मुक्तिका :
बन-ठन कर
संजीव 'सलिल'
*
बन-ठन कर निकले हो घर से किसका चित्त लुभाना है
अधर-बाँसुरी, मन-मैया, राधा संग रास रचाना है.
प्रिय-दर्शन की आस न छूटे, कागा खाले सारा तन.
तुझको सौं दो नैन न छुइयो, पी की छवि झलकाना है..
नगर ढिंढोरा पीट-पीटकर, साँच कहूँ मैं हार गई.
रे घनश्याम सलोने तुझको पाना, खुद खो जाना है..
कुब्जा, कृष्णा, कुंती, विदुरानी जैसे मन-बस छलिये!
मुझे न लम्बी पटरानी-सूची में नाम लिखाना है..
खलिश दर्द दुःख पीर, स्वजन बन तेरी याद कराते हैं.
सिर-आँखों पर विहँस चढ़ाऊँ, तुझको नहीं भुलाना है..
मेरा क्या बदनामी तो तेरी ही होगी सब जग में.
दर्शन दे, ना दे मुझको तुझमें ही ध्यान लगाना है..
शीत, ग्रीष्म, बरसात कोई मौसम हो मुझको क्या लेना?
मन धरती पर प्रीत-बेल बो अश्रु-'सलिल' छलकाना है..
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