धूप -छाँव:
गुजरे वक़्त में कई वाकये मिलते हैं जब किसी साहित्यकार की रचना को दूसरे ने पूरा किया या एक की रचना पर दूसरे ने प्रति-रचना की. अब ऐसा काम नहीं दिखता। संयोगवश स्व. डी. पी. खरे द्वारा गीता के भावानुवाद को पूर्ण करने का दायित्व उनकी सुपुत्री श्रीमती आभा खरे द्वारा सौपा गया. किसी अन्य की भाव भूमि पर पहुँचकर उसी शैली और छंद में बात को आगे बढ़ाना बहुत कठिन मशक है. धूप-छाँव में हेमा अंजुली जी के कुछ पंक्तियों से जुड़कर कुछ कहने की कोशिश है. आगे अन्य कवियों से जुड़ने का प्रयास करूंगा ताकि सौंपे हुए कार्य के साथ न्याय करने की पात्रता पा सकूँ. पाठक गण निस्संकोच बताएं कि पूर्व पंक्तियों और भाव की तारतम्यता बनी रह सकी है या नहीं? हेमा जी को उनकी पंक्तियों के लिये धन्यवाद।
हेमा अंजुली
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सलिल
जाओ चाहे जहाँ मुझको करीब पाओगे
रूह में खनक के देखो कि आग बाकी है
*
हेमा अंजुली
सूरत दिखाने के लिए तो
बहुत से आईने थे दुनिया में
काश कि कोई ऐसा आईना होता
जो सीरत भी दिखाता
.
सलिल
सीरत 'सलिल' की देख टूट जाए न दर्पण
बस इसलिए ही आइना सूरत रहा है देख
*
.
3 टिप्पणियां:
Mahesh Dewedy mcdewedy@gmail.com
सलिल जी,
आप के अति-श्लाघनीय एवँ ग्यान-वर्धक अभिनव प्रयोगोँ की जितनी सराहना की जाये कम है. हार्दिक बधाई.
महेश चंद्र द्विवेदी
Veena Vij vij.veena@gmail.com
आदर योग्य सलिल जी,
आपकी शैली अनोखी लगी । तारतम्यता बनी रही है अंत तक । हेमा अंजुली जी के कथन की अनुरूपता को आपने छंदों में ढाल कर एक नवीनीकरण का
प्रयोग ,अति प्रभावपूर्ण रहा ।ऐसे श्लाघनीय कार्य के लिए बधाई!
हेमाजी से यह साथ कैसे संभव हुआ ? जिज्ञासा है ।
सादर,
वीणा विज उदित😃
__._,_.___
आत्मीय वीणा जी!
वन्दे भारत-भारती।
हेमा जी की रचनाएँ फेसबुक पर देखी। हम ई कविता पर भी इस तरह एक - दूसरे की रचनाओं को आगे बढ़ा सकते हैं. मैं प्रयोगधर्मी हूँ.
प्रतिक्रियाओं में भी यह प्रवृत्ति कुछ न कुछ सीखने का अवसर देती है.
आप इससे जुड़ें तो आनंद ही मिलेगा।
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