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रविवार, 19 मार्च 2023

दोहा, उल्लाला, मुक्तिका, गीत,नदी, लघुकथा,सॉनेट स्वागत,

सत्य साई दोहावली 
*
साई सत्य अवतार हैं, करें भक्त में वास। 
साई करें जिस पर कृपा, पल में हर लें त्रास।।
*
स्वर मधुमय अस्मिता का, भाव भक्ति से पूर्ण। 
स्नेह साई का मिल सके, कष्ट सभी हों चूर्ण।।
*
शारद कर सब पर कृपा, हर ले माँ अज्ञान। 
विघ्न हरें विघ्नेश सब, रहे कृपा का भान।। 
*
माँ मति क्षिप्रा दे हमें, सत पाएँ हम साध। 
सेवा जीवों की सकें, माँ आजीवन साध।।
*
सेवा सच्चा धर्म है, विनयधर्म का मर्म। 
नवाचार पालन करें, प्रभु अर्पित कर कर्म।।
*
खुद ही खुद की जाँच कर, करो निरंतर जाप। 
प्रभु सुमिरन कर ह्रदय से, मिला जाएँ झट आप।.
*
वार्ता करिए ईश से, जाप माध्यम सिद्ध। 
हैं अभिन्न परमेश्वर, रहो अर्गला बिद्ध।।
*
नाम निरंतर नियम से, करें यही बलिदान। 
वहम अहं का जब मिटे, तब हो सच्चा ज्ञान।।
*
करें प्रार्थना विनत हो, सदा सोचिए आप। 
क्या यह प्रभु को रुचेगा, रुचे वही निष्पाप।।
*
'सा' ही है सबका पिता, 'ई' जग-मैया जान। 
जय साई जब जब कहें, हो प्रभु का गुणगान।। 
करें प्रार्थना साथ मिल, जब भी हो अवकाश। 
धरती पर मिल साथ सब, सुमिरें प्रभु आकाश।।
*
सुमिरन करिए इष्ट का, प्रवहें शुभद तरंग। 
रंग भक्ति का तब चढ़े, हो न रंग में भंग।। 
मूल्याधारित पाठ पढ़, बच्चे जानें सत्य। 
उसे आचरण में बदल, कर पाते सत्कृत्य।।
भजें भजन में ईश को, जाग्रत होते चक्र।
हो जाता जीवन सरल, मिटता संकट वक्र।।
*
रोग त्रास दे तभी जब, साथ न पाते आप। 
संकीर्तन में अहं तज, होता मन निष्पाप।।
करें साथ मिल जब भजन, हों अनेक स्वर एक। 
ऊर्जा चक्र अमल विमल, जाग्रत करे विवेक।।
*
फेरी करें प्रभात में, तम तज वरें प्रकाश। 
सेवा पर की जो करे, काटे भव का पाश।।
*
चिंता तज मुस्कान दें, खर्चा नहीं छदाम। 
जब पाएँ मुस्कान तब, समझें पूरा काम।।
जब मन में संतोष हो, संगीता हो श्वास। 
क्षिप्रा होकर चेतना, तब फैले सायास।।
*
कृपा साई की है अमित, धरती उतर सुरेश। 
नर के करते बात आ, सुमिरन करें हमेश।।
*
नौ सिक्के नौ भक्त हैं, या है नवधा भक्ति। 
अवतारों की आसनी, मात्र ह्रदय अनुरक्ति।।
*
बाबा का सुमिरन करे, भक्त बने भगवान्। 
आत्म मिले परमात्म से, पाकर सच्चा ज्ञान।।
*
चरण पड़ें कर आचरण, वरण करें सत्मार्ग। 
मरण न हो तब शोचमय, हरण 
*
इक्कीसों तत्वों सहित, चक्र जागें सुन नाम। 
इच्छाओं को नियंत्रित, करें सधे सब काम।।
*
संचित वंचित के लिए, करिए स्वयं न भोग। 
खुद भोजन तो रोग हो, छोड़ें मिटते रोग।।
*
सबका हित साहित्य से, सधता- पढ़ लें जान। 
आत्म मिले परमात्म से, क्षार-अक्षर गुणगान।।
*
सत संगत ही अर्चना, पूजन वंदन मान। 
करें निरंतर छोड़ मत, साई सँग अनुमान।।
*
नर सेवा कर लीजिए, नारायण को पूज। 
भक्त और भगवन का, संगम कहीं न दूज।।
*
साधन तब स्वीकारिए, जब न अहं हो साथ। 
स्वार्थ न किंचित हो जहाँ, वहीं उठेगा माथ।।
*
भाव-भावना का नहीं, किंचित होता मोल। 
क्रय-विक्रय होता नहीं, जिसका वन अनमोल।।
*
आत्म कीर्ति मत चाहिए, याद रहे बस लक्ष्य। 
यश की चाह न चाहिए, बनें आप खुद भक्ष्य।।
*
ममता अपनापन जहाँ, वहीं बनेगी बात। 
जहाँ गैरियत वहाँ से, पाएँगे आघात।।
*
रसना रस की आसनी, सरस्वती हो सिद्ध। 
केवल तब जब सरस हों, वचन स्नेह से बिद्ध।।
*
जहाँ पराजय का हुआ, बिन प्रयास ही अंत। 
वही जाइए बन सकें, तब ही आप जयंत।।
*
पालन-परायण करें, सकल नियम का आप। 
कौन न करता देख मत, मन को रख निष्पाप।।
*
करिए मत आलोचना, उसकी जो नहिं साथ। 
जो अनुपस्थित सराहें, उसे उच्च हो माथ।।
*
कहे न करता काम सब, गण साई का मौन। 
जो न करे कहता रहे, उसे सराहे कौन।।
*
हो-मत हो वह साथ जो, बदल न सकता आप। 
जो बदले बेहतर बने, उसे न सकते माप।।
*
जब जागे तब सवेरा, आँख मुँदी तब रात। 
साई सुमिरें जब तभी, जाने हुआ प्रभात।।
*
भजन करें तो साथ हो, बात करें भगवान। 
जपें नाम नित निरंतर, प्रभु को भीतर जान।।
*
वश में हों भगवान भी, अगर आप हों भक्त। 
जो प्रभु में अनुरक्त हो, उसमें प्रभु अनुरक्त।।
संत आप भगवंत है, अन्य नहीं गुणवंत। 
संत तार दे उसे भी, जिसके पाप अनंत।।
*
साई राम जब जब कहें, रेखा खींचें आप।  
लेखा रखें न जाप का, मिट जाए सब शाप।।
*
सेवा हित है संगठन, विघटित हो कुछ पाप। 
रहें संगठित हम सभी, हो पाएँ निष्पाप।।
*
गुप्त चित्र का लेख कर, रहिए आप प्रसन्न। 
चित्रगुप्त मत पूजिए, नाश न हो आसन्न।।
कर्म श्रेष्ठ वह जो किए, कभी कहीं निष्काम। 
कर्म अधम वह जो किया, पाने कीर्ति ललाम।।
*
सेवा आध्यात्मिक भजन, हों अनेक मिल एक। 
साई अनहद नाद से, जाग्रत करें विवेक।।
*
मानव मूल्य रहित अगर, शिक्षा है बेकाम। 
बाल विकास वहीं जहाँ, नर-नारायण साम।।
*
भूखे को भोजन करा, साईं को दें भोग। 
वंचित की सेवा करें, मिटे आतम के रोग।।
*
अन्न कलश भर बाँट दें, दीनों को हँस आप। 
साई तभी प्रसन्न हों, जीवन हों निष्पाप।।
१९-३-२०२३ 
***
सॉनेट
स्वागत
लाल गुलाल भाल पर शोभित।
तरुणी सरसों पियराई रे।
महुआ लख पलाश सम्मोहित।।
मादकता तन-मन छाई रे।।
छेड़ें पनघट खलिहानों को।
गेहूँ की बाली निहाल है।
फिक्र न कुछ भी दीवानों को।।
चना-मटर की एक चाल है।।
मग्न कपोत-कपोती खुद में।
आग लगाता आया फागुन।
खोज रहे रे! एक-दूजे के
स्वर में खुद को बंसी-मादल।।
रति-रतिपति हैं दर पर आगत।
आम्र मंजरी करती स्वागत।।
१९-३-२०२२
•••
प्रार्थना
कब लौं बड़ाई करौं सारदा तिहारी
मति बौराई, जस गा जुबान हारी।
बीना के तारन मा संतन सम संयम
चोट खांय गुनगुनांय धुन सुनांय प्यारी।
सरस छंद छांव देओ, मैया दो अक्कल
फागुन घर आओ रचा फागें माँ न्यारी।
तैं तो सयानी मातु, मूरख अजानो मैं
मातु मति दै दुलार, 'सलिल' काब्य क्यारी।
१९-३-२०२१
***
लघुकथा : एक दृष्टि
*
लघुकथा के ३ तत्व, १. क्षणिक घटना, २. संक्षिप्त कथन तथा ३.तीक्ष्ण प्रभाव हैं।
इनमें से कोई एक भी न हो या कमजोर हो तो लघुकथा प्रभावहीन होगी जो न होने के समान है।
घटना न हो तो लघुकथा का जन्म ही न होगा, घटना हो पर उस पर कुछ कहा न जाए तो भी लघुकथा नहीं हो सकती, घटना घटित हो, कुछ लिखा भी जाए पर उसका कोई प्रभाव न हो तो लिखना - न लिखना बराबर हो जायेगा। घटना लंबी, जटिल, बहुआयामी, अनेक पात्रों से जुड़ी हो तो सबके साथ न्याय करने पर लघुकथा कहानी का रूप ले लेगी।
इन ३ तत्वों का प्रयोगकर एक अच्छी लघुकथा की रचना हेतु कुछ लक्षणों का होना आवश्यक है।
कुछ रचनाकार इन लक्षणों को तत्व कहते हैं। वस्तुत:, लक्षण उक्त ३ तत्वों के अंग रूप में उनमें समाहित होते हैं।
१. क्षणिक घटना - दैनन्दिन जीवन में सुबह से शाम तक अनेक प्रसंग घटते हैं। सब पर लघुकथा नहीं लिखी जा सकती। घटना-क्रम, दीर्घकालिक घटनाएँ, जटिल घटनाएँ, एक-दूसरे में गुँथी घटनाएँ लघुकथा लेखन की दृष्टि से अनुपयुक्त हैं। बादल में कौंधती बिजली जिस तरह एक पल में चमत्कृत या आतंकित कर जाती है, उसी तरह लघुकथा का प्रभाव होता है। क्षणिक घटना पर बिना सोचे-विचार त्वरित प्रतिक्रिया की तरह लघुकथा को स्वाभाविक होना चाहिए। लघुकथा सद्यस्नाता की तरह ताजगी की अनुभूति कराती है, ब्यूटी पार्लर से सज्जित सौंदर्य जैसी कृत्रिमता की नहीं। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी की तर्ज़ पर कहा जा सकता है घटना घटी, लघुकथा हुई। लघुकथा के उपयुक्त कथानक व कथ्य वही हो सकता है जो क्षणिक घटना के रूप में सामने आया हो।
२. संक्षिप्त कथन - किसी क्षण विशेष अथवा अल्प समयावधि में घटित घटना-प्रसंग के भी कई पहलू हो सकते हैं। लघुकथा घटना के सामाजिक कारणों, मानसिक उद्वेगों, राजनैतिक परिणामों या आर्थिक संभावनाओं का विश्लेषण करे तो वह उपन्यास का रूप ले लेगी। उपन्यास और कहानी से इतर लघुकथा सूक्ष्मतम और संक्षिप्तम आकार का चयन करती है। वह गुलाबजल नहीं, इत्र की तरह होती है। इसीलिए लघुकथा में पात्रों का चरित्र-चित्रण, कथोपकथन आदि नहीं होता। 'कम में अधिक' कहने के लिए संवाद, आत्मालाप, वर्णन, उद्धरण, मिथक, पूर्व कथा, चरित्र आदि जो भी सहायक हो उसका उपयोग किया जाना चाहिए। उद्देश्य कम से कम कलेवर में कथ्य को प्रभावी रूप से सामने लाना है।
शिल्प, मारक वाक्य (पंच) हो-न हो अथवा कहाँ हो, संवाद हों न हों या कितने किसके द्वारा हों, भूमिका न हो, इकहरापन, सन्देश, चुटकुला न हो तथा भाषा-शैली आदि संक्षिप्त कथन के लक्षण हैं। इन सबकी सम्मिलित उपस्थिति अपरिहार्य नहीं है। कुछ हो भी सकते हैं, कुछ नहीं भी हो सकते हैं।
३.तीक्ष्ण प्रभाव- लघुकथा लेखन का उद्देश्य लक्ष्य पर प्रभाव छोड़ना है।
एक लघुकथा सुख, दुःख, हर्ष, शोक, हास्य, चिंता, विरोध आदि विविध मनोभावों में से किसी एक की अभिव्यक्त कर अधिक प्रभावी हो सकती है। एकाधिक मनोभावों को सामने लाने से लघुकथा का प्रभाव कम हो सकता है।
कुशल लघुकथाकार घटना के एक पक्ष पर सारगर्भित टिप्पणी की तरह एक मनोभाव को इस तरह उद्घाटित करता है कि पाठक / श्रोता आह य वाह कह उठे। चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्ति आदि तीक्ष्ण प्रभाव हेतु सहायक लक्षण हैं। तीक्ष्ण प्रभाव सोद्देश्य हो निरुद्देश्य? यह विचारणीय है।
सामान्यत: बुद्धिजीवी मनुष्य कोई काम निरुद्देश्य नहीं करता। लघुकथा लेखन का उपक्रम सोद्देश्य होता है।
व्यक्त करने हेतु कुछ न हो तो कौन लिखेगा लघुकथा?
व्यक्त किये गए से कोई पाठक शिक्षा / संदेश ग्रहण करेगा या नहीं? यह सोचना लघुकथाकार काम नहीं है, न इस आधार पर लघुकथा का मूल्यांकन किया जाना उपयुक्त है।
१७-३-२०२०
***
गीत 
नदी मर रही है
*
नदी नीरधारी, नदी जीवधारी,
नदी मौन सहती उपेक्षा हमारी
नदी पेड़-पौधे, नदी जिंदगी है-
भुलाया है हमने नदी माँ हमारी
नदी ही मनुज का
सदा घर रही है।
नदी मर रही है
*
नदी वीर-दानी, नदी चीर-धानी
नदी ही पिलाती बिना मोल पानी,
नदी रौद्र-तनया, नदी शिव-सुता है-
नदी सर-सरोवर नहीं दीन, मानी
नदी निज सुतों पर सदय, डर रही है
नदी मर रही है
*
नदी है तो जल है, जल है तो कल है
नदी में नहाता जो वो बेअकल है
नदी में जहर घोलती देव-प्रतिमा
नदी में बहाता मनुज मैल-मल है
नदी अब सलिल का नहीं घर रही है
नदी मर रही है
*
नदी खोद गहरी, नदी को बचाओ
नदी के किनारे सघन वन लगाओ
नदी को नदी से मिला जल बचाओ
नदी का न पानी निरर्थक बहाओ
नदी ही नहीं, यह सदी मर रही है
नदी मर रही है
१२.३.२०१८
***
छंद शाला
उल्लाला सलिला:
*
(छंद विधान १३-१३, १३-१३, चरणान्त में यति, सम चरण सम तुकांत, पदांत एक गुरु या दो लघु)
*
अभियंता निज सृष्टि रच, धारण करें तटस्थता।
भोग करें सब अनवरत, कैसी है भवितव्यता।।
*
मुँह न मोड़ते फ़र्ज़ से, करें कर्म की साधना।
जगत देखता है नहीं अभियंता की भावना।।
*
सूर सदृश शासन मुआ, करता अनदेखी सतत।
अभियंता योगी सदृश, कर्म करें निज अनवरत।।
*
भोगवाद हो गया है, सब जनगण को साध्य जब।
यंत्री कैसे हरिश्चंद्र, हो जी सकता कहें अब??
*
भृत्यों पर छापा पड़े, मिलें करोड़ों रुपये तो।
कुछ हजार वेतन मिले, अभियंता को क्यों कहें?
*
नेता अफसर प्रेस भी, सदा भयादोहन करें।
गुंडे ठेकेदार तो, अभियंता क्यों ना डरें??
*
समझौता जो ना करे, उसे तंग कर मारते।
यह कड़वी सच्चाई है, सरे आम दुत्कारते।।
*
हर अभियंता विवश हो, समझौते कर रहा है।
बुरे काम का दाम दे, बिन मारे मर रहा है।।
*
मिले निलम्बन-ट्रान्सफर, सख्ती से ले काम तो।
कोई न यंत्री का सगा, दोषारोपण सब करें।।
***
अभिनव प्रयोग-
उल्लाला गीत:
जीवन सुख का धाम है
*
जीवन सुख का धाम है,
ऊषा-साँझ ललाम है.
कभी छाँह शीतल रहा-
कभी धूप अविराम है...
*
दर्पण निर्मल नीर सा,
वारिद, गगन, समीर सा,
प्रेमी युवा अधीर सा-
हर्ष, उदासी, पीर सा.
हरि का नाम अनाम है
जीवन सुख का धाम है...
*
बाँका राँझा-हीर सा,
बुद्ध-सुजाता-खीर सा,
हर उर-वेधी तीर सा-
बृज के चपल अहीर सा.
अनुरागी निष्काम है
जीवन सुख का धाम है...
*
बागी आलमगीर सा,
तुलसी की मंजीर सा,
संयम की प्राचीर सा-
राई, फाग, कबीर सा.
स्नेह-'सलिल' गुमनाम है
जीवन सुख का धाम है...
***
उल्लाला मुक्तिका:
दिल पर दिल बलिहार है
*
दिल पर दिल बलिहार है,
हर सूं नवल निखार है..
प्यार चुकाया है नगद,
नफरत रखी उधार है..
कहीं हार में जीत है,
कहीं जीत में हार है..
आसों ने पल-पल किया
साँसों का सिंगार है..
सपना जीवन-ज्योत है,
अपनापन अंगार है..
कलशों से जाकर कहो,
जीवन गर्द-गुबार है..
स्नेह-'सलिल' कब थम सका,
बना नर्मदा धार है..
***
उल्लाला मुक्तक:
*
उल्लाला है लहर सा,
किसी उनींदे शहर सा.
खुद को खुद दोहरा रहा-
दोपहरी के प्रहर सा.
*
झरते पीपल पात सा,
श्वेत कुमुदनी गात सा.
उल्लाला मन मोहता-
शरतचंद्र मय रात सा..
*
दीप तले अँधियार है,
ज्यों असार संसार है.
कोशिश प्रबल प्रहार है-
दीपशिखा उजियार है..
*
मौसम करवट बदलता,
ज्यों गुमसुम दिल मचलता.
प्रेमी की आहट सुने -
चुप प्रेयसी की विकलता..
*
दिल ने करी गुहार है,
दिल ने सुनी पुकार है.
दिल पर दिलकश वार या-
दिलवर की मनुहार है..
*
शीत सिसकती जा रही,
ग्रीष्म ठिठकती आ रही.
मन ही मन में नवोढ़ा-
संक्रांति कुछ गा रही..
*
श्वास-आस रसधार है,
हर प्रयास गुंजार है.
भ्रमरों की गुन्जार पर-
तितली हुई निसार है..
*
रचा पाँव में आलता,
कर-मेंहदी पूछे पता.
नाम लिखा छलिया हुआ-
कहो कहाँ-क्यों लापता?
*
वह प्रभु तारणहार है,
उस पर जग बलिहार है.
वह थामे पतवार है.
करता भव से पार है..
****
२०-२-२०१४
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कीर्ति, घनाक्षरी, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रदोष, प्रेमा, बाला, मधुभार, माया, माला, ऋद्धि, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
सुधियों के दोहे:'
*
वसुधा माँ की गोद है, कहो शहर या गाँव.
सभी जगह पर धूप है, सभी जगह पर छाँव..
*
निकट-दूर हों जहाँ भी, अपने हों सानंद.
यही मनाएँ दैव से, झूमें गायें छंद..
*
जीवन का संबल बने, सुधियों का पाथेय.
जैसे राधा-नेह था, कान्हा भाग्य-विधेय..
*
तन हों दूर भले प्रभो!, मन हों कभी न दूर.
याद-गीत नित गा सके, साँसों का सन्तूर..
*
निकट रहे बेचैन थे, दूर हुए बेचैन.
तरस रहे तरसा रहे, 'बोल अबोले नैन..
*
'सलिल' स्नेह को स्नेह का, मात्र स्नेह उपहार.
स्नेह करे संसार में, सदा स्नेह-व्यापार..
*
स्नेह तजा सिक्के चुने, बने स्वयं टकसाल.
खनक न हँसती-बोलती, अब क्यों करें मलाल?.
*
जहाँ राम तहँ अवध है, जहाँ आप तहँ ग्राम.
गैर न मानें किसी को, रिश्ते पाल अनाम..
*
अपने बनते गैर हैं, अगर न पायें ठौर.
आम न टिकते पेड़ पर, पेड़ न तजती बौर..
*
तनखा तन को खा रही, मन को बना गुलाम.
श्रम करता गम कम 'सलिल', औषध यह बेदाम.
१९-३-२०१०
***

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