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शनिवार, 11 मार्च 2023

मुक्तक,नवगीत,मुक्तिका,हाइकु,त्रिभंगी छंद,त्रिभंगी,दोहा,वर्ण पिरामिड, सॉनेट,सुजाता,सरस्वती

बुंदेली शारद वंदना
बन्दौं सारद मैहरवारी!
किरपा कर मों पै महतारी!
मैंने सबरी बात बिगारी।।
मैया! काय नें तुरत सँवारी।।
थक आओ मैं सरन तिहारी।
पाछूँ पर गए जे संसारी।
कैत बनो रय तैं पंसारी।।
मोखों भा रय प्रभु त्रिपुरारी।।
राजहंस की किए सवारी।
बिनती सुन माँ!, मत ठुकरा री!
मोरी पीरा मत बिसरा री!
जबसें मोहक छबि निहारी।
कर जोरे मैं बनो भिखारी।
भव से तारो बीनबारी!
•••
सोरठा
चिंता-चिंतन
चिंतन कर ले, चिंता तज दे
चिंता तुझको सतत जलाती
जीते जी मरघट पहुँचाती
चिंतन अमृत घट हरि भज ले

अधरों पर मुस्कान सजा ले
गा ले गीत, मीत! निज स्वर में
रह पगले! खुशियों के घर में
होनी होती देख मजा ले

छोड़ बड़प्पन, बच्चा बन जा
सपने देख न कर कंजूसी
कुछ झूठा कुछ सच्चा बन जा

धरती बिछा, ओढ़ नीला नभ
ओढ़ दिशाएँ सुन कर कलरव
उड़े पखेरू पल में संभव
११-३-२०२३
•••
सुजाता
बौद्धकालीन सुजाता को हम बस उस स्त्री के रूप में जानते हैं जिसने कठोर तप के कारण मरणासन्न बुद्ध को खीर खिलाकर उन्हें नया जीवन और जीवन के प्रति संतुलित दृष्टि दी थी। सुजाता बोधगया के पास सेनानी ग्राम के एक धनी व्यक्ति अनाथपिण्डिका की पुत्रवधू थी। अत्यंत अहंकारी, वाचाल और उद्दंड। उसने मनौती मांगी थी कि पुत्र होने के बाद वह गांव के निकट के वृक्ष-देव को खीर चढ़ाएगी। पुत्र की प्राप्ति के बाद उसने अपनी दासी पूर्णा को वृक्ष और उसके आसपास की जगह की सफाई के लिए भेजा। पूर्णा वृक्ष नीचे बैठे कृशकाय बुद्ध को वृक्ष का देवता समझ बैठी और भागती हुई अपनी स्वामिनी को बुलाने गयी। सुजाता ने तत्काल वहाँ पहुँचकर सोने की कटोरी में बुद्ध को खीर और शहद अर्पण करते हुए कहा- ‘जैसे मेरी पूरी हुई, आपकी भी मनोकामना पूरी हो।'

मरणासन्न बुद्ध ने नदी में स्नान के बाद खीर का सेवन कर उनचास दिनों का अपना उपवास तोड़ा। उसी दिन बुद्ध को लगा कि अति किसी भी वस्तु की ठीक नहीं - न भोग की, न योग की। ज्ञान-प्राप्ति के बाद आभार प्रकट करने एक दिन बुद्ध सुजाता के घर गए तो वहाँ घर में लड़ाई-झगड़े का शोर था। पूछने पर अनाथपिण्डिका ने बताया कि उनकी बहू सुजाता अत्यंत अभिमानी और झगड़ालू स्त्री है जो घर में सास-ससुर-पति किसी की एक नहीं सुनती।

बुद्ध ने सुजाता को बुलाकर उसे सात प्रकार की पत्नियों के किस्से बताकर उसकी भूल का बोध कराया और सफल गृहस्थ जीवन के कई सूत्र दिए। सुजाता ने सबसे क्षमा माँगी और उसी दिन से सास-ससुर के साथ पुत्री और पति के साथ मित्र रूप से रहने की सौगंध खाई।

अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में सुजाता बुद्ध के प्रभामंडल से प्रभावित होकर साकेत के पास एक मठ में बौद्ध भिक्षुणी बनी थी और बुद्ध की उपस्थिति में ही वैशाली के पास स्थित किसी आश्रम में उसने अंतिम सांस ली थी। बौद्ध ग्रंथ 'थेरीगाथा' में दूसरी कई प्रख्यात बौद्ध-भिक्षुणियों के साथ भिक्षुणी सुजाता की भी एक पाली कविता संकलित है, जिसका मेरे द्वारा अंग्रेजी से किया भावानुवाद प्रस्तुत है-

गीत
कहे सुजाता
मलयज सुरभित
सुंदर झीने
दामी परदे,
अलंकार बहुमूल्य,
सुमनमाला सज्जित मैं।
दास-दासियों से सेवित,
सब भोग भोगती,
दुर्लभ खाद्य-पेय,
जीवन की सुख-सुविधाएँ,
देखे सब ऐश्वर्य और
क्रीड़ाएँ मैंने।
जिस दिन देखा दिव्य
प्रकाश बुद्ध का अनुपम
जा समीप चरणों में
झुक मैं हुई समर्पित।
परिवर्तित हो गया
पलों में मेरा जीवन।
उपदेशों से जाना मैंने
धर्म-मर्म क्या?
बिना वासना के रहना
कैसा होता है?
इच्छाओं से परे रहो तो
कैसा-क्या सुख?
जान लिया मैंने सचमुच
अमरत्व-सत्य को।
और उसी दिन पाया
मैंने ऐसा जीवन
जो है दुःख के परे
न जिसमें होता है घर।
•••
सॉनेट
चाह
अंतर्मन में ज्योति जला प्रभु!
कलुष न किंचित कहीं शेष हो।
तिमिर न बाकी कहीं लेश हो।।
अंधकार में राह दिखा विभु!

काट सकें कर्मों की कारा।
राग-द्वेष से मुक्त हो सकें।
प्रभु! तुमसे संयुक्त हो सकें।।
जग जग को बाँटें उजियारा।।

कोई न हमको लगे पराया।
सबमें देखें खुद की छाया।
व्याप न पाए मिथ्या माया।।

अहंकार दे विहँस मिटा प्रभु!
काम-क्रोध, मद-लोभ हटा विभु!
नामामृत की चाट चटा प्रभु!
११-३-२०२२
•••
गीत
*
समय न उगता खेत में
समय न बिके बजार
कद्र न जिनको समय की
वही हुए लाचार
नाथ समय के नमन लें
दें मुझको वरदान
असमय करूँ न काम मैं
बनूँ नहीं अनजान
खाली हाथ न फिरे जो
याचक आए द्वार
सीमित घड़ियाँ करी हैं
हर प्राणी के नाम
उसने जो सकता बना
सबके बिगड़े काम
सौ सुनार पर रहा है
भारी एक लुहार
श्वास खेत में बोइए
कर्म फसल बिन देर
ईश्वर के दरबार में
हो न कभी अंधेर
सौदा करिए नगद पर
रखिए नहीं उधार
११-३-२०२०
***
वर्ण पिरामिड
१.
'रे
नर!'
वानर
बोल पड़ा
'
अभिनंदन

कर, मैं हूँ तेरा
पुरखा सचमुच।'
*
२.
है
छाया
काया से
ज्यादा लंबी,
मत समझो
महत्वपूर्ण है
केवल लंबाई ही।
११-३-२०१९
***
दोहा दुनिया
*मन की मन में क्यों रहे, कर मनमानी खूब।
मन उन्मन क्यों हो रहा? बेमन पूछ, न ऊब।।
*
भाई-भतीजावाद के, हारे ठेकेदार
चचा-भतीजे ने किया, घर का बंटाढार
*
दुर्योधन-धृतराष्ट्र का, हुआ नया अवतार
नाव डुबाकर रो रहे, तोड़-फेंक पतवार
*
माया महाठगिनी पर, ठगी गयी इस बार
जातिवाद के दनुज सँग, मिली पटकनी यार
*
लग्न-परिश्रम की विजय, स्वार्थ-मोह की हार
अवसरवादी सियासत, डूब मरे मक्कार
*
बादल गरजे पर नहीं, बरस सके धिक्कार
जो बोया काटा वही, कौन बचावनहार?
*
नर-नरेंद्र मिल हो सके, जन से एकाकार
सर-आँखों बैठा किया, जन-जन ने सत्कार
*
जन-गण को समझें नहीं, नेतागण लाचार
सौ सुनार पर पड़ गया,भारी एक लुहार
*
गलती से सीखें सबक, बाँटें-पाएँ प्यार
देश-दीन का द्वेष तज, करें तनिक उपकार
*
दल का दलदल भुलाकर, असरदार सरदार
जनसेवा का लक्ष्य ले, बढ़े बना सरकार
***
लघुकथा
कन्हैया
*
नामकरण संस्कार को इतना महत्त्व क्यों दिया जाता है? यह तो व्यक्ति के जीवन का एक पल मात्र है, उसे किस नाम से पुकारा जाता है इससे औरों को क्या फर्क पड़ता है? मित्र ने पूछा।
नामकरण किसी को पुकारना मात्र नहीं है। नाम रखना, नाम धरना, नाम थुकाना, नाम करना और नाम होना सबका अलग-अलग बहुत महत्त्व है। किसी जातक के संभावित गुणों का पूर्वानुमान कर तदनुसार पुकारना नामकरण करना है- जनक वह जो पिता की तरह प्रजा का पालन करे, शंकर वह जो शंका का अरि हो अर्थात शंका का अंत कर विश्वास का सृजन करे, श्याम अँधेरे का अंत कर सके, भारत जो प्रकाश फ़ैलाने में रत हो। नाम देते समय औचित्य का विचार अपरिहार्य है। किसी का नाम रखना या नाम धरना एक मुहावरा है जिसका अर्थ किसी त्रुटी के लिए दोषी ठहराना है। 'नाम थुकाना' अर्थात बदनामी कराना। नाम करना या नामवर होना का आशय यश पाना है। नाम होना का मतलब कीर्ति फैलाना है।
जन मानस गुण-धर्म को स्मरण रखता है। भाई से द्रोह करने वाले विभीषण, सबको रुलानेवाले रावण, शासक की पीठ में छुरा भोंकनेवाले मीरजाफर, स्वामिनी को गलत सलाह देनेवाली मंथरा, शिशु वध का प्रयास करनेवाली पूतना, अत्याचारी कंस, अहंकारी दुर्योधन आदि के नाम आज तक कोई अपनी सन्तान क्या पशुओं तक को नहीं देता।
तब तो भविष्य में 'कन्हैया' नाम भी इसी श्रेणी में सम्मिलित हो जाएगा, मित्र ने कहा।
***
***
रसानंद दे छंद नर्मदा २० :
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी तथा बरवैछंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए त्रिभंगी से.
तीन बार हो भंग त्रिभंगी, तीन भंगिमा दर्शाये
*
त्रिभंगी ३२ मात्राओं का छंद है जिसके हर पद की गति तीन बार भंग होकर चार चरणों (भागों) में विभाजित हो जाती है। प्राकृत पैन्गलम के अनुसार:
पढमं दह रहणं, अट्ठ विरहणं, पुणु वसु रहणं, रस रहणं।
अन्ते गुरु सोहइ, महिअल मोहइ, सिद्ध सराहइ, वर तरुणं।
जइ पलइ पओहर, किमइ मणोहर, हरइ कलेवर, तासु कई।
तिब्भन्गी छंदं, सुक्खाणंदं, भणइ फणिन्दो, विमल मई।
(संकेत: अष्ट वसु = ८, रस = ६)
संकेत : प्रथम यति १० मात्रा पर, दूसरी ८ मात्रा पर, तीसरी ८ मात्रा पर तथा चौथी ६ मात्रा पर हो। हर पदांत में गुरु हो तथा जगण (ISI लघु गुरु लघु ) कहीं न हो।
केशवदास की छंद माला में वर्णित लक्षण:
विरमहु दस पर, आठ पर, वसु पर, पुनि रस रेख।
करहु त्रिभंगी छंद कहँ, जगन हीन इहि वेष।।
(संकेत: अष्ट वसु = ८, रस = ६)
भानुकवि के छंद-प्रभाकर के अनुसार:
दस बसु बसु संगी, जन रसरंगी, छंद त्रिभंगी, गंत भलो।
सब संत सुजाना, जाहि बखाना, सोइ पुराना, पन्थ चलो।
मोहन बनवारी, गिरवरधारी, कुञ्जबिहारी, पग परिये।
सब घट घट वासी मंगल रासी, रासविलासी उर धरिये।
(संकेत: बसु = ८, जन = जगण नहीं, गंत = गुरु से अंत)
सुर काज सँवारन, अधम उघारन, दैत्य विदारन, टेक धरे।
प्रगटे गोकुल में, हरि छिन छिन में, नन्द हिये में, मोद भरे।
त्रिभंगी का मात्रिक सूत्र निम्नलिखित है
"बत्तिस कल संगी, बने त्रिभंगी, दश-अष्ट अष्ट षट गा-अन्ता"
लय सूत्र: धिन ताक धिना धिन, ताक धिना धिन, ताक धिना धिन, ताक धिना।
नाचत जसुदा को, लखिमनि छाको, तजत न ताको, एक छिना।
उक्त में आभ्यंतर यतियों पर अन्त्यानुप्रास इंगित नहीं है किन्तु जैन कवि राजमल्ल ने ८ चौकल, अंत गुरु, १०-८-८-६ पर विरति, चरण में ३ यमक (तुक) तथा जगण निषेध इंगित कर पूर्ण परिभाषा दी है।
गुजराती छंद शास्त्री दलपत शास्त्री कृत दलपत पिंगल में १०-८-८-६ पर यति, अंत में गुरु, तथा यति पर तुक (जति पर अनुप्रासा, धरिए खासा) का निर्देश दिया है।
सारतः: त्रिभंगी छंद के लक्षण निम्न हैं:
१. त्रिभंगी ३२ मात्राओं का (मात्रिक) छंद है।
२. त्रिभंगी समपाद छंद है।
३. त्रिभंगी के हर चरणान्त (चौथे चरण के अंत) में गुरु आवश्यक है। इसे २ लघु से बदलना नहीं चाहिए।
४. त्रिभंगी के प्रत्येक चरण में १०-८-६-६ पर यति (विराम) आवश्यक है। मात्रा बाँट ८ चौकल अर्थात ८ बार चार-चार मात्रा के शब्द प्रावधानित हैं जिन्हें २+४+४, ४+४, ४+४, ४+२ के अनुसार विभाजित किया जाता है। इस तरह २ + (७x ४) + २ = ३२ मात्राएँ हर एक पंक्ति में होती है।
५. त्रिभंगी के चौकल ७ मानें या ८ जगण का प्रयोग सभी में वर्जित है।
६. त्रिभंगी के हर पद में पहले दो चरणों के अंत में समान तुक हो किन्तु यह बंधन विविध पदों पर नहीं है।
७. त्रिभंगी के तीसरे चरण के अंत में लघु या गुरु कोई भी मात्रा हो सकती है किन्तु कुशल कवियों ने सभी पदों के तीसरे चरण की मात्रा एक सी रखी है।
८. त्रिभंगी के किसी भी मात्रिक गण में विषमकला नहीं है। सम कला के मात्रिक गण होने से मात्रिक मैत्री का नियम पालनीय है।
९. त्रिभंगी के प्रथम दो पदों के चौथे चरणों के अंत में समान तुक हो। इसी तरह अंतिम दो पदों के चौथे चरणों के अंत में समान तुक हो। चारों पदों के अंत में समान तुक होने या न होने का उल्लेख कहीं नहीं मिला।
उदाहरण:
१. महाकवि तुलसीदास रचित निम्न पंक्तियों में तीसरे चरण की ८ मात्राएँ अगले शब्द के प्रथम अक्षर पर पूर्ण होती हैं, यह आदर्श स्थिति नहीं है, किन्तु मान्य है।
धीरज मन कीन्हा, प्रभु मन चीन्हा, रघुपति कृपा भगति पाई।
पदकमल परागा, रस अनुरागा, मम मन मधुप करै पाना।
सोई पद पंकज, जेहि पूजत अज, मम सिर धरेउ कृपाल हरी।
जो अति मन भावा, सो बरु पावा, गै पतिलोक अनन्द भरी।
२. तुलसी की ही निम्न पंक्तियों में हर पद का हर चरण आपने में पूर्ण है।
परसत पद पावन, सोक नसावन, प्रगट भई तप, पुंज सही।
देखत रघुनायक, जन सुख दायक, सनमुख हुइ कर, जोरि रही।
अति प्रेम अधीरा, पुलक सरीरा, मुख नहिं आवै, वचन कही।
अतिशय बड़भागी, चरनन लागी, जुगल नयन जल, धार बही।
यहाँ पहले २ पदों में तीसरे चरण के अंत में 'प' तथा 'र' लघु (समान) हैं किन्तु अंतिम २ पदों में तीसरे चरण के अंत में क्रमशः 'वै' गुरु तथा 'ल' लघु हैं।
३.महाकवि केशवदास की राम चन्द्रिका से एक त्रिभंगी छंद का आनंद लें:
सम सब घर सोभैं, मुनिमन लोभैं, रिपुगण छोभैं, देखि सबै।
बहु दुंदुभि बाजैं, जनु घन गाजैं, दिग्गज लाजैं, सुनत जबैं।
जहँ तहँ श्रुति पढ़हीं, बिघन न बढ़हीं, जै जस मढ़हीं, सकल दिसा।
सबही सब विधि छम, बसत यथाक्रम, देव पुरी सम, दिवस निसा।
यहाँ पहले २ पदों में तीसरे चरण के अंत में 'भैं' तथा 'जैं' गुरु (समान) हैं किन्तु अंतिम २ पदों में तीसरे चरण के अंत में क्रमशः 'हीं' गुरु तथा 'म' लघु हैं।
४. श्री गंगाप्रसाद बरसैंया कृत छंद क्षीरधि से तुलसी रचित त्रिभंगी छंद उद्धृत है:
रसराज रसायन, तुलसी गायन, श्री रामायण, मंजु लसी।
शारद शुचि सेवक, हंस बने बक, जन कर मन हुलसी हुलसी।
रघुवर रस सागर, भर लघु गागर, पाप सनी मति, गइ धुल सी।
कुंजी रामायण, के पारायण, से गइ मुक्ति राह खुल सी।
टीप: चौथे पद में तीसरे-चौथे चरण की मात्राएँ १४ हैं किन्तु उन्हें पृथक नहीं किया जा सकता चूंकि 'राह' को 'र'+'आह' नहीं लिखा जा सकता। यह आदर्श स्थिति नहीं है। इससे बचा जाना चाहिए। इसी तरह 'गई' को 'गइ' लिखना अवधी में सही है किन्तु हिंदी में दोष माना जाएगा।
***
त्रिभंगी छंद के कुछ अन्य उदाहरण निम्नलिखित हैं
०१. री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं चक्रेशं।
हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं, मक्रेशं ।।।
मंदार सरोजं, कदली जोजं, पुंज भरोजं, मलयभरं।
भरि कंचनथारी, तुमढिग धारी, मदनविदारी, धीरधरं।। --रचनाकार : ज्ञात नहीं
संजीव 'सलिल'
०२. रस-सागर पाकर, कवि ने आकर, अंजलि भर रस-पान किया।
ज्यों-ज्यों रस पाया, मन भरमाया, तन हर्षाया, मस्त हिया।।
कविता सविता सी, ले नवता सी, प्रगटी जैसे जला दिया।
सारस्वत पूजा, करे न दूजा, करे 'सलिल' ज्यों अमिय पिया।।
०३. ऋतुराज मनोहर, प्रीत धरोहर, प्रकृति हँसी, बहु पुष्प खिले।
पंछी मिल झूमे, नभ को चूमे, कलरव कर भुज भेंट मिले।।
लहरों से लहरें, मिलकर सिहरें, बिसरा शिकवे भुला गिले।
पंकज लख भँवरे, सजकर सँवरे, संयम के दृढ़ किले हिले।।
०४. ऋतुराज मनोहर, स्नेह सरोवर, कुसुम कली मकरंदमयी।
बौराये बौरा, निरखें गौरा, सर्प-सर्पिणी, प्रीत नयी।।
सुरसरि सम पावन, जन मन भावन, बासंती नव कथा जयी।
दस दिशा तरंगित, भू-नभ कंपित, प्रणय प्रतीति न 'सलिल' गयी।।
०५. ऋतु फागुन आये, मस्ती लाये, हर मन भाये, यह मौसम।
अमुआ बौराये, महुआ भाये, टेसू गाये, को मो सम।।
होलिका जलायें, फागें गायें, विधि-हर शारद-रमा मगन।
बौरा सँग गौरा, भूँजें होरा, डमरू बाजे, डिम डिम डम।।
०६. ऋतुराज मनोहर, सुनकर सोहर, झूम-झूम हँस नाच रहा।
बौराया अमुआ, आया महुआ, राई-कबीरा बाँच रहा।।
पनघट-अमराई, नैन मिलाई के मंचन के मंच बने।
कजरी-बम्बुलिया आरोही-अवरोही स्वर हृद-सेतु तने।।
शम्भुदान चारण
०७. साजै मन सूरा, निरगुन नूरा, जोग जरूरा, भरपूरा।
दीसे नहि दूरा, हरी हजूरा, परख्या पूरा, घट मूरा।।
जो मिले मजूरा, एष्ट सबूरा, दुःख हो दूरा, मोजीशा।
आतम तत आशा, जोग जुलासा, श्वांस ऊसासा, सुखवासा।।
डॉ. प्राची.सिंह
०८.मन निर्मल निर्झर, शीतल जलधर, लहर लहर बन, झूमे रे।
मन बनकर रसधर, पंख प्रखर धर, विस्तृत अम्बर, चूमे रे।।
ये मन सतरंगी, रंग बिरंगी, तितली जैसे, इठलाये।
जब प्रियतम आकर, हृदय द्वार पर, दस्तक देता, मुस्काये।।
स्व. सत्यनारायण शर्मा 'कमल'
०९ छंद त्रिभंगी षट -रस रंगी अमिय सुधा-रस पान करे।
छवि का बंदी कवि-मन आनंदी स्वतः त्रिभंगी-छंद झरे।।
दृश्यावलि सुन्दर लोल-लहर पर अलकावलि अतिशय सोहे।
पृथ्वी-तल पर सरिता-जल पर पसरी कामिनि मन को मोहे।।
१०. उषाकाल नव-किरण जाल जल का उछाल चुप रह लख रे
रति सद्यस्नाता कंचन गाता रूप लजाता दृश्य अरे
मुद सस्मित निरखत रूप-सुधा घट चितवत नेह-पगा छिप रे
हँस गगन मुदित रवि नैसर्गिक छवि विस्मित मौन ठगा कित रे
११. नम श्यामल केश कमल-मुख श्वेत रुचिर परिवेश प्रदान करे।
नत नयन खुले से निमिष-तजे से अधर मंद मुस्कान भरे।।
उभरे वक्षस्थल जल क्रीडास्थल लहर उछल मन प्राण हरे।
सोई सुषमा सी विधु ज्योत्स्ना सी शरद पूर्णिमा नृत्य करे।।
१२. था तन रोमांचित मन आलोड़ित सिकता-कण शत-शत बिखरे।
सस्मित आकृति अनमोल कलाकृति मुग्ध प्रकृति भी इस पल रे।।
उतरीं जल-परियाँ सिन्धु-लहर सी प्रात प्रहर सुर-धन्या सी।
नव दीप-शिखा सी नव-कलिका सी इठलाती हिम-कन्या सी।।
संजीव 'सलिल'
१३. हम हैं अभियंता नीति नियंता, अपना देश सँवारेंगे।
हर संकट हर हर मंज़िल वरकर, सबका भाग्य निखारेंगे।।
पथ की बाधाएँ दूर हटाएँ, खुद को सब पर वारेंगे।
भारत माँ पावन जन मन भावन, सीकर चरण पखारेंगे।।
१४. अभियंता मिलकर आगे चलकर, पथ दिखलायें जग देखे।
कंकर को शंकर कर दें हँसकर मंज़िल पाएं कर लेखे।।
शशि-मंगल छूलें, धरा न भूलें, दर्द दीन का हरना है।
आँसू न बहायें , जन-गण गाये, पंथ वही तो वरना है।।
१५. श्रम-स्वेद बहाकर, लगन लगाकर, स्वप्न सभी साकार करें।
गणना कर परखें, पुनि-पुनि निरखें, त्रुटि न तनिक भी कहीं वरें।।
उपकरण जुटायें, यंत्र बनायें, नव तकनीक चुनें न रुकें।
आधुनिक प्रविधियाँ, मनहर छवियाँ, उन्नत देश करें न चुकें।।
१६. नव कथा लिखेंगे, पग न थकेंगे, हाथ करेंगे काम काम सदा।
किस्मत बदलेंगे, नभ छू लेंगे, पर न कहेंगे 'यही बदा'।।
प्रभु भू पर आयें, हाथ बटायें, अभियंता संग-साथ रहें।।
श्रम की जयगाथा, उन्नत माथा, सत नारायण कथा कहें।।
जनश्रुति / क्षेपक- रामचरितमानस में बालकाण्ड में अहल्योद्धार के प्रकरण में चार (४) त्रिभङ्गी छंद प्रयुक्त हुए हैं. कहा जाता है कि इसका कारण यह है कि अपने चरण से अहल्या माता को छूकर प्रभु श्रीराम ने अहल्या के पाप, ताप और शाप को भङ्ग (समाप्त) किया था, अतः गोस्वामी जी की वाणी से सरस्वतीजी ने त्रिभङ्गी छन्द को प्रकट किया.
११-३-२०१६
***
हाइकु के रँग
*
धरने पर
बैठा मुख्यमंत्री
आँखें चुराये
*
रंग-बिरंगे
नमो गुजरात को
रोज भुनाएं
*
ममो का मौन
अनकहनी कह
होली मनाये
*
झोपड़ी में जा
शहजादा लालू को
गले लगाये
*
नारी बेचारी
ममता की मारी है
ख्वाब सजाये
*
अन्ना हजारे
मुसीबत के मारे
खोजें सहारे
*
माया की काया
दे न किसी को कभी
थोड़ी भी छाया
*
बाल्टी का रंग
अम्मा को पड़े कम
करुणा दंग
***
मुक्तिका:
खुली आँख सपने…
*
खुली आँख सपने बुने जा रहे हैं
कहते खुदी खुद सुने जा रहे हैं

वतन की जिन्हें फ़िक्र बिलकुल नहीं है
संसद में वे ही चुने जा रहे हैं

दलतंत्र मलतंत्र है आजकल क्यों?
जनता को दल ही धुने जा रहे हैं

बजा बीन भैसों के सम्मुख मगन हो
खुश है कि कुछ तो सुने जा रहे हैं

निजी स्वार्थ ही साध्य सबका हुआ है
कमाने के गुर मिल गुने जा रहे हैं
११-३-२०१४
***
नव गीत:
ऊषा को लिए बाँह में,
संध्या को चाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
पानी के बुलबुलों सी
आशाएँ पल रहीं.
इच्छाएँ हौसलों को
दिन-रात छल रहीं.
पग थक रहे, मंजिल कहीं
पाई न राह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
तृष्णाएँ खुद ही अपने
हैं हाथ मल रहीं.
छायाएँ तज आधार को
चुपचाप ढल रहीं.
मोती को रहे खोजते
पाया न थाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
मुक्तक:
समय बदला तो समय के साथ ही प्रतिमान बदले.
प्रीत तो बदली नहीं पर प्रीत के अनुगान बदले.
हैं वही अरमान मन में, है वही मुस्कान लब पर-
वही सुर हैं वही सरगम 'सलिल' लेकिन गान बदले..
*
रूप हो तुम रंग हो तुम सच कहूँ रस धार हो तुम.
आरसी तुम हो नियति की प्रकृति का श्रृंगार हो तुम..
भूल जाऊँ क्यों न खुद को जब तेरा दीदार पाऊँ-
'सलिल' लहरों में समाहित प्रिये कलकल-धार हो तुम.
*
नारी ही नारी को रोके इस दुनिया में आने से.
क्या होगा कानून बनाकर खुद को ही भरमाने से?.
दिल-दिमाग बदल सकें गर, मान्यताएँ भी हम बदलें-
'सलिल' ज़िंदगी तभी हँसेगी, क्या होगा पछताने से?
*
ममता को समता का पलड़े में कैसे हम तौल सकेंगे.
मासूमों से कानूनों की परिभाषा क्या बोल सकेंगे?
जिन्हें चाहिए लाड़-प्यार की सरस हवा के शीतल झोंके-
'सलिल' सिर्फ सुविधा देकर साँसों में मिसरी घोल सकेंगे?
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११-३-२०१०
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