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गुरुवार, 12 नवंबर 2020

सरस्वती वंदना कौरवी

सरस्वती वंदना कौरवी 
।। ओ विद्या माता।।
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मेरे स्व. मित्र हास्यकवि श्री हरिराम चमचा ने एक बार प्रेरित किया कि अधिक न हो,पर अपनी मातृभाषा का ऋण उतारने के लिए उसमें कुछ-न-कुछ लिखना अवश्य चाहिए। इसे गम्भीरता से लेते हुए मैंने जनपद मुज़फ्फरनगर की भाषा ( कौरवी) में कुछ लिखने की कोशिश की। यह वाणी-वंदना इसी क्रम में है जिसे दूसरी बार प्रस्तुत कर रहा हूँ।
ओ विद्या माता,अरी ओ विद्या माता।
मैं नू ही फूल्ला फिरता, मुझे न कुछ आत्ता।।
ओ विद्या माता।
लोग कलम सै उल्टा-सूद्धा लिक्खैं री।
कहते फिरैं जगत् मैं, तेरी सिद्धि करी।।
विद्या-बल का दुनिया,गलत प्रयोग करै,
क्या तुझसै देक्खा जात्ता,
ओ विद्या माता।
भासन कोई लिक्खै, अर कोई बाँचै।
जो बाँचै उसकी ही,होवै है जै-जै।।
झूठ बोल दुनिया मै, उजला शॉल खड़ा,
मुझै समझ ना आत्ता,
ओ विद्या माता।।
हे वीणा-वादिनी! जमाना,तो है ढोलों का।
गया शांति का बखत, मात! अब युग है शोलों का।।
स्वर के बदले जिसनै, कविता तोल लई,
सब यश दूज्जा ले जात्ता,
ओ विद्या माता।।
विद्या तुझको आ जावैगी, ठगी-डकैती की।
मोरपंख मै जो घुस जावै, शक्ति लठैती की।।
पढ़ा-लिखा हूँ, मंडी मै, कुछ बढ़कर भाव मिलै,
यदि संभव हो जात्ता,
ओ विद्या माता।।
पंकज परिमल/मई,2007

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