देवी वंदना तथा गंगा स्तुति :
मैथिल कोकिल कवि विद्यापति
प्रस्तुति: कुसुम ठाकुर
मिथिला में कवि विद्यापति द्वारा लिखे पदों को घर-घर में हर मौके पर, हर शुभ कार्यों में गाया जाता है, चाहे उपनयन संस्कार हों या विवाह। शिव स्तुति और भगवती स्तुति तो मिथिला के हर घर में बड़े ही भाव भक्ति से गायी जाती है। :
जय जय भैरवी असुर-भयाउनी
पशुपति- भामिनी माया
सहज सुमति बर दिय हे गोसाउनी
अनुगति गति तुअ पाया। ।
बासर रैन सबासन सोभित
चरन चंद्रमनि चूडा।
कतओक दैत्य मारि
मुँह मेलल
समर बरन, नयन अनुरंजित
लद जोग फुल कोका।
कट कट विकट ओठ पुट पाँडरि
लिधुर- फेन उठी फोका। ।
घन घन घनन घुघुरू कत बाजय,
हन हन कर तुअ काता।
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक,
पुत्र बिसरू जुनि माता। ।
*
बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे।
छोड़इत निकट नयन बह नीरे। ।
कर जोरि बिनमओं विमल तरंगे।
पुन दरसन दिय पुनमति गंगे। ।
एक अपराध छेमब मोर जानी।
परसल माय पाय तुअ पानी । ।
कि करब जप तप जोग धेआने।
जनम कृतारथ एक ही सनाने। ।
भनहि विद्यापति समदओं तोहि।
अंत काल जनु बिसरह मोहि। ।
*
गंगा स्तुति
कवि विद्यापति ने सिर्फ़ प्रार्थना या नचारी की ही रचना नहीं की है अपितु उनका प्रकृति वर्णन भी उत्कृष्ठ है।बसंत और पावस ऋतुपर उनकी रचनाओं से मंत्र मुग्ध होना आश्चर्य की बात नहीं। गंगा स्तुति तो किसी को भी भाव विह्वल कर सकती है। ऐसा महसूस होता है मानों हम गंगा तट पर ही हैं।
बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे।
छोड़इत निकट नयन बह नीरे। ।
कर जोरि बिनमओं विमल तरंगे।
पुन दरसन दिय पुनमति गंगे। ।
एक अपराध छेमब मोर जानी।
परसल माय पाय तुअ पानी । ।
कि करब जप तप जोग धेआने।
जनम कृतारथ एक ही सनाने। ।
भनहि विद्यापति समदओं तोहि।
अंत काल जनु बिसरह मोहि। ।
उपरोक्त पंक्तियों मे कवि गंगा लाभ को जाते हैं और वहां से चलते समय माँ गंगा से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि :
हे माँ गंगे आपके तट(किनारा) पर बहुत ही सुख की प्राप्ति हुई है, परन्तु अब आपके तट को छोड़ने का समय आ गया है तो हमारी आँखों से आंसुओं की धार बह रही है। मैं आपसे अपने हाथों को जोड़ कर एक विनती करता हूँ। हे माँ गंगे आप एक बार फिर दर्शन अवश्य दीजियेगा।
कवि विह्वल होकर कहते हैं : हे माँ गंगे मेरे पाँव आपके जल में है, मेरे इस अपराध को आप अपना बच्चा समझ क्षमा कर दें। हे माँ मैं जप तप योग और ध्यान क्यों करुँ जब कि आपके एक स्नान मात्र से ही जन्म सफल हो जाता है, कृतार्थ हो जाता है।
अंत मे विद्यापति कहते हैं हे माँ मैं आपसे विनती करता हूँ आप अंत समय में मुझे मत भूलियेगा अर्थात कवि की इच्छा है कि वे अपने प्राण गंगा तट पर ही त्यागें।
हे माँ गंगे आपके तट(किनारा) पर बहुत ही सुख की प्राप्ति हुई है, परन्तु अब आपके तट को छोड़ने का समय आ गया है तो हमारी आँखों से आंसुओं की धार बह रही है। मैं आपसे अपने हाथों को जोड़ कर एक विनती करता हूँ। हे माँ गंगे आप एक बार फिर दर्शन अवश्य दीजियेगा।
कवि विह्वल होकर कहते हैं : हे माँ गंगे मेरे पाँव आपके जल में है, मेरे इस अपराध को आप अपना बच्चा समझ क्षमा कर दें। हे माँ मैं जप तप योग और ध्यान क्यों करुँ जब कि आपके एक स्नान मात्र से ही जन्म सफल हो जाता है, कृतार्थ हो जाता है।
अंत मे विद्यापति कहते हैं हे माँ मैं आपसे विनती करता हूँ आप अंत समय में मुझे मत भूलियेगा अर्थात कवि की इच्छा है कि वे अपने प्राण गंगा तट पर ही त्यागें।
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1 टिप्पणी:
वाह... वाह... मैथी कोकिल विद्यापति की रसभरी मधर स्तुतियाँ दिव्या नर्मदा के पाठकों के लिए भेंट लेन के लिए कुसुम जी का अभिनन्दन.
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