गीत:
प्यार की सम्भावना...
मनोहर चौबे 'आकाश'
*
सामने हूँ किन्तु इसके बाद भी,
आँख से ओझल रहा आभास हूँ.
मैं कहीं छूटी हुई, भूली हुई-
प्यार की सम्भावना का पाश हूँ..
*
मैं किसी माथे लगा चन्दन नहीं,
मैं किसी के हाथ का कंगन नहीं.
मैं किसी घर से जुड़ा आँगन नहीं-
मैं हर एक स्पर्श से ऊपर बहुत-
पर क्षितिज को छोर तक बांधे हुए
रूप छवियों और गतियों से भरा
अपरिमित-सूना अचल आकाश हूँ
*
मैं धरा की छाँह बनकर गला हूँ,
मैं जगत की श्वास बनकर चला हूँ.
मैं अमर आयास बनकर जला हूँ-
मैं किसी आघात से ना डर सका
मृत्यु से भी आज तक ना मर सका.
इस जगत को चिरंतन जो बनाती,
उसी आशा का अमित आभास हूँ...
*
मैं सदा निस्सीम का परिचय रहा,
मैं चिरन्तन ज्ञान का संचय रहा.
मैं जगत अस्तित्व का निश्चय रहा-
चेतना के चित्र की आकृति बना
ज्ञात की, अज्ञात की परिणति बना
सर्जना से क्रूरतम विध्वंस तक
मीत! मैं बिखरा गहन निःश्वास हूँ.
*
स्वप्न के हर सत्य को पहचान लो
ह्रदय की संतृप्तता अनुमान लो.
तब अगर अपना मुझे तुम मान लो.
जो मुझे थोड़ा बहुत भी जानते,
सत्य को केवल वही पहचानते.
सृष्टि की लय के तिमिर में समाहित
सतत जीवन बो रहा अविनाश हूँ.
मैं कहीं छूटी हुई, भूली हुई
प्यार की सम्भावना का पाश हूँ
*****
प्यार की सम्भावना...
मनोहर चौबे 'आकाश'
*
सामने हूँ किन्तु इसके बाद भी,
आँख से ओझल रहा आभास हूँ.
मैं कहीं छूटी हुई, भूली हुई-
प्यार की सम्भावना का पाश हूँ..
*
मैं किसी माथे लगा चन्दन नहीं,
मैं किसी के हाथ का कंगन नहीं.
मैं किसी घर से जुड़ा आँगन नहीं-
मैं हर एक स्पर्श से ऊपर बहुत-
पर क्षितिज को छोर तक बांधे हुए
रूप छवियों और गतियों से भरा
अपरिमित-सूना अचल आकाश हूँ
*
मैं धरा की छाँह बनकर गला हूँ,
मैं जगत की श्वास बनकर चला हूँ.
मैं अमर आयास बनकर जला हूँ-
मैं किसी आघात से ना डर सका
मृत्यु से भी आज तक ना मर सका.
इस जगत को चिरंतन जो बनाती,
उसी आशा का अमित आभास हूँ...
*
मैं सदा निस्सीम का परिचय रहा,
मैं चिरन्तन ज्ञान का संचय रहा.
मैं जगत अस्तित्व का निश्चय रहा-
चेतना के चित्र की आकृति बना
ज्ञात की, अज्ञात की परिणति बना
सर्जना से क्रूरतम विध्वंस तक
मीत! मैं बिखरा गहन निःश्वास हूँ.
*
स्वप्न के हर सत्य को पहचान लो
ह्रदय की संतृप्तता अनुमान लो.
तब अगर अपना मुझे तुम मान लो.
जो मुझे थोड़ा बहुत भी जानते,
सत्य को केवल वही पहचानते.
सृष्टि की लय के तिमिर में समाहित
सतत जीवन बो रहा अविनाश हूँ.
मैं कहीं छूटी हुई, भूली हुई
प्यार की सम्भावना का पाश हूँ
*****
6 टिप्पणियां:
Dr.M.C. Gupta द्वारा yahoogroups.com
सलिल जी,
पहली ११ पंक्तियाँ पढ़ कर आनंद आ गया--
सामने हूँ किन्तु इसके बाद भी,
आँख से ओझल रहा आभास हूँ.
मैं कहीं छूटी हुई, भूली हुई-
प्यार की सम्भावना का पाश हूँ..
*
मैं किसी माथे लगा चन्दन नहीं,
मैं किसी के हाथ का कंगन नहीं.
मैं किसी घर से जुड़ा आँगन नहीं-
मैं हर एक स्पर्श से ऊपर बहुत-
पर क्षितिज को छोर तक बांधे हुए
रूप छवियों और गतियों से भरा
अपरिमित-सूना अचल आकाश हूँ
और,
इन पंक्तियों से
मैं किसी माथे लगा चन्दन नहीं,
मैं किसी के हाथ का कंगन नहीं.
ज़फ़र की याद आ गई --
न किसी की आँख का नूर हूँ
न किसी के दिल का क़रार हूँ.
--ख़लिश
Amitabh Tripathi yahoogroups.com
आदरणीय आचार्य जी,
मेरी ओर से मनोहर चौबे ’आकाश’ जी को अशेष बधाइयाँ!
कोमल, सरस और दार्शनिक भावों को सजोये हुये ये पक्तियाँ मन को मुग्ध कर गयीं।
बहुत दिनों के बाद पढ़ने को मिली ऐसी रचना।
सादर
अमित
Indira Pratap द्वारा yahoogroups.com
kavyadhara
संजीव भाई ,
सुन्दर सुन्दर और सुन्दर भावनाएं | शुभ |
दिद्दा
sanjiv verma salil
kavyadhara
दिद्दा
प्रणाम
यह गीत भाई मनोहर चौबे 'आकाश' का है। आपका शुभाशीष उन तक पहुंचा रहा हूँ।
shar_j_n ekavita
आदरणीय आचार्य सलिल जी,
एक बहुत ही सुन्दर गीत पढवाने के लिए आपका आभार।
अति उत्तम भाव और भाषा . बिम्ब का संयोजन भी अद्भुत!
पर जाने क्यों इसे गाने में मुश्किल हो रही है कहीं कहीं।
सामने हूँ किन्तु इसके बाद भी,
आँख से ओझल रहा आभास हूँ. --- बहुत ही सुन्दर!
मैं कहीं छूटी हुई, भूली हुई-
प्यार की सम्भावना का पाश हूँ..
*
मैं किसी माथे लगा चन्दन नहीं,
मैं किसी के हाथ का कंगन नहीं.
मैं किसी घर से जुड़ा आँगन नहीं- --- ये अद्भुत बिम्ब!
मैं हर एक स्पर्श से ऊपर बहुत--- कितनी सुन्दर परिणिति ऊपर की पंक्तियों की। पाठक पुन:ऊपर की पंक्तियों में स्पर्श देखने को विवश हो जाता है!
पर क्षितिज को छोर तक बांधे हुए
रूप छवियों और गतियों से भरा
अपरिमित-सूना अचल आकाश हूँ
*
मैं धरा की छाँह बनकर गला हूँ,
मैं जगत की श्वास बनकर चला हूँ.
मैं अमर आयास बनकर जला हूँ------ बहुत ही सुन्दर! क्या इन पंक्तियों में हूँ गला, हूँ चला, हूँ जला इत्यादि अधिक ठीक नहीं होगा
मैं किसी आघात से ना डर सका
मृत्यु से भी आज तक ना मर सका.
इस जगत को चिरंतन जो बनाती,
उसी आशा का अमित आभास हूँ...--- वाह अतिसुन्दर!
*
मैं सदा निस्सीम का परिचय रहा,
मैं चिरन्तन ज्ञान का संचय रहा.
मैं जगत अस्तित्व का निश्चय रहा-
चेतना के चित्र की आकृति बना
ज्ञात की, अज्ञात की परिणति बना --- क्या बात है!
सर्जना से क्रूरतम विध्वंस तक
मीत! मैं बिखरा गहन निःश्वास हूँ.--- अहा! अतिसुन्दर!
*
स्वप्न के हर सत्य को पहचान लो
ह्रदय की संतृप्तता अनुमान लो.
तब अगर अपना मुझे तुम मान लो. --- इस पंक्ति के बाद कुछ कहना चाहते हैं क्या कवि ?
जो मुझे थोड़ा बहुत भी जानते,
सत्य को केवल वही पहचानते.
सृष्टि की लय के तिमिर में समाहित
सतत जीवन बो रहा अविनाश हूँ.
मैं कहीं छूटी हुई, भूली हुई
प्यार की सम्भावना का पाश हूँ
*****
बहुत अच्छा लगा ये गीत पढ़ के ! बधाई रचनाकार को!
सादर शार्दुला
sanjiv verma salil
शार्दूला जी गीत पर आपकी टिपण्णी गीतकार तक पहुंचा रहा हूँ। आपको आभार
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