभी रावण के अधीन हो गए।
आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता॥
डर के मारे सभी उसकी आज्ञा का पालन करते थे और नित्य आकर नम्रतापूर्वक उसके चरणों में सिर नवाते थे।
दो० - भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र।
मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र॥ 182(क)॥
उसने भुजाओं के बल से सारे विश्व को वश में कर लिया, किसी को स्वतंत्र नहीं रहने दिया। (इस प्रकार) मंडलीक राजाओं का शिरोमणि (सार्वभौम सम्राट) रावण अपनी इच्छानुसार राज्य करने लगा॥ 182(क)॥
देव जच्छ गंधर्ब नर किंनर नाग कुमारि।
जीति बरीं निज बाहु बल बहु सुंदर बर नारि॥ 182(ख)॥
देवता, यक्ष, गंधर्व, मनुष्य, किन्नर और नागों की कन्याओं तथा बहुत-सी अन्य सुंदरी और उत्तम स्त्रियों को उसने अपनी भुजाओं के बल से जीतकर ब्याह लिया॥ 182 (ख)॥
इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ॥
प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥
मेघनाद से उसने जो कुछ कहा, उसे उसने (मेघनाद ने) मानो पहले से ही कर रखा था (अर्थात रावण के कहने भर की देर थी, उसने आज्ञापालन में तनिक भी देर नहीं की।) जिनको (रावण ने मेघनाद से) पहले ही आज्ञा दे रखी थी, उन्होंने जो करतूतें की उन्हें सुनो।
देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी॥
करहिं उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया॥
सब राक्षसों के समूह देखने में बड़े भयानक, पापी और देवताओं को दुःख देनेवाले थे। वे असुरों के समूह उपद्रव करते थे और माया से अनेकों प्रकार के रूप धरते थे।
जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला॥
जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं॥
जिस प्रकार धर्म की जड़ कटे, वे वही सब वेदविरुद्ध काम करते थे। जिस-जिस स्थान में वे गो और ब्राह्मणों को पाते थे, उसी नगर, गाँव और पुरवे में आग लगा देते थे।
सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरु मान न कोई॥
नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहु सुनिअ न बेद पुराना॥
(उनके डर से) कहीं भी शुभ आचरण (ब्राह्मण भोजन, यज्ञ, श्राद्ध आदि) नहीं होते थे। देवता, ब्राह्मण और गुरु को कोई नहीं मानता था। न हरिभक्ति थी, न यज्ञ, तप और ज्ञान था। वेद और पुराण तो स्वप्न में भी सुनने को नहीं मिलते थे।
छं० - जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा।
आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा॥ अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहिं काना। तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना॥
जप, योग, वैराग्य, तप तथा यज्ञ में (देवताओं के) भाग पाने की बात रावण कहीं कानों से सुन पाता, तो (उसी समय) स्वयं उठ दौड़ता। कुछ भी रहने नहीं पाता, वह सबको पकड़कर विध्वंस कर डालता था। संसार में ऐसा भ्रष्ट आचरण फैल गया कि धर्म तो कानों में सुनने में नहीं आता था, जो कोई वेद और पुराण कहता, उसको बहुत तरह से त्रास देता और देश से निकाल देता था।
सो० - बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं।
हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति॥ 183॥
राक्षस लोग जो घोर अत्याचार करते थे, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। हिंसा पर ही जिनकी प्रीति है, उनके पापों का क्या ठिकाना॥ 183॥
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बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा॥
मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥
पराए धन और पराई स्त्री पर मन चलानेवाले, दुष्ट, चोर और जुआरी बहुत बढ़ गए। लोग माता-पिता और देवताओं को नहीं मानते थे और साधुओं (की सेवा करना तो दूर रहा, उल्टे उन) से सेवा करवाते थे।
जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥
अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी॥
(शिव कहते हैं कि -) हे भवानी! जिनके ऐसे आचरण हैं, उन सब प्राणियों को राक्षस ही समझना। इस प्रकार धर्म के प्रति (लोगों की) अतिशय ग्लानि (अरुचि, अनास्था) देखकर पृथ्वी अत्यंत भयभीत एवं व्याकुल हो गई।
गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही।
सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता॥
(वह सोचने लगी कि) पर्वतों, नदियों और समुद्रों का बोझ मुझे इतना भारी नहीं जान पड़ता, जितना भारी मुझे एक परद्रोही (दूसरों का अनिष्ट करनेवाला) लगता है। पृथ्वी सारे धर्मों को विपरीत देख रही है, पर रावण से भयभीत हुई वह कुछ बोल नहीं सकती।
धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी॥
निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई॥
(अंत में) हृदय में सोच-विचारकर, गो का रूप धारण कर धरती वहाँ गई, जहाँ सब देवता और मुनि (छिपे) थे। पृथ्वी ने रोकर उनको अपना दुःख सुनाया, पर किसी से कुछ काम न बना।
छं० - सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका।
सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका॥ ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई। जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई॥
तब देवता, मुनि और गंधर्व सब मिलकर ब्रह्मा के लोक (सत्यलोक) को गए। भय और शोक से अत्यंत व्याकुल बेचारी पृथ्वी भी गो का शरीर धारण किए हुए उनके साथ थी। ब्रह्मा सब जान गए। उन्होंने मन में अनुमान किया कि इसमें मेरा कुछ भी वश नहीं चलने का। (तब उन्होंने पृथ्वी से कहा कि -) जिसकी तू दासी है, वही अविनाशी हमारा और तुम्हारा दोनों का सहायक है।
सो० - धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरि पद सुमिरु।
जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति॥ 184॥
ब्रह्मा ने कहा - हे धरती! मन में धीरज धारण करके हरि के चरणों का स्मरण करो। प्रभु अपने दासों की पीड़ा को जानते हैं, ये तुम्हारी कठिन विपत्ति का नाश करेंगे॥ 184॥
बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा॥
पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥
सब देवता बैठकर विचार करने लगे कि प्रभु को कहाँ पाएँ ताकि उनके सामने पुकार (फरियाद) करें। कोई बैकुंठपुरी जाने को कहता था और कोई कहता था कि वही प्रभु क्षीरसमुद्र में निवास करते हैं।
जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥
तेहिं समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेउँ॥
जिसके हृदय में जैसी भक्ति और प्रीति होती है, प्रभु वहाँ (उसके लिए) सदा उसी रीति से प्रकट होते हैं। हे पार्वती! उस समाज में मैं भी था। अवसर पाकर मैंने एक बात कही -
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥
मैं तो यह जानता हूँ कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं, प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं, देश, काल, दिशा, विदिशा में बताओ, ऐसी जगह कहाँ है, जहाँ प्रभु न हों।
अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥
मोर बचन सब के मन माना। साधु-साधु करि ब्रह्म बखाना॥
वे चराचरमय (चराचर में व्याप्त) होते हुए ही सबसे रहित हैं और विरक्त हैं (उनकी कहीं आसक्ति नहीं है); वे प्रेम से प्रकट होते हैं, जैसे अग्नि। (अग्नि अव्यक्त रूप से सर्वत्र व्याप्त है, परंतु जहाँ उसके लिए अरणिमंथनादि साधन किए जाते हैं, वहाँ वह प्रकट होती है। इसी प्रकार सर्वत्र व्याप्त भगवान भी प्रेम से प्रकट होते हैं।) मेरी बात सबको प्रिय लगी। ब्रह्मा ने 'साधु-साधु' कहकर बड़ाई की।
दो० - सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।
अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर॥ 185॥
मेरी बात सुनकर ब्रह्मा के मन में बड़ा हर्ष हुआ, उनका तन पुलकित हो गया और नेत्रों से (प्रेम के) आँसू बहने लगे। तब वे धीरबुद्धि ब्रह्मा सावधान होकर हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे॥ 185॥
छं० - जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता॥ पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई। जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥
हे देवताओं के स्वामी, सेवकों को सुख देनेवाले, शरणागत की रक्षा करनेवाले भगवान! आपकी जय हो! जय हो!! हे गो-ब्राह्मणों का हित करनेवाले, असुरों का विनाश करनेवाले, समुद्र की कन्या (लक्ष्मी) के प्रिय स्वामी! आपकी जय हो! हे देवता और पृथ्वी का पालन करनेवाले! आपकी लीला अद्भुत है, उसका भेद कोई नहीं जानता। ऐसे जो स्वभाव से ही कृपालु और दीनदयालु हैं, वे ही हम पर कृपा करें।
जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥ जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत मोह मुनिबृंदा। निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥
हे अविनाशी, सबके हृदय में निवास करनेवाले (अंतर्यामी), सर्वव्यापक, परम आनंदस्वरूप, अज्ञेय, इंद्रियों से परे, पवित्र चरित्र, माया से रहित मुकुंद (मोक्षदाता)! आपकी जय हो! जय हो!! (इस लोक और परलोक के सब भोगों से) विरक्त तथा मोह से सर्वथा छूटे हुए (ज्ञानी) मुनिवृंद भी अत्यंत अनुरागी (प्रेमी) बनकर जिनका रात-दिन ध्यान करते हैं और जिनके गुणों के समूह का गान करते हैं, उन सच्चिदानंद की जय हो।
जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा॥ जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा। मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुरजूथा॥
जिन्होंने बिना किसी दूसरे संगी अथवा सहायक के अकेले ही (या स्वयं अपने को त्रिगुणरूप - ब्रह्मा, विष्णु, शिवरूप - बनाकर अथवा बिना किसी उपादान-कारण के अर्थात स्वयं ही सृष्टि का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण बनकर) तीन प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की, वे पापों का नाश करनेवाले भगवान हमारी सुधि लें। हम न भक्ति जानते हैं, न पूजा, जो संसार के (जन्म-मृत्यु के) भय का नाश करनेवाले, मुनियों के मन को आनंद देनेवाले और विपत्तियों के समूह को नष्ट करनेवाली हैं। हम सब देवताओं के समूह, मन, वचन और कर्म से चतुराई करने की बान छोड़कर उन (भगवान) की शरण (आए) हैं।
सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना।
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सोभगवाना॥ भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा। मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा॥
सरस्वती, वेद, शेष और संपूर्ण ऋषि कोई भी जिनको नहीं जानते, जिन्हें दीन प्रिय हैं, ऐसा वेद पुकारकर कहते हैं, वे ही भगवान हम पर दया करें। हे संसाररूपी समुद्र के (मथने के) लिए मंदराचल रूप, सब प्रकार से सुंदर, गुणों के धाम और सुखों की राशि नाथ! आपके चरण कमलों में मुनि, सिद्ध और सारे देवता भय से अत्यंत व्याकुल होकर नमस्कार करते हैं।
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दो० - जानि सभय सुर भूमि सुनि बचन समेत सनेह।
गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह॥ 186॥
देवताओं और पृथ्वी को भयभीत जानकर और उनके स्नेहयुक्त वचन सुनकर शोक और संदेह को हरनेवाली गंभीर आकाशवाणी हुई - ॥ 186॥
जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥
अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥
हे मुनि, सिद्ध और देवताओं के स्वामियो! डरो मत। तुम्हारे लिए मैं मनुष्य का रूप धारण करूँगा और उदार (पवित्र) सूर्यवंश में अंशों सहित मनुष्य का अवतार लूँगा।
कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥
ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नर भूपा॥
कश्यप और अदिति ने बड़ा भारी तप किया था। मैं पहले ही उनको वर दे चुका हूँ। वे ही दशरथ और कौसल्या के रूप में मनुष्यों के राजा होकर अयोध्यापुरी में प्रकट हुए हैं।
तिन्ह कें गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥
नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ॥
उन्हीं के घर जाकर मैं रघुकुल में श्रेष्ठ चार भाइयों के रूप में अवतार लूँगा। नारद के सब वचन मैं सत्य करूँगा और अपनी पराशक्ति के सहित अवतार लूँगा।
हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई॥
गगन ब्रह्मबानी सुनि काना। तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना॥
मैं पृथ्वी का सब भार हर लूँगा। हे देववृंद! तुम निर्भय हो जाओ। आकाश में ब्रह्म (भगवान) की वाणी को कान से सुनकर देवता तुरंत लौट गए। उनका हृदय शीतल हो गया।
तब ब्रह्माँ धरनिहि समुझावा। अभय भई भरोस जियँ आवा॥
तब ब्रह्मा ने पृथ्वी को समझाया। वह भी निर्भय हुई और उसके जी में भरोसा (ढाढ़स) आ गया।
दो० - निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ।
बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ॥ 187॥
देवताओं को यही सिखाकर कि वानरों का शरीर धर-धरकर तुम लोग पृथ्वी पर जाकर भगवान के चरणों की सेवा करो, ब्रह्मा अपने लोक को चले गए॥ 187॥
गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा॥
जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलंब न कीन्हा॥
सब देवता अपने-अपने लोक को गए। पृथ्वी सहित सबके मन को शांति मिली। ब्रह्मा ने जो कुछ आज्ञा दी, उससे देवता बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने (वैसा करने में) देर नहीं की।
बनचर देह धरी छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं॥
गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा॥
पृथ्वी पर उन्होंने वानरदेह धारण की। उनमें अपार बल और प्रताप था। सभी शूरवीर थे, पर्वत, वृक्ष और नख ही उनके शस्त्र थे। वे धीर बुद्धिवाले (वानर रूप देवता) भगवान के आने की राह देखने लगे।
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दो० - तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु भानु कुल केतु।
चले जनक मंदिर मुदित बिदा करावन हेतु॥ 334॥
उसी समय सूर्यवंश के पताका स्वरूप राम भाइयों स
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