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गुरुवार, 23 जुलाई 2020

बाल साहित्य में छंद सुषमा निगम, अन्नपूर्णा बाजपेई

बाल साहित्य में छंद
सुषमा निगम, अन्नपूर्णा बाजपेई

बच्चों में अनुकरणशीतला, जिज्ञासा और कल्पनाशीलता बहुत अधिक होती है। अनुकरण से उनके चरित्र का विकास, जिज्ञासा से ज्ञान-वृद्धि होती है। कल्पनाशीलता से वे जीवन व जगत के विषय में अपेक्षित ज्ञान प्राप्त करने की ओर स्वयमेव उन्मुख होते हैं। अत:, आवश्यक है कि बच्चों के चारित्रिक विकास और ज्ञानवर्धन हेतु शैशव, बचपन और कैशोर्य तीनों अवस्थाओं के अनुरूप बाल साहित्य लिखाजाए। आज के बच्चे ही कल परिवार, समाज एवं देश के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन कर योग्य नागरिक बनेंगे किंतु तभी जब उनके सामने आदर्श हों, उनकी जिज्ञासाओं का सम्यक समाधान हो और उनके कल्पना जगत को यथार्थ की भूमि पर पैर जमाकर प्रयासों के हाथों से उपलब्धियों के आकाश को छूने का अवसर मिले। बच्चों को सद्विचार से आचार की प्रेरणा देने का कार्य बाल साहित्यकार ही कर सकते हैं। बालमन को ध्यान में रखकर कविता, कहानी, नाटक, लेख, जीवनी, संस्मरण, पहेली, चुटकुले आदि रचे जाना आवश्यक है। गद्य की तुलना में पद्य अधिक सरस तथा आसानी से याद रखने योग्य होता है। पद्य के लिए छंद आवश्यक है।
बाल साहित्यकारों द्वारा सरल भाषा में शिशु गीत, बाल गीत, कविता आदि की रचना इस प्रकार हो कि बाल पाठकों का शब्द ज्ञान व शब्द भंडार बढ़े और वे नए नए शब्दों का उपयोग करें। बाल साहित्य सृजन के लिये काल्पनिकता और यथार्थता का समन्वय अपेक्षित है। बाल साहित्यकारों, अभिभावकों, शिक्षकों और प्रकाशकों के समवेत प्रयास से ही बाल साहित्य को उचित प्रतिष्ठा मिल सकेगी। विभिन्न भारतीय भाषाओं में रचित बाल साहित्य के पारस्परिक आदान-प्रदान से बाल साहित्य के विकास व राष्ट्रीय समन्वय भाव को नई दिशा मिल सकती है। अच्छे बालसाहित्य का अध्ययन बच्चों को साहित्य में वर्णित समाज, पर्यावरण, अतीत और भविष्य से संवाद करने के अवसर प्रदान करता है। इससे बच्चों के भाषिक और संज्ञानात्मक कौशल तथा भावनात्मक बुद्धिमत्ता का विकास होता है।
शिशु गीत:
बाल साहित्य लेखन में सर्वाधिक कठिनाई शिशु गीत लेखन में होती है क्योंकि शिशु का शब्द ज्ञान अत्यल्प होता है। शिशु लंबी रचनाएँ याद नहीं कर पाता। सार्थक और उपयोगी शिशु गीत बहुत कम लिखे गए हैं। शिशु गीत का कथ्य बच्चे को परिवेश से जोड़नेवाला होना आवश्यक है। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने इस दिशा में सार्थक प्रयास किया है। उनके शिशु गीतों में छंद और कथ्य दोनों का प्रभावी प्रस्तुतीकरण हुआ है। भारत धर्म प्रधान देश है। बुद्धि के देवता गणेश, विद्या की देवी सरस्वती, पंच मातृका (धरती माता, भारत माता, हिंदी माता, गौ माता तथा माँ) पर शिशु गीतों का भाषिक प्रवाह और सरसता शिशुओं के लिए उपयुक्त है:
श्री गणेश की बोलो जय, / पाठ पढ़ो होकर निर्भय। / अगर सफलता पाना है- / काम करो होकर तन्मय।। (१४ मात्रिक, मानव जातीय, हाकलि छंद)
माँ सरस्वती देतीं ज्ञान, / ललित कलाओं की हैं खान। / जो जमकर करता अभ्यास - / वही सफल हो, पा वरदान।। (१५ मात्रिक, तैथिक जातीय, पुनीत छंद)
धरती सबकी माता है, / सबका इससे नाता है। / जगकर सुबह प्रणाम करो- / फिर उठ बाकी काम करो।। (१४ मात्रिक, मानव जातीय, हाकलि छंद)
सजा शीश पर मुकुट हिमालय, / नदियाँ जिसकी करधन। / सागर चरण पखारे निश-दिन- / भारत माता पावन। (२८ मात्रिक, यौगिक जातीय, सार छंद १६-१२ पर यति, पदांत कर्णा, अंत के गुरु को दो लघु किया गया है)
हिंदी भाषा माता है, / इससे सबका नाता है। / सरल, सहज मन भाती है- / जो पढ़ता मुस्काता है।। (१४ मात्रिक, मानव जातीय, हाकलि छंद)
देती दूध हमें गौ माता, / घास-फूस खाती है। / बछड़े बैल बनें हल खीचें / खेती हो पाती है। (२८ मात्रिक, यौगिक जातीय, सार छंद १६-१२ पर यति, पदांत कर्णा)
माँ ममता की मूरत है, / देवी जैसी सूरत है। / लोरी रोज सुनाती है, /सबसे ज्यादा भाती है।। (१४ मात्रिक, मानव जातीय, हाकलि छंद)
अंग्रेजी भाषा की शिक्षा के साथ पश्चिमी कुसंस्कार भी घर-घर में घर कर रहे हैं। इन शिशु गीतों में बच्चों को भारतीय संस्कृति और परिवेश से जोड़ने की सजगता सहज दृष्टव्य है। महानगरों में 'अंकल-आंटी' के अलावा अन्य नाते बच्चे नहीं जानते। इस समस्या को सुलझाने के लिए सलिल जी ने नातों को ही शिशु गीतों का विषय बना कर अभिनव और उपयोगी पहल की है। इन शिशु गीतों में प्राय: मानव जातीय, हाकली छंद का प्रयोग हुआ है।
पापा चलना सिखलाते, / सारी दुनिया दिखलाते। / रोज बिठाकर कंधे पर- / सैर कराते मुस्काते।।
मेरा भैया प्यारा है, / सारे जग से न्यारा है। / बहुत प्यार करता मुझको- / आँखों का वह तारा है।।
बहिन गुणों की खान है, / वह प्रभु का वरदान है। / अनगिन खुशियाँ देती है- / वह हम सबकी जान है।।
पापा सूरज, माँ चंदा, / ध्यान सभी का धरते हैं। / मैं तारा, चाँदनी बहिन- / घर में जगमग करते हैं।।
बब्बा ले जाते बाज़ार, / दिलवाते टॉफी दो-चार। / पैसे नगद दिया करते- / कुछ भी लेते नहीं उधार।।
राम नाम जपतीं दादी, / रहती हैं बिलकुल सादी। / दूध पिलाती-पीती हैं- / खूब सुहाती है खादी।।
मम्मी के पापा नाना, / खूब लुटाते हम पर प्यार। / जब भी वे घर आते हैं- / हम भी करते बहुत दुलार।।
कहतीं रोज कहानी हैं, / माँ की माँ ही नानी हैं। / हर मुश्किल हल कर लेतीं- / सचमुच बहुत सयानी हैं।।
चाचा पापा के भाई, / हमको लगते हैं अच्छे। / रहें बड़ों सँग, लगें बड़े- /बच्चों में लगते बच्चे।।
प्यारी लगतीं मुझे बुआ, / मुझे न कुछ हो- करें दुआ। / प्यारी बहिना पापा की- / पाला घर में हरा सुआ।।
मामा मुझको मन भाते, / माँ से राखी बँधवाते। / सब बच्चों को बैठाकर / गप्प मारते-बतियाते।।
मौसी माँ सी ही लगती, / मुझको गोद उठा हँसती। / ढोलक खूब बजाती है, / केसर-खीर खिलाती है।
बाल-काव्य पर विचार करने के लिए यह जरूरी है कि हमारे मन में बच्चों व बचपन के बारे में एक स्पष्ट समझ हो जिसमें बच्चे को एक जागरूक व जिज्ञासु इंसान के रूप देखना, बाल विकास से जुड़े मुद्दों को समझना व समाज को समझना आदि बातें शामिल हो। बाल काव्य में यथार्थ की अभिव्यक्ति मज़े-मज़े में, खेल-खेल में होना आवश्यक है। बच्चे जानकारी से नहीं, नई कल्पना से आनंदित होते हैं। १६-११ २७ मात्रिक नाक्षत्रिक जातीय सरसी छंद में रचे निम्न शिशु गीत में कल्पना की उड़ान देखें:
सुनो मजे की बातें भैया / सुनो मजे की बात
हाथी दादा दबा रहे हैं / चींटी जी के पाँव
चूहे जी के डर से भागी / बिल्ली अपने गाँव
रौब जमाता फिरता सब पर / नन्हा सा खरगोश
चीता सहमा हुआ खड़ा है / भूला अपने होश
एक सात-आठ साल का बच्चा भी यह जानता है कि धरती गोल है और यह सूरज के चारों ओर चक्कर लगाती है। वह इस जानकारी से खुश नहीं होता। उसे तो कहानी में कोई ऐसा पात्र चाहिए जो धरती पर पाँव रखकर उसे चपटा बना दे या धरती को उल्टी दिशा में घुमा दे। ऐसी स्थिति में धरती पर क्या होगा?, इस कल्पना से वह रोमांचित होता है। यह फैंटेसी कल्पनात्मक और कलात्मक आनंद की सृष्टि करती है, जो बालसाहित्य की आत्मा है। यथार्थ बताते हुए असंभव कल्पनाओं को चित्रित करना और फैंटेसी रचना ही बाल साहित्य है।
बाल-काव्य में बच्चों या बचपन की छवि को उभारा जाना जरूरी है। ऐसी रचनाओं में बच्चे और पशु-पक्षी हों किंतु बड़ों की सोच न हो क्योंकि बच्चे उसका पूर्वानुमान लगा लें तो उत्सुकता नहीं जग पाती, 'आगे क्या होने वाला है' का कौतूहल समाप्त हो जाता है।
पाखी ने बिल्ली पाली. / सौंपी घर की रखवाली../ फिर पाखी बाज़ार गई. / लाई किताबें नई-नई / तनिक देर जागी बिल्ली. / हुई तबीयत फिर ढिल्ली../ लगी ऊंघने फिर सोई. / सुख सपनों में थी खोई. / मिट्ठू ने अवसर पाया./ गेंद उठाकर ले आया../ गेंद नचाना मन भाया. / निज करतब पर इठलाया../ घर में चूहा आया एक./ नहीं इरादे उसके नेक../ चुरा मिठाई खाऊँगा./ ऊधम खूब मचाऊँगा../ आहट सुन बिल्ली जागी./ चूहे के पीछे भागी../ झट चूहे को जा पकड़ा./ भागा चूहा दे झटका../ बिल्ली खीझी, खिसियाई./ मन ही मन में पछताई..
बाल गीत और पात्र:
मुझे याद आता है एक बार मैंने जैसे ही बाल-कथा सुनाते समय पात्रों का परिचय दिया- एक थी गिलहरी ...बच्चे बोल पड़े 'बड़ी नटखट और चुलबुली थी।' सचमुच कहानी में ऐसा ही था मगर कहानी में मजा बनाए रखने के लिए मुझे गिलहरी के पात्र को फिर से गढ़ना पड़ा। अतः, बाल-शिक्षण की दृष्टि से रचनाओं का चयन करते समय देखना चाहिए कि क्या इन रचनाओं में पात्रों की प्रचलित छवियों (लोमड़ी चालाक ही होगी, खरगोश चतुर ही होगा, शेर बहादुर ही होगा, बच्चे बड़ो के निर्देश पर ही काम करेंगे, सौतेली माँ दुष्ट ही होगी आदि) को तोड़ते हुए किसी स्वतन्त्र छवि को गढ़ा जा रहा है? ख्यात बाल साहित्यकार डॉ. शेषपाल सिंह 'शेष' ने एक कथा-गीत में बिल्ली की चूहे पकड़ने की परम्पराबद्ध छवि से मुक्त कर नव युग के अनुरूप नयी छवि दी है: 'सोचो-बदलो बिल्ली मौसी / हमें बदलने दो / चलते हुए समय को अपनी / गति से चलने दो / मेल-जोल से बुरी बात को / दूर हटाना है / टी. वी., टेलीफोन, मेल-ई, / इंटरनेट हुए / एरोप्लेन, टैंकर, अणुबम , युद्धक-जेट हुए / बढ़ें वेब-कंप्यूटर युग में / देश उठाना है.' २६ मात्रिक, महाभागवत जातीय, विष्णुपद छंद ने इस कथा-गीत में चार चाँद लगा दिए हैं।
बाल साहित्य और चित्रांकन:
बच्चों की किताबों में चित्रांकन एक आवश्यक पहलू है। चित्र गीत या कहानी का अटूट हिस्सा होते हैं। बच्चे चित्रों के आधार पर ही पढ़ने की शुरुआत कर लिखे गए का अर्थ ग्रहण करते हैं। अतः, छोटे बच्चों की किताबों में चित्र स्पष्ट, बड़े और बोलते हुए होने चाहिए। चित्रों के साथ उनके बारे में कुछ काव्य-पंक्तियाँ या वाक्य लिखे हों तो प्रभाव और भी बढ़ जाता है। छोटे बच्चों की किताबों में अक्षरों का आकार बड़ा हो ताकि उन्हें आसानी से पढ़ा जा सके। चित्रों के बारे में हमें यह भी समझना होगा कि चित्र इस तरह के हों जो पाठ की हू-ब-हू नकल जैसे न हों वरन लिखी गई बात को और आगे बढ़ाएँ जिससे बच्चों को सोचने व कल्पना करने का मौका मिले। इसके साथ ही स्थिर व रूढि़वादी चित्रों की बजाय चित्रों में गतिशीलता हो जो वास्तविकता में कुछ घट रहा हो ऐसा महसूस करा सकें। वरिष्ठ साहित्यकार श्री सदाशिव कौतुक ने चहक-महक में 'हम पौधे हैं' गीत के साथ पौधे लगाते हुए बच्चों का चित्र दिया है जो गीत का प्रभाव बढ़ाता है- 'हम दुनिया के पौधे हैं / दुनिया हमसे है आबाद / हम महकेंगे; हम चहकेंगे / शुद्ध मिलेगा पानी-खाद।'
राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत श्रेष्ठ शिक्षक तथा प्राचार्य रहे डॉ. रमेशचंद्र खरे ने शब्दों को ही चित्रांकन का माध्यम बनाया है। शब्द चित्र उपस्थित करने के लिए कवि की सामर्थ्य असाधारण होना चाहिए- 'पौ फूटी, भोर हो गया / जागे सब, शोर हो गया। / चिड़ियों की चूं-चूं-चूं / कौओं की काँव-काँव / मुर्गों की बांग-बिगुल / बजता है गाँव-गाँव / अब तो मन मोर हो गया' इस रचना में पूरा परिवेश जीवन हो उठा है। (मुखड़ा १४ मात्रिक मानव जातीय हाकलि छन्द, अंतरा २४ मात्रिक अवतारी जातीय छंद, यति १२-१२)
बालसाहित्य और चेतना-जागृति:
ख्यात शिक्षक और प्राचार्य रहे कृष्णवल्लभ पौराणिक बच्चों को बहुराष्ट्रीय उत्पादों के प्रति विमुख करने के लिए गीत को माध्यम बनाते हैं: 'बोलो बच्चों! तुम्हें चाहिए? / जेम्स गोलियां? केडबरीज? / चुईन्गम गोली?, फिफ्टी-फिफ्टी? / चोकलेट फाइवस्टार?, पार्ले बिस्किट? / और कहो जो तुम्हें चाहिए / नहीं, हमें ये नहीं चाहिए / हमें दीजिए खीर दूध की / सब्जी-रोटी डाल व चांवल / अचार, भुट्टा, गुलाब जामुन / और जलेबी, मथुरा पेड़े ' (सोलह मात्रिक संस्कारी जातीय छंद)
डॉ. बलजीत सिंह पुस्तक संस्कृति के प्रति बच्चों के लगाव को १६ मात्रिक संकरी जातीय छंद में रचित गीत के माध्यम से बढ़ा रहे हैं- पुस्तक है अनमोल खज़ाना / बता रहे थे मेरे नाना / पढ़-पढ़कर वे मुझे सुनाते / बात-बात में ज्ञान बढ़ाते / और न इन सा साथी-संगी / इनकी दुनिया रंग-बिरंगी। / कभी हँसा दें, कभी रुला दें / मीठी-मीठी नींद सुला दें' (१६ मात्रिक संस्कारी जातीय छंद)
डॉ. दिनेश चमोला 'शैलेश' बालगीत के माध्यम से राष्ट्रीय भावधारा का बीजारोपण करते हैं: 'जहाँ हिमालय प्रहरी बनकर, करता सबका मान है / जिसकी रज तक प्यार बाँटती, मेरा हिन्दुस्तान है / हर युग में गौतम-गाँधी बन / लेते सुत अवतार हैं / जहाँ ह्रदय से होती माँ की / एक कंठ जयकार है। / जहाँ देश के लिए लाड़ले, हँसकर देते जान हैं / शांति-ज्ञान का अमर कोष वह मेरा हिन्दुस्तान है' (मुखड़ा-अंतरा २९ मात्रीय महायौगिक जातीय छंद, १६-१३ पर यति)।
बाल चिकित्सा विशेषज्ञ डॉ. प्रदीप शुक्ल ने बाल गीतों के स्वास्थ्य-चेतना जगाने का उपकरण बनाया है। एक अमीबा शीर्षक गीत में वे क्रिकेट की गेंद नाली में गिरने, उसे निकालते समय नाखूनों में अमीबा लगने और खाने के साथ पेट में जाने और गड़बड़ मचाने की घटना के माध्यम से स्वच्छता का संदेश देते हैं: 'एक अमीबा बड़े मजे से नाले में था रहता / अरे! वही गंदा नाला जो सड़क पार था बहता / कहने को तो एक अमीबा ढेरों उसके बच्चे / नाली में उनकी कोलोनी रहते गुच्छे-गुच्छे / क्रिकेट खेलते हुए गेंद नाली में गिरी छपाक / आव न देखा, ताव न देखा पप्पू गया तपाक / साथ गेंद के कई अमीबा पप्पू लेकर आया / बड़े-बड़े नाखून, भूल से उनको वहीं छुपाया / हाथ नहीं धोया अच्छे से पप्पू ने घर जाकर / खुश थे बहुत अमीबा सारे उसके पेट में आकर / रात हुई पप्पू चिल्लाया हुई पेट में गुड़गुड़ / सारे बच्चे समझ रहे हैं कहाँ-कहाँ थी गड़बड़ / तो बच्चों गलती ना करना पप्पू जैसी तुम भी / वरना प्यारे बच्चों तुम फिर सजा पाओगे लंबी।' ( २८ मात्रिक यौगिक जातीय छंद, १६-१२ पर यति)
बाल-रचनाओं की भाषा:
बच्चों को रचना पढ़ने का आनंद तभी आएगा जब भाषा आसानी से समझ में आती हो और दिल तक उतर जाती हो। कॉमिक्स और परीकथाएँ अपनी भाषाई सहजता और बोलचाल के शब्दों के उपयोग के कारण बच्चों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। तात्पर्य यही है कि बच्चों की पुस्तकों में उपयोग में लाई जा रही रचनाओं की भाषा बनावटी व कठिन न हो वरन् सहज और प्रवाहपूर्ण हो बच्चे ऐसी रचनाएँ पसंद करते हैं जिनमें बात नए तरीके से कही जा रही हो, नई कल्पनाएँ हों, असंभव को संभव बनाने के लिए फैंटेसी रची गई हो। वे ऐसी रचनाएँ भी पसंद करते हैं जिनमें एक ही बात का दोहराव हो और दोहराते समय उनमें नए पात्र या घटना जोड़ दी गई हो। बाल कविताओं मे भी ध्वनियों के साथ विविध प्रयोग जैसे: 'बादल गरजा धम धम धडाम / बिजली चमकी कड़ कड़ कड़ाम' आदि हो तो वे बच्चों को आकर्षित करते हैं। बच्चे भाषा से पूरी तरह से वाकिफ नहीं हो पाते, अतः उनके लिए लिखी गई रचनाओं में सरल शब्द हों जिन्हें बच्चे आसानी से समझ पाएँ। बच्चों के लिए लिखे गए गीतों की भाषा में प्रवाह, लय और छांदस सहजया आवश्यक है। उक्त सभी गीतों में सरसता, सरलता, शब्द-चयन में सटीकता, छंद के गेयता तथा अर्थ की स्पष्टता देखी जा सकती है। बालोपयोगी रचना गद्य, पद्य, नाट्य या नृत्य किसी भी विधा में हो उसमें छंद का होना शरबत में शक्कर का होना है।
संदर्भ: दिव्य नर्मदा नेट पत्रिका, झूमे नाचें गीति कथाएँ -शेषपाल सिंह शेष, चहक-महक -सदाशिव कौतुक, आओ सीखें मैदानों में गाते-गाते गीत -डॉ. रमेश चंद्र खरे, रेल चली भई रेल चली -कृष्णवल्लभ पौराणिक, हम बगिया के फूल -डॉ. बलजीत सिंह, एक सौ एक बाल गीत -डॉ. दिनेश चमोला 'शैलेश', गुल्लू का गाँव -डॉ. प्रदीप शुक्ल।
२३-७-२०१९ 
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