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गुरुवार, 23 जुलाई 2020

कविता : लज्जा - अवध प्रताप शरण

एक रचना :
लज्जा
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अवध प्रताप शरण

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एक शाम खजुराहो की निर्वसना नारी
से कर बैठा प्रश्न एक अनजान अनाड़ी,
नारी का तो लज्जा ही भूषण है देवी
तुमने चोली,लाज किसे दे डाली साड़ी
उत्तर में मुस्काई मधुर आर्या की प्रतिमा
बोली, भद्र तुम्हारा प्रश्न नहीं क्रंदन है,
लज्जा तो आवरण पुरुष ने डाला मुझ पर
नग्न सत्य, शाश्वत है और सनातन है
















नग्न न थी तो कलाकार ने नग्न कर दिया
नग्न हुई तो कलाकार ने नयन ढक लिये,
नग्नमूर्ति के कलाकार को मिली प्रशंसा
नग्नमूर्ति ने दृष्टि, व्यंग्य, आक्षेप सह लिये
दुर्बलता या श्रद्धा जो हो नारी
भले वासना या ममता जो भी देती हो,
सहनशीलता ही नारी का सच्चा गुण है
सच्ची नारी वही जो सभी सह लेती हो
मुझे कला की संज्ञा देकर नग्न किया है
कलाकार से कहो, बताये कहाँ कला है,
नेत्र,अधर, भ्रू, कटि, पग रहते नग्न सदा ही
और कौन सा अंग कलामय यहाँ ढला है
दूर देश से कई पर्यटक आते रहते

मुझको कहते मूर्तिकला का अजब नमूना,
सत्य अजब हूँ, यही भारतीयों का कहना
लजवन्ती भारत की नारी पर तन सूना
रोज़ सहस्राधिक पुरुषों के सम्मुख होकर
यह विवस्त्र तन लज्जा खोकर दिखलाती हूँ,
नग्न किया है तो जी भर कर देखो मुझको
मत चीखो हे मनुज,तुम्हें मैं लाज सिखाती हूँ
*
बंधु! नग्नता और अश्लीलता देह नहीं विचार में होती है। मैं १९ वर्ष की आयु में आदिवासी अंचल में अभियंता होकर गया तो बच्चियों, किशोरियों, तरुणियों आदि को मात्र २ फुट का कपड़ा कमर पर लपेटे देख विस्मित रह गया किन्तु उन्हें तालाबों और सड़कों पर काम करते देख कोई उत्तेजना नहीं होती थी। वे शाम को सुनसान जंगल से होकर अपने गाँव अकेली जाती थीं, कभी छेड़छाड़ की कोई घटना सुनने में नहीं आई। गंदगी शहरों के तथाकथित सभ्य अफसर फैलते थे जो उन्हें गर्भवती कर स्थानांतरण करा लेते थे।
खजराहा (प्रचलित खजुराहो) की सुंदरियां भी सात्विक सौंदर्य की अप्रतिम कृति हैं। यहाँ काम भी अध्ययन और पूजन की सामग्री है, भोग की नहीं। अश्लीलता देह नहीं, देह पर डला आवरण उत्पन्न करता है। घूंघट न हो तो नववधू को देखने की ललक ही नहीं होती। आपकी सुरुचिपूर्ण कविता और चिंतन मन भाया।

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