कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 7 मार्च 2023

कुँवर 'प्रेमिल', समीक्षा, लघुकथा

कृति चर्चा -
रोटी - सारगर्भित लघुकथाएँ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[ कृति विवरण - रोटी, लघुकथा संकलन, डॉ. कुँवर 'प्रेमिल', प्रथम संस्करण, २०२२, आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ ६०, लेखक संपर्क एम.आई.जी. ८ विजय नगर, जबलपुर ४८२००२, चलभाष ९३०१८ २२७८२ ]

साहित्य सृजन और प्रकाशन का शौक दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रहा है। मुद्रण तकनीक सर्व सुलभ और सहज साध्य होने के साथ ही नवधनाढ्यों में लिखास और छपास का व्यसन लत बनते जा रहा है। एक समय था कि एक-एक रुपए जोड़कर हर माह पुस्तकें क्रय कर संतुष्टि होती थी। एक समय आजा का है जब हर माह इतनी पुरतकेँ और पत्रिकाएँ डाक से प्राप्त हो जाती हैं कि चौबीस घंटे बैठकर पढ़ा जाए तो भी सबको नहीं पढ़ा जा सकता। जिनको पढ़ता हूँ उनमें से अधिकांश में कुछ उल्लेखनीय नहीं होता।

जल प्लावन से बड़ी से बड़ी नदी का जल मलिन हो जाना स्वाभाविक है। पावस पश्चात् नदी के शीतल-निर्मल जल की एक अंजुरी भी तृप्त कर देती है। 'रोटी' लघुकथा संग्रह को पढ़ना लघुकथा सलिला से निर्मल जल की अंजुरी पीकर तृप्त करने की तरह है। हिंदी गद्य साहित्य में लघुकथा शिक्षण और लेखन के क्षेत्र में बाढ़ है किंतु लघुकथा पठन और उस पर चर्चा के क्षेत्र में बहुत कार्य किया जाना है। अंतरजाल पर फेसबुक पृष्ठों, वाट्स ऐप समूहों और अन्य पटलों पर लघुकथा गुरुओं और उनके स्वनिर्मित मानकों ने नए लघुकथाकार के समक्ष भ्रम और संदेह का कोहरा घना कर दिया है।

इस वातावरण में संस्कारधानी जबलपुर निवासी श्रेष्ठ-ज्येष्ठ लघुकथाकार डॉ. कुँवर प्रेमिल का छठवाँ लघुकथा संकलन 'रोटी' वामन में विराट के अवतरण की तरह है। जबलपुर में सर्व स्मृतिशेष हरिशंकर परसाई, आनंद मोहन अवस्थी, रविंद्र खरे 'अकेला', श्री राम ठाकुर 'दादा', गुरुनाम सिंह रीहल, मोइनुद्दीन अतहर, गायत्री तिवारी, लक्ष्मी शर्मा आदि के साथ सर्व श्री ओंकार ठाकुर, डॉ. सुमित्र, ओमप्रकाश बजाज, प्रदीप शशांक, संजीव वर्मा 'सलिल', भगवत दुबे, मोहन शशि, रमेश सैनी, छाया त्रिवेदी, सुमनलता श्रीवास्तव, गीता गीत, प्रभा पाण्डे 'पुरनम', प्रभात दुबे, दिनेशनंदन तिवारी, गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त, मनीषा गौतम, पवन जैन, मधु जैन, छाया सक्सेना, भारती नरेश पाराशर आदि ने गत छह दशकों में लघुकथा लेखन आंदोलन को निरंतर गतिशील बनाए रखा है। अतहर तथा कुंवर प्रेमिल ने लघुकथा विधा की पत्रिका भी प्रकाशित की।

विवेच्य कृति 'रोटी' गागर में सागर की तरह है। ६ लघुकथा संकलनों अनुवांशिकी, अंतत:, कुंवर प्रेमिल की ६१ लघुकथाएं, हरिराम हँसा, पूर्वाभ्यास, तथा रोटी में कुंवर प्रेमिल जी की कुल ४६० लघुकथाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं और उनकी उर्वराशक्ति संपन्न कलम अभी रुकी-चुकी नहीं है इसलिए शताधिक लघुकथाएँ रचकर वे हिंदी लघुकथा रतनगर को संपन्न कर सकते हैं। रोटी में ४१ लघुकथाएँ सम्मिलित हैं। प्रेमिल जी संख्या बढ़ाने के मोह से मुक्त हैं। वे लघुकथा के कथ्य, भाषा और शिल्प तीनों को समान महत्त्व देते हैं। उनकी लघुकथाएँ सुचिंतित, मौलिक और सहज बोधगम्य होती हैं। प्रेमिल सम्यक शब्द-प्रयोग के शनि हैं। वे भावनाओं की संतुलित अभिव्यक्ति करने में सिद्धहस्त हैं। कथाय के अनावश्यक विस्तार या अतिशय संकुचन के दोष से प्रेमिल जी की लघुकथाएँ मुक्त हैं। 

कृति के आरंभ में 'आप बीती' में कुंवर प्रेमिल लिखते हैं-

''मैंने सोचा''
'आप सोचते भी हैं' भीतरवाले ने तपाक से पूछा। 
मैंने अपनी बात रखी - ''भाई मैं क्या, हर एक को विचारवान होना चाहिए, विचार-विमर्श खुद से खुद को जोड़ने की अद्भुत प्रक्रिया है।''
'कभी हाँ, कभी ना, में फँसा-धँसा आदमी नाम का यह अद्भुत प्राणी जब इस प्रक्रिया से गुजरता है तो वह तपकर सोना हो जाता है।'

इस संकलन की लघुकथाएँ चितन की भट्टी में तपकर कुंदन हो गयी हैं। 'एक आदमी अपने ही खोल के अंदर' में पीढ़ियों का अन्तर, 'सुगबुगाते प्रश्न' में पति द्वारा रुग्ण पत्नी की शुश्रुषा, 'सुंदर लड़की' में शिक्षक की गरिमा, 'पिताजी यहाँ नहीं मरेंगे' में नई पीढ़ी की स्वार्थपरकता, 'डोकलाम' में दादा-पोते के माध्यम से परिस्थितियों पर व्यंग्य, 'लो जी खरगोश बच्चा जीत गया' में राजनैतिक परिदृश्य पर कटाक्ष, 'आदमी बनने की तैयारी' में माँ-और शिशु में मध्य के संबंध की कोमलता, 'औरत को रोबोट मत बनाओ' में पारिवारिक दायित्वों में दबती गृहिणी का दर्द, 'जमाना कुड़ियों का' में लड़कियों की निरंतर होती प्रगति, 'रिश्ते की बुआ जी' में जरुरत मंदों की मदद, 'तालमेल' में जिंदगी से तालमेल बैठंना, 'चेहरे पर चेहरा' में परिस्थितियों के अनुसार बदलाव, 'मौके की तलाश मेंश्वान दंपत्ति के माध्यम से मानवीय वहशीपना को केंद्र में रखा गया है। 

किन्नरों की पीड़ा, दादी-पोते का लगाव, तलाक में औरतों के साथ अन्याय,  पति और पुत्र के मध्य कठपुतली होती स्त्री, कई तरह के अंकों में फंसे आदमी की परेशानी, संतानों के विवाह के कारण  दो पिताओं के द्व्न्द का अंत, आज्ञाकारी पुत्रों का अकाल, संस्कारों की आवश्यकता, दो पीढ़ियों में लगाव आदि इन लघुकथाओं में जीवंत हुआ है। 

'चाँद सूरज और उनकी अम्मा' लघुकथा में रूपक के माध्यम से आशावादिता को स्थापित किया गया है। लघुकथा 'रोटी' जिसके नाम पर इस पुस्तक का शीर्षक है, में निष्कर्ष है कि हम रोटी को नहीं रोटी हमें खा रही है। 

कुंवर प्रेमिल की लघुकथाओं में कारुण्य, हास्य और व्यंग्य का मिश्रण है। वे सामाजिक विसंगतियों के घाव को क्रूरता और निर्दयता से चीरते नहीं, संवेदना और सहानुभूति के साथ दर्द निवारक देकर उपचारित करते हैं। इन लघुकथाओं की भाषा माध्यम वर्गीय परिवारों में बोलिजनेवाली सहज-सरल, बोधगम्य हिंदी है। प्रेमिल जी बोलचाल के आम शब्दों क प्रयोग पूरी अर्थवत्ता के साथ करते हैं। वाक्य संरचना प्रसंगानुकूल है। लघुकथाओं के विषय सामान्य जान के दैनंदिन जीवन से जुड़े हुए हैं। लघुकथाओं के कथ्य का 'ट्रीटमेंट' इस तरह है कि पाठक को बिना बताए प्रेरणा, आदर्श या मार्ग मिल सके। यह लघुकथा संकलन लघुकथा प्रेमियों को रुचिकर लगेगा। 
***
संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४।  






कोई टिप्पणी नहीं: