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रविवार, 26 जुलाई 2020

दोहा सलिला

दोहा सलिला
मन के मनसबदार! तुम, कहो हुए क्यों मौन?
तनकर तन झट झुक गया, यहाँ किसी का कौन?
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डर से डर ही उपजता, मिले स्नेह को स्नेह.
निष्ठा पर निष्ठा अडिग, सम हो गेह-अगेह.
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हम सब कारिंदे महज, एक राम दीवान
करा रहा वह; भ्रम हमें, करते हैं हम काम

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शोक न करता जो कभी, कहिए उसे अशोक.
जो होता होता रहे, कोई न सकता रोक

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वही द्विवेदी जो पढ़े, योग-भोग दो वेद.
अंत समय में हो नहीं, उसको किंचित खेद.

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जहाँ अँधेरा घोर हो, बालें वहीं प्रदीप
पल में तम कर दूर दे, ज्यों मोती सह सीप
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विजय भास्कर की तभी, तिमिर न हो जब शेष
ऊषा दुपहर साँझ को, बाँटे नेह अशेष
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चमक रहे चमचे चतुर, गोल-मोल हर बात
पोल ढोल की खुल रही, नाजुक हैं हालात

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सेना नौटंकी करे, कहकर आम चुनाव.
जिसको चाहे लड़ा दे, डगमग है अब नाव

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२६-७-२०१८ 

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