लेख:
जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण' के गीतों में सांस्कृतिक नव्यता
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण' हिंदी साहित्य का वह हस्ताक्षर है जिसने ५ दशकों तक महाविद्यालों में हिंदी शिक्षण और साहित्य हिंदी लेखन ही नहीं किया अपितु पूरे नर्मदांचल में हिंदी साहित्यकारों की पीढ़ियाँ भी तैयार कीं। यह अलग बात है कि हिंदी साहित्यकार 'जिस सीढ़ी से चढ़ो उसे सबसे पहले तोड़ दो' की राजनीति का अंधानुकरण कर गुरु को सोपान मानकर विस्मृत कर देते हैं। महाकोशल अंचल के समर्पित स्वतंत्र सत्याग्रही सुकवि माणिकलाल चौरसिया मुसाफिर तथा उनकी धर्मपत्नी गिरिजा बाई ने अपने ज्येष्ठ पुत्र का नाम अपने आदर्श जननायक जवाहरलाल के नाम पर रखा। १५ दिसंबर १९३२ को जन्मे जवाहरलाल ने सागर विश्वविद्यालय से हिंदी में स्नाकोत्तर (स्वर्णपदक सहित), बी.एड., साहित्य रत्न, तथा विद्या वारिधि आदि उपाधियाँ प्राप्त कीं और मध्यप्रदेश शासन के उच्च शिक्षा विभाग में प्राध्यापक, आचार्य तथा प्राचार्य पदों पर कर्म निष्ठता के कीर्तिमान स्थापित कर सेवानिवृत्त हुए। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी, निस्वार्थी, सत्यप्रिय, ओजस्वी गायक, समर्पित राष्ट्रप्रेमी तथा अति संवेदनशील व्यक्तित्व के स्वामी रहे। तमसा के दिन करो नमन राष्ट्रीय भावधारा गीत संग्रह १९९२, गोर अंधियारे कारे उजियारे प्रेम /ऋतु गीत संग्रह १९९७, भूकंप भंजिता १९९७, आस्था के शतदल गीत-ग़ज़ल १९९८, घर-आंगन के रंग २००१, जीवन के रंग २००६, दरके दर्पण के विद्रूप २०१६ व मुक्ता बंध मुक्तक संग्रह २०१६ तरुण जी की काव्य कृतियाँ तथा सुधियों के राजहंस संस्मरणात्मक निबंध संग्रह २००६ व नयी दृष्टि नयी सृष्टि समीक्षा-निबंध संग्रह हैं। तरुण जी कालजयी कार्य 'साहित्यिक गजेटियर जबलपुर' है। तरुण जी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक कुप्. सी सुदर्शन जी के सहपाठी तथा बाल सखा थे। सुदर्शन जी जब जबलपुर आते केशव कुटी में सांगठनिक कार्य कर तरुण निवास पहुँचते और तब दोनों मित्र भोजन करते। संकोचवश वे इसकी चर्चा किसी से न करते, मध्य प्रदेश में बी.जे.पी. की सरकारें रहीं किंतु तरुण जी ने कभी कोई लाभ न लिया। ऐसे सिद्धांतवादी मानव मणि अब दुर्लभ हो गए हैं।
तरुण जी के लेखन के प्रशंसक अंचल जी, सुमन जी, नीरज जी जैसे दिग्गज भी रहे। उन्हें केशव पाठक, रामानुज लाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी', रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', शिवमंगल सिंह 'सुमन', हरिकृष्ण त्रिपाठी, गोपाल दास सक्सेना 'नीरज' आदि से प्रोत्साहन तथा बृजेश माधव, रामकृष्ण दीक्षित 'विश्व', श्रीबाल पांडेय आदि का साहचर्य सतत मिला। उन्होंने आचार्य भगवत दुबे, डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल', डॉ. राजकुमार तिवारी सुमित्र, डॉ. राजेंद्र तिवारी 'ऋषि', कृष्ण कुमार चौरसिया 'पथिक', गोपालकृष्ण चौरसिया 'मधुर', आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' तथा अन्य कनिष्ठों को अकुंठ स्नेह सलिला से सिंचित किया।
हिंदी साहित्य में मांसलतावाद के जनक सुकवि डॉ. रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' के शब्दों में "मूलत: गीतकार, कवि जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण' ने विविध काव्य विधाओं को अपनी तरल अंतरंगता का साक्षी-सहयात्री बनाया किन्तु दिशा-विदिशा की इस व्यापक रचना यात्रा में उसने न तो कभी शब्द को शर्मिंदगी के घाट उतरने दिया... और न कभी अनुभूति और अर्थ की आत्मा को ही लांछन के रेतीले ढूहों में खोने दिया। .... गीतों में हो या मुक्त छंदों में, कवी अपनी ही वाणी में बोलता है। इस वाणी के लिए किसी तयशुदा कसौटी की दरकार नहीं होती। गीत केवल कवि के द्वारा ही नहीं समाज के द्वारा गाया जाए .... इसी में उसकी सार्थकता है।'
गीतों की प्रगति के साक्षी और प्रगति के गीतों के गायक डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' के अनुसार "तरुण जी अपने गीतों में अभिव्यक्त आस्था हुए आशावादिता में अन्तर्निहित लोक कल्याण की मंगल भावना को रेखांकित करते हैं।" हिंदी गेट के शिखर रमानाथ अवस्थी लिखते हैं "तरुण जी संपन्न साहित्य संस्कार के साथ रचनारत हैं ... आपकी रचनाएं सामान्य से लेकर असामान्य पाठक व् श्रोता तक को अनुप्राणित करेंगी।"
तरुण जी के गीतों को पढ़कर नीरज जी लिखते हैं "... इधर शुद्ध गीत विरल हो गया है। गीत के नाम पर अधिकाँश कवि न जाने क्या कूड़ा-कचरा लिख रहे हैं। आपके गीत पढ़कर उसके संबंध में फिर आस्था होती है। गीत के उन्नयन और विकास में आपका योगदान महत्वपूर्ण शब्दों में रेखांकित किया जाएगा।" कुछ वर्ष बाद नीरज जी पूण: लिखते हैं। ..'घर आँगन के रंग' और ज्वाल गीत' दोनों कृतियाँ आज फिर पढ़ीं। घर आँगन के रंग में भीगकर जितना ममत्वपूर्ण चित्रण तुमने अपने समस्त परिवार का किया है, वैसा छन्दांकन मैंने पहले कभी नहीं पढ़ा। घर से अपरिचित होते हुए भी मेरी आँखें सजल हो गयीं, यह अद्भुत कृति है। बधाई। 'ज्वाल गीत' में ऊर्जा का जो ब्रह्मांडीय रूप तुमने छंदांकित किया है, वह तुम्हारे अध्ययन और तुम्हारी अनंत विहारिणी कल्पना की एक मनहरण अभिव्यक्ति है ... नवगीत का सही रूप मुझे आपके गीतों में देखने को मिला। उसको सही भूमि, सही क्षितिज और सही काव्य शिल्प आपने ही प्रदान किया है। आपने गीतों में जीवन के जो अनेक रंग प्रस्तुत किये हैं, वे इंद्रधनुषीय रंग बनकर हिंदी काव्य गगन को शोभयुत करते रहेंगे।... "
तरुण जी के कृतित्व पर चर्चा के पहले उनके व्यक्तित्व पर चर्चा इसलिए कि इधर गीत-नवगीतों पर हो रही गोष्ठियों, परिचर्चाओं, विशेषांकों और परिसंवादों में उन्हें हाशिये पर भी नहीं रखा जा रहा। संभवत:, स्वयंभू मसीहा बने लोग इतने बौने हैं कि वे समकालिकों के लेखन से भी परिचित नहीं हैं। तरुण जी का असाधारण कृतित्व अभी हाल ही की उपलब्धि है। उन्हें विस्मृत किये जाने का एकमात्र कारण उनका मठ न बनाना और मठाधीशों को मान्यता न देना ही है। गीत-अगीत, तुकांत-अतुकांत, छंद-अछंद के वाद-विवाद ने हिंदी कविता को अपरिमित क्षति पहुँचाई है। गीत शब्द-चयन और कथ्य-चयन के कंगालपन से बेचैन है। छद्म शोषण, कृत्रिम विसंगति, नकली अभावाभिव्यक्ति, एकांगी स्त्री विमर्श और अतिशय शोकपरकता गीतों का दाम निकलने पर उतारू हैं। वैचारिक प्रतिबद्धता और प्रगतिवादी के नाम पर गीत विशेषकर तथाकथित नवगीत शोकगीत या रुदाली के परिवर्तित रूप होते जा रहे हैं जहाँ हर्ष, उल्लास, उजास, हास के लिए स्थान ही नहीं है। तरुण जी के गीत जिस समय रचे गए, उस समय से आज तक अनुभूति और अभिव्यक्ति के जमीनी जुड़ाव की कसौटी पर सौ टका खरे हैं और आगे भी रहेंगे। इन गीतों को पढ़ने-सुननेवाला निराशा के गर्त से उठकर जूझने की मनस्थिति पा सकता है, अपनई पीर को भी गए सकता है, घोर तिमिर में भी दीप जला सकता है।
तरुण जी के गीत इस भ्रामक धारण को तोड़ते हैं कि गीत आधुनिक जीवन की जटिलता और बिम्ब विविधता को अभिव्यक्त नहीं कर पाता अथवा करता है तो लोकरंजक नहीं रह पाता। स्वयंभू नवगीतवादियों ने अति उत्साह में भाषिक विलक्षणता के नाम पर लोकभाषा का अप्रासंगिक प्रयोग कर गीत के स्वाभाविक विकासक्रम की अनदेखीकर अनगढ़ रचनात्मकता हेतु गीत के मूल तत्व आतंरिक झंकृति और मर्मस्पर्शिता को किनारे कर देते हैं। तरुण जी जैसे स्वाभाविक कवि प्रयोगों के पीछे नहीं दौड़ते, प्रयोग उनकी गीतधारा में स्वयमेव प्रवहित होते हैं। तरुण के गीतों में 'ऋतुरंग' और 'माटी से जुड़ाव' धूप-छाँव की तरह साथ-साथ रहते हुए भी नहीं रहते। जीवन का हास और रास देखिये -
धरती को चूम रही गगन की हिलोर
चुगलखोर मौसम ने मचा दिया शोर
नदियों ने आँचल से घाट लिए ढाँप
नाबालिग लहरें, सब देखें चुपचाप
घन बीरन को राखी बांधे, धरती इंद्रधनुष की
घन पद परसे, बहिना हरषे, झड़ी लगी आशीष की
घर आँगन उजलायें जब-जब बिजली बिटिया किलके
जल बरसे हल्के-हल्के
स्वातंत्र्योत्तर राजनीति में गाँधी के 'आम आदमी' का लगातार घटता कद और पद गीतकार तरुण की चिंता का विषय है -
राजघाट पर सोनेवाला, सोचो, क्या सोचेगा
उसके सपनों तक के कत्ले आम हुए जाते हैं
क्रिया अकर्मक, वचन असंगत, पद-पद खींचातानी
शेष चिन्ह सब-के-सब पूर्ण विराम हुए जाते हैं
स्वतंत्र का अमरित विष बन रहा और तुम चुप हो
पत्थरों के शहर जबलपुर के रहवासी तरुण जी पत्थर पर पड़ती कोटों से से अपरिचित नहीं पर वे इसे स्वाभाविक मानते हैं -
यह मेरा निर्माण काल है
अगर चोट पर चोट
पड़ रही मुझ पर
तो अचरज ही क्या है
अटूट आस्था के बल-बूते चोट को हँसकर झेलता कवि मन सामाजिक दर्द और पीड़ा को अपने ही अंदाज़ में अभिव्यक्त करता है-
कुछ मुझसे ही हटकर ऊँचापन दिखलाते
जो अनर्थ था
नव समाज में पिटे पिटाये
वर्ण-भेद के उस बुड्ढे सा
जो ओवर सिक्सटी है
जिसकी सभी इन्द्रियाँ पेंशन पर हैं
पर एप्रोच बड़ी तगड़ी
सो, एक्सटेंशन पाता जाता है
सामाजिक-राजनैतिक छीना-झपटी, मारा-मारी को शब्दित करते तरुण जी द्वारा प्रयुक्त बिंब, उपमाएँ और कहन बेमिसाल है -
औ' लोगों का क्या है.... तुम....
हाँ..... तुम.....
जो मेरे बहुत निकट हो
जैसे सटी गाल से लट हो
जैसे ज्वाला और लपट हो
जैसे माथा चापलूस का
साहब के दर की चौखट हो
ज्यों भारत का लोकतंत्र
औ' दल बदलू का कोई कट हो
अथवा वियतनाम की हड्डी
औ' कुत्तों की छीन-झपट हो
याकि अरब राज्यों का चेहरा
औ' इजराइल की रहपट हो....
ऐसे तुम... हाँ तुम
जो मेरे बहुत निकट हो....
इन गीत पंक्तियों में अन्तर्निहित व्यंजना में करुणा, पीड़ा और विसंगति का अन्यत्र दुर्लभ मिश्रण है। सामान्य शब्दों का विशिष्ट प्रयोग, भाषा की रवानगी, हिंदी अरबी-फारसी, अंग्रेजी के शब्दों की आँख मिचौली, और मुहावरों के तरह जुबान पर चढ़ जाने की सामर्थ्य। नर्मदांचल में जन्मे एक और बड़े कवि भवानी प्रसाद मिश्र की पंक्तियाँ स्मरण हो आती हैं, जिन्हें तरुण जी ने गाँठ में बाँध लिया है, ऐसा प्रतीत होता है -
जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख
और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख
छायावाद को यथार्थवाद की भूमि पर अँखुआते देखना आज के परिदृश्य में दुर्लभ है। तरुण जी युगसंधि की साक्षी देते गीतों में अपनी कहन और कथन की छाप छोड़ते हैं-
हम मति के खेल-खिलौने
धूप-छाँव के पाले छौने
हम बौनों के कदम उठे तो...
गगन नाप आये
ओ आकाशी! ओ अभिमानी!
तू बस धुआँ, हवा... कुछ पानी
इस बेमानी सी पूँजी पर...
इतना इतराये.....
माटी कितनी ममतामय है
इसकी गोदी में क्या भय है
तू हो जाय अभय जो माटी.....
अंग लगा जाये
कवि तरुण की धरती और प्रकृति से अभिन्नता है। पेड़-पौधों पर गीत-नवगीत रचने की जो अलख अनुभूति-अभिव्यक्ति ने अंतरजाल पर जगाई, तरुण जी ने तमाम गीटन के माध्यम से वह अलख जगा चुके थे। उन्होंने अपने परिवेश के सभी पेड़-पौधों को गीत का विषय बनाया-
अंबर ने कौन सी ठिठोली की
धरती के गाल लाल हो बैठे
पवन मनचली मन्तर मार चली
बुझते से मन-मशाल हो बैठे
वर्जना तटों की सुन तुनुक चली धारा
शिखरों ने रोका... तट-तरु ने पुचकारा
माने ना
रुकना जाने ना
सूरज ने रोली सी घोली तो
अंग तरंगित गुलाल हो बैठे
चंपक बरनी सरसों मेड़ की न माने
अलसी के नील नयन उलझे अनजाने
चना-मटर
करते खुसुर-फुसुर
गेहूं की बाल और अरहर में
गुपचुप कितने सवाल हो बैठे
टोना कर जाएँ, फागुनी हवाएँ
कमसिन अभिलाषाएँ, बहक-बहक जाएँ
उमर ठगे
कवि तरुण की धरती और प्रकृति से अभिन्नता है। पेड़-पौधों पर गीत-नवगीत रचने की जो अलख अनुभूति-अभिव्यक्ति ने अंतरजाल पर जगाई, तरुण जी ने तमाम गीटन के माध्यम से वह अलख जगा चुके थे। उन्होंने अपने परिवेश के सभी पेड़-पौधों को गीत का विषय बनाया-
अंबर ने कौन सी ठिठोली की
धरती के गाल लाल हो बैठे
पवन मनचली मन्तर मार चली
बुझते से मन-मशाल हो बैठे
वर्जना तटों की सुन तुनुक चली धारा
शिखरों ने रोका... तट-तरु ने पुचकारा
माने ना
रुकना जाने ना
सूरज ने रोली सी घोली तो
अंग तरंगित गुलाल हो बैठे
चंपक बरनी सरसों मेड़ की न माने
अलसी के नील नयन उलझे अनजाने
चना-मटर
करते खुसुर-फुसुर
गेहूं की बाल और अरहर में
गुपचुप कितने सवाल हो बैठे
टोना कर जाएँ, फागुनी हवाएँ
कमसिन अभिलाषाएँ, बहक-बहक जाएँ
उमर ठगे
ठंडी आग लगे
साँसों में जादू सा जाग चले
हर छीन-दिन इंद्रजाल हो बैठे
तरुण का कवि संकल्पित है, परिवर्तन के लिए, वह तरुण ही क्या जो चुनौती को न स्वीकारे, जिसका संकल्प धरती पर खड़ा होकर अंबर को झुकाने का न हो-
धूलि कणों पर मैं अंबर का शीश झुकाऊँगा
मैं सोने से पाँव पसीने के पुजवाऊँगा
मानव मन मंदिर में मानव की प्राण प्रतिष्ठा कर लूँ
तब साँसों का शमशानों से ब्याह रचाऊँगा
तरुण के संकल्पित पग भटकने से डरे बिना राह पर चल पड़ते हैं, यह मानकर कि अदृष्ट लक्ष्य उनके प्रयासों पर निसार होने से खुद को रोक नाहने सकेगा। उनके लिए भटकना भी मंज़िल पाने की पूर्वपीठिका ही है -
राह दिखाई मंज़िल ने,
ठोकर ने की अगुवाई
चुभते काँटे साथ चले हैं
तब यह मंज़िल पाई
वरुण जी के उपालम्भ मन को बेधते हैं। उनका अपने ईश्वर के साथ नाता भक्त-भगवन का नहीं, हमजोली और सखा का है। इसलिए वे नोंक-झोंक, शिकवे-शिकायत के माध्यम से अपनी बात इस तरह पहुँचाते हैं कि पाठक-श्रोता को अपने मन की बात प्रतीत होती है -
बन गए पाषाण से भवन तुम
यह किसी की भावना का दान है
हो गए अमरत्व की पहचान तुम
अम्र नश्वर अश्रु का वरदान है
*
भक्त रह हूँ मैं कब से जहां में
उमीदों का काबा मगर मिल न पाया
है ज़िद अब जहां पर झुकेगा मेरा सर
वहीं तुमको काबा बनाना पड़ेगा
वे अपने प्रियतम को चुनौती देने से भी नहीं चूकते -
सुनो!
तुम्हें आना ही होगा
मुझको अपनाना ही होगा
ढाई आखर बड़ों-बड़ों को
पानी हैं भरवाते
तरुण जी ने दोहों में जीवन से समरस हुए प्रतीकों के अछूते प्रयोग कर नूतन बिम्ब छटा से अपनी पृथक पहचान बनाई है -
गगन निर्वसन देखकर, नदिया सिमटी जाय
खेतों की फूटी हँसी, माटी मुँह न दिखाय
तरुण जी ने आज मुक्तिका, गीतिका, तेवरी, अनुगीत हुए न जाने क्या-क्या कही जा रही 'हिंदी ग़ज़ल' को भी गीत की तरह ही समृद्ध किया है। उनके अनूठे बिम्ब और मौलिक कथन शैली यहाँ भी सबसे अलग और अनूठी है। वस्तुत: वे गीत के कथ्य को ग़ज़ल के शिल्प में ढाल कर प्रस्तुत करते हैं, तो सामान्य ग़ज़लगोई से अलग ही आनंद दे पाते हैं -
ऐसी घटा घिटी पर्वत गुमनाम हुए जाते हैं
सिर्फ धुएँ के आडंबर घनशयाम हुए जाते हैं
राजघाट पर सोनेवाला, सोचो, क्या सोचेगा
उसके सपनों तक के कत्ले-आम हुए जाते हैं
क्रिया अकर्मक, वचन असंगत, पद-पद खींचातानी
शेष चिह्न सबके सब पूर्ण विराम हुए जाते हैं
संस्कारधानी जबलपुर की तीन पीढ़ियाँ तरुण की सृजन यात्रा की साक्षी रही हैं। मेयर सौभाग्य है कि उनसे अकृत्रिम स्नेह मुझे मिला। जब भी बैठे लंबी और बहुआयामी चर्चाएँ हुईं। 'साहित्यिक गजेटियर जबलपुर' के विचार पर उन्होंने चर्चा की, मुझे साहित्यकारों के नाम एकत्र करने क्व लियु कहा, अपने पास एकत्रित नाम और उन पर लिखी गयी सामग्री साझा की। अपनी खुद की सामग्री देने में मुझे संकोच हुआ, फिर बाहर स्थानांतरण पर बाहर चला गया। एक बार किसी पर्व पर अवकाश में गृहनगर आया था, वे बाज़ार में मिल गए। देखते ही बोले "तुम्हें तो याद भी न होगा और बोलूंगा तो भी हाँ कर कर दोगे नहीं। अपना काम बाद में करना, पहले घर चलो। उनका घर सचमुच साहित्य मंदिर था। प्रवेश के साथ ही शारद मंदिर में प्रविष्ट होने की निर्मल प्रतीति होती। सोपानों-दीवारों सर्वत्र सुरुचिपूर्ण कलाकृतियाँ, रांगोली, अल्पना, चौपने आदि, कमरे में वाद्य यंत्र भी और पुस्तकें भी। दुर्लभ संयोग कि उनके परिवार में तीन पीढ़ियों में सभी सदस्य माँ शारदा की कृपा-पात्र हैं और अब चौथी पीढ़ी भी सारस्वत साधना के पथ पर है। उस दिन घर पहुँचने पर भाभी श्री को आवाज़ दी -"सुनती हो, आओ जरा।" भाभी श्री आई., मैंने चरण स्पर्श कर आशीष पाया तो बोले "जरा कुछ मीठा-नमकीन ले आओ, आज इसे सजा दे रहा हूँ।" फिर कागज़ -कलम देते हुए बोले "जब तक साहित्य गजेटियर के लिए लिखकर दे नहीं देते, जा नहीं सकोगे, यही सजा है।'' और ठहाका लगाते हुई भाभी जी की और देखकर बोले "ठीक है न सजा, तुम्हारे देवर के लिए।" भाभी जी मधुर मुस्कान बिखेरती अंदर चली गयीं और मैंने उनके बताये अनुसार संक्षिप्त जानकारी लिखदी। उन्होंने पढ़ा फिर पूछ-पूछ कर उसे दोगुना किया। मैंने पूज्य बुआश्री (महीयसी महादेवी जी) का उल्लेख नहीं किया था। उन्होंने इसका कारण पूछा। मैंने कहा की कहाँ वे हिमालय, कहाँ मैं उनके चरणों की धूलि का कण भी नहीं, लोग अन्यथा न सोचें। उन्होंने कहा 'वे शिखर पर हैं, यह ठीक है पर तलहटी न हो तो शिखर कैसे रहेगा? शिखर को ऊपर उठाना चाहिए तो सलिल को निम्नगामी होना होना चाहिए, अन्यथा न प्यास बुझेगी न सागर भरेगा और लोगों के कहने की चिंता तो करनी ही नहीं चाहिए।" तरुण जी विद्वान शिक्षा, श्रेष्ठ कवि ही नहीं, संवेदनशील, विनम्र किन्तु दृढ़ इंसान भी थे। बहुधा श्रेष्ठ व्यक्तित्वों की पहचान उनके जीवन काल में नहीं हो पाती। तरुण जी के अवदान की परख का समय आ रहा है।
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संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com
साँसों में जादू सा जाग चले
हर छीन-दिन इंद्रजाल हो बैठे
तरुण का कवि संकल्पित है, परिवर्तन के लिए, वह तरुण ही क्या जो चुनौती को न स्वीकारे, जिसका संकल्प धरती पर खड़ा होकर अंबर को झुकाने का न हो-
धूलि कणों पर मैं अंबर का शीश झुकाऊँगा
मैं सोने से पाँव पसीने के पुजवाऊँगा
मानव मन मंदिर में मानव की प्राण प्रतिष्ठा कर लूँ
तब साँसों का शमशानों से ब्याह रचाऊँगा
तरुण के संकल्पित पग भटकने से डरे बिना राह पर चल पड़ते हैं, यह मानकर कि अदृष्ट लक्ष्य उनके प्रयासों पर निसार होने से खुद को रोक नाहने सकेगा। उनके लिए भटकना भी मंज़िल पाने की पूर्वपीठिका ही है -
राह दिखाई मंज़िल ने,
ठोकर ने की अगुवाई
चुभते काँटे साथ चले हैं
तब यह मंज़िल पाई
वरुण जी के उपालम्भ मन को बेधते हैं। उनका अपने ईश्वर के साथ नाता भक्त-भगवन का नहीं, हमजोली और सखा का है। इसलिए वे नोंक-झोंक, शिकवे-शिकायत के माध्यम से अपनी बात इस तरह पहुँचाते हैं कि पाठक-श्रोता को अपने मन की बात प्रतीत होती है -
बन गए पाषाण से भवन तुम
यह किसी की भावना का दान है
हो गए अमरत्व की पहचान तुम
अम्र नश्वर अश्रु का वरदान है
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भक्त रह हूँ मैं कब से जहां में
उमीदों का काबा मगर मिल न पाया
है ज़िद अब जहां पर झुकेगा मेरा सर
वहीं तुमको काबा बनाना पड़ेगा
वे अपने प्रियतम को चुनौती देने से भी नहीं चूकते -
सुनो!
तुम्हें आना ही होगा
मुझको अपनाना ही होगा
ढाई आखर बड़ों-बड़ों को
पानी हैं भरवाते
तरुण जी ने दोहों में जीवन से समरस हुए प्रतीकों के अछूते प्रयोग कर नूतन बिम्ब छटा से अपनी पृथक पहचान बनाई है -
गगन निर्वसन देखकर, नदिया सिमटी जाय
खेतों की फूटी हँसी, माटी मुँह न दिखाय
तरुण जी ने आज मुक्तिका, गीतिका, तेवरी, अनुगीत हुए न जाने क्या-क्या कही जा रही 'हिंदी ग़ज़ल' को भी गीत की तरह ही समृद्ध किया है। उनके अनूठे बिम्ब और मौलिक कथन शैली यहाँ भी सबसे अलग और अनूठी है। वस्तुत: वे गीत के कथ्य को ग़ज़ल के शिल्प में ढाल कर प्रस्तुत करते हैं, तो सामान्य ग़ज़लगोई से अलग ही आनंद दे पाते हैं -
ऐसी घटा घिटी पर्वत गुमनाम हुए जाते हैं
सिर्फ धुएँ के आडंबर घनशयाम हुए जाते हैं
राजघाट पर सोनेवाला, सोचो, क्या सोचेगा
उसके सपनों तक के कत्ले-आम हुए जाते हैं
क्रिया अकर्मक, वचन असंगत, पद-पद खींचातानी
शेष चिह्न सबके सब पूर्ण विराम हुए जाते हैं
संस्कारधानी जबलपुर की तीन पीढ़ियाँ तरुण की सृजन यात्रा की साक्षी रही हैं। मेयर सौभाग्य है कि उनसे अकृत्रिम स्नेह मुझे मिला। जब भी बैठे लंबी और बहुआयामी चर्चाएँ हुईं। 'साहित्यिक गजेटियर जबलपुर' के विचार पर उन्होंने चर्चा की, मुझे साहित्यकारों के नाम एकत्र करने क्व लियु कहा, अपने पास एकत्रित नाम और उन पर लिखी गयी सामग्री साझा की। अपनी खुद की सामग्री देने में मुझे संकोच हुआ, फिर बाहर स्थानांतरण पर बाहर चला गया। एक बार किसी पर्व पर अवकाश में गृहनगर आया था, वे बाज़ार में मिल गए। देखते ही बोले "तुम्हें तो याद भी न होगा और बोलूंगा तो भी हाँ कर कर दोगे नहीं। अपना काम बाद में करना, पहले घर चलो। उनका घर सचमुच साहित्य मंदिर था। प्रवेश के साथ ही शारद मंदिर में प्रविष्ट होने की निर्मल प्रतीति होती। सोपानों-दीवारों सर्वत्र सुरुचिपूर्ण कलाकृतियाँ, रांगोली, अल्पना, चौपने आदि, कमरे में वाद्य यंत्र भी और पुस्तकें भी। दुर्लभ संयोग कि उनके परिवार में तीन पीढ़ियों में सभी सदस्य माँ शारदा की कृपा-पात्र हैं और अब चौथी पीढ़ी भी सारस्वत साधना के पथ पर है। उस दिन घर पहुँचने पर भाभी श्री को आवाज़ दी -"सुनती हो, आओ जरा।" भाभी श्री आई., मैंने चरण स्पर्श कर आशीष पाया तो बोले "जरा कुछ मीठा-नमकीन ले आओ, आज इसे सजा दे रहा हूँ।" फिर कागज़ -कलम देते हुए बोले "जब तक साहित्य गजेटियर के लिए लिखकर दे नहीं देते, जा नहीं सकोगे, यही सजा है।'' और ठहाका लगाते हुई भाभी जी की और देखकर बोले "ठीक है न सजा, तुम्हारे देवर के लिए।" भाभी जी मधुर मुस्कान बिखेरती अंदर चली गयीं और मैंने उनके बताये अनुसार संक्षिप्त जानकारी लिखदी। उन्होंने पढ़ा फिर पूछ-पूछ कर उसे दोगुना किया। मैंने पूज्य बुआश्री (महीयसी महादेवी जी) का उल्लेख नहीं किया था। उन्होंने इसका कारण पूछा। मैंने कहा की कहाँ वे हिमालय, कहाँ मैं उनके चरणों की धूलि का कण भी नहीं, लोग अन्यथा न सोचें। उन्होंने कहा 'वे शिखर पर हैं, यह ठीक है पर तलहटी न हो तो शिखर कैसे रहेगा? शिखर को ऊपर उठाना चाहिए तो सलिल को निम्नगामी होना होना चाहिए, अन्यथा न प्यास बुझेगी न सागर भरेगा और लोगों के कहने की चिंता तो करनी ही नहीं चाहिए।" तरुण जी विद्वान शिक्षा, श्रेष्ठ कवि ही नहीं, संवेदनशील, विनम्र किन्तु दृढ़ इंसान भी थे। बहुधा श्रेष्ठ व्यक्तित्वों की पहचान उनके जीवन काल में नहीं हो पाती। तरुण जी के अवदान की परख का समय आ रहा है।
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