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शुक्रवार, 10 मार्च 2023

लेख आधुनिक हिंदी कविता : कल से कल

लेख 
आधुनिक हिंदी कविता : कल से कल 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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                                कविता किसी भी भाषा / बोली की क्यों न हो उसके कथ्य का संबंध मस्तिष्क की तुलना में ह्रदय से अधिक होता है। कविता तर्क पर भाव को वरीयता देती है। कविता का जन्म कवि की अंतरंग अनुभूति तथा मौलिक प्रवृत्ति से होता है।कविता हृदयात्मक व् ध्वन्यात्मक परिवेश को सांप्रत से लायन्वित कर शब्दित करती है। कविता का आलंबन सत्य / यथार्थ ही होता है। कविता में जो कल्पना निहित होती है वह भी कवी की मानस सृष्टि का सत्य ही होता है। शब्दों की सीमा होती है। कविता शब्दों को सीमातीत भी कर सकती है। आदिकाल से अब तक के सभी समर्थ कवियों ने अपनी कविताओं में प्रयुक्त शब्दों को उनके शब्द-कोशीय अर्थों से इतर और / अथवा वृहत्तर अर्थ में प्रयोग किया है। कविता किसी भी देश-काल-वाद की हो वह नारी की तरह सुंदर, जटिल, मोहक तथा नूतन होती है जबकि गद्य नर की तरह अपेक्षाकृत अधिक स्थिर, दृढ़, सरल तथा सुबोध होता है। कविता का मूल आत्म तत्व है, गद्य का मूल देह तत्व है।     

                                ‘आधुनिक’ शब्द समसामयिक, समकालिक वर्तमान का द्योतक है। आज जो समसामयिक, समकालीन है, कालांतर में वही अतीत हो जाता है। इस दृष्टि से ‘आधुनिक शब्द भ्रामक है। काल-विभाजन की दृष्टि से ‘आधुनिक’ शब्द का अर्थ खोजनेवाले विद्वानों ने सन् १८५७ से अद्यतन लिखे गये काव्य को भाषा की दृष्टि से आधुनिक कहा है।  नई प्रवृत्ति के नज़रिए से भारतेंदु युग तथा उनके परवर्ती समस्त काल आधुनिक कहा जाता है। कुछ अन्य विद्वान भारतेंदु युग के काव्य में ब्रजभाषा की प्रचुरता देखकर इसे आधुनिक कविता नहीं मानते। वे खड़ी बोली की कविता से ही आधुनिक कविता का जन्म मानते हैं। १८९३ ई. में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना, १९०० ई. में नागरी को शासकीय मान्यता प्राप्त होना, १९०० ई. में ‘सरस्वती’ का प्रकाशन तथा ‘जय हिंदी जय नागरी’ की प्रतिष्ठा होना आधुनिक हिंदी काव्य के उद्भव तथा विकास के महत्वपूर्ण चरण हैं। भाषा के आधार पर भी विकास के चरणों का नामकरण किया जा सकता है। यथा- खड़ी बोली (आधुनिक हिंदी) का उद्भव काल, खड़ी बोली का सुधार काल, खड़ी बोली का लाक्षणिक काल, खड़ी बोली का नव्य अर्थकाल तथा खड़ी बोली के अर्थ की अर्थवत्ता का काल। हिंदी कविता- भारतेंदुयुगीन कविता, द्विवेदीयुगीन कविता, छायावादी कविता, प्रगतिवादी कविता, प्रयोगवादी कविता, नई कविता, समकालीन तथा आज की कविता नामक आंदोलनों से गुजरकर वह आज अपने विकास की चरम सीमा पर पहुँच चुकी है । 

समय के साथ कविता में परिवर्तन 

                                हर आंदोलन या धारा के कवियों ने मानवीय संवेदनाओं (भाव, गतिविधि, दर्शन, विसंगति, समस्या, प्रकृति, प्राकृतिक परिवेश,पर्यावरणआदि) को कविता का कथ्य बनाया है। देश-काल-परिस्थिति तथा कवि की अभिव्यक्ति सामर्थ्य व संवेदनशीलता के अनुसार कविते में कथ्य प्रस्तुत होता आया है। निरंतर द्रुत वैज्ञानिक विकास ने भी कविता में स्थान पाया है। प्राकृतिक सौंदर्य के प्रभाव में तथा अवलोकन करने की साहित्यकारों / कवियों की प्रवृत्ति में भी परिवर्तन होता रहा है । आधुनिक हिंदी कविता की विकास प्रक्रिया को गतिशील रखने में अनेक रचनाकारों की सहभागिता है। प्रारंभिक समय से लेकर आज तक ऐसे अनेक कवि तथा कवयित्रियाँ होकर गयी हैं जिन्होंने ‘आधुनिक हिंदी कविता’ को दिशा दी है। आधुनिक हिंदी कविता’ को केवल इन्होंने विकसित ही नहीं किया पाठकों और श्रोताओं तक पहुँचाया भी है। हिंदी कविता के मुख्या पड़ाव निम्न रहे हैं-

१. राष्ट्रीय काव्य धारा (सन् १८५७ से १९२० तक) - 

                                इस काव्य धारा के अन्तर्गत भारतेन्दु युग तथा द्विवेदी युग में कवियों ने काव्य के बहिरंग तथा अंतरंग दोनों में परिवर्तन किया। रीतिकालीन शृंगारिकता में न्यूनता आई, राष्ट्र की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक आदि समस्याओं को काव्य में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ। बंगला और अंग्रेजी के सम्पर्क के कारण हिन्दी कवियों के विषयों में विविधता और व्यापकता का पदार्पण हुआ। इस काल के प्रमुख कवि भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र, अंबिका दत्त व्यास, राधाकृष्ण दास, प्रताप नारायण मिश्र, बदरी नारायण चौधरी, जगमोहन सिंह, नवनीत लाल चतुर्वेदी, अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, श्रीधर पाठक, जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’, सत्यनारायण कवि रत्न, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, वचनेश, वियोगी हरि आदि हैं।

                                भारतेन्दु के पश्चात् आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ का भार ग्रहण कर हिंदीको व्याकरण सम्मत बनाया। आपके प्रयास से खड़ी बोली प्रतिष्ठित हुई। द्विवेदी जी नीतिवादिता से शृंगार का उच्छृखल स्वरूप समाप्त कवियों हो गया। यह 'इतिवृत्तात्मक’ काव्य युग रहा है। इसमें अधिकांश कवियों की दृष्टि वस्तु के बाद अंग पर जाकर ही रुक गयी। वह उसके साथ तादात्म्य स्थापित न कर सकी। इस युग ने पौराणिक और ऐतिहासिक आख्यानों को लेकर काव्य रचना की। प्रिय प्रवास’,‘साकेत’ आदि इस युग की प्रतिनिधि कृतियाँ  हैं। इस काल में धार्मिक ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, देशभक्ति आदि विभिन्न प्रवृत्तियाँ विविध रूपों में प्रकट हुईं। इस काल के प्रमुख कवि मैथिली शरण गुप्त, गया प्रसादशुक्ल ‘सनेही’, रामचरित उपाध्याय, लाला भगवानदीन, रामनरेश त्रिपाठी, रूपनारायण पाण्डेय, लोचन प्रसाद पाण्डेय आदि इस युग के प्रमुख कवि हैं।

२. छायावादी काव्यधारा (सन् १९२० से १९३५ ई. तक)

                                द्विवेदी युग के नैतिक बुद्धिवाद और इतिवृत्तात्मकता के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में सूक्ष्म ने स्थूल के प्रति विद्रोह किया और छायावाद ने जन्म लिया। इस काव्यधारा पर अंग्रेजी के स्वच्छन्दतावाद तथा बंगला साहित्य का प्रभाव है। उपनिषद् साहित्य का रहस्यवाद भी इसमें अन्तर्निहित है। इस काव्यधारा ने हिन्दी को एक नवीन भावलोक तथा नवीन अभिव्यंजना दी। अब कविता बहिरंग से अंतरंग हो गयी। इस काव्यधारा की मुख्य प्रवृत्तियाँ  सौन्दर्य भावना, आत्माभिव्यक्ति, करुणा, वेदना की निवृत्ति, प्रकृति- प्रेम, रहस्यवाद, राष्ट्रीय भावना, मानवतावाद की प्रतिष्ठा, नई  अभिव्यंजना शैली-प्रतीकात्मकता, लाक्षणिकता वक्रता तथा चित्रात्मकता आदि हैं। इस काल के मुख्य कवि जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, डॉ. रामकुमार वर्मा आदि हैं।

                                छायावादोत्तर काव्य अ. राष्ट्रीय काव्यधारा (मुख्य कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, रामधारीसिंह ‘दिनकर’, श्रीकृष्ण 'सरल' आदि), आ. प्रगीत काव्यधारा (मुख्य कवि हरिवंश राय बच्चन, नरेंद्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', गोपालसिंह नैपाली, ‘नीरज’, बालस्वरूप ‘राही’, आदि) तथा  इ. प्रगतिवादी / प्रयोगवादी काव्यधारा  (कालान्तर में नयी कविता, अकविता, साठोत्तरी कविता आदि) में वर्गीकृत (प्रमुख कवि- पंत, निराला, दिनकर, नवीन, नागार्जुन, केदार, ‘सुमन’, 'मुक्तिबोध’, शमशेर, त्रिलोचन, भवानी प्रसाद मिश्र, धूमिल, भारत भूषण अग्रवाल आदि) में वर्गीकृत किया जाता है। 

३. प्रयोगवादी / प्रगतिवादी काव्यधारा 

                                प्रगतिवादी काव्यधारा के काव्य में सामाजिक यथार्थ केंद्र में रहा। प्रगतिवाद ने एक निश्चित सामाजिक-राजनीतिक जीवन पद्धति को स्वीकार किया मजदूर-किसान वर्ग के उत्पीड़न और संघर्ष,  समाज में वर्ग-भेद, ग्रामीण और दलित बहू-बेटियों की समस्या को मार्क्स के यथार्थवादी दृष्टिकोण, तथा हँसिया, हथौड़ा  लाल सेना, रूस-चीन आदि उपकरणों से उभारा गया।  प्रगतिवादी काव्यधारा की दृष्टि अंतरंगी न होकर बहिरंगी है। इन कविताओं में अनुभूति की गहराई का अभाव तथा विकास, उन्नति, सामाजिक सद्भाव, सांस्कृतिक आध्यात्म आदि की उपेक्षा पाई जाती है।

                                प्रयोगवाद का जन्म छायावाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। इसमें भदेसपन का आग्रह है। प्रयोगवाद ने काव्य वस्तु और शैली-शिल्प के नवीन प्रयोगों द्वारा बहुरूपी अस्थिर जीवन को उपयुक्त बनाने का महत्व समझा, जीवन में नये मूल्यों की प्रतिष्ठा की तथा  भाव-बोध को नवता दी। प्रयोगवादी कवियों में जीवन, समाज, धर्म, राजनीति, काव्यवस्तु, शैली, छंद, तुक, कवि के दायित्व आदि को लेकर मतभेद रहे। जगत के सर्वमान्य -स्वयं सिद्ध मौलिक सत्यों को लोकतंत्र की आवश्यकता, उद्योगों का समाजीकरण, यांत्रिक युग की उपयोगिता इन्हें स्वीकार्य नहीं रही। इन कवियों के प्रयोगशीलता के परिणामस्वरूप अति यथार्थ का आग्रह, बौद्धिकता, भदेस का चित्रण,  घोर वैयक्तिता, अतृप्ति एवं विद्रोह के स्वर,  मध्यम वर्ग की कुण्ठा की विवृत्ति, यौन वर्जनाओं का चित्रण आदि  प्रवृत्तियाँ कविता के केंद्र में आईं।  

                                वर्तमान में हिंदी कविता समीक्षकीय दृष्टि से दो पाटों के बीच में पीसी जा रही है। श्री गोपाल प्रसाद मुद्गल के अनुसार प्रगतिवादी काव्य वर्तमान सामाजिक, पारिवारिक, राजनैतिक, आर्थिक, नैतिक आदि दृष्टियों से समस्याओं का परीक्षण कर कटु यथार्थ प्रस्तुत करते हैं। वे लोकमानस में सामाजिक अन्याय, विसंगति, अत्याचार, नैतिक ह्रास, प्रदूषण, जनसंख्या विस्तार, सत्ताधारियों की युद्ध लिप्सा आदि पर कठोर प्रहार करते हैं। उनकी दृष्टि भाषा, छंद, पिङगल, ध्वनि, गति-यति आदि पर न होकर केवल और केवल कथ्य की सशक्तता पर होता है। वे कविता के आईने में सामाजिक सच को देखते और दिखाते हैं। आधुनिकता के पक्षधर प्रगतिवादी साहित्यकार स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श आदि को उपकरण की तरह उपयोग करते हैं। पारंपरिक मूल्यों और मान्यताओं को अंधश्रद्धा, अन्धविश्वास कहकर उनकी खिल्ली उड़ाना और खंडन-मंडन करन वे अपना धर्म मानते हैं। वे कल्पना, श्रृंगार, आस्था, भक्ति-भाव आदि को हास्यास्पद और त्याज्य मानते हैं। 

                                प्रगतिवादी कवि प्रांजल भाषा, पौराणिक मिथक, प्रापारंपरिक बिंब, छंद, अलंकार आदि को नकारकर स्पष्टता,  सपाट बयानी, अछूते बिंबों, अप्रचलित रूपकों, नव मान्यताओं, वैयक्तिक स्वातंत्र्य, असंतुष्टि, विरोध, विद्रोह आदि को प्रमुखता देते हैं। वे व्यक्तिगत आलस्य और सामूहिक उदासीनता पर शब्द-प्रहार कर अराजकता का स्वागत करते हैं। उनका विश्वास है कि विनाश ही नव निर्माण की पूर्व पीठिका है। वे पारंपरिक कविता पर बोझिल, क्लिष्ट, सामंतवाद समर्थक, जन विरोधी, अस्पष्ट और दुर्बोध होने का आरोप लगाते हैं।उनके अनुसार इस युग में श्रद्धा- विश्वास, सत्य-शिव-सुंदर, आत्म-परमात्म आदि की बात करना बेमानी है। वे स्त्री-पुरुष समानता के कट्टर पक्षधर हैं। जनाधिकार प्रगतिवादियों का लक्ष्य है। व्यंजना इन कवियों को अतिप्रिय है। नई कविता में आधुनिक समाज का शोषित-पीड़ित-दलित वर्ग आलंबन की तरह प्रयुक्त हुआ है। आरंभ में छंद से परहेज अपरिहार्य नहीं था। प्रगतिवाद के पुरोधा समीक्षक-कवि डॉ. राम  लिखते हैं -

'हाथी-घोड़ा पालकी, जय कन्हैया लाल की।
 हिंदी-हिंदुस्तान की, जय कन्हैया लाल की।।

                                भारतभूषण अग्रवाल के शब्दों में- 

खाना खाकर जब बिस्तर पर कमरे में लेटा। 
सोच रहा था मैं मन ही मन, हिटलर बेटा।।

                                गिरिजाकुमार माथुर की कविता में सांगीतिकता का स्वर है। शमशेद बहादुर सिंह भाषा में कला का तड़का लगाते हैं - 
'बात बोलेगी 
हम नहीं। 
भेद खोलेगी 
बात ही।

                                सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' व्यंजना को हथियार की तरह प्रयोग करते हैं- 

'सांप! तुम सभ्य तो हुए नहीं 
शहर में बसना तुम्हें नहीं आया। 
एक बात पूछूँ?
उत्तर डोज?
डँसना कहा से सीखा?
ज़हर कहाँ से पाया??'

                                नरेश कुमार मेहता शुद्ध और प्रांजल भाषा का प्रयोग करते हैं। वे नारी मुक्ति का समर्थन करते हुए लिखते हैं- 

'एक दिन 
साध्वी की भूषा में लिपटी उस नारी ने 
उतार दिए आवरण 
लाँघे तापसता के सारे चौखटे 
और मुक्ति के लिए वरणकर किसी को 
लौटा दी 
अपने को अपनी ही नारी।'   - आखिर समुद्र से तात्पर्य, पृष्ठ ५४ 

                                धर्मवीर  भारती पौराणिक मिथकों से परहेज़ नहीं करते। उनकी शब्द योजना रूमानी तथा सांगीतिक लय युक्त है -

'कल्पने! उदासिनी 
किसी सुदूर देश में, न मेघदूत वेश में 
किसी निराश यज्ञ का प्रणय संदेश ला रही'

                                मधुरेश ग्राम्य परिवेश से दूर शहर में  अपनी माँ को याद करते समय स्त्री का चित्रण करते समय छंद को सहायक पाते हैं- 

'मक्का की रोटी जब खाई मैंने बहुत दिनों के बाद। 
अम्मा! आज अचानक आई मुझे तुम्हारी याद।।
जड़ों में भी तुम प्रतिदिन ही तड़के जातीं जाग। 
राम नाम जप करती रहतीं और जलातीं आग।।
दुहातीं गाय. खिलातीं चारा, नित्य सहित अनुराग 
अहो! तुम्हारी धन्य तपस्या, धन्य तुम्हारे त्याग।।'

                                अटलबिहारी बाजपेई आम आदमी की हिंदी-अंग्रेजी मिश्रित शब्दावली में न्याय व्यवस्था पर प्रहार करते हुए वाकई को यूँ परिभाषित करते हैं-

' न टायर्ड हूँ, न रिटायर हूँ।  
फायर उगलता शायर हूँ।
विदेशों में पैरवी करता हुआ-
इंडिया का सर्वश्रेष्ठ लायर हूँ।' 

                                आदमी में बढ़ती स्वार्थवृत्ति पर कटाक्ष करते हुए संजीव वर्मा 'सलिल' लिखते हैं- 
 
जब 
स्वार्थ-साधन और 
लोभ-लिप्सा तक 
सीमित रह जाए 
नाक की सीध
तब 
समझ लो 
आदमी, 
आदमी नहीं रह गया है 
बन गया है गीध। 

                                स्पष्ट है कि आरंभ में प्रयोगवादी / प्रगतिवादी काव्य के जो लक्षण कहे गए, कालांतर में उनमें से कई को कवियों ने कथ्य की मांग माँग पर छोड़ा है। ऐसा करना ठीक भी है। काव्य रचना का उद्देश्य कवि द्वारा अपनी अनुभूतियों को अभियक्त कर पाठक तक पहुँचाना ही है। पाठक उन अनुभूतियों को आत्मसात कर सके तो रचनाकर्म सफल है अन्यथा असफल। लक्षण का निर्धारण कभी भी अंतिम नहीं हो सकता। आधुनिक कविता अब वादों की सीमा लांघ चुकी है। 

४. नवगीत और आधुनिक गीति काव्य - 

                                गत लगभग ५ दशकों से आधुनिक गीति काव्य संक्रांति काल से गुजरा है। गीत का रूपान्तरण नवगीत के रूप में हुआ और ग़ज़ल को नई ग़ज़ल के रूप में लिखा जा रहा है। पारंपरिक गीत की वैयक्तिक अनुभूति का स्थान सार्वजनीन अनुभूति ने लिया है। गेट की प्राणजल शब्दावली के स्थान पैट देशज शब्दों का टटकापन नवगीत का वैशिष्ट्य बन गया है। ग़ज़ल ने मृगनयनियों से वार्तालाप की राह छोड़ कर सामाजिक परिवर्तनों को आत्मसात कर लिया है। इस तरह गीत, ग़ज़ल और कविता का कथ्य लगभग एक सा हो गया है। इस कारण मठाधीश रचनाकारों और समीक्षकों को अपना वर्चस्व बनाए रखने में कठनाई अनुभव होने लगी है। जिन लक्षणों के आधार पर काव्य जगत में विभाजन की आधार शिला रखी गई थी, वे लक्षण अनुभूत को अभिव्यक्त करने के रह में बाधक होने लगे तो ईमानदार रचनाकार के सामने उन्हें छोड़ने और कथ्य के अनुरूप राह बदलने का ही विकल्प शेष रहता है। ऐस केवल काव्य जागर में नहीं हो रहा। समाज में जाति व्यवस्था, राजनीति में दलीय विभाजन, परिवार और विवाह जैसी संस्थाएँ भी संक्रमणकाल में बदलाव का सामना कर रही हैं।   

                                नवगीत का कथ्य बहुत कुछ उसी तरह का है जैसा नई कविता है, अंतर केवल शिल्प  का है। गीत मुखड़े-अंतरे के अनुशासन में बँधा है तो ग़ज़ल मतले, मक्ते और काफिया रदीफ़ के अनुशासन में। नई कविता अनुशासनहीन या अराजकअभिव्यक्ति नहीं है। नई कविता का अनुशासन लयबद्धता, सरसता तथा स्पष्टता है। यदि ये तीन तत्व न हों तो नई कविता नीरस, रुक्ष, क्लिष्ट और अग्राह्य हो जाती  है। आधुनि गीति काव्य की तीनों रूप गीत, ग़ज़ल और कविता का कथ्य सामाजिक विसंगतियों और समस्याओं की पहचान और उनका निराकरण का पथ प्रशस्त करना है। नवगीत और ग़ज़ल को प्रगतिवादी समीक्षकों की अनदेखी और अस्वीकृति का शिकार होना पड़ा है। इसकी प्रतिक्रिया यह है कि नवगीतकार और गज़लकार नई कविता को अस्वीकार कर रहे हैं। श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार और गज़लकार डॉ. राम सनेही  लाल शर्मा 'यायावर' के अनुसार 'कविता रसवंती होती है... नए कवियों ने जटिल बिंबों फैंटेसियों और उलझी हुई शब्दावली से ऐसा घटाटोप बनाया कि कविता जटिलतर हो गई। फलत:, नई कविता ने कविता के पाठक समाप्त कर दिए।'

५. हिंदी की विश्व-कविता 

                                भारत में तमाम अंतर्विरोधों और आलोचनाओं का सामना करते हुए हुए हिंदी निरंतर विश्ववाणी बनने के पथ पर अग्रसर है। वह विश्व में सर्वाधिक मनुष्यों द्वारा बोले / समझे जानेवाली भाषा तो बहुत पहले बन चुकी है। दुर्योग यह कि राजनैतिक स्वार्थों को साधने के लिए सरकारों द्वारा यह सत्य स्वीकार नहीं जा रहा। तथापि, जिस तरह आँख मूंदकर उगते सूरज को नहीं नाकारा जा सकता उसी तरह हिंदी को विश्ववाणी बनने से कोई रोक नहीं सकता। विश्ववाणी होने के नाते हिंदी कविता को विश्वजनीन समस्याओं और चिंतन धाराओं के साथ वैज्ञानिक, यांत्रिकी, औद्यौगिकी, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक परिवर्तनों को देख-सुन-समझ काट आत्मसात और अभिव्यक्त करना होगा। यह केवल केवल तभी संभव है जब हिंदी कविता अपने समस्त पप्रारूपों को एक दूसरे का पूरक बना सके। हिंदी ने भारतीय / अभारतीय हिंदीतर भाषाओँ / बोलिओं के काव्य प्रारूपों (बुंदेली -आल्हा,, फाग आदि, बृज -  रास, पंजाबी - माहिया, उर्दू- कहमुकरी और ग़ज़ल, उर्दूअंग्रेजी- सॉनेट जापानी- हाइकु, ताँका, रैगा, सदोका, चुका, हाइगा, कतौता आदि) को अपनाया ही नहीं अपितु उनकी सृजन सामर्थ्य को समृद्ध भी किया है। 

                                नई कविता की विवशता यह है कि वह छन्दानुशासन को अपना नहीं सकती इसलिए छंद को सिरे से नकारती है। गाठ ७ दशकों में  साम्यवादी विचारधारा से आक्रांत रही है। किसी भी सृजन विधा को सर्व स्वीकृति तब तक नहीं मिल सकती जब तक कि वह  हर तरह के विचारों को स्वीकार और अभिव्यक्त न कर सके। वैचारिक प्रतिबद्धता के कारन ही नई कविता केवल साम्यवादी विचार के रचनाकारों और पाठकों तक सीमित रह गई किन्तु कभी बहुसंख्यक रचनाकारों / पाठकों की अपनी नहीं बन सकी जबकि गीत, नवगीत ग़ज़ल और छंद साम्यवादी विचारों को व्यक्त करते समय नई कविता के पाठकों - श्रोताओं द्वारा स्वीकारे जाते हैं। इस परिदृश्य में नव कविता को सर्वस्वीकृत होने के लिए हर तरह के विचारों और विचारधाराओं को आत्मसात करना होगा। अकविता, रैप सॉन्ग्स आदि का प्रारूप भी छंद मुक्त ही है। छड़न मुक्त कविता भले ही छंद मुक्त होने का दावा करे किन्तु उसकी छंद मुक्ति मात्र इस सीमा में सीमित है कि वह किसी एक छंद के अनुशासन में बंधी है किंतु उसकी विविध पंक्तियाँ विविध छंदों में निबद्ध होती हैं जो मिलकर एक रचना बनती हैं। 

                                छंद का उद्भव नाद, ध्वनि या उच्चार से है। छंद का अर्थ है वह ध्वनि जो मानस में छा जाए। यदि नई कविता  छाती ही नहीं है तो वह निरुपयोगी है और अगर वह मानस में छाती है तो वह भी उच्चार, ध्वनि या नाद का ही एक रूप है। रोटी, पराठा, पूड़ी और कचौड़ी सब गेहूं के चूर्ण (आटा /  मैदा) बनाई जाती हैं। उनमें भिन्नता होते भी गेहूँ सामान्य है। सभी गीति काव्य रूपों (गीत, ग़ज़ल, कविता) में ध्वनि या नाद सामान्य तत्व है जो इन्हें एक गोत्रोत्पन्न बनाता है। वर्तमान समय की प्राथमिक और सर्वोपरि आवश्यकता कि हिंदी की सभी काव्य विधाएँ पारस्परिक अंतर को भूलकर पारस्परिक साम्यता के तत्व खोजें और एक दूसरे से हाथ मिलकर हिंदी काव्य को विश्व श्रुत बनाएँ। रचनाकार को यह स्मरण रखना होगा कि रचना अच्छी या कम अच्छी होती है। पाठक अच्छी रचना के कथ्य को याद रखता है उसकी विधा नहीं। रचना कथ्य की आवश्यकता के अनुरूप जिस भी विधा में रची जाए उसमें सम्यक शब्दों का चुनाव, मुहावरेदार प्रवाहमयी भाषा, अभिव्यक्ति की स्पष्टता, सरलता, बोधगम्यता, सरसता होगी तो पाठक उसे स्मरण रख सकेगा। रचनाकार और पाठक दोनों गीत, ग़ज़ल और कविता  लिखते- पढ़ते / सुनते हैं। एक विधा को अन्यों से श्रेष्ठ या हीन बताकर अपने आपक्को स्थापित करने का खेल खेमेबाजी के शौक़ीन मठाधीशों ने खूब किया जिससे भाषा और साहित्य का अहित  ही हुआ है। अब समय आ गया है जब वैचारिक भिन्नता को  टकराव नहीं त्रिभाव के पढ़ पर ले जाया जाए और विश्ववाणी हिंदी के सभी काव्य रूप अपनी श्रेष्ठ अभिव्यक्ति कर एक दूसरे के पूरक बनकर हिंदी की सामर्थ्य और समृद्धि में  सहायक हों। 
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सम्पर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 
९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com 

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