ग़ज़ल:
सागर हाशमी
.
माशूक़ से लड़ना भी शामिल है प्यार में
ख़ूब यार से जंग होगी अबकी बहार में
लड़े न हम ख़िज़ाँ में फ़ाज़िल नहीं था वक़्त
गुजरने दूँ बहार क्यों उनके निखार में?
बरसों से बाँध बाँध के मंसूबे रखे हैं
रह जाएँ न पड़े पड़े, जाएँ उधार में
मुस्कान से उसकी न करूँ ख़त्म इब्तिदा
दिल आये न गालों के हलकों की मार में
कैसे-कैसे हाथ दिखाऊँगा मैं उसे
मुआमला न खत्म होने दूँ नकार में
**
सागर हाशमी
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माशूक़ से लड़ना भी शामिल है प्यार में
ख़ूब यार से जंग होगी अबकी बहार में
लड़े न हम ख़िज़ाँ में फ़ाज़िल नहीं था वक़्त
गुजरने दूँ बहार क्यों उनके निखार में?
बरसों से बाँध बाँध के मंसूबे रखे हैं
रह जाएँ न पड़े पड़े, जाएँ उधार में
मुस्कान से उसकी न करूँ ख़त्म इब्तिदा
दिल आये न गालों के हलकों की मार में
कैसे-कैसे हाथ दिखाऊँगा मैं उसे
मुआमला न खत्म होने दूँ नकार में
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