कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 24 मार्च 2023

चित्रगुप्त,नदी,गीत,सीनेट,नूपुर,मुक्तिका, परिवार

मुक्तिका  
परिवार 
*
चोट एक को, दर्द शेष को, जिनमें वे ही, हैं परिवार। 
जहाँ रहें वे,उसी जगह हो, स्वर्ग करें सुख, सभी विहार।।

मेरा-तेरा, स्वार्थ नहीं हो, सबसे सबको, प्यार असीम।
सब सबका हित, रहें साधते, करें सभी का, सब उद्धार।।

नेह नर्मदा, रहे प्रवाहित, विमल सलिल की, धार अपार। 
जो अवगाहे, वही सुखी हो, पाप मिटें सब, दें-पा प्यार।।

शूल फूल हों, पतझर सावन, दर्द हर्ष हो, संग  न दूर।  
हो मनभेद न, रहे एकता, मरुथल में  भी, रहे बहार।।

मुझको वर दो, प्रभु बन पाए, मेरा भारत, घर-परिवार। 
बने रवायत, जनसेवा कर, बने सियासत, हरि का द्वार।।
(मात्रिक सवैया, यति ८-८-८-७, पदांत गुरु लघु)
*** 
सॉनेट   
नूपुर
नूपुर निखिल देश कर शोभा।
मात भवानी भुवन पधारी।
पाँव परौं, छवि दिव्य निहारी।।
जीव करो संजीव हृदय भा।।
मैया! तोरी करे साधना।
तबई धन्न हो मनु-मन्वन्तर।
तरै प्रियंक पगों पै सर धर।।
मातु सदय हो जेई कामना।।
तुहिना सी निर्मल मति होए।
जस गाऊँ नित रचौं गीतिका।
नव आशा हर श्वासा बोए।।
माँ मावस खों पूनम कर दो।
अर्पित मन राजीव अंबिका!
मति मयंक खों भक्ति अमर दो।।
२४-३-२०२३
•••
गीत
नदी मर रही है
*
नदी नीरधारी, नदी जीवधारी,
नदी मौन सहती उपेक्षा हमारी
नदी पेड़-पौधे, नदी जिंदगी है-
भुलाया है हमने नदी माँ हमारी
नदी ही मनुज का
सदा घर रही है।
नदी मर रही है
*
नदी वीर-दानी, नदी चीर-धानी
नदी ही पिलाती बिना मोल पानी,
नदी रौद्र-तनया, नदी शिव-सुता है-
नदी सर-सरोवर नहीं दीन, मानी
नदी निज सुतों पर सदय, डर रही है
नदी मर रही है
*
नदी है तो जल है, जल है तो कल है
नदी में नहाता जो वो बेअकल है
नदी में जहर घोलती देव-प्रतिमा
नदी में बहाता मनुज मैल-मल है
नदी अब सलिल का नहीं घर रही है
नदी मर रही है
*
नदी खोद गहरी, नदी को बचाओ
नदी के किनारे सघन वन लगाओ
नदी को नदी से मिला जल बचाओ
नदी का न पानी निरर्थक बहाओ
नदी ही नहीं, यह सदी मर रही है
नदी मर रही है
***
१२.३.२०१८
***
चित्रगुप्त-रहस्य
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
चित्रगुप्त पर ब्रम्ह हैं, ॐ अनाहद नाद
योगी पल-पल ध्यानकर, कर पाते संवाद
निराकार पर ब्रम्ह का, बिन आकार न चित्र
चित्र गुप्त कहते इन्हें, सकल जीव के मित्र
नाद तरंगें संघनित, मिलें आप से आप
सूक्ष्म कणों का रूप ले, सकें शून्य में व्याप
कण जब गहते भार तो, नाम मिले बोसॉन
प्रभु! पदार्थ निर्माण कर, डालें उसमें जान
काया रच निज अंश से, करते प्रभु संप्राण
कहलाते कायस्थ- कर, अंध तिमिर से त्राण
परम आत्म ही आत्म है, कण-कण में जो व्याप्त
परम सत्य सब जानते, वेद वचन यह आप्त
कंकर कंकर में बसे, शंकर कहता लोक
चित्रगुप्त फल कर्म के, दें बिन हर्ष, न शोक
मन मंदिर में रहें प्रभु!, सत्य देव! वे एक
सृष्टि रचें पालें मिटा, सकें अनेकानेक
अगणित हैं ब्रम्हांड, है हर का ब्रम्हा भिन्न
विष्णु पाल शिव नाश कर, होते सदा अभिन्न
चित्रगुप्त के रूप हैं, तीनों- करें न भेद
भिन्न उन्हें जो देखता, तिमिर न सकता भेद
पुत्र पिता का पिता है, सत्य लोक की बात
इसी अर्थ में देव का, रूप हुआ विख्यात
मुख से उपजे विप्र का, आशय उपजा ज्ञान
कहकर देते अन्य को, सदा मनुज विद्वान
भुजा बचाये देह को, जो क्षत्रिय का काम
क्षत्रिय उपजे भुजा से, कहते ग्रन्थ तमाम
उदर पालने के लिये, करे लोक व्यापार
वैश्य उदर से जन्मते, का यह सच्चा सार
पैर वहाँ करते रहे, सकल देह का भार
सेवक उपजे पैर से, कहे सहज संसार
दीन-हीन होता नहीं, तन का कोई भाग
हर हिस्से से कीजिये, 'सलिल' नेह-अनुराग
सकल सृष्टि कायस्थ है, परम सत्य लें जान
चित्रगुप्त का अंश तज, तत्क्षण हो बेजान
आत्म मिले परमात्म से, तभी मिल सके मुक्ति
भोग कर्म-फल मुक्त हों, कैसे खोजें युक्ति?
सत्कर्मों की संहिता, धर्म- अधर्म अकर्म
सदाचार में मुक्ति है, यही धर्म का मर्म
नारायण ही सत्य हैं, माया सृष्टि असत्य
तज असत्य भज सत्य को, धर्म कहे कर कृत्य
किसी रूप में भी भजे, हैं अरूप भगवान्
चित्र गुप्त है सभी का, भ्रमित न हों मतिमान
९४२५१८३२४४
२४-३-२०१४
***

कोई टिप्पणी नहीं: