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रविवार, 27 मई 2018

साहित्य त्रिवेणी १० हिमाचली लोकगीतों में छंदबद्धता: आशा शैली

१०. हिमाचली लोकगीतों में छंदबद्धता
- आशा शैली 
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जन्मः २ अगस्त १९४२,‘अस्मान खट्टड़’ (रावलपिण्डी, अविभाजित भारत), मातृभाषा पंजाबी, शिक्षा: विद्याविनोदिनी, लेखन विधाःकविता, कहानी, गीत, ग़ज़ल, शोधलेख, लघुकथा, समीक्षा, व्यंग्य, उपन्यास, नाटक एवं अनुवाद, भाषा: हिंदी, उर्दू, पंजाबी, पहाड़ी (महासवी एवं डोगरी) एवं ओड़िया। प्राकशित: काँटों का नीड़ (काव्य संग्रह), एक और द्रौपदी (काव्य संग्रह), सागर से पर्वत तक (ओड़िया-हिंदी काव्यानुवाद), नवजर्या, तन्हा, एक और द्रौपदी का बांग्ला में अनुवाद (अरु एक द्रौपदी), प्रभात की उर्मियाँ (लघुकथा), दादी कहो कहानी (लोककथा संग्रह)गर्द के नीचे (हिमाचल के स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनियाँ), हमारी लोक कथाएँ छ: भाग,हिमाचल बोलता, आधुनिक नारी कहाँ जीती कहाँ हारी (स्त्री विमर्श), जलते सूरज की उदासियाँ (कहानी संग्रह), छाया देवदार की (उपन्यास-), द्वंद्व के शिखर ( कहानी संग्रह), हण मैं लिक्खा करनी ( पहाड़ी कविता संग्रह), चीड़ के वनों में लगी आग (संस्मरण), प्रकाशनाधीन: ७ पुस्तकें, उपलब्धियाँः साहित्यिक मंचों, पत्रिकाओं, आकाशवाणी, दूरदर्शन पर निरंतर सक्रिय, सम्मानः देश के कोने-कोने से अनेक साहित्यिक सम्मानसम्पादक, हिन्दी पत्रिका -शैलसूत्र (त्रै.),संपर्क: साहित्य सदन, ज़ेड़ सैक्टर, इंदिरा नगर २, पो. आॅ. लालकुआँ, जिला नैनीताल (उत्तराखण्ड) २६२४०२, चलभाष ९४५६७१७१५०, ०७०५५३३६१६८,८९५८११ ०८५९
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गीतकाव्य मानव की आदिवाणी है। सारी प्रकृति ही छंदोबद्ध है। नदियों की कल-कल, पवन के वेग, पंछियों की चहचहाहट आदि में उनका अपना ही संगीत है, अपनी लय और खुद का एक छंद विद्यमान है। प्रत्येक भाषा की उत्पत्ति संगीत से हुई है और उसमें पहली सहज स्वच्छंद अभिव्यक्ति लघु स्फुट कविताओं या लोकगीतों के माध्यम से हुई है। भारतीय आचार्यों में महर्षि पिंगल का छंद-शास्त्र विश्व का प्राचीन और सर्वाधिक प्रामाणिक शास्त्र माना जाता है। आजा़दी से पूर्व विद्वान गुरुजनों की देख-रेख में पिंगल शास्त्र के नियमों का पूरी सख़्ती से पालन किया जाता रहा है, इसीलिए कविता पूर्णरूपेण छंदोबद्ध रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिंदी कविता को लेकर मनीषियों ने अनेक प्रयोग किए हैं। छंद काव्य के अनेक रूप हैं दोहा, छंद, सोरठा, चौपाई, गीत आदि लेकिन फिर भी, हिंदी के गीत-कवियों ने नए-नए छंदों के अनुसंधान के साथ ही दोहा, रोला और चौपाई छंद के साँचे का भरपूर प्रयोग किया। परिभाषा की ओर जाएँ तो महर्षि पिंगल के छंदशास्त्र के अनुसार छंद भी अनेक प्रकार के हैं, उसमें एक करोड़ ६७ लाख ७७ हजार से अधिक वर्ण-वृत्तों का उल्लेख है, जिनमें मात्र ५० छंदों को ही संस्कृत कवियों के कवित्व का अंग बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इनमें शिखरिणी, मंदाक्रांता, इंद्रवज्रा, शार्दूलविक्रीड़ित, भुजंगप्रयात छंद ज्यादा चर्चित हुए। 

गीत का सीधा संबंध गेयता से है, कण्ठ से है। गीत उल्लास, प्रसन्नता और उमंग ही नहीं, दुःख और चिंता के भी प्रतीक होते हैं, अध्यात्म और वैराग्य के भी, प्रेम और विरक्ति के भी। गीत अनपढ़ कंठों से भी प्रस्फुटित होते हैं और सधे-मँजे रागों से भी सुसज्जित होते हैं, भरपूर वाद्ययंत्रों का सहारा भी लेते हैं और लोक में प्रचलित पारंपरिक यंत्रों का भी। शास्त्रीय संगीत को जहाँ कठिन और श्रम साध्य अभ्यास की आवश्यकता होती है वहीं लोक संगीत और लोकगीतों में भाव-प्रधान शब्द सामर्थ्य और अभिव्यक्ति की निपुणता की आवश्यकता होती है, जिसके लिए लोकमानस को न तो किसी पाठशाला की आवश्यकता होती है और न ही किसी अभ्यास की। लोकगीत अपने-आप में किसी भी देश-प्रदेश को उसकी संपूर्णता के साथ अपनी संस्कृतिगत अथवा परंपरागत शैली में जीवंत रखने में पूर्णतया समर्थ होते हैं। एक निश्चित मीटर में मुख-दर-मुख ये लोकगीत न जाने कब से गाये जा रहे हैं और यही निश्चित मीटर छंद कहलाता है। सच पूछिए तो बिना छंद के गीत की कल्पना हो ही नहीं सकती, फिर लोकगीत इससे अछूते कैसे रह सकते हैं? लोकगीतों के छंद-विधान का पिंगल-शास्त्र से कुछ लेना-देना नहीं है। लोकगीतों का अपना ही छंद विधान है और वे उसी विधान से सजते-सँवरते हैं। शब्द छंदों से अलंकृत हों उठे झंकार मन में, जब शब्द छंदों का साथ लेते हैं, मन झंकृतत होता है, तभी गीत बनते हैं और मन में तरंगें पैदा करते हैं। भारत के किसी भी दूसरे क्षेत्र की भाँति हिमाचल प्रदेश भी अपनी सांस्कृतिक धरोहरों के रूप में अपने लोकगीतों की एक समृद्ध विरासत अपने आँचल में समेटे हुए है।
वैदिक काल में 'त्रिगर्त' के नाम से पुकारे जाने वाले पहाड़ी भू-भाग हिमाचल प्रदेश के अस्तित्व में आने से पूर्व तक पंजाब का हिस्सा थे। विभाजन के बाद भारत प्रदेशों के साथ पहचाना गया और हिमाचल प्रदेश का जन्म हुआ। हम यहाँ ‘शिमला’ जिले के लोकगीतों पर चर्चा कर रहे हैं, पूरे हिमाचल पर नहीं। शिमला जिला पूर्व में 'महासू' कहा जाता था और इसकी बोली 'महासवी'। महासवी रामपुर बुशहर, कोटगढ़-कुमारसेन, रोहड़ू, निमण्ड आदि तहसीलों में थोड़े-थोड़े उच्चारण भेद से बोली जाती है। गीतों की दृष्टि से महासवी अति समृद्ध बोली है। शिमला जिले के अतिरिक्त शेष हिमाचल की बोलियों पर पंजाबी भाषा का प्रभाव स्पष्टत: देखा जा सकता है। 
हिमाचल प्रदेश में विभिन्न प्रकार के लोकगीत प्रचलन में हैं, जिनमें गंगी (टप्पे), नाटी (नृत्यगीत), ब्रह्मभक्ति (भक्तिगीत) आदि के साथ लामण लोकगीत खूब प्रचलन में हैं। अलबत्ता गंगी का प्रचलन किन्नौर को छोड़कर पूरे हिमाचल में है और ब्रह्मभक्ति (भक्तिगीत) का प्रचलन केवल बुशहर क्षेत्र में है। वैसे तो हिमाचल प्रदेश के ऊपरी भागों में लोकनृत्य की दो परंपराएँ प्रचलित हैं: एक एकल नृत्य और दूसरी नाटी शैली। नाटी शैली अलग-अलग नामों से देश के हर भाग में प्रचलित है परंतु नाटी महासू क्षेत्र की विशेषता है। यह समूह नृत्य होता है जिसे स्त्री-पुरुष गोल घेरा बना कर प्रस्तुत करते हैं। गंगी विशुद्ध पंजाबी टप्पा है। इसके गायक आपस में उत्तर-प्रत्युत्तर भी देते हैं और इसे एकल भी गाया जाता है। वस्तुतः गंगी प्रेम गीतों का पर्याय ही है। नाटी की श्रेणी में नृत्य गीत आते हैं जिन्हें नृत्य के समय गाया जाता हैं। ब्रह्मभक्ति अपने नाम के अनुरूप भक्ति गीत हैं। इन गीतों की विशेषता यह है कि इन्हें ब्राह्मण समुदाय द्वारा गाया जाता है। ब्रह्मभक्ति के माध्यम से सभी देवी-देवताओं की आराधना की जाती है।
हिमाचली लोकगीतों में लामण का विशेष स्थान है, इसके गायक-गायिकाएँ न केवल मधुर कण्ठ के स्वामी होते हैं, अपितु बिना रियाज़ के मंजे कंठ से अर्थपूर्ण शब्दों का प्रयोग कर सुनने वाले को मोहित करने में पूर्ण समर्थ होते हैं। लामण का अर्थ अक्सर प्रेम गीतों के रूप में लिया जाता है किंतु ऐसा है नहीं। यह बात विभिन्न लामण सुनने-पढ़ने से स्पष्ट हो जाती है। लामण का रूप द्विपदी (दोहा या शे'र) का सा होता है किंतु दोहे की तरह मात्राओं की गणना यहाँ महत्व नहीं रखती, न ही शे‘र की तरह ग़ज़ल का एक हिस्सा होती है, न ही इसके मिस्रे बँधे होते हैं। हर लामण अपने आप में परिपूर्ण होता है। लामण के भाव जीवन की प्रत्येक खुशी अथवा दुःख की ही सशक्त अभिव्यक्ति नहीं करते, यह तो जीवन के प्रत्येक पहलू को हमारे सामने खोलकर रख देते हैं।
‘‘सुख रे लामण दुखा रे गैणे गीता, / दुख न सम्भलो ईजी रे गर्भा भीता’’     म्म्म्
(लामण सुख में मुख से फूटे दुख में गीत भले हैं / मातृगर्भ से सुख-दुःख सारे मानव संग चले हैं)
पहाड़ी लोकगीतों की अदायगी का अंदाज़ भी अपनी अलग ही विशिष्ट पहचान रखता है। जंगल में घास अथवा खेतों में फसल की कटाई के समय, जंगल में भेड़-बकरी चराते हुए अथवा अन्य किसी भी फुर्सत के क्षण में बुशहर के पर्वतवासी आपको लामण गाते सुनाई देते हैं। ये लोक-गीत जो जंगल के एक कोने में बिना किसी वाद्ययंत्र की सहायता के गाए जाते हैं और दूसरे कोने से दूसरे पक्ष द्वारा दोहराए जाते हैं या उत्तर में दूसरा लामण गाया जाता है। इसे स्त्री-पुरुष दोनों ही गाते हैं। यह लामण किसी एक भाव की प्रस्तुति नहीं करते अन्यथा इनमें आप पहाड़ी परंपरा के पूरे जीवन को जान-पहचान और अनुभव कर सकते हैं। लामण लोकगीतों की प्रथम पंक्ति यद्यपि कभी-कभी निरर्थक सी प्रतीत होती है, परंतु वास्तव में वह निरर्थक कतई नहीं होती जबकि कभी-कभी प्रथम पंक्ति का प्रयोग केवल तुक मिलाने के लिए ही किया जाता है, अधिकतर वह हिमाचली कला और संस्कृति की वाहक होती है। प्रथम पंक्ति पर्वतीय परिवेश की प्राकृतिक संपदा और वहाँ के रीति-रिवाजों का आइना रहती है। अलबत्ता दूसरी पंक्ति ही असली मंतव्य प्रकट करती है।
यहाँ कुछ लामण उनके हिंदी अनुवाद के साथ प्रस्तुत हैं। आप भी इन पहाड़ी झरनों जैसे मधुर गीतों का आनंद लीजिए। जरा देखिए, सांसारिकता और जीवन के यथार्थ को लामण किस गहराई से उकेरता है।
जाणा थी बैणे (बहन) साहूकारा लै नाणो / जो लिओ (लिखा) कोरमा सो जा तैंडलो खाणो   
(चाहा था साहूकारों के घर में ब्याह कर जाना / जैसा लिखा भाग्य में बहना पड़ता वैसा खाना)       
अब इसे छंद कहें या न कहें, पर हर लामण में तुकांत है, गेयता है और है दोनों पंक्तियों का आपसी ताल-मेल। हिमाचल के तीखे पहाड़ और उनकी विषम जीवन-यात्रा कठिन और श्रमसाध्य होती है। आज भले ही हिमाचली महिला पूर्णरूपेण शिक्षित और प्रगति पथ पर अग्रसर है परन्तु कुछ ही दहाइयों पूर्व छोटी आयु की लड़कियों को ब्याह देना यहाँ का आम रिवाज रहा है। उन दिनों आवागमन के भी इतने साधन नहीं थे। अब बेटी परदेस में अपने दुःख किससे कहे? इसका निर्वाह लामण ने पूर्ण दक्षता से किया है। ससुराल में पहाड़ी लड़की किस तरह से अपनी बात लामण के माध्यम से कहती है।
चन्द्रा-सूरजा आपु रसोइये बेठो / आेंरो१ मेरो कोरमा कोह् दी लाइया हेठो२ (१-खोटे कर्म, २-दोष)
(हे चंदा, हे सूरज तुम्हें रसोई में बैठाऊँ / खोटे भाग्य हमारे हैं तो किसको दोष लगाऊँ?)
मायके और ससुराल के प्रेम का झूला झूलती नायिका का मन टटोलने के बाद आइए अब जरा श्रृंगार रस का आनंद लें। हिमाचली लामण में नायक-नायिका अपने प्रेम की अभिव्यक्ति किस प्रकार करते हैं-
मना रौ भाउणों नाई गयो धारटी पौरू१  / चींजे न शुणदों२ बेदे ना आउंदो औरू (१ पर्वत पार, २ पुकार सुनता नहीं)
(पर्वत के उस पार खो गये मीत मेरे मन भावन / सुनते नहीं पुकार हमारी होगा कैसे आवन)
शाल़टी१ गउए तेरे कड़ोलुए शींगा / रीशदो माणशा२ धुरी बिले३ बादल़ी रींगा  (१ साँवली, २ ईर्ष्यालु मनुष्य, ३ क्षितिज पर)
गोल कड़े से सींग तुम्हारे ए री गाय साँवली सी रूठा प्रेमी बदली जैसे, फिरे क्षितिज पर पगली सी
भांग्रिए डालि़ए उचिए कुम्बरी खाओ / होरि शाए रिलुआ हमु न बिसरी जाओ  
(हरी भांग की डाली, कोंपल हुई नशीली चाहे तुम खाना / रूपछटा पर औरों की प्रियतम, मत भूल हमें जाना)    
वर्णन सांसारिकता का हो, या लोक व्यवहार अथवा प्रेम या श्रृंगार या फिर संवेदनशीलता का ही क्यों न हो हिमाचली लामण छंद हर क्षेत्र में अपना दखल रखता है। इन लोकगीतों में कला के सभी रस आपको अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए मिलेंगे।लामण में जनसाधारण के प्रति अद्भुत संवेदनशीलता है-  
उशटे१ टिबेआ तोड़ा पाणिओ सोरा२ (१ ऊँचे, २ सरोवर)
ढल़े मुंदी टिबेआ, तोड़ा३ ढ़ला माणुओ घोरा (३नीचे)
(ऊँचे टीले पर गहरे पानी का सरवर लहराये  
ओ टीले गिरना मत, नीचे मानव ने घर बनवाये)        
आगे खाए जिंजणा१, दुईं खाए फेडुए टोरे (१ विभिन्न व्यंजन)
जेई पड़ी बिबता तेई नेई कसिए सौरे 
(पहले छत्तिस व्यंजन मिले बाद में कोंपल घास      
कोई नहीं साथी विपदा में कोई न बैठे पास)
शाड़टु बाड़ेआ१ आड़े लागो जंजाले़ (१अल्हड़ अवस्था), 
चीणी नीणों सौरगे, ढाड़े लाणो पाइताले़    
(बाली उम्र कलेस प्रेम का मन का सब जंजाल 
मन करता निर्माण स्वर्ग तक, गिर मिलता पाताल)     
माला के सुंदर मनकों जैसा ही है महासू का लोकगीत लामण। महासू क्षेत्र के पर्वतवासी जन-जन में सभी रसों के संचार करनेवाले शुद्ध श्रृंगारी लोकगीत गंगी छंद का भी रस लीजिए। लगता है यह छंद यहाँ का मूल छंद नहीं है। पंजाबी के माहिया छंद का प्रभाव इस पर स्पष्ट देखा जा सकता है। देखिए गंगी का एक टुकड़ा-
‘तेरी पिठी पांधे लाल बसता / पारिए न जायां छोहरुआ / तांखे वारिए नवेला रसता’
(पीठ पर लाल बस्ता लेकर जाने वाले लड़के! उधर से क्यों जाते हो, इस ओर से तुम्हारे लिए एकांत वाला रास्ता मैंने देखा है)
हरी छिछड़ी बणाई खुर्शी / मेरी गल शुण छोह्रुआ / तू बी बणि जांदा बाबू मुनशी।
(हरी छिछड़ी, एक प्रकार की कोमल झाड़ी होती है।)
नायिका कहती है, मैंने हरी छिछड़ी की कुर्सी बनाई है। मेरी बात मान, इस पर बैठ। तू मुंशी बाबू बन जाएगा।
नाटी का अर्थ है 'नृत्य', वह गीत जिसे गाकर नाचा जा सके। गीत में यदि छंदबद्धता न होगी तो नाचा कैसे जाएगा? लोकनृत्य लयबद्ध होते हैं। अब नाटी का प्रचलन विवाह और मेलों तक रह गया है किन्तु नब्बे के दशक तक लोग घरों में नाटियों का आयोजन करते थे। छोटे-छोटे पहाड़ी खेत, थोड़ी-थोड़ी उपज, घर के आँगन में बने छोटे से खलिहान में दो-तीन दिन की धूप में सुखाए गए गेहूँ, जौ और धान, रात को नाटी लगा कर मढ़ाई की जाती। आज इसके गेहूँ हैं तो कल उसके। रात के भोजन के बाद पूरा गाँव स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े सब नाटी में आ जुड़ते और एक दूसरे का हाथ पकड़े रात-रात भर नाचते। घर के बड़े-बूढ़े, बीच-बीच में दरांती से पैरों तले के अनाज को उलट-पलट करते रहते और अंत में दाने और भूसी अलग हो जाती।
गाँवों में प्रतिभाओं की तो कमी है नहीं, नाटी में गाए जानेवाले गीत कभी-कभी किसी प्रेमी जोड़े पर गाँठ लिए जाते और कभी किसी घटना विशेष पर। इनमें व्यंग्य के स्वर भी आ मिलते हैं और गाथा के भी। दो पत्नियोंवाले पति का चित्रण नाटी में देखिए-
गदिए आणी गाद्दणाी, दुई दुई गदाणी लो।
एक चाणदी फुलके, एक आणदी पाणी लो। ओ मेरेया गादिया दुइ-दुइ गादाणी लो।।
गद्दी आणी दुई गद्दणी, बडो पड़ो पुवाड़ो लो। / एक मांगदी कांटे-बाड़ू, एक मांगदी हारा लो।।
दो पत्नियाँ हैं चरवाहे की, एक रोटी बनाती है तो दूसरी पानी भरकर ला रही है, मुसीबत यह है कि एक झुमके और नथ माँगती है और दूसरी हार माँग रही है।इतने पर ही बस नहीं करते ये गीत। ननद भाभी का प्यार भी दिखाते हैं-
औरु दे भाभिए मेरी जुटी, औरु दे भाभिए मेरी जुटी।
भाभिए तेरी ताईं छुटी, भाभिए तेरी ताईं छुटी।
ननद कह रही है भाभी मेरा चुटीला (चोटी में गूँथने वाले धागे की डोरियाँ) दे दो। मैं तो तेरे ही कारण ससुराल छोड़कर आ गई हूँ।
औरु दे भाभिए मेरी दाची, औरु दे भाभिए मेरी दाची।
देओ नरैणु लाणी पाची, देओ नरैणु लाणी पाची।।
-भाभी! मेरी दरांती दो तो नारायण देव को चढ़ाने के लिए, पूजा के लिए पत्तियाँ काट लाऊँ।
बिंदराबणे बाशा शियारी, बिंदराबणे बाशा शियारी।
भाभी लागी जात्तरै तियारी, भाभी लागी जात्तरै तियारी।
वृंदावन में चिड़िया बोल रही है और मेरी भाभी मेले में जाने की तैयारी कर रही है। तो इस प्रकार हम देखते हैं कि इन लोकगीतों में कितनी लयबद्धता है। समस्या यह है कि हम अपने से इतर भाषा की जानकारी न रखने के कारण इनका रस नहीं ले पाते। जबकि फिल्मी निदेशक इन्हीं धुनों का प्रयोग धड़ल्ले से करते हैं तो लोग झूमते हैं। यही छंदबद्धता का रस है हमारे लोकगीतों में।
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