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(1) भगवान् राम की जीवनी देखे तो जीवन सदाचार निष्ठा त्याग से पूर्ण कर्म
प्रधान है । जहाँ भगवन उनके सारे दायित्वों कुशलता पूर्वक निभाते है । एक
धोबी द्वारा असंस्तुति जताने पर राजधर्म वश अपनी पत्नी सीता का त्याग कर
देते हैं ।
(2) भगवान् कृष्ण ने जीवन को कर्म प्रधान बताने के साथ साथ
धर्म, जाति आदि की उत्तम व्याख्या भी की है जैसे की बचपन में वो इंद्र की
पूजा-हवन करना बंद करते हैं ।
भगवान कृष्ण द्वारा गीता में वेद और पंडितों पर कुछ कहे गए श्लोको को देखें:
विद्याविनयसंपन्ने ब्रह्माने गविहस्तनी । शुनि चैव श्रव्पाके च पंडिता समदर्शिनः ।।
इहैव तैर्जितः सर्गो येषाम समय स्थितम मनः । निर्दोषं ही समं ब्रहम तस्माद ब्रहाणी ते स्थिताः ।।
अर्थात सचमुच वही ऋषि और पंडित है जो विद्या तथा विनय से युक्त ब्राहमण, गाय, कुत्ते और चंडाल में समदृष्टि रखता है ।
जिसका अन्तः करण समता में अर्थात सब भूतों के अंतर्गत ब्रम्हरूप संभव में निश्छलता पूर्वक स्थित है, उसने जीवित
अवस्था में ही पृथ्वी स्वर्ग आदि समस्त लोकों पर विजय प्राप्त कर ली है चूंकि ब्रम्हा निर्दोष और सम है, इसलिए जो समदर्शी (सबको सामान भाव से देखने वाला) एवं निर्दोष है वे ब्रहम में ही स्थित
कहे जाते है । वेदांती नैतिकता का यही सारांश है - सबके प्रति साम्य ।
यामिमां पुस्पिताम वाचम प्रवद्न्त्यविपश्वितः । वेद वादरताः पार्थ नान्या स्थिति वादिनः ।।
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रद्शाम ।क्रियाविश्लेशबहुलां भोगैश्वर्यगतिम् प्रति ।।
भावार्थ :- हे पृथा पुत्र अल्प ज्ञानी मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों
के प्रति ज्यादा आसक्त रहते हैं जो स्वर्ग की प्राप्ति , उत्तम जन्म
ऐश्वर्य आदि के प्राप्ति के लिए सकाम कर्म फल की ( यज्ञ , या किसी देव
विशेष पूजा से इक्षित वास्तु की प्राप्ति ) विविध क्रियाओं का वर्णन करते
हैं , अपनी इन्द्रिय तृप्ति और ऐश्वर्यमय जीवन की कामना के कारण कहते हैं
इससे बढ़कर कुछ भी नहीं, यही सर्वोपरि है ।
भोगैश्वर्यप्रस्क्ताना तयापह्रीतचेतशाम । व्यावासयात्मिका बुद्धिः सामधो ना विधीयते ।।
जो मनुष्य इन्द्रियों के भोग तथा भौतक ऐश्वर्य के प्रति आसक्त होने से ऐसी
वस्तुओ से मोहग्रस्त हो जाते हैं उन मनुष्यों में भगवान् के प्रति दृढ
संकल्पित बुद्धि नहीं होती है ।
(3) भगवान् बुद्ध -
बुद्ध के उपदेशों का सार इस प्रकार है -
सम्यक ज्ञान
बुद्ध के अनुसार धम्म यह है: (धम्म का अर्थ धर्म लें यहाँ)
जीवन की पवित्रता बनाए रखना
जीवन में पूर्णता प्राप्त करना
निर्वाण प्राप्त करना
तृष्णा का त्याग
यह मानना कि सभी संस्कार अनित्य हैं
कर्म को मानव के नैतिक संस्थान का आधार मानना
बुद्ध के अनुसार क्या अ-धम्म है-- (अधम्म का अधर्म लें यहाँ )
परा-प्रकृति में विश्वास करना
आत्मा में विश्वास करना
कल्पना-आधारित विश्वास मानना
धर्म की पुस्तकों का वाचन मात्र
बुद्ध के अनुसार सद्धम्म क्या है-- 1. जो धम्म प्रज्ञा की वृद्धि करे--
जो धम्म सबके लिए ज्ञान के द्वार खोल दे
जो धम्म यह बताए कि केवल विद्वान होना पर्याप्त नहीं है
जो धम्म यह बताए कि आवश्यकता प्रज्ञा प्राप्त करने की है
2. जो धम्म मैत्री की वृद्धि करे--
जो धम्म यह बताए कि प्रज्ञा भी पर्याप्त नहीं है, इसके साथ शील भी अनिवार्य है
जो धम्म यह बताए कि प्रज्ञा और शील के साथ-साथ करुणा का होना भी अनिवार्य है
जो धम्म यह बताए कि करुणा से भी अधिक मैत्री की आवश्यकता है.
3. जब वह सभी प्रकार के सामाजिक भेदभावों को मिटा दे
जब वह आदमी और आदमी के बीच की सभी दीवारों को गिरा दे
जब वह बताए कि आदमी का मूल्यांकन जन्म से नहीं कर्म से किया जाए
जब वह आदमी-आदमी के बीच समानता के भाव की वृद्धि करे
महावीर जैन ने भी वही कहा -
1. सत्य के बारे में भगवान महावीर स्वामी कहते हैं, हे पुरुष! तू सत्य को
ही सच्चा तत्व समझ। जो बुद्धिमान सत्य की ही आज्ञा में रहता है, वह मृत्यु
को तैरकर पार कर जाता है।
2. इस लोक में जितने भी त्रस जीव (एक, दो,
तीन, चार और पाँच इंद्रिय वाले जीव) आदि की हिंसा मत कर, उनको उनके पथ पर
जाने से न रोको। उनके प्रति अपने मन में दया का भाव रखो। उनकी रक्षा करो।
यही अहिंसा का संदेश भगवान महावीर अपने उपदेशों से हमें देते हैं।
3. परिग्रह पर भगवान महावीर कहते हैं जो आदमी खुद सजीव या निर्जीव चीजों का
संग्रह करता है, दूसरों से ऐसा संग्रह कराता है या दूसरों को ऐसा संग्रह
करने की सम्मति देता है, उसको दुःखों से कभी छुटकारा नहीं मिल सकता। यही
संदेश अपरिग्रह का माध्यम से भगवान महावीर दुनिया को देना चाहते हैं।
4. महावीर स्वामी ब्रह्मचर्य के बारे में अपने बहुत ही अमूल्य उपदेश देते
हैं कि ब्रह्मचर्य उत्तम तपस्या, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम और
विनय की जड़ है। तपस्या में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ तपस्या है। जो पुरुष
स्त्रियों से संबंध नहीं रखते, वे मोक्ष मार्ग की ओर बढ़ते हैं। क्षमा के
बारे में
5. भगवान महावीर कहते हैं- 'मैं सब जीवों से क्षमा चाहता हूँ। जगत
के सभी जीवों के प्रति मेरा मैत्रीभाव है। मेरा किसी से वैर नहीं है। मैं
सच्चे हृदय से धर्म में स्थिर हुआ हूँ। सब जीवों से मैं सारे अपराधों की
क्षमा माँगता हूँ। सब जीवों ने मेरे प्रति जो अपराध किए हैं, उन्हें मैं
क्षमा करता हूँ।' वे यह भी कहते हैं 'मैंने अपने मन में जिन-जिन पाप की
वृत्तियों का संकल्प किया हो, वचन से जो-जो पाप वृत्तियाँ प्रकट की हों और
शरीर से जो-जो पापवृत्तियाँ की हों, मेरी वे सभी पापवृत्तियाँ विफल हों।
मेरे वे सारे पाप मिथ्या हों।'
6. धर्म सबसे उत्तम मंगल है। अहिंसा,
संयम और तप ही धर्म है। महावीरजी कहते हैं जो धर्मात्मा है, जिसके मन में
सदा धर्म रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।
विवेकानंद जी ने धर्म पर व्याख्यान देते हुए कुछ यूँ कहा -
भाईयो! मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ जिसकी
आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया
करते हैं:
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।
(अर्थात जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में
मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न
रुचि के अनुसार विभिन्न
टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल
जाते हैं।)
यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में
से एक है, स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति
उसकी घोषणा करती है:
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।
अर्थात जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त
होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर
आते हैं।
साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर
धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी
को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही
हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त
में डालती रही हैं। यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियाँ न होतीं तो मानव समाज आज
की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया हैं और
मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टा
ध्वनि हुई है वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले
सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की
पारस्पारिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो।
आदि शंकराचार्य जी ने भी वही किया और कहा -
शंकराचार्य एक महान समन्वयवादी थे। उन्हें हिन्दू धर्म को पुनः स्थापित
एवं प्रतिष्ठित करने का श्रेय दिया जाता है। एक तरफ उन्होने अद्वैत चिन्तन
को पुनर्जीवित करके सनातन हिन्दू धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ़ किया, तो
दूसरी तरफ उन्होंने जनसामान्य में प्रचलित मूर्तिपूजा का औचित्य सिद्ध करने
का भी प्रयास किया।
सनातन हिन्दू धर्म को दृढ़ आधार प्रदान करने
के लिये उन्होने विरोधी पन्थ के मत को भी आंशिक तौर पर अंगीकार किया। शंकर
के मायावाद पर महायान बौद्ध चिन्तन का प्रभाव माना जाता है। इसी आधार पर
उन्हें प्रछन्न बुद्ध कहा गया है।
शंकर के अद्वैत का दर्शन का सार-
ब्रह्म और जीव मूलतः और तत्वतः एक हैं। हमे जो भी अंतर नजर आता है उसका कारण अज्ञान है।
जीव की मुक्ति के लिये ज्ञान आवश्यक है। जीव की मुक्ति ब्रह्म में लीन हो जाने में है।
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(1) भगवान् राम की जीवनी देखे तो जीवन सदाचार निष्ठा त्याग से पूर्ण कर्म प्रधान है । जहाँ भगवन उनके सारे दायित्वों कुशलता पूर्वक निभाते है । एक धोबी द्वारा असंस्तुति जताने पर राजधर्म वश अपनी पत्नी सीता का त्याग कर देते हैं ।
(2) भगवान् कृष्ण ने जीवन को कर्म प्रधान बताने के साथ साथ धर्म, जाति आदि की उत्तम व्याख्या भी की है जैसे की बचपन में वो इंद्र की पूजा-हवन करना बंद करते हैं ।
भगवान कृष्ण द्वारा गीता में वेद और पंडितों पर कुछ कहे गए श्लोको को देखें:
विद्याविनयसंपन्ने ब्रह्माने गविहस्तनी । शुनि चैव श्रव्पाके च पंडिता समदर्शिनः ।।
इहैव तैर्जितः सर्गो येषाम समय स्थितम मनः । निर्दोषं ही समं ब्रहम तस्माद ब्रहाणी ते स्थिताः ।।
अर्थात सचमुच वही ऋषि और पंडित है जो विद्या तथा विनय से युक्त ब्राहमण, गाय, कुत्ते और चंडाल में समदृष्टि रखता है ।
जिसका अन्तः करण समता में अर्थात सब भूतों के अंतर्गत ब्रम्हरूप संभव में निश्छलता पूर्वक स्थित है, उसने जीवित
अवस्था में ही पृथ्वी स्वर्ग आदि समस्त लोकों पर विजय प्राप्त कर ली है चूंकि ब्रम्हा निर्दोष और सम है, इसलिए जो समदर्शी (सबको सामान भाव से देखने वाला) एवं निर्दोष है वे ब्रहम में ही स्थित कहे जाते है । वेदांती नैतिकता का यही सारांश है - सबके प्रति साम्य ।
यामिमां पुस्पिताम वाचम प्रवद्न्त्यविपश्वितः । वेद वादरताः पार्थ नान्या स्थिति वादिनः ।।
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रद्शाम ।क्रियाविश्लेशबहुलां भोगैश्वर्यगतिम् प्रति ।।
भावार्थ :- हे पृथा पुत्र अल्प ज्ञानी मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों के प्रति ज्यादा आसक्त रहते हैं जो स्वर्ग की प्राप्ति , उत्तम जन्म ऐश्वर्य आदि के प्राप्ति के लिए सकाम कर्म फल की ( यज्ञ , या किसी देव विशेष पूजा से इक्षित वास्तु की प्राप्ति ) विविध क्रियाओं का वर्णन करते हैं , अपनी इन्द्रिय तृप्ति और ऐश्वर्यमय जीवन की कामना के कारण कहते हैं इससे बढ़कर कुछ भी नहीं, यही सर्वोपरि है ।
भोगैश्वर्यप्रस्क्ताना तयापह्रीतचेतशाम । व्यावासयात्मिका बुद्धिः सामधो ना विधीयते ।।
जो मनुष्य इन्द्रियों के भोग तथा भौतक ऐश्वर्य के प्रति आसक्त होने से ऐसी वस्तुओ से मोहग्रस्त हो जाते हैं उन मनुष्यों में भगवान् के प्रति दृढ संकल्पित बुद्धि नहीं होती है ।
(3) भगवान् बुद्ध -
बुद्ध के उपदेशों का सार इस प्रकार है -
सम्यक ज्ञान
बुद्ध के अनुसार धम्म यह है: (धम्म का अर्थ धर्म लें यहाँ)
जीवन की पवित्रता बनाए रखना
जीवन में पूर्णता प्राप्त करना
निर्वाण प्राप्त करना
तृष्णा का त्याग
यह मानना कि सभी संस्कार अनित्य हैं
कर्म को मानव के नैतिक संस्थान का आधार मानना
बुद्ध के अनुसार क्या अ-धम्म है-- (अधम्म का अधर्म लें यहाँ )
परा-प्रकृति में विश्वास करना
आत्मा में विश्वास करना
कल्पना-आधारित विश्वास मानना
धर्म की पुस्तकों का वाचन मात्र
बुद्ध के अनुसार सद्धम्म क्या है-- 1. जो धम्म प्रज्ञा की वृद्धि करे--
जो धम्म सबके लिए ज्ञान के द्वार खोल दे
जो धम्म यह बताए कि केवल विद्वान होना पर्याप्त नहीं है
जो धम्म यह बताए कि आवश्यकता प्रज्ञा प्राप्त करने की है
2. जो धम्म मैत्री की वृद्धि करे--
जो धम्म यह बताए कि प्रज्ञा भी पर्याप्त नहीं है, इसके साथ शील भी अनिवार्य है
जो धम्म यह बताए कि प्रज्ञा और शील के साथ-साथ करुणा का होना भी अनिवार्य है
जो धम्म यह बताए कि करुणा से भी अधिक मैत्री की आवश्यकता है.
3. जब वह सभी प्रकार के सामाजिक भेदभावों को मिटा दे
जब वह आदमी और आदमी के बीच की सभी दीवारों को गिरा दे
जब वह बताए कि आदमी का मूल्यांकन जन्म से नहीं कर्म से किया जाए
जब वह आदमी-आदमी के बीच समानता के भाव की वृद्धि करे
महावीर जैन ने भी वही कहा -
1. सत्य के बारे में भगवान महावीर स्वामी कहते हैं, हे पुरुष! तू सत्य को ही सच्चा तत्व समझ। जो बुद्धिमान सत्य की ही आज्ञा में रहता है, वह मृत्यु को तैरकर पार कर जाता है।
2. इस लोक में जितने भी त्रस जीव (एक, दो,
तीन, चार और पाँच इंद्रिय वाले जीव) आदि की हिंसा मत कर, उनको उनके पथ पर
जाने से न रोको। उनके प्रति अपने मन में दया का भाव रखो। उनकी रक्षा करो।
यही अहिंसा का संदेश भगवान महावीर अपने उपदेशों से हमें देते हैं।
3. परिग्रह पर भगवान महावीर कहते हैं जो आदमी खुद सजीव या निर्जीव चीजों का
संग्रह करता है, दूसरों से ऐसा संग्रह कराता है या दूसरों को ऐसा संग्रह
करने की सम्मति देता है, उसको दुःखों से कभी छुटकारा नहीं मिल सकता। यही
संदेश अपरिग्रह का माध्यम से भगवान महावीर दुनिया को देना चाहते हैं।
4. महावीर स्वामी ब्रह्मचर्य के बारे में अपने बहुत ही अमूल्य उपदेश देते
हैं कि ब्रह्मचर्य उत्तम तपस्या, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम और
विनय की जड़ है। तपस्या में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ तपस्या है। जो पुरुष
स्त्रियों से संबंध नहीं रखते, वे मोक्ष मार्ग की ओर बढ़ते हैं। क्षमा के
बारे में
5. भगवान महावीर कहते हैं- 'मैं सब जीवों से क्षमा चाहता हूँ। जगत
के सभी जीवों के प्रति मेरा मैत्रीभाव है। मेरा किसी से वैर नहीं है। मैं
सच्चे हृदय से धर्म में स्थिर हुआ हूँ। सब जीवों से मैं सारे अपराधों की
क्षमा माँगता हूँ। सब जीवों ने मेरे प्रति जो अपराध किए हैं, उन्हें मैं
क्षमा करता हूँ।' वे यह भी कहते हैं 'मैंने अपने मन में जिन-जिन पाप की
वृत्तियों का संकल्प किया हो, वचन से जो-जो पाप वृत्तियाँ प्रकट की हों और
शरीर से जो-जो पापवृत्तियाँ की हों, मेरी वे सभी पापवृत्तियाँ विफल हों।
मेरे वे सारे पाप मिथ्या हों।'
6. धर्म सबसे उत्तम मंगल है। अहिंसा,
संयम और तप ही धर्म है। महावीरजी कहते हैं जो धर्मात्मा है, जिसके मन में
सदा धर्म रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।
विवेकानंद जी ने धर्म पर व्याख्यान देते हुए कुछ यूँ कहा -
भाईयो! मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं:
विवेकानंद जी ने धर्म पर व्याख्यान देते हुए कुछ यूँ कहा -
भाईयो! मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं:
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।
(अर्थात जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में
मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न
रुचि के अनुसार विभिन्न
टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल
जाते हैं।)
यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में
से एक है, स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति
उसकी घोषणा करती है:
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।
अर्थात जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।
साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियाँ न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया हैं और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टा ध्वनि हुई है वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो।
आदि शंकराचार्य जी ने भी वही किया और कहा -
शंकराचार्य एक महान समन्वयवादी थे। उन्हें हिन्दू धर्म को पुनः स्थापित एवं प्रतिष्ठित करने का श्रेय दिया जाता है। एक तरफ उन्होने अद्वैत चिन्तन को पुनर्जीवित करके सनातन हिन्दू धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ़ किया, तो दूसरी तरफ उन्होंने जनसामान्य में प्रचलित मूर्तिपूजा का औचित्य सिद्ध करने का भी प्रयास किया।
सनातन हिन्दू धर्म को दृढ़ आधार प्रदान करने के लिये उन्होने विरोधी पन्थ के मत को भी आंशिक तौर पर अंगीकार किया। शंकर के मायावाद पर महायान बौद्ध चिन्तन का प्रभाव माना जाता है। इसी आधार पर उन्हें प्रछन्न बुद्ध कहा गया है।
शंकर के अद्वैत का दर्शन का सार-
ब्रह्म और जीव मूलतः और तत्वतः एक हैं। हमे जो भी अंतर नजर आता है उसका कारण अज्ञान है।
जीव की मुक्ति के लिये ज्ञान आवश्यक है। जीव की मुक्ति ब्रह्म में लीन हो जाने में है।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।
अर्थात जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।
साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियाँ न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया हैं और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टा ध्वनि हुई है वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो।
आदि शंकराचार्य जी ने भी वही किया और कहा -
शंकराचार्य एक महान समन्वयवादी थे। उन्हें हिन्दू धर्म को पुनः स्थापित एवं प्रतिष्ठित करने का श्रेय दिया जाता है। एक तरफ उन्होने अद्वैत चिन्तन को पुनर्जीवित करके सनातन हिन्दू धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ़ किया, तो दूसरी तरफ उन्होंने जनसामान्य में प्रचलित मूर्तिपूजा का औचित्य सिद्ध करने का भी प्रयास किया।
सनातन हिन्दू धर्म को दृढ़ आधार प्रदान करने के लिये उन्होने विरोधी पन्थ के मत को भी आंशिक तौर पर अंगीकार किया। शंकर के मायावाद पर महायान बौद्ध चिन्तन का प्रभाव माना जाता है। इसी आधार पर उन्हें प्रछन्न बुद्ध कहा गया है।
शंकर के अद्वैत का दर्शन का सार-
ब्रह्म और जीव मूलतः और तत्वतः एक हैं। हमे जो भी अंतर नजर आता है उसका कारण अज्ञान है।
जीव की मुक्ति के लिये ज्ञान आवश्यक है। जीव की मुक्ति ब्रह्म में लीन हो जाने में है।
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