गणतंत्र दिवस पर विशेष :
गीत
गीत
सारा का सारा हिंदी है
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
जो कुछ भी इस देश में है, सारा का सारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
*
मणिपुरी, कथकली, भरतनाट्यम, कुचपुडी, गरबा अपना है.
लेजिम, भंगड़ा, राई, डांडिया हर नूपुर का सपना है.
गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा, चनाब, सोन, चम्बल,
ब्रम्हपुत्र, झेलम, रावी अठखेली करती हैं प्रति पल.
लहर-लहर जयगान गुंजाये, हिंद में है और हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
*
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा सबमें प्रभु एक समान.
प्यार लुटाओ जितना, उतना पाओ औरों से सम्मान.
स्नेह-सलिल में नित्य नहाओ निर्माणों के दीप जला.
बाधा, संकट, संघर्षों को गले लगाओ नित मुस्का.
पवन, वन्हि, जल, थल, नभ पावन, कण-कण तीरथ, हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
*
जै-जैवन्ती, भीमपलासी, मालकौंस, ठुमरी, गांधार.
गजल, गीत, कविता, छंदों से छलक रहा है प्यार अपार.
अरावली, सतपुड़ा , हिमालय, मैकल, विन्ध्य, उत्तुंग शिखर.
ठहरे-ठहरे गाँव हमारे, आपाधापी लिए शहर.
कुटी, महल, अँगना, चौबारा, हर घर-द्वारा हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
*
सरसों, मका, बाजरा, चाँवल, गेहूँ, अरहर, मूँग, चना.
झुका किसी का मस्तक नीचे, 'सलिल' किसी का शीश तना.
कीर्तन, प्रेयर, सबद, प्रार्थना, बाईबिल, गीता, ग्रंथ, कुरान.
गौतम, गाँधी, नानक, अकबर, महावीर, शिव, राम महान.
रास कृष्ण का, तांडव शिव का, लास्य-हास्य सब हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
*
ट्राम्बे, भाखरा, भेल, भिलाई, हरिकोटा, पोकरण रतन.
आर्यभट्ट, एपल, रोहिणी के पीछे अगणित छिपे जतन.
शिवा, प्रताप, सुभाष, भगत, रैदास, कबीरा, मीरा, सूर.
तुलसी, रामकृष्ण, रामानुज, माँ, अरविन्द खुदाई नूर.
विवेक, रवींद्र, विनोबा, ओशो, जयप्रकाश भी हिंदी है.
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
****************************************
हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....
****************************************
जनगण के मन में: -संजीव सलिल
जनतंत्र की सोच को समर्पित कविता
-संजीव सलिल
*
जनगण के मन में जल पाया,
नहीं आस का दीपक.
कैसे हम स्वाधीन देश जब
लगता हमको क्षेपक?
हम में से
हर एक मानता,
निज हित सबसे पहले।
नहीं देश-हित कभी साधता
कोई कुछ भी कह ले।
कुछ घंटों 'मेरे देश की धरती'
फिर हो 'छैंया-छैंया'।
वन काटे, पर्वत खोदे,
भारत माँ घायल भैया।
किसको चिंता? यहाँ देश की?
सबको है निज हित की।
सत्ता पा- निज मूर्ति लगाकर,
भारत की दुर्गति की।
श्रद्धा, आस्था, निष्ठा बेचो
स्वार्थ साध लो अपना।
जाये भाड़ में किसको चिंता
नेताजी का सपना।
कौन हुआ आजाद?
भगत है कौन देश का बोलो?
झंडा फहराने के पहले
निज मन जरा टटोलो।
तंत्र न जन का
तो कैसा जनतंत्र तनिक समझाओ?
प्रजा उपेक्षित प्रजातंत्र में
क्यों कारण बतलाओ?
लोक तंत्र में लोक मौन क्यों?
नेता क्यों वाचाल?
गण की चिंता तंत्र न करता
जनमत है लाचार।
गए विदेशी, आये स्वदेशी,
शासक मद में चूर।
सिर्फ मुनाफाखोरी करता
व्यापारी भरपूर।
न्याय बेचते जज-वकील मिल
शोषित- अब भी शोषित।
दुर्योधनी प्रशासन में हो
सत्य किस तरह पोषित?
आज विचारें
कैसे देश हमारा साध्य बनेगा?
स्वार्थ नहीं सर्वार्थ
'सलिल' क्या हरदम आराध्य रहेगा?
****
-संजीव सलिल
*
जनगण के मन में जल पाया,
नहीं आस का दीपक.
कैसे हम स्वाधीन देश जब
लगता हमको क्षेपक?
हम में से
हर एक मानता,
निज हित सबसे पहले।
नहीं देश-हित कभी साधता
कोई कुछ भी कह ले।
कुछ घंटों 'मेरे देश की धरती'
फिर हो 'छैंया-छैंया'।
वन काटे, पर्वत खोदे,
भारत माँ घायल भैया।
किसको चिंता? यहाँ देश की?
सबको है निज हित की।
सत्ता पा- निज मूर्ति लगाकर,
भारत की दुर्गति की।
श्रद्धा, आस्था, निष्ठा बेचो
स्वार्थ साध लो अपना।
जाये भाड़ में किसको चिंता
नेताजी का सपना।
कौन हुआ आजाद?
भगत है कौन देश का बोलो?
झंडा फहराने के पहले
निज मन जरा टटोलो।
तंत्र न जन का
तो कैसा जनतंत्र तनिक समझाओ?
प्रजा उपेक्षित प्रजातंत्र में
क्यों कारण बतलाओ?
लोक तंत्र में लोक मौन क्यों?
नेता क्यों वाचाल?
गण की चिंता तंत्र न करता
जनमत है लाचार।
गए विदेशी, आये स्वदेशी,
शासक मद में चूर।
सिर्फ मुनाफाखोरी करता
व्यापारी भरपूर।
न्याय बेचते जज-वकील मिल
शोषित- अब भी शोषित।
दुर्योधनी प्रशासन में हो
सत्य किस तरह पोषित?
आज विचारें
कैसे देश हमारा साध्य बनेगा?
स्वार्थ नहीं सर्वार्थ
'सलिल' क्या हरदम आराध्य रहेगा?
****
लघु कथा: शब्द और अर्थ --संजीव वर्मा "सलिल "
शब्द कोशकार ने अपना कार्य समाप्त किया...कमर सीधी कर लूँ , सोचते हुए लेटा कि काम की मेज पर कुछ खटपट सुनायी दी... मन मसोसते हुए उठा और देखा कि यथास्थान रखे शब्दों के समूह में से निकल कर कुछ शब्द बाहर आ गए थे। चश्मा लगाकर पढ़ा , वे शब्द 'लोकतंत्र', प्रजातंत्र', 'गणतंत्र' और 'जनतंत्र' थे।
शब्द कोशकार चौका - ' अरे! अभी कुछ देर पहले ही तो मैंने इन्हें यथास्थान रखा रखा था, फ़िर ये बाहर कैसे...?'
'चौंको मत...तुमने हमारे जो अर्थ लिखे हैं वे अब हमें अनर्थ लगते हैं। दुनिया का सबसे बड़ा लोक तंत्र लोभ तंत्र में बदल गया है। प्रजा तंत्र में तंत्र के लिए प्रजा की कोई अहमियत ही नहीं है। गण विहीन गण तंत्र का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है। जन गण मन गाकर जनतंत्र की दुहाई देने वाला देश सारे संसाधनों को तंत्र के सुख के लिए जुटा रहा है। -शब्दों ने एक के बाद एक मुखर होते हुए कहा ।
****************************
संजीव 'सलिल'
शहनाई बज रही ...
*
शहनाई बज रही
शहर में मुखिया आये...
*
जन-गण को कर दूर
निकट नेता-अधिकारी.
इन्हें बनायें सूर
छिपाकर कमियाँ सारी.
सबकी कोशिश
करे मजूरी
भूखी सुखिया
फिर भी गाये.
शहनाई बज रही
शहर में मुखिया आये...
*
है सच का आभास
कर रहे वादे झूठे.
करते यही प्रयास
वोट जन गण से लूटें.
लोकतंत्र की
लख मजबूरी,
लोभतंत्र
दुखिया पछताये.
शहनाई बज रही
शहर में
मुखिया आये...
*
आये-गये अखबार रँगे,
रेला-रैली में.
शामिल थे बटमार
कर्म-चादर मैली में.
अंधे देखें,
बहरे सुन,
गूंगे बोलें,
हम चुप रह जाएँ.
शहनाई बज रही
शहर में
मुखिया आये...
*
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें