एक कहानी :
'मेरी बहू -रानी ...'
ललित अहलूवालिया 'आतिश'
*
दो समर्थ होनहार पुत्रों पर गर्वित महसूस करने पर
भी बेटी की कमी ने सदा ही मुझे एक अजीब खालीपन से उदास किया । प्रति
वर्ष हर त्योहार पर ये बात हमेशा कचोटती रही कि घर में एक बेटी का होना
कितना आवश्यक होता है । इस बार एक अद्भुत तरह से यह बात सामने आयी जब
दिवाली के अवसर पर श्रीमती जी ने घर में कुछ मीठा बनाने
पर हथियार डाल दिए और बाज़ार से गुलाब-जामुन ले आने के लिए कह दिया । खीर
हो, गाजर का हलुआ या सूखे-नारियल की पंजीरी; माँ के ज़माने से ही
उनकी निर्धारित की गयी प्रथा चली आ रही थी कि नियमित रूप से हर त्यौहार
के दिन घर के चूल्हे पर कुछ न कुछ मीठा बनेगा । श्रीमती जी को दोष नहीं
दूंगा, क्योंकि 'जो तन लागे सो तन जाने' उम्र के चलते, बदन के ढलते जब तक हो
सका उन्होंने घसीटा, पर इस बार ..., हाँ, इस बार बेटी की कमी ज़्यादा खली;
ईश्वर ने यदि एक बेटी भी दी होती तो ...
मैने जोश में आकर कढ़ाई में एक कटोरी सूजी, आधी कटोरी
आटा और तीन बड़े चम्मच बेसन डाल कर भूनने के लिए चढ़ा दिया; यह सोचकर कि शायद श्रीमती जी मुझे रसोई में चूल्हे के सामने देखकर पास आकर खड़ी हो
जायेंगी, और फिर धीरे-धीरे मैं कड़छी उन्हें थमा दूंगा। ऐसा मैं पहले भी
करता रहा हूँ । इन नेक श्रीमतियों को बस शुरू करवाना होता है, बाद
में 'हटो तुमसे नहीं होगा' कहकर खुद संभाल लेती हैं पर इस बार ऐसा नहीं हुआ ...
"अजी मैं कहती हूँ अगर खुद ही करना है तो ज़रा देर रुक
जाओ, बहू को आ जाने दो उसके सामने बनाना; साथ में उसको सिखा भी देना।"
बस हो गया काम तमाम । मैं समझ गया कि इस बार फँस गये,
और हलुए की यह जंग फतह होने तक लड़नी ही पड़ेगी। अब मेरे सामने केवल दो
विकल्प थे । पहला, स्टोव बंद कर दूं और बहुरिया के आने की प्रतीक्षा कर
लूं, ताकि सीखने-सिखाने के बहाने उसकी कुछ मदद भी मिल जाए। दूसरा बहू के
आने से पहले जैसे-तैसे हलुआ तैयार कर दूं और फिर उसके सामने लम्बी-लम्बी
डींगें हाँकूं 'देखा, इसे कहते हैं हलुआ, जानती हो इसमें कितना, क्या -क्या ...' वगैरा
वगैरा ...। मुझे दूसरा यानि डींगें मारने वाला विकल्प ज़्यादा अच्छा लगा ।
लेखक हूँ न, प्रशंसा बटोरने का लोभ छुड़ाए नहीं छूटता । दूसरे यह,
कि श्रीमती जी की बात को टालने का मतलब, मैं नाराज़ हूँ । सो यह बात भी
अपनी ही फेवर में जाती है स्टोव जलता रहा, कसार भुनता
रहा; और फिर हल्का सा भूरा हो जाने पर अंदाज़े से चीनी, और दो कड़छी देसी
घी डाल कर पलटे से उसे मलने में व्यस्त हो गया । मुझे
नाराज़ जानकर श्रीमती जी रसोई में आने के बजाय पिछले कमरे में बने मंदिर के आगे दिये-अगरबत्ती व पूजा का सामान सजाने लगी ।
अमरीका (न्यूयॉर्क) में पली-बढ़ी, साथ ही भारतीय संस्कारों से भली प्रकार समृद्ध; नेक हिन्दू परिवार से आई मेरी बहू पशे
से वक़ील है । बड़ों के प्रति आदर-सम्मान व उनके प्यार को भली-भाँति
समझती है। वक़ालत पेशा होने के कारण ज़बान भले ही कैंची की रफ़्तार
(वाक्योच्चारण की स्पीड) से चलती है, लेकिन उसकी हर बात में दृढ़-सत्य व सही-तथ्य
सदैव ऐसे उपलब्ध रहता है कि निरुत्तर रह जाने के सिवा.., खैर ..।
हलवा तैयार हो जाने के लगभग पंद्रह मिनट बाद बहू-रानी की शुभ-एंट्री हुई। आदत के अनुसार, क्लाइंट्स के साथ दिन
भर की बक-बक के पश्चात जुबान को थोड़ा आराम तो चाहिए, सो पर्स को बेफिक्री से टेबल पर पटकती हुई वह सोफे पर लुढ़क गयी ।
पीछे-पीछे गाड़ी पार्क करके चाभी घुमाते हुए साहबज़ादे भी घर में दाखिल
हुए । फुलझड़ियों व मिठाई के डिब्बों से भरा थैला डाइनिंग टेबल पर टिका,
जूते उतारकर सोफे के दूसरे किनारे पर बैठ सुस्ताने लगे । दूसरे
सुपुत्र व उनकी बैटर-हाफ छुट्टियों पर बाहर थे, सो, कुछ देर बाद परिवार को पूरा जुटा देखकर श्रीमती
जी ने अन्दर आते हुए सबको आदेश दिया।.."उठो बहू, चलो सब जल्दी से हाथ-मुँह धोकर लक्ष्मी-पूजा के लिए कमरे में आ जाओ ।
मिठाई का थैला उठाकर मेरी ओर देखे बिना ही श्रीमति जी
वापिस अंदर चली पांच-सात मिनट में बहू-रानी अंगड़ाई लेती हुई उठी और गुसलखाने में प्रवेश कर गयीं। उसके तुरंत बाद
साहबज़ादे भी सूट-नेकटाई ढीली करते हुए कुर्ता-पायजामा बदलने अपने कमरे
में घुस गये । तभी मैंने हलुए को कांच के डोंगे में डाला, फिर बारीक कटे
बादाम व पिस्ते से सजाकर उसे पूजा के कमरे में अन्य सामान के साथ रख दिया । मुझे अधिक सजने-सँवरने की आवश्यकता नहीं थी, सो, मैं वहीं आसन जमाकर बैठ गया और सब की प्रतीक्षा करने लगा । अचानक गुसलखाने का दरवाज़ा खुलने के साथ-साथ शब्दों की बौछार सी घर
में गूंजने लगी । ऐसा लगा जैसे बाहर बच्चों ने पटाखे चलाना आरंभ कर दिया
हो । (मशीन-गन की रफ्तार से अंग्रेज़ी में ...)
"करो तो मुश्किल ना करो तो ...{^^^--$=$)%$ 2 Three months @ <<00**&^^ &*^^>>> बक-बक...बक-बक...बक-बक...पिछले तीन महीने में कितनी बार...<<00**&^^, कुछ भी कर लो, <<00** &^^ 00**&^^..बुरा तो बहु को ही होना है... s... s...that's fine... बक-बक... बक-बक...बक-बक...s ... s ... s ...
पाठकों को इतनी लम्बी लफ़्ज़ों की फहरिस्त जा नने की आवश्यकता नहीं है; सो, संक्षेप में इतना ही कि, बहूरानी शिकायत कर रही थी ..., 'तीन महीने से कितनी बार कहा कि हलुआ बनाना सिखा दो .., इस दिवाली को मैं हलुआ बनाऊँगी पर किसी ने नहीं सुना । और आज, मेरे आने तक किसी से ज़रा सा इंतज़ार
भी नहीं हुआ ' । मेरी समझ में आ गया की घर में घुसते
ही हलुए की खुशबू ने बहुरानी को नाराज़ कर दिया था । बेटे ने कमरे में
घुसते हुए उसके कंधे पर हाथ रख उसे चुप रहने का संकेत दिया ।
फिर भी मुँह ही मुँह में बताशे से फोड़ती हुई वो मेरे पास आकर बैठ गयी और
अपने
तर्क पर जमी रही । तर्क था , कि जब वो ससुराल को घर मानकर काम करना
चाहती है तो उसे पराया सा, मेहमान सा क्यों जतलाया जा रहा है? व्यस्त
होने पर किसी दिन नहीं कर पायेगी तो वही टिपिकल सास के ताने ... ।
उसका तर्क हमेशा की तरह आज भी सही था । मैने
श्रीमती जी की ओर घूर कर देखा . ., और फिर से फंस गया ...
"कहा था ना कुछ देर बहू की प्रतीक्षा कर लो । अब करो उससे जवाब-सवाल ..." उन्होंने बात मुझी पर डाल दी ।
"अच्छा.., तो बाबू जी ने बनाया ? &*^^>>>{ ^^^--$=$))%$ 2 @3<<00**&^^ .. I can't believe it..., <<< *&*^^>>>{ ^^^--$=$)% That's absurd $ 2 @3<<00**&^^..And you did it .."
(संक्षेप में) 'बाबू जी से हलवा बनवा लि या पर मेरी खातिर थोडा सा इंतज़ार नहीं हो सका ' ।
उसकी नाराज़गी मुझ पर भी थी । ये सुनते ही कि हलुआ मैंने बनाया था, वो
ग़ुस्से व हैरानगी से सास को ताना देते हुए मेरे पास से उठी
और पति के दूसरी बाजू में जाकर बैठ गयी । श्रीमती जी ने मंदिर में सेट
किये
गए प्लेयर में आरती का सी. डी. डाला और ऑन कर दिया । सुरेश वाडेकर की मधुर
आवाज़ में गूँजती हुई आरती के साथ कोरस गाते हुए बीच-बीच में कनखियों से
बहुरिया मुझसे अपनी नाराज़गी जतलाती रही । उस वक़्त ऐसा महसूस हुआ जैसे
यदि ये मेरी बेटी होती तो भी ऐसे ही बड़-बड़ करती और यूं ही नाराज़ होती और मैं इस प्रतिक्रिया पर हैरान होने के बजाय फूला
नहीं समाता ।
रिश्तों का यह फ़र्क शायद तब तक नहीं जाता जब
तक उसे अन्तः तक महसूस न कर लो और यह अहसास, एकतरफ़ा
नहीं, दोतरफ़ा हो । रूठी बहू को मनाने के इरादे से मैंने भोग की मिठाई को दर'किनार करते हुए हलुए का डोंगा उठाया और बहू के सामने पेश किया ।
"देखो तो बहू कैसा बना है ? इसमें सूजी और आटे के साथ थोड़ा सा बेसन भी मिलाया है; मज़ेदार दे सी घी का हलुआ; लो मूंह खोलो.."
"बस ...? आटे-सूजी में बेसन भी ? .. &*^^>> , Yakh ..^^^--$=$)..."
"अरे .. रे .. रे ..., रूको तो ज़रा, सुनो तो; बेसन मिलाने से हलवे में एक अलग सा स्वाद आ जाता है..."
"How can that be? बेसन से तो पकौड़े बनते हैं । गुरुद्वारे में आटे का हलुआ कितना स्वाद होता है. %$*^^>.."
"अरे भई, पकौड़ा अपनी जगह है, हलुआ अपनी जगह । इसका मतलब ये तो नहीं कि बेसन से कुछ और नहीं बन सकता ?"
"हाँ, बन सकता है .., शादी में मुँह पर लगाने वाला लेप बन सकता है .., कढ़ी बन सकती है ; पर हलुआ .. &*^^>, ?"
"अरे बेटा खा कर तो देख ..."
"No .. no .., No way. कल को आप हलुए में
अदरक-लहसुन का तड़का लगा लाये, तो क्या मैं खा
लूंगी..? ..*^^>"
बहुरानी को समझाना मुश्किल हो गया था कि बेसन मिलाकर भी एक नए स्वाद से हलुआ बनाया जा सकता है। अब ऐसे
लकीर के फ़क़ीर इंसान को कैसे. ..। मुझे नहीं पता कि वो मुझसे नाराज़गी के कारण हलुआ नहीं खाना चाह रही थी या कि ..? मै थोड़ा निराश सा
हो कर एक-दो क़दम पीछे हट गया। कुछ क्षण
के लिये सन्नाटा छा गया और हम चारों एक दुसरे का मुँह ताकने लगे ।
दिल पर लगी गहरी चोट मेरे चेहरे पर दमकने लगी ।
मैने देखा बहू ने दोनों हाथों में अपना चेहरा छिपा लिया और दो क़दम आगे
बढ़ कर मेरी ओर आ गयी ।
"Just kidding Pop..."
इतना संक्षिप्त सा, केवल तीन लफ़ज़ों वाला
वाक्य पहली बार उसके मुँह से सुना । फिर उसने हौले से हाथ चेहरे से
हटाकर डोंगे में रखे चम्मच से हलुआ अपने मुँह में डाल लिया। तब मैंने उसकी भीगी पलकों में सब कुछ पढ़ लिया ।
शिकायत भरी उसकी आँखें बहुत-कुछ कह रही
थी; 'वादा करो घर में कुछ भी नया करने पर मुझे सम्मिलित रखोगे, मेरे न होने पर मेरा इंतज़ार भी करोगे' ... और भी बहुत-कुछ जो घर की बेटी अपने माता-पिता से अपेक्षा करती है ।
"Wow .., Yummy.., अगली बार मैं बनाकर दिखाऊँगी ऐसा हलुआ, वो भी बिना सीखे"
उसके इस अधिकारपूर्ण व्यवहार ने मुझे मजबूर कर दिया और मैने दोनों हाथ बढ़ा, उसे कंधों से पकड़कर पहले
ज़ोर से झंझोड़ दिया, फिर कसकर छाती से लगा लिया । ऐसा लगा
वर्षों से बेटी के लिए सीने में सुलगती चिंगारी अब जा कर ठंडी हुई ।
"और हाँ, हलुए में अदरक-लहसुन का तड़का तो ज़रूर लगाऊँगी। <<< *&*^^>> चाहे जैसा बने, सबको खाना तो पड़ेगा ही ।
<<< *&*^^>> देखो मैं
आपके लिए क्या लाई पॉप?... <<< *&*^^>>... You like it
?...,,<<< *&* ^^>>
पहन कर दिखाओ...., <<< *&*^^>> .., ---- --- बक-बक ... बक-बक ... बक-बक ... s ... s ... s ...
घर के बाहर जाने कब से बच्चे बम्ब-पटाखे फोड़ रहे थे, पर मेरी बेटी की आवाज़ के सामने कोई पटाखा टिक सका आज तक...?
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