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शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

दोहा सलिला: संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:

संजीव 'सलिल'
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है महेश सिर पर लिये चन्द्र हमेशा साथ.
सीमा में बँध जाये तो कौन कहे जग-नाथ?
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चट्टानों से भी रिसे, 'सलिल' न रुकता यार.
मिल ही जाती हमेशा, गुप्ता कोई दरार..
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शब्द न बूढा हो कभी, रहते भाव जवान.
कलम न कुंठित हो कभी, बने तभी रस-खान..
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छोड़ फ़िक्र-चिंता सभी, हो जा मन रस-लीन.
रस-निधि तेरे पास है, फिर क्यों होता दीन?.
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गद्य-पद्य शिव-शिव सम, मिलकर होते पूर्ण.
बिन चिंतन कविता करे, कोई रहे अपूर्ण..
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चिंतन से चिंता करे, कविता हरदम दूर.
सविता मन आनंद पा, बाँटे तुरत हुज़ूर..
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खलिश न निष्क्रिय हो कभी, देती रहती पीर.
धीर धरे सहते रहे, जो- होता बेपीर..
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पीर पीर सहकर बने, सबसे बड़ा अमीर.
रहे न धेला पास में, पग-नत रहते मीर..
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शब्द ब्रम्ह आराधना, रहे कलम का ध्येय.
'सलिल' न कुछ भी तब रहे, ज्ञेय तुझे अज्ञेय..
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करें समीक्षा कभी हो, रस-पिंगल की बात.
सीख-सिखा सकते सभी, शाश्वत ज्ञान-प्रभात..
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आँगन-परछी भी 'सलिल', घर के हैं दो भाग.
जहाँ रुचे बैठें वहीं, किन्तु न लें बैराग..
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