नवगीत:
दादी को ही नहीं
गाय को भी भाती हो धूप
तुम बिन नहीं सवेरा होता
गली उनींदी ही रहती है
सूरज फसल नेह की बोता
ठंडी मन ही मन दहती है
ओसारे पर बैठी
अम्मा फटक रहीं है सूप
हित-अनहित के बीच खड़ी
बँटवारे की दीवार
शाख प्यार की हरिया-झाँके
दीवारों के पार
भौजी चलीं मटकती, तसला
लेकर दृश्य अनूप
तेल मला दादी के, बैठी
देखूँ किसकी राह?
कहाँ छबीला जिसने पाली
मन में मेरी चाह
पहना गया मुँदरिया बनकर
प्रेमनगर का भूप
***
२४-११-२०१४
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