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मंगलवार, 28 मार्च 2023

बटुकेश्वर दत्त

स्मरण
अमर क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त
- गीतिका 'श्रीव' 
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             अमर क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त (जन्म १८ नवंबर १९१०, ग्राम-औरी, जिला - नानी बर्दवान पश्चिम बंगाल - निधन २० जुलाई १९६५ एम्स नई दिल्ली) ने ८ अप्रैल १९२९ को अपने साथी भगत सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजी सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में बम फेंककर इंकलाब ज़िंदाबाद के नारों के साथ जिंदगी भर को काला-पानी कबूल किया था। इन्हीं बटुकेश्वर दत्त को इस नेता-अफसर-धन्नासेठ पूजक और मूर्तिपूजक देश ने कृत्घ्नतापूर्वक भुला दिया जबकि वे आजादी के बाद भी २१ वर्षों तक जिंदा बचे रहे थे। हम अपने वास्तविक बहादुर और निस्वार्थ नायकों के ज़िंदा रहते उनकी कद्र करना नहीं जान सके।

             अफ़सोस कि बटुकेश्वर दत्त (पिता गोष्ठबिहारी दत्त-माँ कामिनी देवी) जैसे महान क्रांतिकारी को आज़ादी के बाद जिंदगी की गाड़ी खीचने के लिए कभी एक सिगरेट कंपनी का एजेंट बनकर पटना की गुटखा-तंबाकू की दुकानों के इर्द-गिर्द भटकना पड़ा तो कभी बिस्कुट और डबलरोटी बनाने का काम करना पड़ा। जिस नर नाहर के पराक्रम से ब्रिटिश सरकार थरथराती थी, जिसके ऐतिहासिक किस्से भारत के बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर होने चाहिए थे उसे खुद एक मामूली टूरिस्ट गाइड बनकर गुजर-बसर करनी पड़ी।

             उत्तर प्रदेश के कानपुर में पृथ्वीनाथ चक हाई स्कूल में पढ़ते समय, वह सुरेंद्रनाथ पांडे और विजय कुमार सिन्हा के संपर्क में आए, जो बाद में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलनों में शामिल होने के दौरान उनके सह क्रांतिकारी बने। बटुकेश्वर ने १९२५ ई. में मैट्रिक की परीक्षा पास की और तभी माता व पिता दोनों का देहांत हो गया। इनकी स्नातक स्तरीय शिक्षा पी.पी.एन. कॉलेज कानपुर में सम्पन्न हुई। बटुकेश्वर दत्त किशोर थे जब उन्होंने कानपुर में माल रोड पर ब्रिटिश कर्मचारियों द्वारा एक भारतीय लड़के की क्रूर पिटाई देखी, क्योंकि भारतीयों को सड़कों पर स्वतंत्र रूप से घूमने की अनुमति नहीं थी। युवा बटुकेश्वर दत्त इस घटना से बहुत प्रभावित हुए, जिसने अंततः उन्हें भारत में उपनिवेश विरोधी आंदोलनों में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। जल्द ही बटुकेश्वर दत्त ने प्रताप अखबार के प्रकाशक ‘सुरेशचंद्र भट्टाचार्य’ के माध्यम से हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) के सह-संस्थापक ‘सचिंद्रनाथ सान्याल’ से मुलाकात की। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त एक ही समय में HSRA में शामिल हुए। ८ अप्रैल, १९२९ को, जब भगत सिंह ने सेंट्रल असेंबली पर बम गिराए, तो वे भगत सिंह के साथ थे। सेंट्रल असेंबली (अब भारत की संसद) में, भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ, वाणिज्यिक विवाद अधिनियम और सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम का विरोध करने के लिए बम फेंके, जिसे ब्रिटिश सरकार ने वर्ग राजनीति को कम करने के लिए पेश किया।

             वर्ष १९२४ में कानपुर बाढ़ के दौरान, बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह ने मिलकर ‘तरुण संघ’ मिशन के लिए स्वेच्छा से काम किया, जो बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए बनाया गया था, और इस अवधि के दौरान उनके बीच दोस्ती बढ़ी। दत्त ने इस दौरान भगत सिंह को बंगाली भाषा सिखाई और उन्हें काजी नजीरूल इस्लाम की कविता से भी परिचित कराया। बटुकेश्वर दत्त ने अपने संस्मरणों में लिखा है: '…हम दोनों को एक साथ ड्यूटी सौंपी गई थी। हम दोनों रात में गंगा के किनारे खड़े थे, लालटेन पकड़े हुए ताकि कोई जो नाले में प्रवेश करे, किनारे तक पहुँचने की कोशिश करे और बच जाए… ”

   
         १९२५ 
में, काकोरी षडयंत्र मामले के बाद हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) का नेतृत्व पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गया था। तब ब्रिटिश सरकार ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के कई महत्वपूर्ण नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया था। बटुकेश्वर दत्त बिहार और फिर कलकत्ता चले गए, जहाँ वे वर्कर्स एंड पीजेंट्स पार्टी में शामिल हो गए। इस पार्टी के लिए काम करते हुए उन्होंने पार्टी को उनके पर्चे और पोस्टर हिंदी में लिखने में मदद की। बाद में, थोड़े समय के लिए, वह बंगाल मैला ढोने वालों के सिंडिकेट की हावड़ा शाखा से जुड़ गए। दूसरी ओर, चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह ने धीरे-धीरे कानपुर में एचआरए को पुनर्गठित करना शुरू कर दिया और बटुकेश्वर दत्त को कानपुर में एचआरए में फिर से शामिल होने का निर्देश दिया। १९२७ में, हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) ने इसका नाम बदलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) कर दिया, जिसमें कहा गया था कि औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करने में समाजवाद पार्टी के मुख्य लक्ष्यों में से एक था। ब्रिटिश सरकार को अक्सर एचएसआरए द्वारा सशस्त्र संघर्ष और प्रतिशोध के साथ चुनौती दी गई थी। इस अवधि के दौरान, समाजवादी साहित्य पढ़ना इसके सदस्यों के लिए अनिवार्य अभ्यास बन गया। उस समय जो प्रसिद्ध नारे इस्तेमाल किए गए थे, वे थे मातृभूमि की रक्षा करना, क्रांति को जिंदा रखना और साम्राज्यवाद के साथ नीचे रहना। १९२७-२८ के दौरान, भारत में भारतीय श्रमिकों को विभिन्न विरोधों और बंदों का सामना करना पड़ा, जब सरकार ने सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक और भारत व्यापार विवाद विधेयक नामक दो विवादास्पद विधेयक पेश करने का निर्णय लिया। इन बिलों ने भारतीय कामगारों की सभी हड़तालों को अवैध और प्रबंधन के खिलाफ विद्रोह करार दिया। इस जबरदस्ती ने एचएसआरए को औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ विद्रोह करने का कारण बना दिया। 


             १९२८ में जब हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का गठन चंद्रशेखर आजाद की अगुआई में हुआ, तो बटुकेश्वर दत्त भी उसके अहम सदस्य थे। बम बनाने के लिए बटुकेश्वर दत्त ने खास ट्रेनिंग ली और इसमें महारत हासिल कर ली। एचएसआरए की कई क्रांतिकारी गतिविधियों में वो सीधे तौर पर शामिल थे। जब क्रांतिकारी गतिविधियों के खिलाफ अंग्रेज सरकार ने डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट लाने की योजना बनाई, तो भगत सिंह ने उसी तरह से सेंट्रल असेंबली में बम फोड़ने का इरादा व्यक्त किया, जैसे कभी फ्रांस के चैंबर ऑफ डेपुटीज में एक क्रांतिकारी ने फोड़ा था।

             एचएसआरए की मीटिंग हुई, तय हुआ कि बटुकेश्वर दत्त असेंबली में बम फेंकेंगे और सुखदेव उनके साथ होंगे। भगत सिंह उस दौरान सोवियत संघ की यात्रा पर होंगे, लेकिन बाद में भगत सिंह के सोवियत संघ का दौरा रद्द हो गया और दूसरी मीटिंग में तय हुआ कि बटुकेश्वर दत्त बम प्लांट करेंगे, लेकिन उनके साथ सुखदेव के बजाय भगत सिंह होंगे। भगत सिंह को पता था कि बम फेंकने के बाद असेंबली से बचकर निकल पाना, मुमकिन नहीं होगा, ऐसे में क्यों ना इस घटना को बड़ा बनाया जाए, इस घटना के जरिए बड़ा मैसेज दिया जाए।

             ८ अप्रैल १९२९ का दिन था, पब्लिक सेफ्टी बिल पेश किया जाना था। बटुकेश्वर बचते-बचाते किसी तरह भगत सिंह के साथ दो बम सेंट्रल असेंबली में अंदर ले जाने में कामयाब हो गए। जैसे ही बिल पेश हुआ, विजिटर गैलरी में मौजूद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त उठे और दो बम उस तरफ उछाल दिए जहाँ बेंच खाली थी। जॉर्ज सस्टर और बी.दलाल समेत थोड़े से लोग घायल हुए, लेकिन बम ज्यादा शक्तिशाली नहीं थे, सो धुआँ तो भरा, लेकिन किसी की जान को कोई खतरा नहीं था। बम के साथ-साथ दोनों ने  पर्चे भी फेंके, गिरफ्तारी से पहले दोनों ने इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद जैसे नारे भी लगाए। दस मिनट के अंदर असेंबली फिर शुरू हुई और फिर स्थगित कर दी गई।विधेयकों के पारित होने से ठीक हले, ८ अप्रैल, १९२९ को, भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने एचएसआरए पर्चे बाँटते हुए केंद्रीय विधानसभा (अब संसद) में बम (जो जीवन के लिए खतरा नहीं थे) गिराए और ‘डाउन’ के नारे लगाए। साम्राज्यवाद के साथ’ और ‘क्रांति जीवित रहे’। इन बमों को बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह द्वारा विजिटर्स गैलरी से फेंका गया था। इस घटना के बाद दोनों ने भागने का प्रयास भी नहीं किया और दोनों को ब्रिटिश पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था।

             उसके बाद देश भर में बहस शुरू हो गई। भगत सिंह के चाहने वाले, ये साबित करने की कोशिश कर रहे थे कि बम किसी को मारने के लिए नहीं बल्कि बहरे अंग्रेजों के कान खोलने के लिए फेंके गए थे, तो वहीं अंग्रेज और अंग्रेज परस्त इसे अंग्रेजी हुकूमत पर हमला बता रहे थे। बाद में फोरेंसिक रिपोर्ट ने ये साबित कर दिया कि बम इतने शक्तिशाली नहीं थे। बाद में भगत सिंह ने भी कोर्ट में कहा कि उन्होंने केवल अपनी आवाज रखने के लिए, बहरों के कान खोलने के लिए इस तरीके का इस्तेमाल किया था, ना कि किसी की जान लेने के लिए। लेकिन भगत सिंह के जेल जाते ही एचआरएसए के सदस्यों ने लॉर्ड इरविन की ट्रेन पर बम फेंक दिया।

             भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी  हुई जबकि बटुकेश्वर दत्त को काला पानी की सज़ा।  फाँसी की सजा न मिलने से वे दुखी और अपमानित महसूस कर रहे थे। बताते हैं कि यह पता चलने पर भगत सिंह ने उन्हें एक चिट्ठी लिखी।  इसका मजमून यह था कि वे दुनिया को यह दिखाएँ कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए मर ही नहीं सकते बल्कि जीवित रहकर जेलों की अंधेरी कोठरियों में हर तरह का अत्याचार भी सहन कर सकते हैं। भगत सिंह ने उन्हें समझाया कि मृत्यु सिर्फ सांसारिक तकलीफों से मुक्ति का कारण नहीं बननी चाहिए।

             अपनी माँ को लिखे पत्र में भगत सिंह ने कहा – ‘मैं तो जा रहा हूँ, लेकिन बटुकेश्वर दत्त के रूप में अपना एक हिस्सा छोड़े जा रहा हूँ।’ बटुकेश्वर दत्त ने यही सिद्ध किया। काला पानी की सजा के तहत उन्हें अंडमान की कुख्यात सेल्युलर जेल भेजा गया।  १९३७ में वे बाँकीपुर केन्द्रीय कारागार, पटना लाए गए।  १९३८ में  उनकी रिहाई हो गई।  कालापानी की सजा के दौरान ही उन्हें टीबी हो गया था जिससे वे मरते-मरते बचे। जल्द ही वे महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े। उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया। चार साल बाद १९४५  में वे रिहा हुए।  १९४७ में देश आजाद हो गया। नवम्बर, १९४७ में बटुकेश्वर दत्त ने शादी कर ली और पटना में रहने लगे  लेकिन उनकी जिंदगी का संघर्ष जारी रहा। 


             बटुकेश्वर दत्त को बाद में ब्रिटिश सरकार ने आजीवन कारावास की सजा दी और अंडमान सेलुलर जेल भेज दिया गया। जेल में अपने समय के दौरान, उन्होंने जेल में राजनीतिक कैदियों के अधिकारों के लिए दो भूख हड़ताल शुरू की। बटुकेश्वर के अनुसार, राजनीतिक बंदियों को अंग्रेजों द्वारा अमानवीय व्यवहार प्राप्त हुआ। दो में से एक हड़ताल ११४ दिनों से अधिक समय तक चली, जिसे आधुनिक राजनीतिक इतिहास में सबसे लंबी भूख हड़तालों में से एक माना जाता था। जेल में, उन्होंने अपने सह-क्रांतिकारियों शिव वर्मा, जयदेव कपूर और बिजॉय कुमार सिन्हा के साथ कम्युनिस्ट समेकन नामक एक मार्क्सवादी अध्ययन मंडल की स्थापना की। जेल में उनके द्वारा ‘द कॉल’ नामक एक हस्तलिखित पत्रिका के कई संस्करण भी लिखे गए।बटुकेश्वर दत्त के सह-क्रांतिकारियों में से एक मनमथनाथ गुप्ता ने अपने एक लेख में कहा है कि शुरुआत में दत्त एक विद्वान क्रांतिकारी नहीं थे, लेकिन अंडमान जेल में उन्होंने समाजवादी सिद्धांत के लिए पूरी तरह से वैचारिक प्रशिक्षण प्राप्त किया। मनमथनाथ गुप्ता ने लिखा- ''मूलत: दत्त विद्वान क्रांतिकारी नहीं थे, अंडमान जेल के विद्वतापूर्ण माहौल में, उन्होंने अच्छी तरह से पढ़ा और खुद को समाजवादी सिद्धांत के प्रति समर्पित कर दिया… वे एक कठोर समाजवादी बन गए थे।”

             १९३७ में, बटुकेश्वर दत्त को अंडमान जेल से दिल्ली के हजारीबाग जेल में स्थानांतरित कर दिया गया, जल्द ही पटना जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। अंडमान जेल में अमानवीय यातना ने बटुकेश्वर दत्त की स्वास्थ्य की स्थिति खराब कर दी थी। महात्मा गाँधी और अन्य भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नेताओं ने कथित तौर पर ब्रिटिश सरकार से उन्हें रिहा करने का आग्रह किया। उन्हें इस शर्त पर रिहा किया गया था कि वह किसी भी उपनिवेश विरोधी गतिविधि में शामिल नहीं होंगे और किसी भी राजनीतिक दल में शामिल नहीं होंगे। अंततः ८ सितंबर, १९३८  को पटना जेल से उनकी रिहाई हुई। 

             जेल से छूटने के बाद, जब उनके स्वास्थ्य में सुधार होने लगा, तो उन्होंने फिर से क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेना शुरू कर दिया। १९३३-३४ के दौरान, कानपुर और उन्नाव जिले के कई युवा ‘नवचेतन संघ’ में शामिल हो गए, जो भगत सिंह और एचएसआरए से प्रेरित होकर शिव कुमार मिश्रा, शेखर नाथ गांगुली और अन्य लोगों द्वारा शुरू किया गया एक क्रांतिकारी आंदोलन था। १९३७- ३८ के दौरान इस संगठन का नवयुवक संघ (युवा संघ) में विलय हो गया और जोगेशचंद्र चटर्जी और झाँसी  के पं. परमानंद इस संगठन के नेता थे। बाद में इस संगठन का भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट रिवोल्यूशनरी पार्टी में विलय हो गया।

             मई १९३९ में, कम्युनिस्ट समूहों और पूर्व एचएसआरए क्रांतिकारियों ने उन्नाव जिले के मुकर गाँव में सचिंद्रनाथ सान्याल, मन्मथनाथ गुप्त, रामकिशन खत्री, विजय कुमार सिन्हा, भगवानदास माहौर और यशपाल सहित तीन दिवसीय सम्मेलन का आयोजन किया। ग़दर पार्टी के नेता सोहन सिंह बखना ने भी सम्मेलन में भाग लिया। इस सम्मेलन के अध्यक्ष बटुकेश्वर दत्त थे। शिव कुमार मिश्रा के अनुसार, उनके संस्मरण ‘काकोरी से नक्सलबाड़ी तक’ में इस सम्मेलन को महत्वपूर्ण माना गया क्योंकि इसने क्रांतिकारी समूहों और कम्युनिस्ट पार्टी को एक साथ लाया। १९४२ में बटुेश्वर दत्त ने भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया, और ब्रिटिश सरकार द्वारा उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और भारत की स्वतंत्रता के बाद रिहा कर दिया गया। 

             भारत की आजादी के बाद, दत्त ने भारतीय राजनीति में भाग नहीं लेने का फैसला किया। उनके एक साथी मन्मथनाथ गुप्त ने अपने एक लेख में कहा था कि दत्त और अन्य क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी कहते थे कि यह वह स्वतंत्रता नहीं थी जिसके लिए वे लड़ रहे थे। उन्होंने लिखा - 'हमारी राजनीतिक चर्चाओं के दौरान वह, हमारे अन्य साथियों की तरह, कहते थे कि यह वह स्वतंत्रता (स्वराज्य) नहीं है जिसके लिए हम लड़ रहे हैं, हम इसके लिए कभी नहीं लड़े और हम कुछ अलग चाहते थे।''

             आजादी के बाद, दत्त को अपनी आजीविका जारी रखने और अस्पताल के खर्चों को कवर करने के लिए केंद्र सरकार से कोई वित्तीय मदद नहीं मिली। उन्होंने कुछ समय तक एक सिगरेट कंपनी में एजेंट के रूप में काम किया और परिवहन व्यवसाय में भी अपनी किस्मत आजमाई। चार महीने के लिए उन्हें कथित तौर पर बिहार विधान परिषद में नियुक्त किया गया था। बाद में, बटुकेश्वर दत्त बम विस्फोट मामले का प्रतिनिधित्व करने वाले आसफ अली ने एक मीडिया आउटलेट के साथ बातचीत में कहा कि दत्त ने ८ अप्रैल, १९२९ को सेंट्रल असेंबली में कभी कोई बम नहीं गिराया, लेकिन वह भगत सिंह के साथ रहना चाहते थे।  इसलिए दत्त ने भगतसिंह के साथ गिरफ्तारी दी। आसफ अली ने कहा: ''दोनों क्रांतिकारियों को जीवन भर के लिए परिवहन की सजा सुनाई गई थी (दोषियों को उनके शेष जीवन के लिए मुख्य भूमि भारत से निर्वासित कर दिया गया था) इस मामले में “गैरकानूनी और दुर्भावनापूर्ण रूप से जीवन को खतरे में डालने वाली प्रकृति के विस्फोटों के कारण।” 

             देश की आजादी और जेल से रिहाई के बाद बटुकेश्वर दत्त जी पटना में रहने लगे थे। पटना में अपनी बस शुरू करने के विचार से जब वे बस का परमिट लेने की ख़ातिर पटना के कमिश्नर से मिले तो कमिश्नर द्वारा उनसे उनके बटुकेश्वर दत्त होने का प्रमाण माँगा गया। जो अफसरशाही क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त की छाया से घबराती थी, उसी तंत्र का एक अदना सा अफसर शांतिवादी बटुकेश्वर दत्त से उनके जिंदा  होने का प्रमाण माँग रहा था। बाद में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को जब यह बात पता चली तो कमिश्नर नेको बटुकेश्वर दत्त जी से माफ़ी माँगनी पड़ी। 

             अंतत:, पटना की सड़कों पर खाक छानने को विवश बटुकेश्वर दत्त की पत्नी अंजलि दत्त जी (विवाह १९४७) मिडिल स्कूल में नौकरी करने के लिए विवश हुईं जिससे दत्त परिवार (बेटी भारती बागची, पूर्व प्राध्यापक, अर्थशास्त्र, पटना विश्वविद्यालय) का गुज़ारा हो सके।  १९६४ में बटुकेश्वर जी के अचानक बीमार होने के बाद उन्हें गंभीर हालत में पटना के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया, पर उनका ढंग से उपचार नहीं हो रहा था। इस पर उनके मित्र चमनलाल आजाद ने एक लेख में लिखा, क्या दत्त जैसे क्रांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए? परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी भूल की है। चमनलाल आजाद के मार्मिक लेकिन कड़वे सच को बयां करने वाले लेख को पढ़कर पंजाब सरकार ने अपने खर्चे पर दत्त का इलाज़ करवाने का प्रस्ताव दिया। तब बिहार सरकार ने ध्यान देकर मेडिकल कॉलेज में उनका इलाज़ करवाना शुरू किया।

             अब तक बहुत देर हो गई थी। बटुकेश्वर दत्त जी की हालात गंभीर हो चली थी। २२ नवंबर १९६४ को उन्हें दिल्ली लाया गया। दिल्ली पहुँचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था- “मुझे स्वप्न में भी ख्याल न था कि मैं उस दिल्ली में जहाँ मैंने बम डाला था, एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाया जाऊँगा।” दत्त को दिल्ली के एम्स अस्पताल में भर्ती किये जाने पर पता चला कि उन्हें कैंसर है और उनकी जिंदगी के चंद दिन ही शेष बचे हैं। यह खबर सुनकर अमर शहीद भगत सिंह की माँ विद्यावती देवी अपने पुत्र समान बटुकेश्वर दत्त से मिलने दिल्ली आईं। पंजाब के मुख्यमंत्री रामकिशन भी दत्त से मिलने पहुँचे और उन्होंने पूछ लिया- 'हम आपको कुछ देना चाहते हैं, जो भी आपकी इच्छा हो माँग लीजिए।'

             भारत को आजाद करने के लिए अपनी जान को दाँव पर लगानेवाले क्रन्तिकारी जिसने ब्रिटिश सरकार के हर प्रलोभन को ठुकरा दिया था, उससे आजाद भारत का एक मुख्य मंत्री पूछ रहा था क्या चाहिए? दो राज्य बिहार और पंजाब ही नहीं केंद्र सरकार को भी बटुकेश्वर दत्त को सर आँखों पर बैठना चाहिए था। देश स्वतंत्र होने के बाद उन्हें देश का राजदूत, मंत्री या राज्यपाल बनाया जाना था पर कुर्सी पाकर सत्ताधीश बटुकेश्वर दत्त और अन्य क्रांतिकारियों को भूल गए। विपक्ष सत्ता पाने के लिए संघर्ष करता रह किंतु उसने भी क्रांतिकारियों को अपना उम्मीदवार नहीं बनाया। हद तो यह कि जो कायस्थ समाज आज बटुकेश्वर दत्त जी की तस्वीर अपने समारोहों में लगता है, उसने भी कभी उनके जीवित रहते उनका अभिनन्दन तक न किया। पटना का बंगाली समाज भी उनसे दूर ही रहा। वैचारिक दृष्टी से साम्यवादी रहे बटुकेश्वर दत्त को भारत के साम्यवादी दलों ने भी नेतृत्व नहीं दिया।

             भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन और  प्रधान मंत्री स्व. लालबहादुर शास्त्री ने अस्पताल में बटुकेश्वर दत्त से तब मुलाकात की, जब उनका दिल्ली में इलाज चल रहा था। अस्पताल में दत्त ने कहा - ''जब आप क्रांतिकारियों के बारे में सोचते हैं, तो आप उन्हें केवल हथियारबंद व्यक्ति समझते हैं और आप उस समाज के दृष्टिकोण को पूरी तरह से भूल जाते हैं जिसका वे प्रतिनिधित्व करते हैं।''

             उस दिन पंजाब के मुख्यमंत्री से बटुकेश्वर दत्त जी ने आँखों में आँसू और होठों पर फीकी मुस्कान के साथ कहा- 'कुछ नहीं चाहिए. बस मेरी यही अंतिम इच्छा है कि मेरा दाह संस्कार मेरे मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए।' जब तक जिन्दा थे दोनों देश को आजाद करने के लिए जान की बाजी लगते थे। क्या हुआ जो एक कुछ बरस पहले और दूसरा कुछ बरस बाद जाए, आखिकार दोनों क्रांतिकारी मित्रों की मिट्टी ही एक हो जाए।

             २० जुलाई १९६५ की रात १ बजकर ५० मिनट पर दत्त इस दुनिया से विदा हो गए। उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छा के अनुसार, भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की समाधि के निकट किया गया। हुसैनीवाला, जिसका कुछ आधिकारिक दस्तावेज़ों में नाम ग़ुलाम हुसैनवाला भी है, भारत के पंजाब राज्य के फ़िरोज़पुर ज़िले में स्थित एक गाँव है। यह सतलुज नदी के किनारे और भारत की पाकिस्तान के साथ सीमा पर स्थित है। राष्ट्रीय राजमार्ग ५ यहाँ से गुज़रता है।

             जुलाई २०१९ में, भारत सरकार ने भारतीय क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी बटुकेश्वर दत्त के नाम पर पश्चिम बंगाल के बर्धमान रेलवे स्टेशन का नाम रखा है। भारत सरकार ने भारत की स्वतंत्रता के लिए उनके बलिदानों को स्वीकार करने के लिए दिल्ली के एक आवासीय कॉलोनी का नाम 'बीके दत्त कॉलोनी' का नाम उनके नाम रखा है भारत की स्वतंत्रता के कई वर्षों के बाद, भारत सरकार ने बटुकेश्वर दत्त के पैतृक घर का जीर्णोद्धार किया और पर्यटकों के लिए एक स्मारक के रूप में इसका उद्घाटन किया।  भारत सरकार ने भारत की के लिए उनके बलिदानों का सम्मान करने के लिए पटना में बटुकेश्वर दत्त की एक प्रतिमा स्थापित की। बटुकेश्वर  दत्त की स्मृति में   एक डाक टिकिट तक  नहीं जारी कर सकी  है राष्ट्रीयता की झंडाबरदार बननेवाली भारत सरकार। 

             बटुकेश्वर दत्त जी की पुत्री भारती बागची  (पूर्व प्राध्यापक अर्थशास्त्र पटना विश्वविद्यालय) कहती हैं - ''मैं पिता जी के साथ १४ साल ही रह पाई। इस उम्र में जो उनसे सीखा समझा जा सकता था, वह उनका व्यवहार ही था। बचपन उस वक्त गुजरा जब आजादी के बाद चीजों को नई तरीके से गढ़ने की कोशिश हो रही थी और ढेरों उम्मीदें पूरे देश को थीं। ज्यादातर देशवासी तकलीफों को इसलिए बर्दाश्त कर रहे थे कि उनको कम से कम विदेशी की जंजीरों से मुक्ति मिली। ऐसे में एक क्रांतिकारी तकलीफों को क्या मानेगा, जिसने अपना जीवन ही आजादी के लिए दाँव पर लगा दिया हो। पिता जी के बारे में कई बातें बाद में मीडिया में प्रकाशित हुईं कि वे बहुत मुश्किलों से गुजरे। हकीकत ये है कि वे उन मुश्किलों को मुश्किल नहीं मानते थे, बल्कि देश के आम लोगों की जिंदगी के साथ जोड़कर देखते थे। वे उस वक्त मुझे बहुत खिलौने नहीं लाते थे, बल्कि कहानियों की ऐसी पुस्तिकाएँ लाते थे, जिससे एक सच्चा इंसान बना जाए, जिसकी जिंदगी में अनुशासन हो और गरीब-मेहनती लोगों के लिए दिल में करुणा हो।''

             भारती जी अपनी बुआ प्रमिला देवी से सुना वह किस्सा बताती हैं कि किस फितरत ने पिता बटुकेश्वर दत्त को क्रांतिकारी बना दिया- ”बचपन में जब वे स्कूल जाते थे तो अपने खाने का टिफिन रास्ते में एक असहाय को रोजाना दे देते। जाड़े के दिनों में एक बार जब टिफिन लेकर पहुँचे तो वह असहाय ठंड से मर चुका था। घर लौटकर वे बहुत रोए। घरवाले समझ नहीं पा रहे थे कि किसलिए इतना सुबक रहे हैं। आखिर में काफी समझाने-बुझाने पर बटुकेश्वर दत्त ने बहन प्रमिला को बात बताई। फिर वह गरीब, गरीबी, उनके उपाय के बारे में गहराई से जानने को पढ़ने लगे। विवेकानंद, अरबिंदो और तिलक के लिखे लेखों या वक्तव्यों ने उनका रुझान क्रांति की दिशा में बढ़ा दिया।” भारती जी को आज किसी से कोई शिकायत नहीं है। वे कहती हैं- ‘आज भी सरकार से क्या शिकायत की जाए, कितना दोष गिनाया जाए। हम जब खुद ही करप्ट हैं। ऐसा भी नहीं है कि आजादी के बाद कोई विकास नहीं हुआ है। मेरे पास तमाम कम उम्र के बच्चे आते हैं यही सब जानने को, मैं उन्हें वही बताने की कोशिश करती हूं, जो मेरे पिता ने मुझे बताया-सिखाया…नैतिकता, करुणा, अनुशासन, लक्ष्य, क्रांतिकारियों का देखा खुशहाली का ख्वाब। हमें उम्मीद करना चाहिए कि भविष्य खूबसूरत होगा, खूबसूरत भविष्य बनाने वाले हमेशा बने रहेंगे’

             कायस्थ समाज को अमर क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त, की स्मृति में पुरस्कार, छात्रवृत्ति आदि स्थापित करना चाहिए।  बटुकेश्वर डट पर डाक टिकिट जारी  जाए। हिंदी भाषी और बांगला भाषी कायस्थ मिलकर रोटी-बेटी संबंध स्थापित कर राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करें। 

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लेखिका संपर्क - गीतिका 'श्रीव', द्वारा श्री प्रभात श्रीवास्तव, महाजनी वार्ड, नरसिंहपुर मध्यप्रदेश।   

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