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मंगलवार, 21 जुलाई 2020

लेख - सलिल का गीतीय अवदान - सुरेन्द्र सिंह पँवार


समीक्षात्मक आलेख 
सलिल ने साँसे देकर, सरगम देकर गीत लिखे, नवगीत लिखे
सुरेन्द्र सिंह पँवार
*
सत्य के शिवत्व की लयात्मक सुंदरता ही कविता है। वह आत्मा की गीतात्मक संवेदना को लय में पिरोती है। गीत ही कविता का स्वभाव है, उसका अभिधान है, उसका परिचय है। गीत में सामवेदी संगीत उसे ऋचाओं का सा दिलाता है। यही गीत जब लोक से संस्कारित होता है तो उसकी धुनों पर थिरकने लगता है। 
छायावादेतर परिदृश्य 
जब निराला ने “परिमल” की संपादकीय के माध्यम से ‘नव गति नव लय, ताल छंद नव’ का विन्यास देते हुए कविता की मुक्ति की घोषणा की, तब उनका आशय छंद से मुक्ति का कदापि नहीं था, बल्कि उन्होंने पथराई जमीन को तोड़कर उसकी मिट्टी पलटाने की कोशिश की थी, उसके सीलने, सौंधेपन, पपडाने, जैसे गुणों को वापिस लाने की कोशिश की थी, वे तो बंजर जमीन को उर्बरा बनाने में विश्वास रखते रहे, वे गीत में नव्यता लाने के पक्षधर रहे उनकी अपील का कुछ साहित्यकारों ने अलग ही मतलब निकाला और “नई-कविता” की संज्ञा के साथ साहित्यिक-खेमेवादी शुरू हो गई। एक समय तो ऐसा भी आया जब गीत को साहित्य के हाशिये पर डाल दिया गया। परंतु गीत की आत्मा को अमरत्व होने के कारण वह मरा नहीं, वरन योगस्थ होकर उसने नई ऊर्जा, नई जमीन, नए भाव, नए छंदों के साथ कायाकल्प किया, ‘नव’ विरुद धारण कर अपने समय से मुठभेड़ की, युग-सत्य से साक्षात्कार किया और ‘नवगीत’ के रूप में ढालकर जनता-जनार्दन की आवाज बनकर खुद को सार्थक किया। इस संघर्ष-यात्रा में जिन गीतकारों ने नवगीत की धर्म-ध्वजा को थामा या आज भी थामे हुए हैं, उनमें आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ का नाम सम्मान से लिया जाता है।
सलिल का व्यक्तित्व - 
माँ भारती के वरद-पुत्र सलिल को अथाह ज्ञान का भंडार मानो विरासत में मिला। स्वयं आचार्य अपनी बुआ महीयषी महादेवी वर्मा और माँ शांति देवी को प्रेरणा स्त्रोत मानते हैं। जिनसे सलिल के साहित्य-संस्कारों के बीज अंकुरित, प्रस्फुटित और पल्लवित हुए हैं। इंजीनियर के अभिजात्य पेशे के उच्चाधिकारी पद पर रह चुके सलिल ने अभियंत्रण की यंत्रणा को झेलते हुए जीवन और जगत के समस्त हर्ष-विषाद, शीत-ताप, उतार-चढ़ाव एवं खट्टे-मीठे अनुभव अपने-पराए से पाए, देखे-सीखे, तब जाकर लिखे हैं। यही कारण है कि उनके भीतर के भाव में प्रसूत-प्रभावक क्षमता है। सलिल; किसी वाद-विशेष के समर्थक नहीं हैं, न ही किसी मठ, शिविर, खेमे, टोली आदि की सदस्यता एवं मानसिकता कभी स्वीकार की। कबीर की भाँति लुकाटी हाथ में लेकर वे गीत की अलख जगाने निकल पड़े, यायावरी यातनाओं को अनदेखा किया, लोक को गले लगाया, दरिद्र नारायण की सेवा की, गीतों में व्याप्त कलात्मकता व भावात्मकता में नवता के स्वरूप के दर्शन किये। क्योंकि उन्हें विश्वास रहा कि एक-न-एक दिन उनकी मौलिकता का मूल्यांकन होगा और उनकी सर्जना को स्वीकृति देनेवाले आगे आएंगे।
सलिल का कृतित्व- 
संजीव सलिल का व्यक्तित्व जितना सहज-सरल है, उनका कृतित्व उतना ही विरल और विराट है। “सजीवति गुणस्य कीर्तिर्यस्य सजीवति” को चरितार्थ कर रहा है। उन्हें किसी पहचान की जरूरत नहीं, अपनी पहचान वे स्वयं बन चुके हैं, बना चुके हैं। इन्स्टीट्यूशन ऑफ इंजीनियर्स, जबलपुर चेप्टर के अध्यक्ष इंजी तरुण आनंद ने सलिल को अपना ‘यांत्रिक-मित्र’ कहा है, मैं किञ्चित संशोधन के साथ उन्हें ‘यांत्रिक-कवि’ संबोधित कर रहा हूँ। सच भी है, पथ और भवन का शिल्पी सलिल बाह्य-जगत में यांत्रिक ही रहा है, हमेशा भागता-दौड़ता, अपनी उधेड़ बुन में, जीविका कमाने के लिए, गाँव-गाँव, शहर- शहर- परंतु जब भी मुनासिब वक्त (अनुकूल समय) मिला, उसके भीतर के मनु ने अपनी वाणी को साँसे देकर, सरगम देकर गीत लिखे, नवगीत लिखे। शायद- ही, हिन्दी-साहित्य की कोई विधा होगी जो सलिल से अछूती रही हो- व्याकरण, पिंगल, भाषा, गद्य-पद्य की सभी विधाएं, समीक्षा, तकनीकी-लेखन, शोध-लेख, संस्मरण, यात्रा-वृत्त, साक्षात्कार, इत्यादि, इत्यादि। परंतु कविता (स्फुट-लेखन) उनकी पहली पसंद रही, वे भी गीत, नवगीत ही, वे भी परंपरागत या गैर- परंपरागत छंदों में।

सलिल की रचनाएँ - 
अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएट, एल एल बी अभियंता संजीव सलिल की प्रथम प्रकाशित कृति ‘कलम के देव’ भक्ति गीत संग्रह है। ‘लोकतंत्र का मकबरा’ और ‘मीत मेरे’ उनकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है, ‘भूकंप के साथ जीना सीखें’। ‘कुरुक्षेत्र गाथा’ उनकी छंद बद्ध प्रबंध कृति है। दो प्रकाशित-पुरुष्कृत नवगीत संग्रह है, ‘काल है संक्रांति का`’ तथा ‘सड़क पर’। ‘निर्माण के नूपुर’, ‘नींव के पत्थर’, ‘यदा-कदा’, ‘द्वार खडा इतिहास के’, ‘कालजयी साहित्य-शिल्पी भागवत प्रसाद मिश्र नियाज’ के साथ-साथ अनेक पत्रिकाओं और स्मारिकाओं का सम्पादन किया। तकनीकी लेखन में, वह भी हिन्दी में, सलिल राष्ट्रीय-स्तर का ‘सेकंड बेस्ट पेपर एवार्ड’ प्राप्त कर चुके हैं। सलिल ने हिन्दी कविता के हर रंग, हर रूप को जी-भर कर गाया है और औरों-को भी उत्प्रेरित किया है कि ‘गाओ, अपने मन से, अपनी भरपूर ऊर्जा से, बिना किसी दबाब के, बिना किसी भ्रम के’। वे एक गंभीर साहित्यिक अध्येता तो हैं ही, एक अध्यापक के तौर पर बगैर नागा, अनुज-रचनाकारों को नव गीत के गुर सिखा रहे हैं, काव्य-बारीकियों से परिचय कर रहे हैं, उनके मन-मानस में उठ रहीं शंकाओं—आशंकाओं का त्वरित निदान कर रहे हैं। बिना किसी गुरु-दक्षिणा की चाह में, बिना किसी मान-सम्मान की कामना से। हमारे शहर में कई-एक प्रतिष्ठित नव गीत कार हैं जो अटकने पर सलिल का दरवाजा खटखटाते हैं, अपने उलझे पेंचों का सहज समाधान पाकर वे कृतज्ञ उनकी ढ़योडी पर माथा टेककर दबे पाँव निकल जाते हैं। हाँ, उनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं जो सार्वजनिक रूप से सलिल का लोहा मानते हैं।
सलिला का रचना संसार 
सलिल ने अब तक ; छह नवगीत-संग्रहों यथा, जब से मन की नाव चली : (2016)-डॉ गोपाल कृष्ण भट्ट “आकुल”, ओझल रहे उजाले : (2018)-विजय बाग़री, फुसफुसाते हुए वृक्ष : (2018)- हरिहर झा, भीड़ का हिस्सा नहीं : (2019)-शशि पुरवार, तबाही : (2020)- सुनीता सिंह, बुधिया लेता टोह : (2020)-बसंत शर्मा की भूमिकाएँ लिखकर नवगीत क्षेत्र में अपने आचार्यत्व का निर्वहन किया है।

वहीं, उन्होंने अब तक देश के विभिन्न अंचलों के लब्ध-प्रतिष्ठ नवगीतकारों के शताधिक नवगीत संग्रहों की समीक्षाएं लिखीं हैं जिनमे अशोक गीते, निर्मल शुक्ल, मधुकर अष्ठाना, डॉ राम सनेही लाल शर्मा “यायावर”, राधेश्याम बंधु, आचार्य भगवत दुबे, गिरी मोहन गुरु, पूर्णिमा वर्मन, राम सेंगर, जयप्रकाश श्रीवास्तव, कल्पना रामानी, कृष्ण शलभ, योगेश वर्मा “व्योम”, कुमार रवींद्र, योगेंद्र प्रताप सिंह मौर्य, अविनाश व्योहार, मालिनी गौतम, राम किशोर दहिया, अवनीश त्रिपाठी, आनंद तिवारी, जय चक्रवर्ती, देवकी नंदन “शांत” के नव गीत
संग्रह शामिल हैं। साथ ही इनमें नव गीत: नव संदर्भ (डॉ राम सनेही लाल शर्मा यायावर), नवगीत के नए प्रतिमान ( राधे श्याम बंधु) तथा [नव गीत] समीक्षा के नए सोपान (डॉ पशुपति नाथ उपाध्याय) जैसे नव गीत संदर्भ-ग्रंथों की वृहद समीक्षाएं भी सम्मिलित हैं। नवगीत को लेकर आयोजित स्थानीय नवगीत- संगोष्ठियों (अभियान और अभियान के अलावा) में सलिल की भूमिका अहम रहती है, वहीं देश के विभिन्न शहरों में सम्पन्न नवगीत के आयोजनों विशेषकर लखनऊ, श्रीनाथद्वारा, दिल्ली, जोधपुर, कलकत्ता में सलिल की उपस्थिति ने नवगीत को श्रेष्ठता की ऊँची पायदानों पर पहुँचाया।
सलिल की आभासी दुनिया में सक्रियता -
 इंटरनेट पर नव गीतों को लेकर
सलिल की नियमित उपस्थिति अपने आप में उपलब्धि है। 1994 से फेसबुक और अंतर्जाल पर दिव्य-नर्मदा (ब्लाग/चिठ्ठा) और अन्य वेब स्थलों पर सलिल के 1000 से ऊपर गीत-नव गीत हैं, जो कथ्य, भाव बोध, हार्दिक संवेदना और तद्रूप अभिव्यक्ति में सौंदर्यमूलक तादात्म्य स्थापित करते हैं। गैर-जरूरी है कि वे सभी गीत नवगीत हों, परंतु जो नवगीत हैं वे तो गीत हैं ही। यदि गूगल पर ‘सलिल के नवगीत’ खोजें तो एक के बाद एक अनेकों साइट खुल जातीं हैं। अंतर्जाल पर सलिल के ढेरों मित्र और प्रशंसक हैं, वहीं छंद और भाषा शिक्षण की उनकी ऑनलाइन पाठशाला/ कार्यशाला में कई उदीयमान नवगीत सर्जकों ने अपनी जमीन तलाशी है। सलिल, सोशल-मीडिया के फेस बुक पर बहुचर्चित, बहुपठित, बहुप्रशंसित नवगीतकार हैं।
सलिल की दृष्टि में नवगीत- 
सलिल कहते हैं, नवगीत गीत का आत्मज है, जो अपनी शैली आप रचकर काव्य को उद्भाषित करता है। डॉ नामवरसिंह के अनुसार “नवगीत अपने ‘नए रूप’ और नयी वस्तु’ के कारण प्रासंगिक हो सका है”। क्या है नवगीत का ‘नया रूप’ एवं ‘नयी वस्तु’? बकौल सलिल,
नव्यता संप्रेषणों में जान भरती,
गेयता संवेदनों का गान करती।
कथ्य होता, तथ्य का आधार खांटा,
सधी गति-यति अन्तरों का मान करती।
अन्तरों के बाद मुखड़ा आ विहँसता,
मिलन की मधु बंसरी, है चाह सजनी।
सरलता-संक्षिप्तता से बात बनती,
मर्म बेधकता न हो तो रार ठनती।
लाक्षणिकता भाव, रस, रूपक सलोने
बिम्ब तटकापन मिलें बारात सजती।
नाचता नवगीत के संग लोक का मन,
ताल-लय बिन, बेतुकी क्यों रहे कथनी?
छंद से अनुबंध दिखता या न दिखता
किन्तु बन आरोह या अवरोह पलता।
(“काल है संकान्ति का” नवगीत संग्रह में सलिल का कथन)
इतर इससे, अपने दूसरे नवगीत संग्रह “सड़क पर” में ‘अपनी बात’ रखते हुए सलिल लिखते हैं कि,-“’नव’ संज्ञा नहीं ‘विशेषण’ के रूप में ग्राह्य है”। वहीं ट्रू- मीडिया पर गीत और नवगीत का अंतर बताते हुए सलिल कहते है –“गीत के वृक्ष की एक शाखा पर खिला पुष्प नवगीत है”। सलिल गीत को व्यक्तिपरक और नवगीत को समष्टिपरक बतलाया है। साथ ही; बहुत दृढ़ता से गाया कि ‘गीत और नवगीत, नहीं हैं भारत पाकिस्तान’,—

काव्य वृक्ष की
गीति शाख पर
खिला पुहुप नवगीत।
कुछ नवीनता
कुछ परंपरा
विहंस रचे नवरीत।
जो जैसा है
वह वैसा ही
कहे झूठ को जीत।
कथन-कहन का दे तराश जब
झूम उठे इंसान।
गीत और नवगीत मानिए

भारत हिंदुस्तान। ( अंतर्जाल पर)

सलिल के नवगीतों के विषय- नव गीतकार सलिल का प्रथम नव गीत-संग्रह ‘संक्रांति काल’ पर केंद्रित रहा, जिसमें सूर्य के विभिन्न रूप, विभिन्न स्थितियाँ और विभिन्न भूमिकाओं को स्थान मिला, वह चाहे बबुआ सूरज हो या जेठ की दुपहरी में पसीना बहाता मेहनतकश सूर्य हो या शाम को घर लौटता, थका, अलसाया या काँखता-खाँसता सूरज--- उसकी तपिश, उसका तेज, उसका औदार्य, उसका अवदान, उसकी उपयोगिता सभी वर्ण्य विषय थे। सूर्य (अग्नि) , जो पंच- तत्वों में से है, ऊर्जा और ऊष्मा का प्रतीक है, वह मेहनतकश मजदूर का
प्रतिनिधित्व करता है, जो प्रतिदिन नियत समय नियत दायित्वों का निर्वहन करता है। श्रम, श्रम-स्वेद, श्रम-मूल्य, संवेदना की गहनता, सघनता, सांद्रता ऐसे अवदात गीतों की सर्जना में सहयोगी भाव रखते हैं।

नि:संदेह, सलिल के प्रतिनिधि नवगीतों के केंद्र में वह आदमी है, जो श्रमजीवी है, जो खेतों से लेकर फेक्टरियों तक खून पसीना बहाता हुआ मेहनत करता है फिर भी उसकी अंतहीन जिंदगी समस्याओं से घिरी हुई है, उसे दाने-दाने के लिए जूझना पड़ता है। ‘मिली दिहाड़ी’ नव गीत में कवि ने अपनी कलम से एक ऐसा ही चित्र उकेरा है-

चाँवल-दाल किलो भर ले-ले
दस रुपये की भाजी।
घासलेट का तेल लिटर भर
धनिया–मिर्ची ताजी।
तेल पाव भर फल्ली का
सिंदूर एक पुड़िया दे-
दे अमरूद पाँच का, बेटी की
न सहूँ नाराजी।
खाली जेब पसीना चूता
अब मत रुक रे!

मन बेजार। (काल है संक्रांति का/81)

कुछ और-प्रसंग जो निर्माण (सड़क, भवन इत्यादि) से जुड़े कुशल, अर्ध कुशल और अकुशल मजदूरों के सपनों को स्वर देते हैं, उनकी व्यथा-कथा बखानते हैं, उन्हें ढाढ़स बँधाते हैं, उनके जख्मों पर मलहम लगाते हैं, उनके श्रम-स्वेद का मूल्यांकन करते हैं, उन्हें संघर्ष करने तथा विकास का आधार बनने का वास्ता देते हैं। इन नवगीतों में गाँव और कस्बों से प्रतिभा-पलायन एवं प्रतिलोम-प्रवास (मजदूरों की घर-वापसी) का मुद्दा भी प्रतिध्वनित होता है,

एक महल/ सौ कुटी-टपरिया कौन बनाए?
ऊंच-नीच यह/ कहो कौन खपाए?
मेहनत भूखी/ चमड़ी सूखी आँखें चमके/
कहाँ जाएगी/ मंजिल/ सपने हो न पराए/

बहका-बहका/

संभल गया पग/ बढा रहा पर/ ठिठका- ठिठका।(सड़क पर/42)
नागिन जैसी टेढ़ी-मेढ़ी/ पगडंडी पर संभल-संभल/
चलना रपट न जाना/ मिल-जुल/

पार करो पथ की फिसलन। लड़ी-झुकी उठ-मिल चुप बोली
नजर नजर से मिली भली। (सड़क पर/26)

वैशाख-जेठ की तपिश के बाद वर्षाकाल आता है। वर्षा आगमन की सूचना के साथ ही गीतकार की बाँछें खिल जातीं हैं, उसका मन मयूर नाचने लगता है और यहाँ से शुरू होता है सलिल का दूसरा नवगीत संग्रह ‘सड़क से’। इसके वर्षा गीत कभी जन वादी तेवर दिखलाते हैं तो कभी लोक-रंग का इन्द्र-धनुष तानते हैं। काले मेघों का गंभीर घोष, उनका झरझरा कर बरसना, बेडनी सा नृत्य करती बिजली, कभी संगीतकार कभी उद्यमी की भूमिका में दादुर, चाँदी से चमकते झरने, कल-कल बहती नदियां, उनका मरजाद तोड़ना, मुरझाए पत्तों को नव जीवन पा जाना और इन सबसे पृथक वर्षागमन से गरीब की जिंदगी में आई उथल-पुथल ---सभी उनके केनवास पर उकेरे सजीव चित्र हैं।

नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर/
फिर मेघ बजे/
ठुमक बिजुरिया /
नचे बेड़नी बिना लजे।
टप-टप टपके तीन

चू गयी बाखर
डूबी शाला हाय!
पढ़ाये को आखर?
डूबी गैल, बके गाली
डुकरो काँपें, ‘सलिल’
जोड़ कर राम भजे। (सड़क पर/27)

मिथकीय संदर्भ – नवगीतकर सलिल ने रामायण और महाभारत कालीन मिथकों यथा: कैकेयी, शंबूक, जटायु, हनुमान, कर्ण, भीष्म पितामह, गुरु द्रोण, एकलव्य का प्रचुर प्रयोग किया है। एक-एक मिथक को कई-कई अर्थों में लिया है। जैसे, शिव को श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक के साथ-साथ शंकारि यानि शंकाओं का शत्रु माना है। आंचलिक मिथकों को प्रमुखता दी है; विंध्याचल, सतपुड़ा, मेकल, नर्मदा, जोहिला, शोण, अगस्त्य, बड़ादेव आदि। चित्रगुप्त का (चित्र उसका गुप्त, अक्षर ब्रह्म है वह) निराकार रूप तथा ‘पथवारी मैया’ ( दैवीय स्वरूप) नवीन सृजित मिथक है।

विध्याचल की/छाती पर हैं/ जाने कितने घाव
जंगल कटे/ परिंदे गायब/ छुप न पाती छाँव।
ऋषि अगस्त्य की करी वन्दना/ भोला छला गया/
‘आऊँ न जब तक झुके रहो’ कह/चतुरा चला गया।
समुद सुखाकर असुर संहारे/ किन्तु न लौटे आप
वचन निभाता/ विंध्य आज तक/ हारा जीवन दाँव।

शोण-जोहिला दुरभिसंधि कर/ मेकल को ठगते।

रूठी नेह नर्मदा कूदी/ पर्वत से झट से।
जन कल्याण करें युग-युग से/
जग वंदया रेवा/सुर नर देव दनुज/

तट पर आ/ बसे बसाकर गाँव। (अंतर्जाल पर)

अब नहीं है वह समय जब/मधुर फल तुममें दिखा था
फांद अम्बर पकड़ तुमको/लपक कर मुंह में रखा था
छा गया दस दिश तिमिर तब/ चक्र जीवन का रुका था
देख आता वज्र, बालक/ विहंसकर नीचे झुका था

हनु हुआ घायल मगर/ वरदान तुमने दिए सूरज !

(काल है संक्रांति का/37)

बिम्ब विधान- 
गीत में बिम्ब धर्मी भाषा उसे अधिक संप्रेषणीय बनाती है। बिम्ब विधान किसी परंपरा का अनुगामी नहीं होता । सलिल ने गीतों में ऐंद्रिय बिम्ब- गंध, रूप, रस, स्पर्श, ध्वनि के साथ संश्लिष्ट बिम्ब और गतिशील बिंबों का बड़ा सार्थक प्रयोग किया है। जो कुछ जिंदगी में है, जिंदगी का परिवेश है, हमारे आसपास है, मध्य वर्गीय शहरी घुटन, निरीहता, असहायता, बिखराव, विघटन, संत्रास, सड़क पर जी रहे निम्न वर्गीय तबके (दबे-कुचले, पीड़ित—वंचितों, मजबूर-मजदूरों) के दुःख-दर्द, बेकारी, भूख, उत्पीड़न सब इनके नवगीतों में है। एक चित्रमय बिम्ब का विधान देखिए,
गोदी चढ़ा, उँगलिया थामी। दौड़ा, गिरा, उठाया तत्क्षण।
नवगीतकार सलिल ने नवगीतों में विशेषकर मूर्त-बिम्बों को प्रयोग किया है,
जो आदमी के न केवल करीब हैं, बल्कि उनके बीच के हैं।
मेहनतकश के हाथ हमेशा/रहते हैं क्यों खाली खाली/
मोटी तोंदों के महलों में/क्यों बसंत लाता खुशहाली/

ऊंची कुर्सी वाले पाते/अपने मुंह में/सदा बताशा।(सड़क पर/39) देशज संस्कार, विशेषकर जन्म, अन्नप्राशन और विवाह में ‘बताशा’ प्रचलित मिष्ठान है, इसकी विशेषता है कि वह मुंह में रखते ही घुल जाता है परंतु उसका स्वाद लंबे समय तक रहता है। सलिल के बिम्ब नितांत नवीन और टटके हैं,-

खों-खों करते/ बादल बब्बा
तापें सूरज सिगड़ी।
आसमान का आँगन चौड़ा
चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा।
ऊधम करते नटखट तारे
बदरी दादी रुको पुकारें।
पछुआ अम्मा
बड़-बड़ करती

डाँट लगाती तगड़ी।(काल है संक्रांति का/103)

इसे नवगीतकार की सर्जन-प्रक्रिया कहें या उसके सर्जनात्मक अवदान की सम्यक-समझ अथवा उसका व्यंजनात्मक-कौशल, जिसने जड़ में भी चेतना का संचार किया। ‘ऊंघ रहा है सतपुड़ा/लपेटे मटमैली खादी’ (सड़क पर /63) में सतपुड़ा का नींद में ऊंघना या झोंके लेना उसका मानवीकरण (मानव-चेतना) है। वहीं ‘लड़ रहे हैं फावड़े गेंतियां’ (सड़क पर/78) में श्रमजीवियों की संघर्ष-चेतना दृष्टव्य है। ‘सूर्य अंगारों की सिगड़ी’ दृश्य चेतना, ‘इमली कभी चटाई चाटी’ में स्वाद-चेतनाको बिम्बित किया है।

प्रतीक योजना- सलिल ने नवगीतों में अभिनव और अर्थ को चमत्कारिक भंगिमा देने के लिए प्रतीकों का प्रयोग किया है। कुछ प्रकृति से उठाए हैं, कुछ मानवीय संवेदनाएं प्रतीक बनी हैं और कुछ आधुनिक जीवन को विसंगत करनेवाले तत्व प्रतीक बनकर उभरे हैं। नदी, किनारा, भँवर, सूरज, चंद्रमा, चाँदनी, लहरें, सागर, नौका, पतझड़, पनघट, अमराई, बसंत, टपरिया, दादुर, मोर, कोयल इत्यादि प्रकृति और जीवन के तत्व, सत्ता, सियासत, दहलीज, चौपाल, कारखाना, राजमार्ग, सड़क, पगडंडी, कुर्सी दलाल इत्यादि भावनात्मक तत्व तथा सिरफिरा मौसम, राजा, बजीर, प्यादा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दिशाहीन मोड जैसी जीवन की विसंगतियाँ को प्रतीक के रूप में नवगीतों में स्थान दिया है। लेकिन सलिल सिर्फ विसंगति को नहीं उकेरते वरन उनके मध्य जीवन का राग तलाशते हैं, शाश्वत सत्य पर उनकी दृष्टि है। विसंगति को संगति में बदलना उनका ध्येय है।

भाषायी सामर्थ्य- सलिल कहते हैं,

हिन्दी आटा माढ़िए, देशज मोयन डाल।
सलिल संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल।।

वैसे सलिल ने हिन्दी के अलावा बुन्देली, पचेली, भोजपुरी, ब्रजभाषा, अवधी, राजस्थानी, छतीसगढ़ी, मालवी, हरियाणवी और अंग्रेजी में भी कार्य किया है। सलिल ने बुन्देली का पुट देते नरेंद्र छंद [ईसुरी की चौकड़िया फागों पर आधारित] में नवगीत की सर्जना कर उसके माध्यम से समाज में व्याप्त आर्थिक विषमताओं और अन्याय का व्यंग्यात्मक शैली में उजागर किया है-

मिलती काय नें ऊंचीवारी
कुर्सी हमखों गुईंयाँ !
पेलां लेऊँ कमीसन भारी
बेंच खदानें सारी।
पाछूँ घपले-घोटाले सौ
रकम बिदेस भिजा री।

अपनी दस पीढ़ी खेँ लाने
हमें जोड़ रख जानें।
बना लई सोने की लंका

ठेंगे पे राम-रमैया। (काल है संक्रांति का/51)

कथ्य की स्पष्टता के लिए सहज, सरल और सरस हिन्दी का प्रयोग किया है। संस्कृत के सहज व्यवहृत तत्सम शब्दों यथा, पंचतत्व, खग्रास, कर्मफल, अभियंता, कारा, निबंधन, श्रमसीकर, वरेण्य, तुहिन, संघर्षण का प्रशस्त प्रयोग किया है। कुछ देशज शब्द जो हमारे दैनिक व्यवहार में घुल-मिल गए हैं जैसे कि- उजियारा, कलेवा, गुजरिया, गेल, गुड़ की डली, झिरिया, हरीरा, हरजाई आदि से कवि ने हिन्दी भाषा का श्रंगार किया और उसे समृद्धि प्रदान की है। अंग्रेजी तथा अरबी-फारसी के प्रचलित विदेशज शब्दों का भी अपने नव गीतों में बखूबी प्रयोग किया है जैसे- डायवर, ब्रेड-बटर-बिस्किट, राइम, मोबाइल, हाय, हेलो, हग (चूमना) और पब (शराबखाना) तथा आदम जात अय्याशी, ईमान, औकात, किस्मत, जिंदगी, गुनहगार, बगावत, सियासत और मुनाफाखोर।
भाषिक-सामर्थ्य के साथ गीतकार ने मुहावरों-कहावतों-लोकोक्तियों का यथारूप या नए परिधान में पिरोकर प्रयुक्त किया है जैसे, लातों को जो भूत बात की भाषा कैसे जाने, ढाई आखर की सरगम सुन, मुंह में राम बगल में छुरी, सीतता रसोई में शक्कर संग नोन, मां की सौं, कम लिखता हूं बहुत समझना, कंकर से शंकर बन जाओ, चित्रगुप्त की कर्म तुला है(नया मुहावरे), जिनकी अर्थपूर्ण उक्तियाँ पढ़ने-सुनने वालों के कानों में रस घोलती हैं। सड़क के पर्याय वाची शब्दों के प्रयोग में सलिल जी का अभियांत्रिकीय-कौशल सुस्पष्ट दिखाई देता है।

नव गीतों में गीतकार ने अपने उपनाम (सलिल) का शब्दकोषीय अर्थ में उम्दा-उपयोग किया है। प्रभावी सम्प्रेषण के लिए कबीर जैसी उलट बाँसियों का प्रयोग किया है,
सागर उथला/ पर्वत गहरा/ डाकू तो ईमानदार/ पर पाया चोर सिपाही/ सौ
अयोग्य पाये, तो/ दस ने पायी वाहवाही/ नाली का पानी बहता है/ नदिया का

जल ठहरा/ (सड़क पर/54)

सलिल गणित एवं विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं अत: उनके नवगीतों की भाषा में प्रमेय तथा गणित के शब्दों/सूत्रों की उपस्थिति कोई आश्चर्य नहीं है। उनमें निर्माण और न्याय से जुड़ी शब्दावलियां भी यदा-कदा देखने को मिल जाती है -

प्यार बिका है
बीच बजार
परिधि केंद्र को घेरे मौन
चाप कर्ण को जोड़े कौन?
तिर्यक रेखा तन-मन को
बेध रही या बाँट रही?
हर रेखा में बिन्दु हजार
त्रिभुज-त्रिकोण न टकराते
संग-साथ रह बच जाते
एक दूसरे से सहयोग
करें, न हो, संयोग-वियोग
टिके वही

जिसका आधार (अंतर्जाल पर)

छंद विधान- 

छंद, सलिल की संस्कारगत उपलब्धि है। उन्हें काव्य शास्त्र की उपयोगिता का रहस्य ज्ञात है। वे गत तीन दशकों से हिन्दी के प्रचलित-अल्प प्रचलित छंदों को खोजकर एकत्रित कर रहे हैं और आधुनिक काल के अनुरूप
परिनिष्ठित हिन्दी में उनके आदर्श प्रयोग प्रस्तुत कर रहे हैं। शीघ्र ही उनका छंद-शास्त्र प्रकाश में आने वाला है। स्वाभाविक है, अपने नवगीतों में उन्होंने दोहा, जनक, सरसी, भुजंगप्रयात, पीयूषवर्ष, सोरठा, सवैया, हरिगीतिका, वीर- छंद, लोहिड़ी, चौकड़िया-फाग आदि छंदों को स्थान देकर गीतों की गेयता सुनिश्चित कर ली है, जिसमें लय, गति, यति भी स्थापित हो गई है। उदाहरण के लिए यह त्रिपदिक जनक छंद -

नीर नर्मदा तीर पर,
अवगाहन कर धीर धर
पल-पल उठ गिरती लहर

कौन उदासी- विरागी
विकल किनारे पर खड़ा?

किसका पथ चुप जोहता?(सड़क पर/79)

पंजाब में लोहिड़ी पर्व पर राय अब्दुल्ला खान भट्टी उर्फ दुल्ला भट्टी को याद कर गाए जाने वाले लोकगीत की तर्ज पर “सुन्दरिये मुन्दरिये, होय!” का अभिनव प्रयोग नव गीत में किया गया है,-
सुन्दरिये मुन्दरिये, होय!
सब मिल कविता करिए, होय।
कौन किसी का प्यार, होय।
स्वार्थ सभी का प्यार, होय।।
जनता का रखवाला, होय।

नेता तभी दुलारा, होय।। (काल है संक्रांति का/49)

और, आल्हा छंद, वीर रस और बुन्देली में रचे इस नवगीत के क्या कहने?-

भारत वारे बड़े लड़ैया
बिनसें हारे
पाक सियार।

एक सिंग खों घेर भलई लें
सौ वानर-सियार हुसियार।
गधा ओढ़ ले खाल सेर की
देख सेर पोंकें हर बार।
ढेंचू- ढेंचू रेंक भाग रओ
करो सेर नें पल मा वार।
पोल खुल गयी,
हवा निकर गई
जान बखस दो

करे पुकार।(काल है संक्रांति का/67)

छंद-शास्त्री सलिल ने नवगीतों में जहां विशिष्ट छंदों का उपयोग किया है, वहाँ जिज्ञासु पाठकों एवं छात्रों के लिए उनका स्पष्ट उल्लेख और छंद विधान भी रचना के अंत में दिया है। अलंकार-जहां तक भाषा में अलंकारिकता का प्रश्न है, सलिल ने कहीं भी अलंकारों का सायास प्रयोग नहीं किया। अभिव्यक्ति की सहज भंगिमा से जो अलंकार बने हैं, उन्हें आने दिया है। उनके गीतों में शब्दालंकारों (अनुप्रास, यमक) और अर्थालंकारों (उपमा, रुपक, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास, अन्योक्ति) का सुंदर प्रयोग है।
अनुप्रास-
1-मेघ बजे, मेघ बजे, मेघ बजे रे
धरती की आँखों में स्वप्न सजे रे।
2- अनहद अक्षय अजर अमर है

अमित अभय अविजित अविनाशी।
यमक-
‘हलधर हल धर शहर न जाएं’
उपमा-
1-ऊंघ रहा सतपुड़ा, लपेटे मटमैली खादी।
2-प्रथा की चूनर न भाती
3-उनके पद सरोज में अर्पित / कुमुद कमल सम आखर मनका।
रुपक-
नेता अफसर दुर्योधन, जज वकील धृतराष्ट्र
श्लेष –
पूंछ दबा शासक व्यालों की/ पोंछ पसीना बहाल का।
विरोधाभास-
आंखे रहते सूर हो गए
जब हम खुद से दूर हो गए
खुद से खुद की भेंट हुई तो
जग जीवन से दूर हो गए.
अन्योक्ति-
कहा किसी ने,- नहीं लौटता/पुन: नदी में बहता पानी/
पर नाविक आता है तट पर/बार-बार ले नई कहानी/
दिल में अगर/ हौसला हो तो/फिर पहले सी बातें होंगी।
हर युग में दादी होती है/होते है पोती और पोते/
समय देखता लाड़-प्यार के/ रिश्तों में दुःख पीड़ा खोते/

नयी कहानी/ नयी रवानी/सुखमय सारी बातें होंगी।

इसके अलावा, पुनरोक्ति-प्रकाश अलंकार के अंतर्गत पूर्ण-पुनरुक्त पदावली जैसे- टप-टप, श्वास-श्वास, खों-खों, झूम- झूम, लहका-लहका कण-कण, टपका-टपका तथा अपूर्ण-पुनरुक्त पदावली जैसे- छली-बली, छुई-मुई, भटकते-थकते, घमंडी- शिखंडी, तन-बदन, भाषा-भूषा शब्दों के प्रयोग से भाषा में विशेष लयात्मकता आभासित हुई है। वहीं पदमैत्री अलंकार के तहत कुछ सहयोगी शब्द जैसे- ढोल-मजीरा, मादल-टिमकी, आल्हा-कजरी, छाछ-महेरी, पायल-चूड़ी, कूचा-कुलिया तथा विरोधाभास अलंकार युक्त शब्द युग्म जैसे- धूप- छांव, सत्य-असत्य, क्रय- विक्रय, जीवन-मृत्यु, शुभ-अशुभ, त्याग-वरण का नवगीतों में प्रभावी-प्रयोग है।

रस-

नवगीत में व्यंग्य- वर्तमान की विद्रूपताओं, विषमताओं को देखकर कवि व्यथित है, स्वाभाविक है इन परिस्थितियों में उसकी लेखनी अमिधात्मकता से हटकर व्यंजनात्मकता और लाक्षिणकता का दामन थाम लेती है, जिसमें व्यवस्था के प्रति व्यंग्य भी होता है और विद्रोह भी,-

जब भी मुड़कर पीछे देखा/ गलत मिल कर्मों का लेखा/
एक बार नहीं सौ बार अजाने/ लांघी थी निज किस्मत रेखा/
माया ममता/ मोह क्षोभ में/फंस पछताए जन्म गवाएं।(सड़क पर/64)
बिक रहा/ बेदाम ही इंसान है/कहो जनमत का यहाँ कुछ मोल है?
कर रहा है न्याय अंधा ले तराजू/व्यवस्था में हर कहीं बस झोल है/

सत्य जिह्वा पर/ असत का गान है।
मौन हो अर्थात सहमत बात से हो

मान लेता हूँ कि आदम जात से हो।( सड़क पर /65)

हम में से हर एक तीस मार खां
कोई नहीं किसी से कम।
हम आपस में उलझ-उलझ कर
दिखा रहे हैं अपनी दम।
देख छिपकली ड़र जाते पर
कहते डरा न सकता यम
आँख के अंधे, देख-न देखें

दरक रही है दीवारें।(काल है संक्रांति का/127)

भोर हुई, हाथों ने थामा
चैया प्याली, संग अख़बार
अँखिया खोज रहीं हो बेकल
समाचार क्या है सरकार?
आतंकी है सादर सिर पर
साधु संत सज्जन हैं भार
अनुबंधों के प्रबंधों से

संबंधों का बंटाढार। (अंतर्जाल पर)

राजनैतिक प्रदूषण पर कलम चलते हुए “लोक तंत्र का पंछी बेबस” शीर्षक नवगीत में वे लिखते है,

नेता पहले दाना डालें
फिर लेते पर नोंच
अफसर रिश्वत की गोली मारें

करें न किञ्चित सोच। (अंतर्जाल पर)

वहीं एक श्रंगारिक नवगीत में नेताओं और नव-धनाढ्यों पर ली गई चुटकी,

इस करवट में पड़े दिखाई
कमसिन बर्तन वाली
देह साँवरी नयन कटीले
अभी न हो पाई कुड़माई
मलते-मलते बर्तन खनके चूड़ी
जाने क्या गाती है?
मुझ जैसे लक्ष्मी पुत्रों को

बना भिखारी वह जाती है। (अंतर्जाल पर)

युगबोध एवं लोकचेतना –जैसा कि- राम देव लाल विभोर लिखते हैं, “वास्तव में नवगीत गीत से इतर नहीं है, किन्तु अग्रसर अवश्य है। अत: गीत की अजस्त्र धारा व्यैक्तिकता व आध्यात्म वृति के तटबंध पारकर युगबोध का दामन पकड़ने लगती है”। सलिल ने दिशा बोध और युग बोध वाली जो जुझारू रचनाएं भी रचीं वे हर संघर्षशील, दुःखी, पीड़ित आम आदमी को अपनी से लगती हैं, जिन्हें पढ़ कर वह कह दे कि “अरे वाह ! कवि ने मेरे मन की बात कह दी।“
इसमें अत्युक्ति नहीं कि सलिल के गीत/नवगीत लोकप्रियता की कसौटी पर खरे तो हैं ही, उनमें अनुभूतियों की ऐसी प्रेरणा मिलती है जो हमें अनुप्राणित करती है और बार-बार पढ़ने के लिए प्रेरित करती है। आदि से अंत तक
जमीनी-हकीकत, मानवीय-सोच और सरोकारों, लोकाचारों की पार्थिव वास्तविकताओं से उनकी युग प्रतिबद्धता अपेक्षित रहती है। एक बात और, नवगीतों ने गीत को परंपरावादी रोमानी वातावरण से निकालकर यथार्थ और लोक चेतना का आधार प्रदान करके उसका संरक्षण किया है। सलिल के नवगीतों में प्रकृति अपने सम्पूर्ण वैभव और सम्पन्न स्वरूप में मौजूद है। दक्षिणायन की हाड़ कँपाती हवाएं हैं तो खग्रास का सूर्यग्रहण है। सूर्योदय पर चिड़िया का झूमकर प्रभाती-गान है तो राई-नोन से नजर उतारती कोयलिया है,

उषा-किरण रतनार सोहती
वसुधा नभ का हृदय मोहती
कलरव करती चुन मुन चिड़िया
पुरवैया की बाट जोहती
गुनो सूर्य लाता है/ सेकर अच्छे दिन।
(काल है संक्रांति का/26)

ऐसे नवगीतों में संक्रांति-काल जनित अराजकताओं से सजग करते हुए उनकी चेतावनी और सावधानी से भरे संदेश अंतर्निहित हैं,-
सूरज को ढोते बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग सांप फिर साथ हुए
गूंज रहे वंशी मादल
लूट छिप माल दो
जगो उठो। (अंतर्जाल पर)

प्रकृति प्रेम एवं पर्यावरण- कवि आश्चर्य करता है कि, मानव तो निश-दिन (आठों- प्रहर) मनमानी करता है, अपने आप को सर्वशक्तिमान समझने कि नादानी करता है, यहाँ तक कि वह प्रकृति को भी ‘रुको’ कहने का दु:साहस करता है/ समर्थ सहस्त्रबाहू की तरह, विशाल विंध्याचल की तरह---दंभ से, अभिमान से, उसे रोकने का प्रयास करता है, कभी बाँध बनाकर नदी-प्रवाह को रोकने का प्रयास करता है तो कभी जंगलों कि अंधाधुंध कटाई कर, पहाड़ों को दरका कर/ धरती को विवस्त्र करने का प्रयत्न करता है-जिसका परिणाम होता है,

घट रहा भूजल / समुद्र तल बढ़ रहा
नियति का पारा निरंतर बढ़ रहा /
सौ सुनार की मनुज चलता चाक है/

दैव एक लुहार की अब जड़ रहा /
क्यों करे क्रंदन
कि निकली जान है?(सड़क पर/66)

नवगीत और देश-भारत का संविधान देश के नागरिकों के लिए अधिकार देता है, परंतु यथार्थ इसके विपरीत है,

तंत्र घुमाता लाठियां, जन खाता है मार
उजियारे की हो रही, अंधकार से हार
सरहद पर बम फट रहे, सैनिक हैं निरुपाय
रण जीते तो सियासत, हारें भूल बताय
बाँट रहे हैं रेवड़ी/ अंधे तनिक न गम
क्या सचमुच स्वाधीन हम?(अंतर्जाल पर)

लेकिन यहाँ नवगीतकार अपील करता है, यह न सोचें कि देश ने हमें क्या दिया बल्कि यह सोचें कि हम देश के लिए क्या कर रहे हैं।–

खेत गोड़कर/ करो बुवाई
ऊसर बंजर जमीन कड़ी है
मंहगाई की जाल बड़ी है
सच मुश्किल की आई घड़ी है
नहीं पीर की कोई जड़ी है

अब कोशिश की हो पहुनाई। (अंतर्जाल पर )

आलस्य को त्यागकर कर्म में विश्वास रखता नवगीत, राष्ट्र-ऋण (देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण के अलावा) से उऋण होने का संदेश भी देता है,

जाग जुलाहे भोर हो गयी
साँसों का चरखा तक धिन-धिन
आसों का धागा बन पल दिन
ताना बाना कथनी करनी
बना नमूना खाने गिन-गिन
ज्यों की त्यों उजली चादर ले
मन पतंग तन डोर हो गयी।

जग जुलाहे भोर हो गयी।(अंतर्जाल पर)

वस्तुत: सलिल का चिंतन राष्ट्र देवता और विश्ववाणी हिन्दी के प्रति न केवल विनम्र प्रणति है, बल्कि प्रकृति के गहन कांतरों में कूटस्थ हो, अवभृथ स्नान पश्चात जीवन वीणा को ब्रह्म नाद से भर उसे “रसो वै स:” से सराबोर कर अपने आपको सर्वतोभावेन सच्चिदानन्द देवता के प्रति समर्पित करते हुए विश्व कल्याण के चिरंतन भारतीय संदेश को सार्थक करता है।

और अंत में- 

एक साक्षात्कार में सुप्रसिद्ध नवगीतकार देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ ने राम सनेही लाल शर्मा ’यायावर’ से कहा था कि,- “मूल्यांकन के मापदंड व्यक्ति और कृति के अनुसार बदलते रहते हैं। क्या शंभूनाथ सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’, कुमार रवींद्र, रामसनेही लाल ‘यायावर’, वीरेंद्र ‘आस्तिक’ के व्यक्तित्व, सृजन या लोक दर्शन में कोई एकरूपता या समरूपता परिलक्षित होती है, यदि ऐसा नहीं है तो क्या उनके गीतों का मूल्यांकन किसी एक पैमाने से संभव होगा? मूल्यांकन के मापदंड व्यक्ति और कृति के अनुसार बदलते रहते हैं”(साहित्य-संस्कार-जुलाई-2020 में प्रकाशित)। स्वर्गीय इन्द्र जी की हाँ में हाँ मिलाते हुए हमने ‘सलिल’ को सलिल के निकष पर कसा जाना उचित और न्यायसंगत माना। ‘सलिल’ के गीतों-नवगीतों की रचनाशीलता युग-बोध और काव्य-तत्वों के प्रतिमानों की कसौटी पर प्रासंगिक है। इनमें अपने आसपास घटित हो रहे अघट को उद्घाटित तो किया ही है, उनकी अभिव्यक्ति एक सजग अभियंता-कवि के रूप में प्रतिरोध करती दिखाई देती है। 

एक बात और, आज के अधिकांश नव गीतकार अध्ययन करने से कतराते हैं वे सिर्फ और सिर्फ अपना लिखा-पढ़ा ही श्रेष्ठ मानते हैं, लेकिन ‘सलिल’ इसके अपवाद हैं। उनकी भाषा और साहित्य में अच्छी पकड़ है। अध्यवसायी-आचार्य होते हुए भी वे अपने आपको एक विद्यार्थी के रूप में देखते हैं, यह उनकी विनम्रता है। हमें
यह कहने में भी कतई संकोच नहीं कि आचार्य संजीव वर्मा सलिल आज-के नवगीतकारों से पृथक-परिवेश और साकारात्मक-सामाजिक बदलाव के पक्षधर नवगीतकार हैं। सलिल स्वस्थ रहें, साधनारत रहें, यही शुभेच्छा है!

कविता बने, साँसों की वायु ।
जियो सलिल! तुम बनो शतायु।।

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सुरेन्द्र सिंह पँवार/ संपादक-साहित्य संस्कार/ 201, शास्त्री नगर, गढ़ा, जबलपुर
(मध्य प्रदेश)
9300104296/7000388332/ email pawarss2506@gmail-com

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