कृति चर्चा:
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति विवरण: रवींद्र भ्रमर के गीत, डॉ. रवींद्र भ्रमर, गीत संग्रह, पृष्ठ ८६, प्रकाशक - साहित्य भवन प्रा. लि., इलाहाबाद]
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समाज और साहित्य समानांतर रेखाओं के सदृश्य के सदृश्य हैं जिनके मध्य पारिस्थितिक सलिल प्रवाह निरंतर होता रहता है। साहित्य तभी स्वीकृत होता है जब उसमें सामाजिक मान्यताओं और परिस्थतियों के परिप्रेक्ष्य में विचार किया गया हो। समाज को साहित्य में प्रशस्ति तभी मिलती है जब वह सनातन मूल्य परंपरा का अनुसरण करे अथवा उस नव राह का संधान करे जिससे सर्व हित साधन संभव हो। भारतीय समाज और साहित्य दोनों सत्य-शिव और सुन्दर को वरेण्य मानते हैं। भारतीय चिंतन सौंदर्य को दिव्यता या अलौकिकता से संलग्न कर देखता है, उसे मांसल-दैहिक सौंदर्य नश्वर और मायाजाल प्रतीत होता है। "सौंदर्य बोध जब अपनी उत्कृष्ट अवस्था में पहुँचता है तब वह योग का रूप धारण कर लेता है।१
सृष्टि के सौंदर्य को देकह व्यष्टि के सौंदर्य का स्मरण होना स्वाभाविक है। हिंदी काव्य साहित्य की गीत-रचना परंपरा की जड़ें संस्कृत तथा अपभ्रंश की उर्वर भूमि में है।२ रवींद्र भ्रमर (जन्म ६ जून १९३४) अलीगढ विश्व विद्यालय में प्राध्यापक रहे हैं। वे भारतीय गीति साहित्य की पृष्ठ भूमि से जुडी मनस्थिति में प्रकृति में प्रिया का साक्षात् करते हैं-
चाँद को झुक-झुक कर देखा है
सांझ की तलैया के
निर्मल जल-दर्पन में
पारे सी बिछलनवाले
चमकीले मन में
रूप की राशि को परेखा है।
दिशा बाहु पाशों में
कसकर नभ साँवरे को
बहुत समझाया है
इस नैना बावरे को
वह पहचाने मुख की रेखा है
यह गीत मन बसी अनछुई अनुभूतियों तथा भावनात्मक स्मृतियों की सरस् अभिव्यक्ति करते हुए एक और नव कविता के समान्तर सामयिक यथार्थ को शब्दायित करता है, दूसरी और प्रेमिका की अनुपस्थिति में भी उससे संलग्न रहने के भावनात्मक आदर्श को अभिव्यक्त करता है।
भमर जी के गीतों का वैशिष्ट्य सहज सम्प्रेषणीयता तथा गहन संवेदन है। जूही के फूलों को देखकर उनके कवि मन की गली गली महक उठती है, सुखद परस से रग रग में चिनगी दहक जाती है, रोम रोम में साधों के शूल उग आते हैं। ज्योत्सना में नहीं निर्मल पंखुरियों को हाथ से छू कर मलिन करने की भूल के लिए कवि अपने हाथ कटने का दंड भी स्वीकारने को तैयार है। यह गहन संवेदना, यह अनुभूति सचमुच दुर्लभ है -
बाँध लिए
अंजुरी में
जूही के फूल
मधुर गंध
मन की हर एक गली महक गयी
सुखद परस
रग रग में चिनगी सी दहक गयी
रोम रोम
उग आये
साधों के शूल
जोन्हा का जादू
जिन पंखुरियों था फैला
छू गंदे हाथों
मैंने उन्हें किया मैला
हाथ काट लो मेरे
सजा है कबूल
आह!
हो गई मुझसे
एक बड़ी भूल
भ्रमर जी अद्भुत अभिव्यक्ति क्षमता के धनी हैं। 'कम में अधिक' अधिक कहने की कला उनके गीतों की पंक्ति-पंक्ति में है-
एक पल निहारा तुम्हें
एक पल रीत गया
दिपे चनरमा नभ दरपन में
छाया तेरे पारद मन में
पास न मानूँ, दूर न जानूँ
कैसे अंक जुड़ाऊँ?
भ्रमर जी का गीत-लेखन संक्रांति काल की देन है। यह वह समय है जब छयावादी गीत सफलता के शिखर पर पहुँचकर ढलान का सामना कर रहा था। सौन्दर्याभिमुख छायावादी काव्य-दृष्टि कल्पना विलास, कोमलकांत पदावली, अनुल्लंघनीय तुक-लय-ताल बंधन तथा अप्रस्तुत के अत्यधिक प्रस्तुतीकरण आदि के अवांछित बोझ तले दबकर सामयिक यथार्थ बोध जनित नई कविता का सामना नहीं कर पा रही थी। स्वातंत्र्योत्तर सामाजिक बिखराव, राजनैतिक टकराव, और आर्थिक दबाव के बीच प्रगति की आहट, परंपरा छूटने, और शहरों में जाकर जो मिले लूटने की जद्दोजहद के बीच बुद्धिजीवियों के गढ़ , उर्दू के किले अलीगढ में हिंदी के ध्वजाधारी भ्रमर जी के गीत युग के नए यथार्थ और नूतन सौंदर्य बोध के प्रतिमान गढ़ते हैं-
घर पीछे तालाब
उगे हैं लाल कमल के ढेर
तुम आँखों में उग आयी हो
प्रात गंध की बेर
यह मौसम कितना उदास लगता है -
तुम बिन
कमलवदना, कमललोचना, कमलाक्षी, पंकजाक्षी, कर कमल, चरण कमल, पद पद्म जैसे पारंपरिक प्रतीकों के स्थान पर भ्रमर कमल का उपयोग सर्वथा नए आयाम में करते हैं। यह उनकी मौलिक सोच और सामर्थ्य को दर्शाता है। यहाँ भ्रमर जी से एक चूक भी हुई है। 'उगे हैं लाल कमल के ढेर' में तथ्य दोष है। कमल एक एक ही उगता है। तोड़कर कमल पुष्प का ढेर लगाया जा सकता है पर कमल ढेर में उग नहीं सकता। इसी गीत के अगले अंतरे में - "हार गूंथ लूँ, किन्तु / करूँ किस वेणी का श्रृंगार' यहाँ भी तथ्य दोष है। वेणी से केशराशि का श्रृंगार किया जाता है, वेणी का श्रृंगार नहीं किया जाता। नूतनता के नाम पर ऐसे तथ्य दोष स्वीकार्य नहीं हो सकते।
भ्रमर जी द्वारा गीत लेखन के आरम्भ के पूर्व से हो पारम्परिक पुरुष श्रेष्ठता को नकारकर स्त्री विमर्श के स्वर उठने लगे थे किन्तु भ्रमर जी की राधा तब भी युगों पुरानी लीक पीट रही थी -
पाँव लग रहूँगी मौन,
सहूँगी व्यथा,
कह न सकूँगी अपने
स्वप्न की कथा
भाव है
छंद नहीं है
मौन ही बनेगा समर्पन
अन्य गीतों में "बिना दाम ही; नाम तुम्हारे - / मैं बिक बैठी हूँ बनवारी" में भी पारंपरिकता को ही निभाया गया है। नायिका छलिया पाहुन से छली जाकर भी पछताने के सिवाय कुछ नहीं कर पाती, मनो तत्कालीन बम्बइया चलचित्र की ग्रामीण नायिका ही शब्दित हो गई है -
उनसे प्रीत करूँ पछताऊँ
इन्दधनुष सपने सतरंगी
छलिया पाहुन छिन के संगी
नेह लगे की पीर पुतरियन
जागूँ, चैन गँवाऊँ
नायिका पथराई आँखें लिए नायक का पथ अगोरने को विवश है-
"पथ अगोरती आँखें
पथराई हैं,
अवधि जोहती बाँहें
अकुलाई हैं,
जितने क्षण छूटे हैं तुम्हारे बिना
उन सबमें वय के विराम तुम्हें भेजे हैं
जितने क्षण बीते हैं तुम्हारे बिना
उन सबमें प्रणाम तुम्हें भेजे हैं।
नारी की यह बेचारगी अन्यत्र कहीं-कहीं नहीं भी है। कुछ गीतों में नायिका अपने प्रेम को लज्जा या गोपनीयता का विषय न मानकर उसे पूरी प्रगल्भता के साथ उद्घाटित करती है, प्रेमी को पुकारती है-
गुच्छ-गुच्छ फूले कचनार!
भूली-बिसरी राहों लौट आ
ओ मेरे प्यार!
विरह में भी यह नायिका टूटती नहीं है -
आस औ' विश्वास के
पाहुन दगा देते रहे
एक मन पर सैंकड़ों
आघात हम लेते रहे
चोट तो इतनी लगी
मोह के मणिघट न फूटे
रेशमी बंधन न टूटे-
भूल से भी जो बँधे
बदलते समय के साथ बदलती नायिका अब आत्म विश्वास से लबरेज है। वह नायक से उसका दर्द पूछती है -
सुनूँ तो मैं, कहो अपनी पीर मुझसे कहो
बह सको तो बहो, मेरी चेतना में बहो
मैं करूँ हल्का -
तुम्हारे वक्ष का दुःख भार
झाँकने दो मुझे अपने ह्रदय के उस पार -
तोड़ो मौन की दीवार
नायिका का यह आत्मविश्वास नायक को विवश कर देता है कि वह नायिका की देहरी पर आये। नायिका घर में होते हुए भी नायक से नहीं मिलती, कह देती है कि घर में नहीं है। प्रगतिशील कविता भले ही प्रगति नहीं कर सकी, पर यह भ्रमर-गीतों की नायिका निरंतर प्रगति पथ पर बढ़ती रही -
कितनी बार लौट आया हूँ
छू कर बंद किवाड़ तुम्हारे
तुमने खुद आवाज़ बदलकर
है कह दिया कि तुम्हीं नहीं हो,
बाहर कितने काम-काज हैं
उन सबमें ही व्यस्त कहीं हो,
पहले की नायिका जहाँ नायक के आगे प्रेम की दुहाई देते न थकती थी, वहाँ यह नायिका नायक को प्रेम की प्रेम दुहाई देने और समर्पण करने के लिए विवश कर रही है। नायक ठुकराए जाने पर न आने का निश्चय करता है पर उस पर टिक नहीं पाता -
फिर न कभी आने का निश्चय
कच्चे धागे सा टूटा है
मिथ्या का संकल्प मान
मुट्ठी से खिसक गया-छूटा है
अंतत: चिरौरी विनती ही शेष है -
शीशे में परछाईं उगती
तुम प्राणों के बीच उगे हो,
प्राण बसे हैं देह-गेह में
तुम अपने हो बहुत सगे हो
ऊपर के पर्दे उतार कर
मुझ छाया को अंक लगा लो,
बाहर की परिकरमा करते
मेरे पाँव तक गए हारे
भ्रमर जी का नायक; नायिका के प्रणय की आकांक्षा पाले सर्वस्व समर्पण हेतु तत्पर है -
मेरा क्षण-क्षण तुम्हें समर्पित
मैं जो हूँ वह तुमको अर्पण-
तुम्हें समर्पण मेरा क्षण-क्षण ...
.... मेरी जीवन धारा तुममें खो जाए
मैं निचोड़ दूँ बूँद बूँद अस्तित्व अहम् का
मेरा कण कण तुम्हें समर्पण
पूरी तरह समर्पित नायक के लिए नायिका विषमतम पलों में सहारा है। यह बिम्ब यथार्थ जीवन में पति-पत्नी द्वारा मिलकर जीवन नैया खेने और विषम स्थितियों में पत्नी द्वारा सहारा देने की अनगिन घटनाओं के घटित होने के पूर्व लिख गया, जैसे भविष्य की प्रतीति करा रहा है-
दोपहरी के सूरज को मैं झेलूं
दे दो थोड़ी छाँव
रेशमी पट से
जल नागों से लड़कर हारा हूँ मैं
विष बाधाओं बीच तुम्हारा हूँ मैं
गह लो मेरी बाँह उबारो मुझको
जीवन चक्र की अपनी गति और दिशा होती है। नायिका के वर्चस्व की परिणति यह कि नायक को अपना 'स्व' समर्पित करने के बाद भी हर बार हार सिर्फ हार का घूँट पीना पड़ता है। यह स्थिति न तो प्रेम के लिए, न परिवार के लिए सुखद हो सकती है। वर्तमान महानगरीय परिवेश में बिखरते परिवार और टूटने नातों का बहुत पहले पूर्वाभास सा करते हैं रविंद्र भ्रमर के ये गीत। जब ये गीत लिखे गए थे न तब और न अब इन गीतों में नायक-नायिका और परिवारों की तथाकथित प्रगति के पीछे आती हुई विघटन की परछाईं के स्वर सुने गए थे। संभवत:, गीतकार ने भी इस दृष्टि से इन्हें न रचा होगा। कई बार समय और परिस्थितियाँ रचनाओं और रचनाकारों को वह अर्थ और महत्व देता है जो सामान्यत: न मिलता। इसका सबसे बड़ा उदाहरण दुष्यंत कुमार हैं जिनकी ग़ज़लों को उनके रचनाकाल के समय वह महत्व न मिला जो बाद में आपातकाल लगने पर मिला। दुष्यंत की ग़ज़लों में उर्दू पिंगल की दृष्टि से कई दोष गिनाये गए थे। आपात काल न लगता तो 'कौन कहता है कि आसमान में सूराख नहीं हो सकता', 'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो', 'मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा' आदि पंक्तियों से वह निहितार्थ न निकलता जो निकाला गया। कुछ इसी तरह रविंद्र भ्रमर के गीतों की पंक्तियाँ वर्तमान टूटते-बिखरते परिवार और समाज में निरंतर शक्तिशाली होती स्त्री और बिखरते पुरुष के परिदृश्यों को शब्दित करती दिखती हैं। इसकी एक और बानगी देखें -
हर बार
मेरी हार,
मुझको सहज ही स्वीकार
मेरी हार!
केंद्र बन कर रहूँ
फिर भी परिधियों से दूर,
छू न पाऊँ तुम्हें
आकुल प्राण हों मजबूर,
एक आँगन में मिलें हम-
पर न ढह पाए
निगोड़ी बीच की दीवार।
अब तो यह दीवार आँगन तक नहीं रही, कमरे और बिस्तर तक आ पहुँची है। समय पूर्व समय की व्यथा-कथा कहते भ्रमर के गीत भविष्यवाणी करते प्रतीत होते हैं-
ह्रदय का हिमखंड पिघले
पिघलकर जम जाय
धमनियों में रक्त दौड़े
दौड़कर थम जाय
इस व्यथा को तुम न समझो
डुबाता ही रहे मुझको
ज़िंदगी का ज्वार
पराजित हताश नायक की देवदासाना मन:स्थिति जीवन को आनंद से दर्द, बेइंतिहा दर्द की और ले जाती हैं जहाँ कोई आशा, कोई संभावना, कोई सपना शेष नहीं रहता -
ज़िंदगी जीने का दर्द
एक प्याला ज़हर का
जो मौत की रानी के हाथ
बाखुशी हम पी रहे हैं
गो हमें पीने का दर्द
उर्दू के ग्रह में रचनाकर्म करने के बाद भी भ्रमर के गीतों में अपवाद को छोड़कर उर्दू को जगह नहीं मिल सकी जबकि संस्कारित हिंदी के आँचल में देशज शब्द यत्र-तत्र किलोल करते मिलते हैं। तलैया, बिछलन, परेखा, पारस, चिनगी, पुतरियन, चनरमा,आखर, अगोरते, चँदवे, पिछवाड़े, टिकोरे, पलरों, गेह, छीन, तिरी, पाहुन तिरते, बिज्जुलेखा, कमरी, हिरण, लजवन्ती, बदरी, पियरी, हिय, जुन्हैया, सँझवाती जैसे शब्द पूरी स्वाभाविकता के साथ प्रयुक्त ही नहीं हुए हैं अपितु कथ्य को जीवंत और हृद्स्पर्शी बना सके हैं।
पुनरुक्ति अलंकार भ्रमर जी को प्रिय है। कुछ शब्द जिन्हें प्रयोग किया गया- रोम रोम, झुक झुक, धीरे धीरे, पोर पोर, झर झर, रंध्र रंध्र, संग संग, गुच्छ गुच्छ, जनम जनम, जग जग, बहका बहका, दर दर, सोई सोई, खोई खोई, गली गली, थोड़ी थोड़ी, मह मह, आदि अनेक शब्दों सा प्रयोग कथ्य को बल देने अथवा सरस बनाने हेतु किया गया है।
भ्रमर जी को शब्द युग्म प्रयोग में भी महारत हासिल है। वन उपवन, घर बाहर, भूली बिसरी, तन मन, घर बार, उजली धुली, रिम झिम, काम काज, सांझ सकारे, होरी चौताला, जब तब, फता पुराना, जनम मरन, दृश्य अदृश्य, रंग अंग, जहाँ तहाँ, दुःख सुख आदि कुछ ऐसे ही शब्द युग्म हैं।
इन गीतों को नवगीत न कहा जाए तो किन्हें कहा जाए? वैचारिक प्रतिबद्धता के पक्षधर समीक्षक अपने विधानों और पैमानों की लाख दुहाई देते रहें, मेरे लिए नवता की इससे बड़ी पहचान नहीं है कि वह रचनाकाल के बाद हर दशक के साथ अधिक से अधिकतर और अधिकतम प्रासंगिक होती जाए। रवींद्र भ्रमर के गीत न तो छद्म भूख और अभावों का ढिंढोरा पीटते हैं, न ही ए.सी. में रहकर 'वह तोड़ती पत्थर' की दुहाई देते हैं। ये गीत स्त्री विमर्श के खोखले नारे भी नहीं गुँजाते तथापि गीतों के नाईक-नायिका की अनुभूतियों की सटीक अभिव्यक्ति के माध्यम से नर-नारी के निरंतर बदलते रिश्ते और परिस्थिति को उद्घाटित करते हैं। इसलिए वे नारी अधिकारों के प्रचारक न होते भी उसकी पैरवी कर पाते हैं और पुरुष वर्चस्व का विरोध किये बिना, उसके ह्रास को इंगित करते जाते हैं। ये गीत ज़िन्दगी की आँख में आँख डालकर तत्कालीन परिस्थितियों के गर्भ से भविष्य की आहट को अनुभव कर पंक्ति-पंक्ति में अभिव्यक्त कर पाते हैं। रवींद्र भ्रमर के कतिपय गीतों में वर्णित नायक और नायिका काश फिर एक-दूसरे से कह सकें-
चाँद अभी बाकी है गलने को
रात बहुत व्याकुल है प्राणों में ढलने को
पलकों को नींद नहीं भाये
आँखों में परदेशी मीत हैं समाये
संदर्भ :
१. क्रोचे, अस्थेटिकल हिस्टोरिकल समरी पृष्ठ २५५,
२. वाचिक लोक गीत परंपरा का काव्य शास्त्रीय विश्लेषण कृपाराम रचित 'हिततरंगिणी"
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संपर्क : विश्व वाणी हिंदी संस्थान
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
ईमेल : salil.sanjiv@gmail.com,
चलभाष: ९४२५१८३२४४, ७९९९५५९६१८
सांझ तलैया, जल दर्पण, पारा मन, दिशा बाहुपाश जैसे
सृष्टि के सौंदर्य को देकह व्यष्टि के सौंदर्य का स्मरण होना स्वाभाविक है। हिंदी काव्य साहित्य की गीत-रचना परंपरा की जड़ें संस्कृत तथा अपभ्रंश की उर्वर भूमि में है।२ रवींद्र भ्रमर (जन्म ६ जून १९३४) अलीगढ विश्व विद्यालय में प्राध्यापक रहे हैं। वे भारतीय गीति साहित्य की पृष्ठ भूमि से जुडी मनस्थिति में प्रकृति में प्रिया का साक्षात् करते हैं-
चाँद को झुक-झुक कर देखा है
सांझ की तलैया के
निर्मल जल-दर्पन में
पारे सी बिछलनवाले
चमकीले मन में
रूप की राशि को परेखा है।
दिशा बाहु पाशों में
कसकर नभ साँवरे को
बहुत समझाया है
इस नैना बावरे को
वह पहचाने मुख की रेखा है
यह गीत मन बसी अनछुई अनुभूतियों तथा भावनात्मक स्मृतियों की सरस् अभिव्यक्ति करते हुए एक और नव कविता के समान्तर सामयिक यथार्थ को शब्दायित करता है, दूसरी और प्रेमिका की अनुपस्थिति में भी उससे संलग्न रहने के भावनात्मक आदर्श को अभिव्यक्त करता है।
भमर जी के गीतों का वैशिष्ट्य सहज सम्प्रेषणीयता तथा गहन संवेदन है। जूही के फूलों को देखकर उनके कवि मन की गली गली महक उठती है, सुखद परस से रग रग में चिनगी दहक जाती है, रोम रोम में साधों के शूल उग आते हैं। ज्योत्सना में नहीं निर्मल पंखुरियों को हाथ से छू कर मलिन करने की भूल के लिए कवि अपने हाथ कटने का दंड भी स्वीकारने को तैयार है। यह गहन संवेदना, यह अनुभूति सचमुच दुर्लभ है -
बाँध लिए
अंजुरी में
जूही के फूल
मधुर गंध
मन की हर एक गली महक गयी
सुखद परस
रग रग में चिनगी सी दहक गयी
रोम रोम
उग आये
साधों के शूल
जोन्हा का जादू
जिन पंखुरियों था फैला
छू गंदे हाथों
मैंने उन्हें किया मैला
हाथ काट लो मेरे
सजा है कबूल
आह!
हो गई मुझसे
एक बड़ी भूल
भ्रमर जी अद्भुत अभिव्यक्ति क्षमता के धनी हैं। 'कम में अधिक' अधिक कहने की कला उनके गीतों की पंक्ति-पंक्ति में है-
एक पल निहारा तुम्हें
एक पल रीत गया
दिपे चनरमा नभ दरपन में
छाया तेरे पारद मन में
पास न मानूँ, दूर न जानूँ
कैसे अंक जुड़ाऊँ?
भ्रमर जी का गीत-लेखन संक्रांति काल की देन है। यह वह समय है जब छयावादी गीत सफलता के शिखर पर पहुँचकर ढलान का सामना कर रहा था। सौन्दर्याभिमुख छायावादी काव्य-दृष्टि कल्पना विलास, कोमलकांत पदावली, अनुल्लंघनीय तुक-लय-ताल बंधन तथा अप्रस्तुत के अत्यधिक प्रस्तुतीकरण आदि के अवांछित बोझ तले दबकर सामयिक यथार्थ बोध जनित नई कविता का सामना नहीं कर पा रही थी। स्वातंत्र्योत्तर सामाजिक बिखराव, राजनैतिक टकराव, और आर्थिक दबाव के बीच प्रगति की आहट, परंपरा छूटने, और शहरों में जाकर जो मिले लूटने की जद्दोजहद के बीच बुद्धिजीवियों के गढ़ , उर्दू के किले अलीगढ में हिंदी के ध्वजाधारी भ्रमर जी के गीत युग के नए यथार्थ और नूतन सौंदर्य बोध के प्रतिमान गढ़ते हैं-
घर पीछे तालाब
उगे हैं लाल कमल के ढेर
तुम आँखों में उग आयी हो
प्रात गंध की बेर
यह मौसम कितना उदास लगता है -
तुम बिन
कमलवदना, कमललोचना, कमलाक्षी, पंकजाक्षी, कर कमल, चरण कमल, पद पद्म जैसे पारंपरिक प्रतीकों के स्थान पर भ्रमर कमल का उपयोग सर्वथा नए आयाम में करते हैं। यह उनकी मौलिक सोच और सामर्थ्य को दर्शाता है। यहाँ भ्रमर जी से एक चूक भी हुई है। 'उगे हैं लाल कमल के ढेर' में तथ्य दोष है। कमल एक एक ही उगता है। तोड़कर कमल पुष्प का ढेर लगाया जा सकता है पर कमल ढेर में उग नहीं सकता। इसी गीत के अगले अंतरे में - "हार गूंथ लूँ, किन्तु / करूँ किस वेणी का श्रृंगार' यहाँ भी तथ्य दोष है। वेणी से केशराशि का श्रृंगार किया जाता है, वेणी का श्रृंगार नहीं किया जाता। नूतनता के नाम पर ऐसे तथ्य दोष स्वीकार्य नहीं हो सकते।
भ्रमर जी द्वारा गीत लेखन के आरम्भ के पूर्व से हो पारम्परिक पुरुष श्रेष्ठता को नकारकर स्त्री विमर्श के स्वर उठने लगे थे किन्तु भ्रमर जी की राधा तब भी युगों पुरानी लीक पीट रही थी -
पाँव लग रहूँगी मौन,
सहूँगी व्यथा,
कह न सकूँगी अपने
स्वप्न की कथा
भाव है
छंद नहीं है
मौन ही बनेगा समर्पन
अन्य गीतों में "बिना दाम ही; नाम तुम्हारे - / मैं बिक बैठी हूँ बनवारी" में भी पारंपरिकता को ही निभाया गया है। नायिका छलिया पाहुन से छली जाकर भी पछताने के सिवाय कुछ नहीं कर पाती, मनो तत्कालीन बम्बइया चलचित्र की ग्रामीण नायिका ही शब्दित हो गई है -
उनसे प्रीत करूँ पछताऊँ
इन्दधनुष सपने सतरंगी
छलिया पाहुन छिन के संगी
नेह लगे की पीर पुतरियन
जागूँ, चैन गँवाऊँ
नायिका पथराई आँखें लिए नायक का पथ अगोरने को विवश है-
"पथ अगोरती आँखें
पथराई हैं,
अवधि जोहती बाँहें
अकुलाई हैं,
जितने क्षण छूटे हैं तुम्हारे बिना
उन सबमें वय के विराम तुम्हें भेजे हैं
जितने क्षण बीते हैं तुम्हारे बिना
उन सबमें प्रणाम तुम्हें भेजे हैं।
नारी की यह बेचारगी अन्यत्र कहीं-कहीं नहीं भी है। कुछ गीतों में नायिका अपने प्रेम को लज्जा या गोपनीयता का विषय न मानकर उसे पूरी प्रगल्भता के साथ उद्घाटित करती है, प्रेमी को पुकारती है-
गुच्छ-गुच्छ फूले कचनार!
भूली-बिसरी राहों लौट आ
ओ मेरे प्यार!
विरह में भी यह नायिका टूटती नहीं है -
आस औ' विश्वास के
पाहुन दगा देते रहे
एक मन पर सैंकड़ों
आघात हम लेते रहे
चोट तो इतनी लगी
मोह के मणिघट न फूटे
रेशमी बंधन न टूटे-
भूल से भी जो बँधे
बदलते समय के साथ बदलती नायिका अब आत्म विश्वास से लबरेज है। वह नायक से उसका दर्द पूछती है -
सुनूँ तो मैं, कहो अपनी पीर मुझसे कहो
बह सको तो बहो, मेरी चेतना में बहो
मैं करूँ हल्का -
तुम्हारे वक्ष का दुःख भार
झाँकने दो मुझे अपने ह्रदय के उस पार -
तोड़ो मौन की दीवार
नायिका का यह आत्मविश्वास नायक को विवश कर देता है कि वह नायिका की देहरी पर आये। नायिका घर में होते हुए भी नायक से नहीं मिलती, कह देती है कि घर में नहीं है। प्रगतिशील कविता भले ही प्रगति नहीं कर सकी, पर यह भ्रमर-गीतों की नायिका निरंतर प्रगति पथ पर बढ़ती रही -
कितनी बार लौट आया हूँ
छू कर बंद किवाड़ तुम्हारे
तुमने खुद आवाज़ बदलकर
है कह दिया कि तुम्हीं नहीं हो,
बाहर कितने काम-काज हैं
उन सबमें ही व्यस्त कहीं हो,
पहले की नायिका जहाँ नायक के आगे प्रेम की दुहाई देते न थकती थी, वहाँ यह नायिका नायक को प्रेम की प्रेम दुहाई देने और समर्पण करने के लिए विवश कर रही है। नायक ठुकराए जाने पर न आने का निश्चय करता है पर उस पर टिक नहीं पाता -
फिर न कभी आने का निश्चय
कच्चे धागे सा टूटा है
मिथ्या का संकल्प मान
मुट्ठी से खिसक गया-छूटा है
अंतत: चिरौरी विनती ही शेष है -
शीशे में परछाईं उगती
तुम प्राणों के बीच उगे हो,
प्राण बसे हैं देह-गेह में
तुम अपने हो बहुत सगे हो
ऊपर के पर्दे उतार कर
मुझ छाया को अंक लगा लो,
बाहर की परिकरमा करते
मेरे पाँव तक गए हारे
भ्रमर जी का नायक; नायिका के प्रणय की आकांक्षा पाले सर्वस्व समर्पण हेतु तत्पर है -
मेरा क्षण-क्षण तुम्हें समर्पित
मैं जो हूँ वह तुमको अर्पण-
तुम्हें समर्पण मेरा क्षण-क्षण ...
.... मेरी जीवन धारा तुममें खो जाए
मैं निचोड़ दूँ बूँद बूँद अस्तित्व अहम् का
मेरा कण कण तुम्हें समर्पण
पूरी तरह समर्पित नायक के लिए नायिका विषमतम पलों में सहारा है। यह बिम्ब यथार्थ जीवन में पति-पत्नी द्वारा मिलकर जीवन नैया खेने और विषम स्थितियों में पत्नी द्वारा सहारा देने की अनगिन घटनाओं के घटित होने के पूर्व लिख गया, जैसे भविष्य की प्रतीति करा रहा है-
दोपहरी के सूरज को मैं झेलूं
दे दो थोड़ी छाँव
रेशमी पट से
जल नागों से लड़कर हारा हूँ मैं
विष बाधाओं बीच तुम्हारा हूँ मैं
गह लो मेरी बाँह उबारो मुझको
जीवन चक्र की अपनी गति और दिशा होती है। नायिका के वर्चस्व की परिणति यह कि नायक को अपना 'स्व' समर्पित करने के बाद भी हर बार हार सिर्फ हार का घूँट पीना पड़ता है। यह स्थिति न तो प्रेम के लिए, न परिवार के लिए सुखद हो सकती है। वर्तमान महानगरीय परिवेश में बिखरते परिवार और टूटने नातों का बहुत पहले पूर्वाभास सा करते हैं रविंद्र भ्रमर के ये गीत। जब ये गीत लिखे गए थे न तब और न अब इन गीतों में नायक-नायिका और परिवारों की तथाकथित प्रगति के पीछे आती हुई विघटन की परछाईं के स्वर सुने गए थे। संभवत:, गीतकार ने भी इस दृष्टि से इन्हें न रचा होगा। कई बार समय और परिस्थितियाँ रचनाओं और रचनाकारों को वह अर्थ और महत्व देता है जो सामान्यत: न मिलता। इसका सबसे बड़ा उदाहरण दुष्यंत कुमार हैं जिनकी ग़ज़लों को उनके रचनाकाल के समय वह महत्व न मिला जो बाद में आपातकाल लगने पर मिला। दुष्यंत की ग़ज़लों में उर्दू पिंगल की दृष्टि से कई दोष गिनाये गए थे। आपात काल न लगता तो 'कौन कहता है कि आसमान में सूराख नहीं हो सकता', 'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो', 'मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा' आदि पंक्तियों से वह निहितार्थ न निकलता जो निकाला गया। कुछ इसी तरह रविंद्र भ्रमर के गीतों की पंक्तियाँ वर्तमान टूटते-बिखरते परिवार और समाज में निरंतर शक्तिशाली होती स्त्री और बिखरते पुरुष के परिदृश्यों को शब्दित करती दिखती हैं। इसकी एक और बानगी देखें -
हर बार
मेरी हार,
मुझको सहज ही स्वीकार
मेरी हार!
केंद्र बन कर रहूँ
फिर भी परिधियों से दूर,
छू न पाऊँ तुम्हें
आकुल प्राण हों मजबूर,
एक आँगन में मिलें हम-
पर न ढह पाए
निगोड़ी बीच की दीवार।
अब तो यह दीवार आँगन तक नहीं रही, कमरे और बिस्तर तक आ पहुँची है। समय पूर्व समय की व्यथा-कथा कहते भ्रमर के गीत भविष्यवाणी करते प्रतीत होते हैं-
ह्रदय का हिमखंड पिघले
पिघलकर जम जाय
धमनियों में रक्त दौड़े
दौड़कर थम जाय
इस व्यथा को तुम न समझो
डुबाता ही रहे मुझको
ज़िंदगी का ज्वार
पराजित हताश नायक की देवदासाना मन:स्थिति जीवन को आनंद से दर्द, बेइंतिहा दर्द की और ले जाती हैं जहाँ कोई आशा, कोई संभावना, कोई सपना शेष नहीं रहता -
ज़िंदगी जीने का दर्द
एक प्याला ज़हर का
जो मौत की रानी के हाथ
बाखुशी हम पी रहे हैं
गो हमें पीने का दर्द
उर्दू के ग्रह में रचनाकर्म करने के बाद भी भ्रमर के गीतों में अपवाद को छोड़कर उर्दू को जगह नहीं मिल सकी जबकि संस्कारित हिंदी के आँचल में देशज शब्द यत्र-तत्र किलोल करते मिलते हैं। तलैया, बिछलन, परेखा, पारस, चिनगी, पुतरियन, चनरमा,आखर, अगोरते, चँदवे, पिछवाड़े, टिकोरे, पलरों, गेह, छीन, तिरी, पाहुन तिरते, बिज्जुलेखा, कमरी, हिरण, लजवन्ती, बदरी, पियरी, हिय, जुन्हैया, सँझवाती जैसे शब्द पूरी स्वाभाविकता के साथ प्रयुक्त ही नहीं हुए हैं अपितु कथ्य को जीवंत और हृद्स्पर्शी बना सके हैं।
पुनरुक्ति अलंकार भ्रमर जी को प्रिय है। कुछ शब्द जिन्हें प्रयोग किया गया- रोम रोम, झुक झुक, धीरे धीरे, पोर पोर, झर झर, रंध्र रंध्र, संग संग, गुच्छ गुच्छ, जनम जनम, जग जग, बहका बहका, दर दर, सोई सोई, खोई खोई, गली गली, थोड़ी थोड़ी, मह मह, आदि अनेक शब्दों सा प्रयोग कथ्य को बल देने अथवा सरस बनाने हेतु किया गया है।
भ्रमर जी को शब्द युग्म प्रयोग में भी महारत हासिल है। वन उपवन, घर बाहर, भूली बिसरी, तन मन, घर बार, उजली धुली, रिम झिम, काम काज, सांझ सकारे, होरी चौताला, जब तब, फता पुराना, जनम मरन, दृश्य अदृश्य, रंग अंग, जहाँ तहाँ, दुःख सुख आदि कुछ ऐसे ही शब्द युग्म हैं।
इन गीतों को नवगीत न कहा जाए तो किन्हें कहा जाए? वैचारिक प्रतिबद्धता के पक्षधर समीक्षक अपने विधानों और पैमानों की लाख दुहाई देते रहें, मेरे लिए नवता की इससे बड़ी पहचान नहीं है कि वह रचनाकाल के बाद हर दशक के साथ अधिक से अधिकतर और अधिकतम प्रासंगिक होती जाए। रवींद्र भ्रमर के गीत न तो छद्म भूख और अभावों का ढिंढोरा पीटते हैं, न ही ए.सी. में रहकर 'वह तोड़ती पत्थर' की दुहाई देते हैं। ये गीत स्त्री विमर्श के खोखले नारे भी नहीं गुँजाते तथापि गीतों के नाईक-नायिका की अनुभूतियों की सटीक अभिव्यक्ति के माध्यम से नर-नारी के निरंतर बदलते रिश्ते और परिस्थिति को उद्घाटित करते हैं। इसलिए वे नारी अधिकारों के प्रचारक न होते भी उसकी पैरवी कर पाते हैं और पुरुष वर्चस्व का विरोध किये बिना, उसके ह्रास को इंगित करते जाते हैं। ये गीत ज़िन्दगी की आँख में आँख डालकर तत्कालीन परिस्थितियों के गर्भ से भविष्य की आहट को अनुभव कर पंक्ति-पंक्ति में अभिव्यक्त कर पाते हैं। रवींद्र भ्रमर के कतिपय गीतों में वर्णित नायक और नायिका काश फिर एक-दूसरे से कह सकें-
चाँद अभी बाकी है गलने को
रात बहुत व्याकुल है प्राणों में ढलने को
पलकों को नींद नहीं भाये
आँखों में परदेशी मीत हैं समाये
संदर्भ :
१. क्रोचे, अस्थेटिकल हिस्टोरिकल समरी पृष्ठ २५५,
२. वाचिक लोक गीत परंपरा का काव्य शास्त्रीय विश्लेषण कृपाराम रचित 'हिततरंगिणी"
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सांझ तलैया, जल दर्पण, पारा मन, दिशा बाहुपाश जैसे
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