सॉनेट
•
जो चले गए; वे नहीं गए।
जो रुके रहे; वे नहीं रहे।
कहें कौन बह के नहीं बहे?
कहें कौन हैं जो सदा नए?
.
जो परे रहे; न परे हुए।
जो जुड़े; नहीं वे कभी जुड़े।
जहाँ राह पग भी वहीं मुड़े।
जो सगे बने; न सगे हुए।
.
न ही आह हो; न ही वाह हो।
नहीं गैर की परवाह हो।
प्रभु! धैर्य दे जो अथाह हो।।
.
पाथेय कुछ न गुनाह हो।
गहराई हो तो अथाह हो।
गर सलिल हो तो प्रवाह हो।।
२-३-२०२३
•••
सॉनेट
प्रार्थना
•
सरस्वती जी सुमति दीजिए।
अंगुलियों पर रमें रमा माँ।
शिवा शक्ति दे कृपा कीजिए।।
विधि-हरि-हर हृदय सर्वदा।।
चित्र गुप्त मस्तक में बसिए।
गोद खिलाए धरती माता।
पिता गगन हो कभी न तजिए।।
पवन सखा सम शांति प्रदाता।।
आत्म दीप कर अग्नि प्रकाशित।
रहे जीव संजीव सलिल से।
मानवता हित रहें समर्पित।।
खिलें रहें हम शत शतदल से।।
कर जोड़ें, दस दिश प्रणाम कर।
सभी सुखी हों, सबका शुभ कर।।
२-३-२०२२
•••
नवगीत
सुनो शहरियों!
*
सुनो शहरियों!
पिघल ग्लेशियर
सागर का जल उठा रहे हैं
जल्दी भागो।
माया नगरी नहीं टिकेगी
विनाश लीला नहीं रुकेगी
कोशिश पार्थ पराजित होगा
श्वास गोपिका पुन: लुटेगी
बुनो शहरियों !
अब मत सपने
खुद से खुद ही ठगा रहे हो
मत अनुरागो
संबंधों के लाक्षागृह में
कब तक खैर मनाओगे रे!
प्रतिबंधों का, अनुबंधों का
कैसे क़र्ज़ चुकाओगे रे!
उठो शहरियों !
बेढब नपने
बना-बना निज श्वास घोंटते
यह लत त्यागो
साँपिन छिप निज बच्चे सेती
झाड़ी हो या पत्थर-रेती
खेत हो रहे खेत सिसकते
इमारतों की होती खेती
धुनो शहरियों !
खुद अपना सिर
निज ख्वाबों का खून करो
सोओ, मत जागो
१५-११-२०१९
***
दोहा सलिला
माँ
*
माता के दरबार में, आत्म ज्योति तन दीप।
मुक्ता मणि माँ की कृपा, सफल साधना सीप।।
*
मैया कर इतनी कृपा, रहे सत्य का बोध।
लोभ-मोह से दूर रख, बालक भाँति अबोध।।
*
जो पाया पूरा नहीं, कम कुबेर का कोष।
मातु-कृपा बिन किस तरह, हो मन को संतोष।।
*
रचना कर संसार की, माँ लेती है पाल।
माई कब कुछ दे सका, हर शिशु है कंगाल।।
*
जननी ने जाया जिन्हें, जातक सभी समान।
जाति देश या धर्म की, जय बोलें नादान।।
*
अंब! तुम्हीं जगदंब हो, तुमसे सकल जहान।
तुम ही लय गति यति तुम्हीं, तुम ही हो रस-खान।।
*
बेबे आई ई अनो, तल्ली जीजी प्लार।
अमो अमा प्यो मोज मुम, म्ये बा इमा दुलार।।
*
बीजी ब्वे माई इया, मागो पुई युम मम।
अनो मम्ज बीबी इजू, मैडी मुम पुरनम।।
*
आमा मागो मुमा माँ, मामा उम्मा स्नेह।
थाई, माई, नु, अम्मे, अम्मी, भाभी गेह।।
*
मम्मी मदर इमा ममी, अम्मा आय सुशांत।
एमा वाहू चईजी, बाऊ मामा कांत ।।
(माँ के ६० पर्यायवाची शब्द प्रयुक्त)
***
श्रृंगार गीत
*
जीवन की बगिया में
महकाये मोगरा
पल-पल दिन आज का।
*
श्वास-श्वास महक उठे
आस-आस चहक उठे
नयनों से नयन मिलें
कर में कर बहक उठे
प्यासों की अँजुरी में
मुस्काये हरसिंगार
छिन-छिन दिन आज का।
*
रूप देख गमक उठे
चेहरा चुप चमक उठे
वाक् हो अवाक 'सलिल'
शब्द-शब्द गमक उठे
गीतों की मंजरी में
खिलखलाये पारिजात
गिन -गिन दिन आज का।
*
चुप पलाश दहक उठे
महुआ सम बहक उठे
गौरैया मन संझा
कलरव कर चहक उठे
मादक मुस्कानों में
प्रमुदित हो अमलतास
खिल-खिल दिन आज का।
***
कुंडलिया
*
थोड़ी सी मस्ती हमें, दे दे जग के नाथ।
थोड़ी सी सस्ती मिले, ठंडाई भंग साथ।।
ठंडाई भंग साथ, रंग बरसाने जाएँ।
बरसाने की लली दरस दिखलाने आएँ।।
रंग लगाने मची रहे, होड़ाहोड़ी सी।
दे दे मस्ती नाथ, हमें जग के थोड़ी सी।।
***
मुक्तिका
*
बेच घोड़े सोइए, अब शांति है
सत्य से मुँह मोड़िए, अब शांति है
मिल गई सत्ता, करें मनमानियाँ
द्वेष नफरत बोइए, अब शांति है
बाँसुरी ले हाथ में, घर बारिए
मार पत्थर रोइए, अब शांति है
फसल जुमलों की उगाई आपने
बोझ शक का ढोइए, अब शांति है
अंधभक्तों! आँख अपनी खोलिए
सत्य को मत खोइए, अब शांति है
हैं सभी नंगे हमामों में यहाँ
शकल अपनी धोइए, अब शांति है
शांत शोलों में छिपीं चिनगारियाँ
जिद्द नाहक छोड़िए, अब शांति है
२-३-२०२०
***
दोहा की होली
*
दीवाली में दीप हो, होली रंग-गुलाल
दोहा है बहुरूपिया, शब्दों की जयमाल
*
जड़ को हँस चेतन करे, चेतन को संजीव
जिसको दोहा रंग दे, वह न रहे निर्जीव
*
दोहा की महिमा बड़ी, कीर्ति निरुपमा जान
दोहा कांतावत लगे, होली पर रसखान
*
प्रथम चरण होली जले, दूजे पूजें लोग
रँग-गुलाल है तीसरा, चौथा गुझिया-भोग
*
दोहा होली खेलता, ले पिचकारी शिल्प
बरसाता रस-रंग हँस, साक्षी है युग-कल्प
*
दोहा गुझिया, पपडिया, रास कबीरा फाग
दोहा ढोलक-मँजीरा, यारों का अनुराग
*
दोहा रच-गा, झूम सुन, होला-होली धन्य
दोहा सम दूजा नहीं. यह है छंद अनन्य
***
होलिकोत्सव २-३-२०१८
***
विमर्श - 'गाय' और सनातन धर्म ?
कहते हैं गाय माता है, ऐसा वेद में लिखा है। गौरव की बात है! माता है तो रक्षा करें; किन्तु वेद में यह कहाँ लिखा है कि गाय सनातन धर्म है, उसकी पूजा करो ?
वेद में लिखा है कि गाय माता है तो वेद में यह भी लिखा है कि उसका पति कौन है? अथर्ववेद के नवम् काण्ड का चतुर्थ ऋषभ सुक्त है, जिसके दूसरे और चौथे मन्त्र में बैल को ''पिता वत्सानां पतिरध्यानाम्'' अर्थात गाय का पति और बछड़ों का पिता कहा गया है।
तो क्या बैल को पिता मानकर पूजना होगा? गाय को ही क्यों,
ऋग्वेद (१०/६२/३१) में पृथ्वी को माता कहा गया है।,
(१०६४/९) में जल को माता कहा गया,
(यजुर्वेद १२/७८) में ''औषधीरिती मातर:'' औषधियों को माता कहा गया, तो क्या इनको पूजने लगें ?
इसी प्रकार मानस में-
''जनु मरेसि गुर बाँभन गाई।''
(मानस २/१४६/३) इनका विशेष महत्त्त्व है, गाय का भी महत्त्त्व है। जो वस्तु विकास में सहयोगी , उसी का महत्त्व होगा।
जैसे आजकल बिजली का बड़ा महत्त्व है, राष्ट्रीय सम्पत्ति है। आविष्कारों का महत्त्व तो घटता-बढ़ता ही रहता है; किन्तु इससे कोई वस्तु धर्म नहीं हो जाती।
वेद में तो यह भी लिखा है कि अत्यन्त झूठ बोलनेवालों को, मारपीट और तोड़फोड़ करनेवाले को, घमण्डी लोगों को हे राजन! उसी प्रकार छेद डालो जैसे;
कूदने वाली गाय को लात से और हाड़ी को एड़ी से मारते हैं। (अथर्ववेद, ८/६/१७)
इसी प्रकार ऋग्वेद में है-
''रजिषठया रज्या पश्व: आ गोस्तू तूर्षति पर्यग्रं दुवस्यु''
(१०/१०१/१२)
अर्थात् जिस प्रकार सेवक गाय आदि, पशु की नाक में रस्सी लगाकर, उसे पीड़ीत करते हुए आगे ले जाता है....।
इस ऋचा में गाय को पशु कहा गया और उसके रखरखाव की एक व्यवस्था दी गई, न कि ऐसा करना कोई धर्म है।
जब श्रीलंका में भारती शान्ति सेना गयी थी तो वहाँ के लिट्टे वाले कहते- जय लंकामाता! यहाँ हम कहते हैं-भारतमाता। कहीं कहते हैं गंगामाता। अमेरिका में अमेजन नदी को पिता कहते हैं।
यह तो मनुष्यों द्वारा दी हुयी मान्यताएँ हैं। उपाधि किसी को भी मिल सकती है, जैसे मदर टेरेसा। हर पादरी को क्रिश्चियन फादर कहते हैं।
हिरोशिमा पर बम गिरा तो उसे बसाने के प्रयास में उनतीस बच्चों को जन्म देनेवाली माता को वहाँ 'मदरलैण्ड' की उपाधि से विभूषित किया गया।
अस्तु परिवर्तनशील सामाजिक व्यवस्था के बारे में कोई भी लिखा-पढ़ी हर समय के लिये उपयोगी नहीं हो सकती।
उसका पीछा करेंगे तो विकसित देशों से सैकड़ों वर्ष पीछे उसी युग में पहूँच जायेंगे।
जब मोरपंख से भोजपत्र पर लिखते थे, अरणीयों को घिस कर- दो लकड़ीयों को घिस कर आग जलाते थे, उसके संग्रह की व्यवस्था भी न थी जैसा कि महाभारत काल तक था- एक ब्राह्मण की अरणी लेकर मृग भागा तो युधिष्ठिर ने पीछा किया।
.... वैदिक काल से परावर्ती पूर्वजों की शोध को नकारना तो अन्याय है ही, धृष्टता की पराकाष्ठा भी है कि उपयोग तो हम भैंस का करें किन्तु गुण गाय के गायें;
उपयोग ट्रैक्टर का करें गीत बैलों का गायें, उर्वरकों के बिना जीवन यापन न हो किन्तु महिमा गोबर की बताएँ।
गाय के पीछे नारेबाजी करनेवाले कितने ऐसे हैं जो उन बैलो को बिठाकर खिलाते हों, जिन्हों ने आजीवन उनका खेत जोता है? शायद ही कोई बैल किसान के खूँटे पर मरता हो? वृद्ध से वृद्ध बैल को सौ-पचास रुपये में बेचनेवाले क्या अपनी बला नहीं टालते? क्या वे नहीं जानते कि लेजाने वाला इनका क्या करेगा ?
(शंका-समाधान से साभार)
# विचार अवश्य करें ।।
|| श्री परमात्मने नम: ||
>~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~<
त्रुटियों हेतु क्षमायाचना पश्चात- धर्मशास्त्र 'धर्म' का मार्ग निर्देशक प्रकाश-स्तम्भ होता है। कहीं भ्रम या भटकाव पर दिशा-निर्देश का कार्य करते हैं, के अभाव में आज हम सनातन-धर्मी इस दशा-दिशा को प्राप्त हो अपेक्षाकृत अति छोटे भूखण्ड वर्तमान 'भारत' में भी अल्पसंख्यक-बहुसंख्क के विवाद में उलझे पड़े हैं। हमारा/समाज/राष्ट्र का व्यापक हित इस में सन्निहित है कि एक सर्वमान्य धर्मशास्त्र का अनुसरण करें जबकि 'गीता' हमारा ही नहीं अपितु मानवमात्र का आदिशास्त्र है।
'गीता' आज की प्रचलित भाषा में नहीं है की हमारे समकालीन महापुरुष (तपस्वी सन्त) की अनुभवगम्य व्याख्या 'यथार्थ गीता' की २-३ आवृत्ति करें और भगवान श्रीकृष्ण के आध्यात्मिक संदेश से अवगत हों। धर्मशास्त्र के रुप में उचित सम्मान प्रदान करें 'हिन्दू' के वास्तविक सम्वर्धन की ओर कदम बढायें।
***
मुक्तिका: तुम
*
तुम कैसे जादू कर देती हो
भवन-मकां में आ, घर देती हो
*
रिश्तों के वीराने मरुथल को
मंदिर होने का वर देती हो
*
चीख-पुकार-शोर से आहत मन
मरहम, संतूरी सुर देती हो
*
खुद भूखी रह, अपनी भी रोटी
मेरी थाली में धर देती हो
*
जब खंडित होते देखा विश्वास
नव आशा निशि-वासर देती हो
*
नहीं जानतीं गीत, ग़ज़ल, नवगीत
किन्तु भाव को आखर देती हो
*
'सलिल'-साधना सफल तुम्हीं से है
पत्थर पल को निर्झर देती हो
***
श्रृंगार गीत
तुम सोईं
*
तुम सोईं तो
मुँदे नयन-कोटर में सपने
लगे खेलने।
*
अधरों पर छा
मंद-मंद मुस्कान कह रही
भोर हो गयी,
सूरज ऊगा।
पुरवैया के झोंके के संग
श्याम लटा झुक
लगी झूलने।
*
थिर पलकों के
पीछे, चंचल चितवन सोई
गिरी यवनिका,
छिपी नायिका।
भाव, छंद, रस, कथ्य समेटे
मुग्ध शायिका
लगी झूमने।
*
करवट बदली,
काल-पृष्ठ ही बदल गया ज्यों।
मिटा इबारत,
सबक आज का
नव लिखने, ले कोरा पन्ना
तजकर आलस
लगीं पलटने।
*
ले अँगड़ाई
उठ-बैठी हो, जमुहाई को
परे ठेलकर,
दृष्टि मिली, हो
सदा सुहागन, कली मोगरा
मगरमस्त लख
लगी महकने।
*
बिखरे गेसू
कर एकत्र, गोल जूड़ा धर
सर पर, आँचल
लिया ढाँक तो
गृहस्वामिन वन में महुआ सी
खिल-फूली फिर
लगी गमकने।
*
मृगनयनी को
गजगामिनी होते देखा तो
मकां बन गया
पल भर में घर।
सारे सपने, बनकर अपने
किलकारी कर
लगे खेलने।
२-३-२०१६
***
श्रृंगार गीत:
.
खफ़ा रहूँ तो
प्यार करोगे
यह कैसा दस्तूर है ?
प्यार करूँ तो
नाजो-अदा पर
मरना भी मंज़ूर है.
.
आते-जाते रंग देखता
चेहरे के
चुप-दंग हो.
कब कबीर ने यह चाहा
तुम उसे देख
यूं तंग हो?
गंद समेटी सिर्फ इसलिए
प्रिय! तुम
निर्मल गंग हो
सोचा न पाया पल आयेगा
तुम्हीं नहीं
जब सँग हो.
होली हो ली
अब क्या होगी?
भग्न आस-सन्तूर है.
खफ़ा रहूँ तो
प्यार करोगे
यह कैसा दस्तूर है ?
प्यार करूँ तो
नाजो-अदा पर
मरना भी मंज़ूर है.
.
फाग-राग का रिश्ता-नाता
कब-किसने
पहचाना है?
द्वेष-घृणा की त्याज्य सियासत
की होली
धधकाना है.
जड़ जमीन में जमा जुड़ सकें
खेत-गाँव
सरसाना है.
लोकनीति की रंग-पिचकारी
संसद में
भिजवाना है.
होली होती
दिखे न जिसको
आँखें रहते सूर है.
खफ़ा रहूँ तो
प्यार करोगे
यह कैसा दस्तूर है ?
प्यार करूँ तो
नाजो-अदा पर
मरना भी मंज़ूर है.
२.३.२०१५
***
मुक्तिका:
रूह से...
*
रूह से रू-ब-रू अगर होते.
इस तरह टूटते न घर होते..
आइना देखकर खुशी होती.
हौसले गर जवां निडर होते..
आसमां झुक सलाम भी करता.
हौसलों को मिले जो पर होते..
बात बोले बिना सुनी जाती.
दिल से निकले हुए जो स्वर होते..
होते इंसान जो 'सलिल' सच्चे.
आह में भी लिए असर होते..
२-३-२०१३
***
शिव स्तुति माहात्म्य ::
श्री गणेश विघ्नेश शिवा-शव नंदन-वंदन.
लिपि-लेखनि, अक्षरदाता कर्मेश शत नमन..
नाद-ताल,स्वर-गान अधिष्ठात्री माँ शारद-
करें कृपा नित मातु नर्मदा जन-मन-भावन..
*
प्रात स्नान कर, श्वेत वसन धारें कुश-आसन.
मौन करें शिवलिंग, यंत्र, विग्रह का पूजन..
'ॐ नमः शिवाय' जपें रुद्राक्ष माल ले-
बार एक सौ आठ करें, स्तोत्र का पठन..
भाँग, धतूरा, धूप, दीप, फल, अक्षत, चंदन,
बेलपत्र, कुंकुम, कपूर से हो शिव-अर्चन..
उमा-उमेश करें पूरी हर मनोकामना-
'सलिल'-साधना सफल करें प्रभु, निर्मल कर मन..
*
रावण रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् -
हिन्दी काव्यानुवाद तथा अर्थ - संजीव 'सलिल'
*
श्रीगणेशाय नमः
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् |
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकार चण्ड्ताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् || १||
.
सघन जटा-वन-प्रवहित गंग-सलिल प्रक्षालित.
पावन कंठ कराल काल नागों से रक्षित..
डम-डम, डिम-डिम, डम-डम, डमरू का निनादकर-
तांडवरत शिव वर दें, हों प्रसन्न, कर मम हित..१..
.
सघन जटामंडलरूपी वनसे प्रवहित हो रही गंगाजल की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ को प्रक्षालित करती (धोती) हैं, जिनके गले में लंबे-लंबे, विक्राक सर्पों की मालाएँ सुशोभित हैं, जो डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य कर रहे हैं-वे शिवजी मेरा कल्याण करें.१.
*
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी- विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि |
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम || २||
.
सुर-सलिला की चंचल लहरें, हहर-हहरकर,
करें विलास जटा में शिव की भटक-घहरकर.
प्रलय-अग्नि सी ज्वाल प्रचंड धधक मस्तक में,
हो शिशु शशि-भूषित शशीश से प्रेम अनश्वर.. २..
.
जटाओं के गहन कटावों में भटककर अति वेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की लहरें जिन शिवजी के मस्तक पा र्लाहरा रहे एहेन, जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालायें धधक-धधककर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे- बाल-चन्द्रमा से विभूषित मस्तकवाले शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिपल बढ़ता रहे.२.
.
धराधरेन्द्रनंदिनीविलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे |
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्दिगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि || ३||
.
पर्वतेश-तनया-विलास से परमानन्दित,
संकट हर भक्तों को मुक्त करें जग-वन्दित!
वसन दिशाओं के धारे हे देव दिगंबर!!
तव आराधन कर मम चित्त रहे आनंदित..३..
.
पर्वतराज-सुता पार्वती के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परमानन्दित (शिव), जिनकी कृपादृष्टि से भक्तजनों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, दिशाएँ ही जिनके वस्त्र हैं, उन शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा?.३.
*
लताभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे |
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तुभूतभर्तरि || ४||
.
केशालिंगित सर्पफणों के मणि-प्रकाश की,
पीताभा केसरी सुशोभा दिग्वधु-मुख की.
लख मतवाले सिन्धु सदृश मदांध गज दानव-
चरम-विभूषित प्रभु पूजे, मन हो आनंदी..४..
.
जटाओं से लिपटे विषधरों के फण की मणियों के पीले प्रकाशमंडल की केसर-सदृश्य कांति (प्रकाश) से चमकते दिशारूपी वधुओं के मुखमंडल की शोभा निरखकर मतवाले हुए सागर की तरह मदांध गजासुर के चरमरूपी वस्त्र से सुशोभित, जगरक्षक शिवजी में रामकर मेरे मन को अद्भुत आनंद (सुख) प्राप्त हो.४.
*
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजस्फुल्लिंगया, निपीतपंचसायकं नमन्निलिम्पनायकं |
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं, महाकलपालिसंपदे सरिज्जटालमस्तुनः ||५||
.
ज्वाला से ललाट की, काम भस्मकर पलमें,
इन्द्रादिक देवों का गर्व चूर्णकर क्षण में.
अमियकिरण-शशिकांति, गंग-भूषित शिवशंकर,
तेजरूप नरमुंडसिंगारी प्रभु संपत्ति दें..५..
.
अपने विशाल मस्तक की प्रचंड अग्नि की ज्वाला से कामदेव को भस्मकर इंद्र आदि देवताओं का गर्व चूर करनेवाले, अमृत-किरणमय चन्द्र-कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटावाले नरमुंडधारी तेजस्वी शिवजी हमें अक्षय संपत्ति प्रदान करें.५.
*
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः |
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ||६||
.
सहसनयन देवेश-देव-मस्तक पर शोभित,
सुमनराशि की धूलि सुगन्धित दिव्य धूसरित.
पादपृष्ठमयनाग, जटाहार बन भूषित-
अक्षय-अटल सम्पदा दें प्रभु शेखर-सोहित..६..
.
इंद्र आदि समस्त देवताओं के शीश पर सुसज्जित पुष्पों की धूलि (पराग) से धूसरित पाद-पृष्ठवाले सर्पराजों की मालाओं से अलंकृत जटावाले भगवान चन्द्रशेखर हमें चिरकाल तक स्थाई रहनेवाली सम्पदा प्रदान करें.६.
*
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्ध नञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके |
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचनेरतिर्मम || ७||
.
धक-धक धधके अग्नि सदा मस्तक में जिनके,
किया पंचशर काम-क्षार बस एक निमिष में.
जो अतिदक्ष नगेश-सुता कुचाग्र-चित्रण में-
प्रीत अटल हो मेरी उन्हीं त्रिलोचन-पद में..७..
.
अपने मस्तक की धक-धक करती जलती हुई प्रचंड ज्वाला से कामदेव को भस्म करनेवाले, पर्वतराजसुता (पार्वती) के स्तन के अग्र भाग पर विविध चित्रकारी करने में अतिप्रवीण त्रिलोचन में मेरी प्रीत अटल हो.७.
*
नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत् - कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः |
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः || ८||
.
नूतन मेघछटा-परिपूर्ण अमा-तम जैसे,
कृष्णकंठमय गूढ़ देव भगवती उमा के.
चन्द्रकला, सुरसरि, गजचर्म सुशोभित सुंदर-
जगदाधार महेश कृपाकर सुख-संपद दें..८..
.
नयी मेघ घटाओं से परिपूर्ण अमावस्या की रात्रि के सघन अन्धकार की तरह अति श्यामल कंठवाले, देवनदी गंगा को धारण करनेवाले शिवजी हमें सब प्रकार की संपत्ति दें.८.
*
प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् |
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकछिदं तमंतकच्छिदं भजे || ९||
.
पुष्पित नीलकमल की श्यामल छटा समाहित,
नीलकंठ सुंदर धारे कंधे उद्भासित.
गज, अन्धक, त्रिपुरासुर भव-दुःख काल विनाशक-
दक्षयज्ञ-रतिनाथ-ध्वंसकर्ता हों प्रमुदित..
.
खिले हुए नीलकमल की सुंदर श्याम-प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कन्धोंवाले, गज, अन्धक, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों को मिटानेवाले, दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करनेवाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ.९.
*
अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदंबमञ्जरी रसप्रवाहमाधुरी विजृंभणामधुव्रतम् |
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे || १०||
.
शुभ अविनाशी कला-कली प्रवहित रस-मधुकर,
दक्ष-यज्ञ-विध्वंसक, भव-दुःख-काम क्षारकर.
गज-अन्धक असुरों के हंता, यम के भी यम-
भजूँ महेश-उमेश हरो बाधा-संकट हर..१०..
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नष्ट न होनेवाली, सबका कल्याण करनेवाली, समस्त कलारूपी कलियों से नि:सृत, रस का रसास्वादन करने में भ्रमर रूप, कामदेव को भस्म करनेवाले, त्रिपुर नामक राक्षस का वध करनेवाले, संसार के समस्त दु:खों के हर्ता, प्रजापति दक्ष के यज्ञ का ध्वंस करनेवाले, गजासुर व अंधकासुर को मारनेवाले,, यमराज के भी यमराज शिवजी का मैं भजन करता हूँ.१०.
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जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वसद्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् |
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः || ११||
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वेगवान विकराल विषधरों की फुफकारें,
दह्काएं गरलाग्नि भाल में जब हुंकारें.
डिम-डिम डिम-डिम ध्वनि मृदंग की, सुन मनमोहक.
मस्त सुशोभित तांडवरत शिवजी उपकारें..११..
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अत्यंत वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्निवाले, मृदंग की मंगलमय डिम-डिम ध्वनि के उच्च आरोह-अवरोह से तांडव नृत्य में तल्लीन होनेवाले शिवजी सब प्रकार से सुशोभित हो रहे हैं.११.
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दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः |
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहत || १२||
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कड़ी-कठोर शिला या कोमलतम शैया को,
मृदा-रत्न या सर्प-मोतियों की माला को.
शत्रु-मित्र, तृण-नीरजनयना, नर-नरेश को-
मान समान भजूँगा कब त्रिपुरारि-उमा को..१२..
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कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शैया, सर्प और मोतियों की माला, मिट्टी के ढेलों और बहुमूल्य रत्नों, शत्रु और मित्र, तिनके और कमललोचनी सुंदरियों, प्रजा और महाराजाधिराजों के प्रति समान दृष्टि रखते हुए कब मैं सदाशिव का भजन करूँगा?
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कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरस्थमञ्जलिं वहन् |
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् || १३||
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कुञ्ज-कछारों में गंगा सम निर्मल मन हो,
सिर पर अंजलि धारणकर कब भक्तिलीन हो?
चंचलनयना ललनाओं में परमसुंदरी,
उमा-भाल-अंकित शिव-मन्त्र गुंजाऊँ सुखी हो?१३..
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मैं कब गंगाजी कछार-कुंजों में निवास करता हुआ, निष्कपट होकर सिर पर अंजलि धारण किये हुए, चंचल नेत्रोंवाली ललनाओं में परमसुंदरी पार्वती जी के मस्तक पर अंकित शिवमन्त्र का उच्चारण करते हुए अक्षय सुख प्राप्त करूँगा.१३.
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निलिम्पनाथनागरी कदंबमौलिमल्लिका, निगुम्फ़ निर्भरक्षन्म धूष्णीका मनोहरः.
तनोतु नो मनोमुदं, विनोदिनीं महर्नीशं, परश्रियं परं पदं तदंगजत्विषां चय: || १४||
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सुरबाला-सिर-गुंथे पुष्पहारों से झड़ते,
परिमलमय पराग-कण से शिव-अंग महकते.
शोभाधाम, मनोहर, परमानन्दप्रदाता,
शिवदर्शनकर सफल साधन सुमन महकते..१४..
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देवांगनाओं के सिर में गुंथे पुष्पों की मालाओं से झड़ते सुगंधमय पराग से मनोहर परम शोभा के धाम श्री शिवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानन्दयुक्त हमारे मनकी प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें.१४.
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प्रचंडवाडवानल प्रभाशुभप्रचारिणी, महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूतजल्पना.
विमुक्तवामलोचनों विवाहकालिकध्वनि:, शिवेतिमन्त्रभूषणों जगज्जयाम जायतां|| १५||
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पापभस्मकारी प्रचंड बडवानल शुभदा,
अष्टसिद्धि अणिमादिक मंगलमयी नर्मदा.
शिव-विवाह-बेला में सुरबाला-गुंजारित,
परमश्रेष्ठ शिवमंत्र पाठ ध्वनि भव-भयहर्ता..१५..
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प्रचंड बड़वानल की भाँति पापकर्मों को भस्मकर कल्याणकारी आभा बिखेरनेवाली शक्ति (नारी) स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रोंवाली देवकन्याओं द्वारा शिव-विवाह के समय की गयी परमश्रेष्ठ शिवमंत्र से पूरित, मंगलध्वनि सांसारिक दुखों को नष्टकर विजयी हो.१५.
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इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् |
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् || १६||
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शिवतांडवस्तोत्र उत्तमोत्तम फलदायक,
मुक्तकंठ से पाठ करें नित प्रति जो गायक.
हो सन्ततिमय भक्ति अखंड रखेंहरि-गुरु में.
गति न दूसरी, शिव-गुणगान करे सब लायक..१६..
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इस सर्वोत्तम शिवतांडव स्तोत्र का नित्य प्रति मुक्त कंठ से पाठ करने से भरपूर सन्तति-सुख, हरि एवं गुरु के प्रति भक्ति अविचल रहती है, दूसरी गति नहीं होती तथा हमेशा शिव जी की शरण प्राप्त होती है.१६.
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पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यः शंभुपूजनपरं पठति प्रदोषे |
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शंभुः || १७||
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करें प्रदोषकाल में शिव-पूजन रह अविचल,
पढ़ दशमुखकृत शिवतांडवस्तोत्र यह अविकल.
रमा रमी रह दे समृद्धि, धन, वाहन, परिचर.
करें कृपा शिव-शिवा 'सलिल'-साधना सफलकर..१७..
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परम पावन, भूत भवन भगवन सदाशिव के पूजन के नत में रावण द्वारा रचित इस शिवतांडव स्तोत्र का प्रदोष काल में पाठ (गायन) करने से शिवजी की कृपा से रथ, गज, वाहन, अश्व आदि से संपन्न होकर लक्ष्मी सदा स्थिर रहती है.१७.
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|| इतिश्री रावण विरचितं शिवतांडवस्तोत्रं सम्पूर्णं||
|| रावणलिखित(सलिलपद्यानुवादित)शिवतांडवस्तोत्र संपूर्ण||
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