गीत :
भूल जा
संजीव 'सलिल'
*
आईने ने कहा: 'सत्य-शिव' ही रचो,
यदि नहीं, कौन 'सुन्दर' कहाँ है कहो?
लिख रहे, कह रहे, व्यर्थ दिन-रात जो-
ढाई आखर ही उनमें तनिक तुम तहो..'
ज़िन्दगी ने तरेरीं निगाहें तुरत,
कह उठी 'जो हकीकत नहीं भूलना.
स्वप्न तो स्वप्न हैं, सच समझकर उन्हें-
गिर पड़ोगे, निराधार मत झूलना.'
बन्दगी थी समर्पण रही चाहती,
शेष कुछ भी न बाकी अहम् हो कहीं.
जोड़ मत छोड़ सब, हाथ रीते रहें-
जान ले, साथ जाता कहीं कुछ नहीं.
हैं समझदार जो कह रहे: 'कुछ सुधर
कौन किसका कहाँ कब, इसे भूल जा.
भोगता है वही, जो बली है यहाँ-
जो धनी जेब में उसके सुख हैं यहाँ.'
मौन रिश्ते मुखर हो सगे बन गये,
दूर दुःख में रहे, सुख दिखा मिल गले.
कह रहे नर्मदा नेह की नित बहा-
'सूर्य यश का न किंचित कभी भी ढले.
मन भ्रमित, तन ज्वलित, है अमन खोजता,
चाह हर आह बनकर परखती रही.
हौसला-कोशिशें, श्रम-लगन नित 'सलिल'
ऊग-ढल भू-गगन पर बिखरती रही.
चहचहा पंछियों ने जगाया पुलक,
सोच कम, कर्म कर, भूल परिणाम जा.
न मिले मत तरस, जो मिले कर ग्रहण-
खीर खा बुद्ध बन, शेष सब भूल जा.
*****
भूल जा
संजीव 'सलिल'
*
आईने ने कहा: 'सत्य-शिव' ही रचो,
यदि नहीं, कौन 'सुन्दर' कहाँ है कहो?
लिख रहे, कह रहे, व्यर्थ दिन-रात जो-
ढाई आखर ही उनमें तनिक तुम तहो..'
ज़िन्दगी ने तरेरीं निगाहें तुरत,
कह उठी 'जो हकीकत नहीं भूलना.
स्वप्न तो स्वप्न हैं, सच समझकर उन्हें-
गिर पड़ोगे, निराधार मत झूलना.'
बन्दगी थी समर्पण रही चाहती,
शेष कुछ भी न बाकी अहम् हो कहीं.
जोड़ मत छोड़ सब, हाथ रीते रहें-
जान ले, साथ जाता कहीं कुछ नहीं.
हैं समझदार जो कह रहे: 'कुछ सुधर
कौन किसका कहाँ कब, इसे भूल जा.
भोगता है वही, जो बली है यहाँ-
जो धनी जेब में उसके सुख हैं यहाँ.'
मौन रिश्ते मुखर हो सगे बन गये,
दूर दुःख में रहे, सुख दिखा मिल गले.
कह रहे नर्मदा नेह की नित बहा-
'सूर्य यश का न किंचित कभी भी ढले.
मन भ्रमित, तन ज्वलित, है अमन खोजता,
चाह हर आह बनकर परखती रही.
हौसला-कोशिशें, श्रम-लगन नित 'सलिल'
ऊग-ढल भू-गगन पर बिखरती रही.
चहचहा पंछियों ने जगाया पुलक,
सोच कम, कर्म कर, भूल परिणाम जा.
न मिले मत तरस, जो मिले कर ग्रहण-
खीर खा बुद्ध बन, शेष सब भूल जा.
*****
12 टिप्पणियां:
roopchandel
सलिल जी,
सुन्दर. बधाई. रूपसिंह चन्देल
anamika a
kya bat
rajesh kumari
ज़िन्दगी ने तरेरीं निगाहें तुरत,
कह उठी 'जो हकीकत नहीं भूलना.
स्वप्न तो स्वप्न हैं, सच समझकर उन्हें-
गिर पड़ोगे, निराधार मत झूलना.' बहुत सुन्दर प्रेरणास्पद गीत रचा है आदरणीय सलिल जी सभी पद एक से बढ़कर एक हैं बधाई आपको
Laxman Prasad Ladiwala
बहुत सुन्दर भाव अभ्व्यक्ति और आदर्श पर काव्य की निम्न अंतिम पंकियों के लिए विशेष बधाई स्वीकारे आदरनीय संजीव सलिल जी -
चहचहा पंछियों के जगाया पुलक,
सोच कम, कर्म कर, भूल परिणाम जा.
न मिले मत तरस, जो मिले कर ग्रहण-
खीर खा बुद्ध बन, शेष सब भूल जा.
VISHAAL CHARCHCHIT
एक अर्थपूर्ण.........एक दर्शन लिये........सराहनीय रचना के लिये बधाई स्वीकारें सर जी..........
राजेश जी, लक्ष्मन जी, विशाल जी,
गणतंत्र दिवस की शुभ कामनाएं.
आपने गीति रचना को पढ़ा और सराहा, मेरा कवि-कर्म सफल हुआ. आभार.
Saurabh Pandey
"शिवत्व की चाहना, नर्मदा की अजस्रता और बुद्धत्व के प्रति स्वीकार.. . अद्भुत विन्यास हुआ है, आदरणीय. गंग-जमुनी शाब्दिकता भली लगी है. इस प्रस्तुति हेतु सादर बधाई व धन्यवाद. "
सौरभ को भाया अगर तो सार्थक है गीत.
'सलिल' धन्य पायी विमल निर्मल निश्छल प्रीत..
Saurabh Pandey
"आभारी हम आपके, प्रभुवर हैं हम संग
संवेदन औ नेह का चढ़ा रहे खुश रंग ॥ "
Saurabh Pandey
शिवत्व की चाहना, नर्मदा की अजस्रता और बुद्धत्व के प्रति स्वीकार.. . अद्भुत विन्यास हुआ है, आदरणीय.
अंतरमन की नीर-क्षीर करने की कुशलता, जो कि विवेकजन्य स्पष्टता के साथ सदा अपनी बातें कहता है, की क्या ही सुन्दरता से प्रस्तुति हुई है. लौकिक संबंधों का वर्तमान स्वरूप और इसके निरंतर असंतुलित होते चले जाने की विवशता को बखूबी उभारा गया है. सहज जीवन को जीते हुए बौद्धिकता के मध्य-मार्ग को साधना कितना अनिवार्य है, इसकी विवेचना करती आपकी प्रस्तुत रचना ’जो शाश्वत है, वह दैदिप्यमान भानु है’ को आवश्यक स्वर देती है. बहुत सुन्दर ! इन पंक्तियों की अंतरधार को मेरा नमन -
मन भ्रमित, तन ज्वलित, है अमन खोजता,
चाह हर आह बनकर परखती रही.
हौसला-कोशिशें, श्रम-लगन नित 'सलिल'
ऊग-ढल भू-गगन पर बिखरती रही.
गंग-जमुनी शाब्दिकता भली लगी है. इस प्रस्तुति हेतु सादर बधाई व धन्यवाद.
upasba siag
"बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
upasba siag
" मन भ्रमित, तन ज्वलित, है अमन खोजता,
चाह हर आह बनकर परखती रही.
हौसला-कोशिशें, श्रम-लगन नित 'सलिल'
ऊग-ढल भू-गगन पर बिखरती रही. .......
बहुत सुन्दर"
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