इतिहास: गोरखपुर जनपद
नीरज श्रीवास्तव
*
गुप्त काल के उपरांत यह क्षेत्र मौखरियों एवं हर्ष के आधिपत्य में रहा।
हर्ष के शासनकाल में चीनी पर्यटक ह्वेनसांग (630-644 ई.) ने विप्पलिवन और रामग्राम
की यात्राएँ की थीं । हर्ष के उपरांत इस जनपद के कुछ भाग पर भरों का
अधिकार हो गया। गोरखपुर के धुरियापुर नामक स्थान से प्राप्त कहल अभिलेख से
ज्ञात होता है कि 9 वीं शताब्दी ई. में महराजगंज जनपद का दक्षिणी भाग
गुर्जर प्रतिहार नरेशों के श्रावस्ती
मुक्ति में सम्मिलित था, जहाँ उनके सामान्त कलचुरियों की सत्ता स्थापित की।
जनश्रुतियों के अनुसार अपने अतुल ऐश्वर्य व अकूत धन-सम्पदा के लिए
विख्यात थारू राजा मानसेन या मदन सिंह 900-950 गोरखपुर और उसके आस-पास के
क्षेत्रों पर शासन करता था। संभव है कि उसका राज्य महराजगंज जनपद की
दक्षिणी सीमाओं को भी आवेष्ठित किये रहा है। गुर्जर प्रतिहारों के पतन के
उपरांत त्रिपुरी के कलचुरि-वंश के शासक लक्ष्मण कर्ण (1041-10720) ने इस
जनपद के अधिकांश भूभाग को अपने अधीन कर लिया था। किंतु ऐसा प्रतीत होता है
कि उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी यशकर्ण ने 1073-1120 इस क्षेत्र पर अधिकार जमा
लिया। अभिलेखिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि गोविन्द चन्द्र गाहड़वाल
1114-1154 ई. का राज्य विकार तक था। उसके राज्य में महराजगंज जनपद
का भी अधिकांश भाग निश्चिततः सम्मिलित रहा होगा। गोरखपुर जनपद के मगदिहा
(गगहा) एवं धुरियापार से प्राप्त गोविन्द चन्द्र के दो अभिलेख उपर्युक्त
तथ्य की पुष्टि करते है। गोविन्दचन्द के पौत्र जयचन्द्र (1170-1194 ई.) की
1194 में मुहम्मद गोरी द्वारा पराजय के साथ ही इस क्षेत्र से गाहड़वाल
सत्ता का लोप हो गया और स्थानीय शक्तियों ने शासन-सूत्र अपने हाथों में ले
लिया।
12 वीं शताब्दी ई.के अंतिम चरण में जब मुहम्मद गौरी एवं उसके उत्तराधिकारी कुतुबुद्दीन ऐबक उत्तरी भारत में अपनी नवस्थापित सत्ता को सुदृढ़ करने में लगे हुए थे इस क्षेत्र पर स्थानीय राजपूतों का राज्य स्थापित था। चन्द्रसेन श्रीनेत के ज्येष्ठ पुत्र ने सतासी के राजा के रूप में एक बड़े भूभाग पर अधिकार जमाया, जिसमें महराजगंज जनपद का भी कुछ भाग सम्मिलित रहा होगा। इसके उपरांत फिरोजशाह तुगलक के समय तक इस क्षेत्र पर स्थानीय राजपूत राजाओं का प्रभुत्व बना रहा। उदयसिंह के नेतृत्व में स्थानीय राजपूत राजाओं ने गोरखपुर के समीप शाही सेना को उपहार, भेंट एवं सहायता प्रदान की थी। 1394 ई. में महमूद शाह तुगलक दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ। उसने मलिक सरवर ख्वाजाजहां को जौनपुर का सूबेदार नियुक्त किया जिसने सर्वप्रथम इस क्षेत्र को अपने अधीन कर कर वसूल किया। इसके कुछ ही समय बाद मलिक सरवर ने दिल्ली सल्तनत के विरूद्ध अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए जौनपुर में शर्की- राजवंश की स्थापना की तथा गोरखपुर के साथ-साथ इस जनपद के अधिकांश भूभाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया।
1526 ई. में पनीपत के युद्ध में बाबर द्वारा इब्राहिम लोदी के पराजय के साथ ही भारत में मुगल राजवंश की सत्ता स्थापित हुई किन्तु न तो बाबर और न ही उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी हुमायूं इस क्षेत्र पर अधिकार करने का कोई प्रयास कर सके। 1556 ई. में सम्राट अकबर ने इस ओर ध्यान दिया। उसने खान जमान (अली कुली खां) के विद्रोहों का दमन करते हुए इस क्षेत्र पर मुगलों के प्रभुत्व को स्थापित करने का प्रयास किया। 1567 ई. में खान जमान की मृत्यु के उपरांत अकबर ने जौनपुर की जागीर मुनीम खां को सौंप दी। मुनीम खां के समय में इस क्षेत्र में षांति और सुव्यवस्था स्थापित हुई। अकबर ने अपने साम्राज्य का पुनर्गठन करते हुए गोरखपुर क्षेत्र को अवध प्रांत की पांच सरकारों में सम्मिलित किया। गोरखपुर सरकार के अन्तर्गत चौबीस महल सम्मिलित थे, जिनमें वर्तमान महराजगंज जनपद में स्थित विनायकपुर और तिलपुर के महल भी थे। यहाँ सूरजवंशी राजपूतों का अधिकार था। इन महलों के मुख्यालयों पर ईटों से निर्मित किलों का निर्माण सीमा की सुरक्षा हेतु किया गया था। विनायकपुर महल शाही सेना हेतु 400 घोड़े और 3000 पदाति तथा तिलपुर महल 100 अश्व एवं 2000 पैदल भेजता था। तिलपुर महल के अन्तर्गत 9006 बीघा जमीन पर कृषि कार्य होताथा। इसकी मालगुजारी चार लाख दाम निर्धारित की गयी थी। विनायक महल में कृषि योग्य भूमि 13858 बीघा थी और उसकी मालगुजारी 6 लाख दाम थी। तिलपुर, जिसकी वर्तमान समता निचलौल के साथ स्थापित की जाती है, में स्थित किले का उल्लेख अबुल-फजल की अमरकृति आइन-ए-अकबरी में भी किया गया है।
अकबर की मृत्यु के बाद 1610 ई. में जहांगीर ने इस क्षेत्र की जागीर अफजल खां को सौंप दी। तत्पश्चात् यह क्षेत्र मुगलों के प्रभुत्व में बना रहा। अठारहवीं शताब्दी ई. के प्रारम्भ में यह क्षेत्र अवध के सूबे के गोरखपुर सरकार का अंग था। इस समय से लेकर अवध में नवाबी शासन की स्थापना के समय तक इस क्षेत्र पर वास्तविक प्रभुत्व यहाँ के राजपूत राजाओं का था, जिनका स्पष्ट उल्लेख वीन ने अपनी बन्दोबस्त रिपोर्ट में किया है। 9 सितम्बर 1722 ई. को सआदत खां को अवध का नवाब और गोरखपुर का फौजदार बनाया गया। सआदत खां ने गोरखपुर क्षेत्र में स्थित स्थानीय राजाओं की शक्ति को कुलचने एवं प्रारम्भ में उसने वर्तमान महराजगंज क्षेत्र में आतंक मचाने वाले बुटकल घराने के तिलकसेन के विरूद्व अभियान छेड़ा, किन्तु इस कार्य में उसे पूरी सफलता नहीं मिल सकी।
19 मार्च 1739 को सआदत खां की मृत्यु हो गयी तथा सफदरजंग अवध का नवाब बना। उसने एक सेना तत्कालीन गोरखपुर के उत्तरी भाग (वर्तमान महराजगंज) में भेजा, जिसने बुटवल के तिलकसेन के पुत्र को पराजित करके उससे प्रचुर धनराशि वसूल की। इसके बाद दोनों पक्षों में छिटपुट संघर्ष होते रहे और अंततः 20 वर्षों के लम्बे संघर्ष के उपरांत बुटकल के राजा ने आत्मसमर्पण कर दिया।
5 अक्टूबर 1754 को सफदरजंग की मृत्यु हुई और उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी शुजाऊद्दौला अवध का नवाब बना। उसके शासनकाल में इस क्षेत्र में सुख-समृद्धि का वातावरण उत्पन्न हुआ। डा. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने उसके शासनकाल में इस क्षेत्र में प्रभूत मात्रा में उत्पन्न होनेवाले स्निग्ध और सुगंधित चावल का विशेष उल्लेख किया है। उस समय अस्सी प्रतिशत आबादी कृषि कार्य कर रही थी। 26 जनवरी 1775 को शुजाऊद्दौला की मृत्यु के बाद उसका पुत्र आसफुद्दौला गद्दी पर बैठा। उसके शासन काल में स्थानीय शासक, बनजारों की बढ़ती हुई शक्ति को कुचलने में असमर्थ रहे। विभिन्न संधियों के द्वारा कंपनी की सेना के प्रयोग का व्यय अवध के ऊपर निंरतर बढ़ रहा था। फलतः 10 नवम्बर 1801 को नवाब ने कंपनी के कर्ज से मुक्ति हेतु कतिपय अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ गोरखपुर क्षेत्र भी कंपनी को दे दिया। इस संधि के फलस्वरूप वर्तमान महराजगंज का क्षेत्र कंपनी के अधिकार में चला गया। इस संपूर्ण क्षेत्र का शासन रूटलेज नामक कलेक्टर को सौंपा गया। जिसने सर्वत्र अव्यवस्था, अशांति एवं विद्रोह का दमन किया।
गोरखपुर के सत्तान्तरण के पूर्व ही तत्कालीन अव्यवस्था का लाभ उठाते हुए गोरखों ने वर्तमान महराजगंज एवं सिद्धार्थनगर के सीमावर्ती क्षेत्रों में अपनी स्थिति सुदृढ़ करना प्रारम्भ कर दिया था। विनायकपुर एवं तिलपुर परगने के अन्तर्गत उनका अतिक्रमण तीव्रगति से हुआ जो वस्तुतः बुटवल के कलेक्टर के साथ इस जनपद में स्थित अपनी अवषिष्ट जमीदारी की सुरक्षा हेतु बत्तीस हजार रूपये सालाना पर समझौता किया था। बाद में अंग्रेजों ने उसे बकाया धन न दे पाने के कारण बन्दी बना दिया। 1805 ई. में गोरखों बुटवल पर अधिकार कर लिया और अंग्रेजों की कैद से छूटने के उपरांत बुटवल नरेश की काठमाण्डू में हत्या कर दी। 1806 ई. तक इस क्षेत्र अधिकांश भू-भाग गोरखों के कब्जे में जा चुका था। यहाँ तक कि 1810-11 ई. में उन्होंने गोरखपुर में प्रवेश करते हुए पाली के पास स्थित कतिपय गाँवों को अधिकृत कर लिया। गोरखों से इस सम्पूर्ण क्षेत्र को मुक्त कराने के लिए मेजर जे.एस.वुड के नेतृत्व में अंग्रेज सेना ने बुटवल पर आक्रमण किया।
वुड संभवतः निचलौल होते हुए 3 जनवरी 1815 को बुटवल पहुँचा। बुटवल ने वजीरसिंह के नेतृत्व में गोरखों ने युद्ध की तैयारी कर ली थी, किन्तु अंग्रेजी सेना के पहुँचने पर गोरखे पहाड़ों में भाग गये। वुड उन्हें परास्त करने में सफल नहीं हो सका। इसी बीच गोरखों ने तिलपुर पर आक्रमण कर दिया और वुड को उनका सामना करने के लिए तिलपुर लौटना पड़ा। उसकी ढुलमुल नीति के कारण गोरखे इस संपूर्ण क्षेत्र में धावा मारते रहे और नागरिकों का जीवन कण्टमय बनाते रहे। यहाँ तक कि वुड ने 17 अप्रैल 1815 को बुटवल पर कई घंटे तक गोलाबारी की किन्तु उसका अपेक्षित परिणाम नहीं निकला। तत्पश्चात कर्नल निकोलस के नेतृत्व में गोरखों से तराई क्षेत्र को मुक्त कराने का द्वितीय अभियान छेड़ा गया। कर्नल निकोलस ने गोरखों के ऊपर जो दबाव बनाया, उससे 28 नवम्बर 1815 को अंग्रेजों एवं गोरखों के बीच प्रसिद्ध सगौली की संधि हुई किन्तु बाद में गोरखे संधि की शर्तें स्वीकारने में आनाकानी करने लगे। फलतः आक्टर लोनी के द्वारा निर्णायक रूप से पराजित किये जाने के बाद 4 मार्च 1816 को नेपाल-नरेश ने इस संधि को मान्यता प्रदान कर दी। इस संधि के फलस्वरूप नेपाल ने तराई क्षेत्र पर अपना अधिकार छोड़ दिया और यह क्षेत्र कंपनी के शासन के अन्तर्गत सम्मिलित कर लिया गया।
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ने इस क्षेत्र में नवीन प्राण-शक्ति का संचार किया। जुलाई 1857 में इस क्षेत्र के जमींदारों के ब्रिटिश राज्य के अंत की घोषणा की। निचलौल के राजा रण्डुलसेन ने अंग्रेजों के विरूद्व आंदोलनकारियों का नेतृत्व किया। 26 जुलाई को सगौली में विद्रोह होने पर वनियार्ड (गोरखपुर के तत्कालीन जज) ने कर्नल राउटन को शीघ्र पहुँचने के लिए पत्र लिखा, जो काठमाण्डु से निचलौल होते हुए तीन हजार गोरखा सैनिकों के साथ गोरखपुर की ओर बढ़ रहा था, गोरखों के प्रयास के बावजूद वनियार्ड आंदोलन को पूरी तरह दबाने में असमर्थ रहा। फलतः, उसने गोरखपुर जनपद का प्रशासन सतासी और गोपालपुर के राजा को सौंप दिया। आंदोलनकर्ता बहुत दिन तक इस क्षेत्र को मुक्त नहीं रख सके। अंग्रेजों ने पुनः इस क्षेत्र को अपने पूर्ण नियंत्रण में ले लिया। आंदोलनकारियों का नेतृत्व करने के कारण निचलौल के राजा रण्डुलसेन को न केवल पूर्व प्रदत्त राजा की उपाधि से वंचित कर दिया गया अपितु 1845 ई. में उसे दी गई पेंशन भी छीन ली गई।
1857 ई. के प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन के उपरांत नवम्बर 1858 ई में रानी विक्टोरिया के घोषणा पत्र द्वारा यह क्षेत्र सीधे ब्रिटिश सत्ता के अधीन घोषित किया गया पर सामान्य जनता की कठिनाइयाँ नहीं घटीं। भूमि संबंधी विभिन्न बन्दोबस्तों के बावजूद कृषकों को उनकी भूमि पर अधिकार नहीं मिला। ज़मींदार मजदूरों एवं कृषकों के श्रम का शोषण कर संपन्न होते रहे। किसान व जमीदार के बीच अंतराल बढ़ता गया।
1920 ई. में गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन प्रारम्भ किया गया जिसका प्रभाव इस क्षेत्र पर भी पड़ा। 8 फरवरी 1921 को गांधी जी गोरखपुर आये। लोगों में ब्रिटिश राज के विरूद्व संघर्ष छेड़ने का उत्साह हुआ। शराब की दूकानों पर धरना दिया गया, ताड़ के वृक्षों को काट डाला गया। विदेशी कपड़ों का बहिष्कार कर उनकी होली जलायी गयी। खादी के कपड़े का प्रचार-प्रसार हुआ। 2 अक्टूबर 1922 को इस संपूर्ण क्षेत्र में गांधी जी का जन्म दिन अंन्यतः उत्साह के साथ मनाया गया।
1923 ई. में पं. जवाहर लाल नेहरू ने इस क्षेत्र का दौरा किया। फलतः कांग्रेस कमेटियों की स्थापना हुई। अक्टूबर 1929 में पुनः गांधी जी ने इस क्षेत्र का व्यापक दौरा किया। 4 अक्टूबर 1929 को घुघली रेलवे स्टेशन पर दस हजार देशभक्तों ने उनका भव्य स्वागत किया। 5 अक्टूबर 1929 को गांधी जी ने महराजगंज में एक विशेष जनसभा को संबोधित किया। महात्मा गांधी की इस यात्रा ने इस क्षेत्र के देशभक्तों में नवीन स्फूर्ति का संचार किया, जिसका प्रभाव 1930-34 तक के सविनय अवज्ञा आंदोलनों में देखने को मिला।
1930 ई. के नमक सत्याग्रह में भी इस क्षेत्र ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नमक कानून के विरूद्व सत्याग्रह, हड़ताल सभा एवं जुलूस का आयोजन किया गया। 1931 ई. में जमीदारों के अत्याचार के विरूद्व जनता ने किसान आंदोलन में भाग लिया। उसी समय श्री शिब्बनलाल सक्सेना ने म. गाँधी के आह्वान पर सेण्ट एण्ड्रूज कालेज के प्रवक्ता पद का परित्याग कर पूर्वांचल के किसान-मजदूरों का नेतृत्व संभाला। 1931 में सक्सेना जी ने ईख-संघ की स्थापना की जो गन्ना उत्पादकों एवं मजदूरों के हितों की सुरक्षा हेतु संघर्ष के लिए उद्यत हुई। मई 1937 में पं. गोविन्द वल्लभ पन्त यहां आये ओर एक जनसभा को सम्बोधित किया। फरवरी 1940 में पुनः पंडित नेहरू पधारे और गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक विद्यालय की आधारशिला रखी।
1942 ई. भारतीय इतिहास में एक युगांतकारी परिवर्तन की चेतना के लिए ख्यात है। इस चेतना का संचार इस क्षेत्र में भी हुआ। श्री शिब्बन लाल सक्सेना के नेतृत्व में लोग कुछ भी कर गुजरने को तैयार थे। अंग्रेजों भारत छोड़ो एवं ‘करो या मरो' का नारा जन-जन की वाणी में समाहित हो रहा था। अगस्त क्रांति के दौरान गुरूधोवा ग्राम में शिब्बन लाल सक्सेना को उनकी गिरफ्तारी के समय गोली मारी गई किंतु वह गोली उनके कंधे के पास से निकलते हुए, उस जमींदार को लगी जिसने सक्सेना जी को बंदी बनाया था। गोरखपुर के तत्कालीन, जिलाधीश श्री ई.वी.डी. मास के आदेश पर 27 अगस्त 1942 को विशुनपुर गबडुआ गाँव में निहत्थे एवं शांतिप्रिय नागरिकों पर गोली चलाई गई, सुखराज कुर्मी एंव झिनकू कुर्मी दो सत्याग्रही शहीद हुए। पुलिस की गोली से आहत काशीनाथ कुर्मी की 1943 में जेल में ही मृत्यु हो गयी। सक्सेना जी को ब्रिटिश राज के विरूद्व षडयंत्र रचने के आरोप में 26 महीने कठोर कारावास एवं 26 महीने फाँसी की कोठरी में रखा गया।
12 वीं शताब्दी ई.के अंतिम चरण में जब मुहम्मद गौरी एवं उसके उत्तराधिकारी कुतुबुद्दीन ऐबक उत्तरी भारत में अपनी नवस्थापित सत्ता को सुदृढ़ करने में लगे हुए थे इस क्षेत्र पर स्थानीय राजपूतों का राज्य स्थापित था। चन्द्रसेन श्रीनेत के ज्येष्ठ पुत्र ने सतासी के राजा के रूप में एक बड़े भूभाग पर अधिकार जमाया, जिसमें महराजगंज जनपद का भी कुछ भाग सम्मिलित रहा होगा। इसके उपरांत फिरोजशाह तुगलक के समय तक इस क्षेत्र पर स्थानीय राजपूत राजाओं का प्रभुत्व बना रहा। उदयसिंह के नेतृत्व में स्थानीय राजपूत राजाओं ने गोरखपुर के समीप शाही सेना को उपहार, भेंट एवं सहायता प्रदान की थी। 1394 ई. में महमूद शाह तुगलक दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ। उसने मलिक सरवर ख्वाजाजहां को जौनपुर का सूबेदार नियुक्त किया जिसने सर्वप्रथम इस क्षेत्र को अपने अधीन कर कर वसूल किया। इसके कुछ ही समय बाद मलिक सरवर ने दिल्ली सल्तनत के विरूद्ध अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए जौनपुर में शर्की- राजवंश की स्थापना की तथा गोरखपुर के साथ-साथ इस जनपद के अधिकांश भूभाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया।
1526 ई. में पनीपत के युद्ध में बाबर द्वारा इब्राहिम लोदी के पराजय के साथ ही भारत में मुगल राजवंश की सत्ता स्थापित हुई किन्तु न तो बाबर और न ही उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी हुमायूं इस क्षेत्र पर अधिकार करने का कोई प्रयास कर सके। 1556 ई. में सम्राट अकबर ने इस ओर ध्यान दिया। उसने खान जमान (अली कुली खां) के विद्रोहों का दमन करते हुए इस क्षेत्र पर मुगलों के प्रभुत्व को स्थापित करने का प्रयास किया। 1567 ई. में खान जमान की मृत्यु के उपरांत अकबर ने जौनपुर की जागीर मुनीम खां को सौंप दी। मुनीम खां के समय में इस क्षेत्र में षांति और सुव्यवस्था स्थापित हुई। अकबर ने अपने साम्राज्य का पुनर्गठन करते हुए गोरखपुर क्षेत्र को अवध प्रांत की पांच सरकारों में सम्मिलित किया। गोरखपुर सरकार के अन्तर्गत चौबीस महल सम्मिलित थे, जिनमें वर्तमान महराजगंज जनपद में स्थित विनायकपुर और तिलपुर के महल भी थे। यहाँ सूरजवंशी राजपूतों का अधिकार था। इन महलों के मुख्यालयों पर ईटों से निर्मित किलों का निर्माण सीमा की सुरक्षा हेतु किया गया था। विनायकपुर महल शाही सेना हेतु 400 घोड़े और 3000 पदाति तथा तिलपुर महल 100 अश्व एवं 2000 पैदल भेजता था। तिलपुर महल के अन्तर्गत 9006 बीघा जमीन पर कृषि कार्य होताथा। इसकी मालगुजारी चार लाख दाम निर्धारित की गयी थी। विनायक महल में कृषि योग्य भूमि 13858 बीघा थी और उसकी मालगुजारी 6 लाख दाम थी। तिलपुर, जिसकी वर्तमान समता निचलौल के साथ स्थापित की जाती है, में स्थित किले का उल्लेख अबुल-फजल की अमरकृति आइन-ए-अकबरी में भी किया गया है।
अकबर की मृत्यु के बाद 1610 ई. में जहांगीर ने इस क्षेत्र की जागीर अफजल खां को सौंप दी। तत्पश्चात् यह क्षेत्र मुगलों के प्रभुत्व में बना रहा। अठारहवीं शताब्दी ई. के प्रारम्भ में यह क्षेत्र अवध के सूबे के गोरखपुर सरकार का अंग था। इस समय से लेकर अवध में नवाबी शासन की स्थापना के समय तक इस क्षेत्र पर वास्तविक प्रभुत्व यहाँ के राजपूत राजाओं का था, जिनका स्पष्ट उल्लेख वीन ने अपनी बन्दोबस्त रिपोर्ट में किया है। 9 सितम्बर 1722 ई. को सआदत खां को अवध का नवाब और गोरखपुर का फौजदार बनाया गया। सआदत खां ने गोरखपुर क्षेत्र में स्थित स्थानीय राजाओं की शक्ति को कुलचने एवं प्रारम्भ में उसने वर्तमान महराजगंज क्षेत्र में आतंक मचाने वाले बुटकल घराने के तिलकसेन के विरूद्व अभियान छेड़ा, किन्तु इस कार्य में उसे पूरी सफलता नहीं मिल सकी।
19 मार्च 1739 को सआदत खां की मृत्यु हो गयी तथा सफदरजंग अवध का नवाब बना। उसने एक सेना तत्कालीन गोरखपुर के उत्तरी भाग (वर्तमान महराजगंज) में भेजा, जिसने बुटवल के तिलकसेन के पुत्र को पराजित करके उससे प्रचुर धनराशि वसूल की। इसके बाद दोनों पक्षों में छिटपुट संघर्ष होते रहे और अंततः 20 वर्षों के लम्बे संघर्ष के उपरांत बुटकल के राजा ने आत्मसमर्पण कर दिया।
5 अक्टूबर 1754 को सफदरजंग की मृत्यु हुई और उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी शुजाऊद्दौला अवध का नवाब बना। उसके शासनकाल में इस क्षेत्र में सुख-समृद्धि का वातावरण उत्पन्न हुआ। डा. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने उसके शासनकाल में इस क्षेत्र में प्रभूत मात्रा में उत्पन्न होनेवाले स्निग्ध और सुगंधित चावल का विशेष उल्लेख किया है। उस समय अस्सी प्रतिशत आबादी कृषि कार्य कर रही थी। 26 जनवरी 1775 को शुजाऊद्दौला की मृत्यु के बाद उसका पुत्र आसफुद्दौला गद्दी पर बैठा। उसके शासन काल में स्थानीय शासक, बनजारों की बढ़ती हुई शक्ति को कुचलने में असमर्थ रहे। विभिन्न संधियों के द्वारा कंपनी की सेना के प्रयोग का व्यय अवध के ऊपर निंरतर बढ़ रहा था। फलतः 10 नवम्बर 1801 को नवाब ने कंपनी के कर्ज से मुक्ति हेतु कतिपय अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ गोरखपुर क्षेत्र भी कंपनी को दे दिया। इस संधि के फलस्वरूप वर्तमान महराजगंज का क्षेत्र कंपनी के अधिकार में चला गया। इस संपूर्ण क्षेत्र का शासन रूटलेज नामक कलेक्टर को सौंपा गया। जिसने सर्वत्र अव्यवस्था, अशांति एवं विद्रोह का दमन किया।
गोरखपुर के सत्तान्तरण के पूर्व ही तत्कालीन अव्यवस्था का लाभ उठाते हुए गोरखों ने वर्तमान महराजगंज एवं सिद्धार्थनगर के सीमावर्ती क्षेत्रों में अपनी स्थिति सुदृढ़ करना प्रारम्भ कर दिया था। विनायकपुर एवं तिलपुर परगने के अन्तर्गत उनका अतिक्रमण तीव्रगति से हुआ जो वस्तुतः बुटवल के कलेक्टर के साथ इस जनपद में स्थित अपनी अवषिष्ट जमीदारी की सुरक्षा हेतु बत्तीस हजार रूपये सालाना पर समझौता किया था। बाद में अंग्रेजों ने उसे बकाया धन न दे पाने के कारण बन्दी बना दिया। 1805 ई. में गोरखों बुटवल पर अधिकार कर लिया और अंग्रेजों की कैद से छूटने के उपरांत बुटवल नरेश की काठमाण्डू में हत्या कर दी। 1806 ई. तक इस क्षेत्र अधिकांश भू-भाग गोरखों के कब्जे में जा चुका था। यहाँ तक कि 1810-11 ई. में उन्होंने गोरखपुर में प्रवेश करते हुए पाली के पास स्थित कतिपय गाँवों को अधिकृत कर लिया। गोरखों से इस सम्पूर्ण क्षेत्र को मुक्त कराने के लिए मेजर जे.एस.वुड के नेतृत्व में अंग्रेज सेना ने बुटवल पर आक्रमण किया।
वुड संभवतः निचलौल होते हुए 3 जनवरी 1815 को बुटवल पहुँचा। बुटवल ने वजीरसिंह के नेतृत्व में गोरखों ने युद्ध की तैयारी कर ली थी, किन्तु अंग्रेजी सेना के पहुँचने पर गोरखे पहाड़ों में भाग गये। वुड उन्हें परास्त करने में सफल नहीं हो सका। इसी बीच गोरखों ने तिलपुर पर आक्रमण कर दिया और वुड को उनका सामना करने के लिए तिलपुर लौटना पड़ा। उसकी ढुलमुल नीति के कारण गोरखे इस संपूर्ण क्षेत्र में धावा मारते रहे और नागरिकों का जीवन कण्टमय बनाते रहे। यहाँ तक कि वुड ने 17 अप्रैल 1815 को बुटवल पर कई घंटे तक गोलाबारी की किन्तु उसका अपेक्षित परिणाम नहीं निकला। तत्पश्चात कर्नल निकोलस के नेतृत्व में गोरखों से तराई क्षेत्र को मुक्त कराने का द्वितीय अभियान छेड़ा गया। कर्नल निकोलस ने गोरखों के ऊपर जो दबाव बनाया, उससे 28 नवम्बर 1815 को अंग्रेजों एवं गोरखों के बीच प्रसिद्ध सगौली की संधि हुई किन्तु बाद में गोरखे संधि की शर्तें स्वीकारने में आनाकानी करने लगे। फलतः आक्टर लोनी के द्वारा निर्णायक रूप से पराजित किये जाने के बाद 4 मार्च 1816 को नेपाल-नरेश ने इस संधि को मान्यता प्रदान कर दी। इस संधि के फलस्वरूप नेपाल ने तराई क्षेत्र पर अपना अधिकार छोड़ दिया और यह क्षेत्र कंपनी के शासन के अन्तर्गत सम्मिलित कर लिया गया।
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ने इस क्षेत्र में नवीन प्राण-शक्ति का संचार किया। जुलाई 1857 में इस क्षेत्र के जमींदारों के ब्रिटिश राज्य के अंत की घोषणा की। निचलौल के राजा रण्डुलसेन ने अंग्रेजों के विरूद्व आंदोलनकारियों का नेतृत्व किया। 26 जुलाई को सगौली में विद्रोह होने पर वनियार्ड (गोरखपुर के तत्कालीन जज) ने कर्नल राउटन को शीघ्र पहुँचने के लिए पत्र लिखा, जो काठमाण्डु से निचलौल होते हुए तीन हजार गोरखा सैनिकों के साथ गोरखपुर की ओर बढ़ रहा था, गोरखों के प्रयास के बावजूद वनियार्ड आंदोलन को पूरी तरह दबाने में असमर्थ रहा। फलतः, उसने गोरखपुर जनपद का प्रशासन सतासी और गोपालपुर के राजा को सौंप दिया। आंदोलनकर्ता बहुत दिन तक इस क्षेत्र को मुक्त नहीं रख सके। अंग्रेजों ने पुनः इस क्षेत्र को अपने पूर्ण नियंत्रण में ले लिया। आंदोलनकारियों का नेतृत्व करने के कारण निचलौल के राजा रण्डुलसेन को न केवल पूर्व प्रदत्त राजा की उपाधि से वंचित कर दिया गया अपितु 1845 ई. में उसे दी गई पेंशन भी छीन ली गई।
1857 ई. के प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन के उपरांत नवम्बर 1858 ई में रानी विक्टोरिया के घोषणा पत्र द्वारा यह क्षेत्र सीधे ब्रिटिश सत्ता के अधीन घोषित किया गया पर सामान्य जनता की कठिनाइयाँ नहीं घटीं। भूमि संबंधी विभिन्न बन्दोबस्तों के बावजूद कृषकों को उनकी भूमि पर अधिकार नहीं मिला। ज़मींदार मजदूरों एवं कृषकों के श्रम का शोषण कर संपन्न होते रहे। किसान व जमीदार के बीच अंतराल बढ़ता गया।
1920 ई. में गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन प्रारम्भ किया गया जिसका प्रभाव इस क्षेत्र पर भी पड़ा। 8 फरवरी 1921 को गांधी जी गोरखपुर आये। लोगों में ब्रिटिश राज के विरूद्व संघर्ष छेड़ने का उत्साह हुआ। शराब की दूकानों पर धरना दिया गया, ताड़ के वृक्षों को काट डाला गया। विदेशी कपड़ों का बहिष्कार कर उनकी होली जलायी गयी। खादी के कपड़े का प्रचार-प्रसार हुआ। 2 अक्टूबर 1922 को इस संपूर्ण क्षेत्र में गांधी जी का जन्म दिन अंन्यतः उत्साह के साथ मनाया गया।
1923 ई. में पं. जवाहर लाल नेहरू ने इस क्षेत्र का दौरा किया। फलतः कांग्रेस कमेटियों की स्थापना हुई। अक्टूबर 1929 में पुनः गांधी जी ने इस क्षेत्र का व्यापक दौरा किया। 4 अक्टूबर 1929 को घुघली रेलवे स्टेशन पर दस हजार देशभक्तों ने उनका भव्य स्वागत किया। 5 अक्टूबर 1929 को गांधी जी ने महराजगंज में एक विशेष जनसभा को संबोधित किया। महात्मा गांधी की इस यात्रा ने इस क्षेत्र के देशभक्तों में नवीन स्फूर्ति का संचार किया, जिसका प्रभाव 1930-34 तक के सविनय अवज्ञा आंदोलनों में देखने को मिला।
1930 ई. के नमक सत्याग्रह में भी इस क्षेत्र ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नमक कानून के विरूद्व सत्याग्रह, हड़ताल सभा एवं जुलूस का आयोजन किया गया। 1931 ई. में जमीदारों के अत्याचार के विरूद्व जनता ने किसान आंदोलन में भाग लिया। उसी समय श्री शिब्बनलाल सक्सेना ने म. गाँधी के आह्वान पर सेण्ट एण्ड्रूज कालेज के प्रवक्ता पद का परित्याग कर पूर्वांचल के किसान-मजदूरों का नेतृत्व संभाला। 1931 में सक्सेना जी ने ईख-संघ की स्थापना की जो गन्ना उत्पादकों एवं मजदूरों के हितों की सुरक्षा हेतु संघर्ष के लिए उद्यत हुई। मई 1937 में पं. गोविन्द वल्लभ पन्त यहां आये ओर एक जनसभा को सम्बोधित किया। फरवरी 1940 में पुनः पंडित नेहरू पधारे और गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक विद्यालय की आधारशिला रखी।
1942 ई. भारतीय इतिहास में एक युगांतकारी परिवर्तन की चेतना के लिए ख्यात है। इस चेतना का संचार इस क्षेत्र में भी हुआ। श्री शिब्बन लाल सक्सेना के नेतृत्व में लोग कुछ भी कर गुजरने को तैयार थे। अंग्रेजों भारत छोड़ो एवं ‘करो या मरो' का नारा जन-जन की वाणी में समाहित हो रहा था। अगस्त क्रांति के दौरान गुरूधोवा ग्राम में शिब्बन लाल सक्सेना को उनकी गिरफ्तारी के समय गोली मारी गई किंतु वह गोली उनके कंधे के पास से निकलते हुए, उस जमींदार को लगी जिसने सक्सेना जी को बंदी बनाया था। गोरखपुर के तत्कालीन, जिलाधीश श्री ई.वी.डी. मास के आदेश पर 27 अगस्त 1942 को विशुनपुर गबडुआ गाँव में निहत्थे एवं शांतिप्रिय नागरिकों पर गोली चलाई गई, सुखराज कुर्मी एंव झिनकू कुर्मी दो सत्याग्रही शहीद हुए। पुलिस की गोली से आहत काशीनाथ कुर्मी की 1943 में जेल में ही मृत्यु हो गयी। सक्सेना जी को ब्रिटिश राज के विरूद्व षडयंत्र रचने के आरोप में 26 महीने कठोर कारावास एवं 26 महीने फाँसी की कोठरी में रखा गया।
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