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शुक्रवार, 31 जनवरी 2020

हस्तिनापुर की बिथा - कथा भूमिका अध्याय १ (दोहा १-१८०)

बुंदेली में संक्षिप्त महाभारत काव्य 
हस्तिनापुर की बिथा - कथा 



भूमिका



बुन्देलखण्ड के बीसेक जिलों में बोली जाबे बारी बोली बुंदेली कित्ती पुरानी है, कही नईं जा सकत। ई भासा की माता सौरसैनी प्राकृत और पिता संस्कृत हैं, ऐसी मानता है। मनों ई बूंदाबारी की अलग चाल है, अलग ठसक है, अलग कथनी है और अलगइ सुभाव है। औरंगजेब और सिबाजी के समय, हिन्दू राजाओं के लानेंं सरकारी सन्देसे, बीजक, राजपत्र और भतम-भतम के दस्ताबेज बुन्देली मेंइं लिखे जात ते। गोंड़ राजाओं की सनदें ऐइ भासा में धरोहर बनीं रखीं हैं।

बुन्देली साहित्य कौ इतिहास सात सौ साल पुरानौ है। ई में मुलामियत भी है और तेज भी; ललितपनौ भी है और बीर रस की ललकार भी। पग पग पे संस्कृति और जीबन-दरसन की छाप है। रचैताओं में प्रसिद्ध नाम हैं - केशवदास, पद्माकर, प्रबीनराय, ईसुरी, पंडत हरिराम ब्यास और कितेक।

सबसें पहलो साहित्य जगनिक के रचे भये महाकाब्य ‘आल्हखंड’ खों मानने चइये। ए कौ लिखित रूप ने हतौ, मनों मौखिक परम्परा में जौ काब्य आज लौं खूब चल रओ। चौदवीं सताब्दी में बिश्नुदास नें सन १४३५ में महाभारत और १४४३ में रामायन की कथा गद्यकाब्य के रूप में लिखी। जइ परम्परा डाक्टर मुरारीलाल जी खरे निबाह रय। २०१२ में रामान की कथा लिखी और अब २०१९ में महाभारत की कथा आपके सामनें ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ नांव सें आ रइ है।

महाकाब्य के लच्छनों में पहली बात कही जात है कै कथानक ऐतिहासिक होय कै होय इतिहासाश्रित। ई में मानब जीबन कौ पूरौ चित्र, पूरौ बैभव और पूरौ बैचित्र्य दिखाई देबै। महाकाब्य ब्यक्ति के लानें नईं, समस्टि के लानें रचौ जाय, बल्कि कही जाय तौ ई में पूरे रास्ट्र की चेतना सामिल रहै।

संस्कृत बारे साहित्यदर्पण के रचैता विश्वनाथ के कहे अनुसार महाकाब्य में आठ, नांतर आठसे जादा सर्ग रहनें चइए। मुरारीलाल जी के महाकाब्य कौ आयाम ऐंसौ है कै ई में नौ अध्याय दय हैं -

१. हस्तिनापुर कौ राजबंस, २ . कुबँरन की सिक्षा और दुर्योधन की ईरखा, ३. द्रौपदी स्वयंबर और राज्य कौ बँटबारौ, ४. छल कौ खेल और पाण्डव बनबास, ५. अग्यातबास में पाण्डव, ६. दुर्योधन को पलटबौ और युद्धके बदरा, ७. महायुद्ध (भाग-१) पितामह की अगुआई में , ८. महायुद्ध (भाग-२) आखिरी आठ दिन, ९. महायुद्ध के बाद।

सर्गों कौ बँटबारौ और नामकरन ऐंसी सोच-समझ सें करौ गओ है कै पूरौ कथानक और कथा की घटनाओं कौ क्रम स्पस्ट हो जात है और कथा कौ सिलसिलौ निरबाध रहौ आत है। अध्याय समाप्त होत समय कबि अगले अध्याय की घटना कौ आभास देत चलत हंै। कबि नें हर अध्याय में प्रसंग और घटनाओं के माफिक उपसीर्सक भी दय हैं। जैंसे - पाण्डु की मौत, धृतराष्ट्र भए सम्राट, दुर्योधन की कसक और बैमनस्य, भीम खौं मारबे के जतन .......। एक तौ कथानक बिकास-क्रम सें बँधो है, और दूसरे कथा खों ग्राह्य बनाओ गओ है। असल कथा मानें अधिकारिक कथा और बाकी प्रकरनों में ‘उपकार्य-उपकारक’ भाव बनौ रहत है। महाभारतीय ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में बीच-बीच के प्रसंग ऐंसे गुँथे हैं कै मूल कथा खों बल देत हैं और ‘फिर का भओ ?’ कौ कुतूहल भी बनौ रहत है।

महाकाब्य में चाय एक नायक होबै, चाय एक सें जादा, मनों उच्च कोटि के मनुस्य, देवताओं के समान ऊँचे चरित्र बारे भओ चइये, जो जनसमाज में आदर्स रख सकें और चित्त खों ऊँचे धरातल पै लै जाबें। नायक होय छत्रिय, महासत्त्व, गंभीर, छमाबन्त, स्थिरमति, गूढ़ और बात कौ धनी। ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में भीष्म पितामह हैं, धर्मराज युधिष्ठिर घाईं सत्य पै प्रान देबै बारे पांडव तो हैंइं, सबसे बड़कें हैं स्रीकृष्ण। जे सब धीरोदात्त गुनों सें परिपूरन हैं। बात के पक्के की बात करें, तो राजा सान्तनु के पुत्र देबब्रत तो अपनी प्रतिग्या के कारनइ भीष्म कहाय गय -

ऐसी भीष्म प्रतिज्ञा पै रिषि मुनि सुर बोले ‘भीष्म-भीष्म’।
आसमान सें फूल बरस गए, सब्द गूँज गओ ‘भीष्म-भीष्म’।।

काव्यालंकार लिखबे बारे रुद्रट ने अपेक्छा करी है कै प्रतिनायक के भी कुल कौ पूरौ बिबरन भओ चइये, सो ई रचना में प्रतिनायक कौरव और उनकौ संग दैबे बारों के जन्म, उनके कुल और उनकी मनोबृत्ती कौ बिस्तार में बरनन करौ गओ है।

काव्यादर्श में दण्डी को कहबौ है - ‘आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वापि तन्मुखम्।’ मानें आंगें आशीरबाद, नमस्कार जौ सब लिखौ जाबै, नईं तौ बिशयबस्तु को निरदेस दऔ जाबै। डॉ. मुरारीलाल खरे जी नें अपनें ग्रन्थ के सीर्सक कौ औचित्य भी बताओ है। कैसी बिथा ? ईकौ मर्म कैंसें धर में बरत दिया की लौ भड़क परी और ओई सें घर में आग लग गई, पाच छंदों में सुरुअइ में समझा दओ है -

कुरुक्षेत्र के महायुद्ध में घाव हस्तिनापुर खा गओ।
राजबंस की द्वेष आग में झुलस आर्याबर्त्त गओ।।

बीर महाकाब्य कौ गुन कहात है कै आख्यान भी होबै, भाव भी होबैं आरै ओज भरी और सरल भासा होबै। आख्यान खों गरओ और रोचक बनाबे के लानें संग-साथ में उपाख्यान भी चलत रहैं, जी सें मूल कथानक खों बल मिलत रहै, चरित्र सोई उभर कें सामनें आत रहैं और पड़बे-सुनबे बारे के मन में प्रभाव जमत रहै। चोट खाई अम्बा कौ भीष्म खों साप दैबौ और सिखंडी के रूप में जनम लैकें भीष्म की मृत्यु कौ कारन बनबौ; कै फिर उरबसी के शाप सें अर्जुन कौ सिखंडी के भेस में रहबौ ऐंसेइ उपाख्यान डारे गए हैं। खरे जी ने बड़ी साबधानी बरती है कै बिरथां कौ बिस्तार नें होय। ई की सफाई बे खुदई ‘अपनी बात’ में दै रय कै महाभारत की बड़ी कथा खों छोटौ करबे में कैऊ प्रसंग छोड़ने परे हैं।

अरस्तू महाकाब्य खों त्रासदी की तर्ज पै देखत हैं कै ई में चार चीजें अवस्य भओ चइये - कथावस्तु, चरित्र, विचारत्त्व और पदावली मानें भाषा। चरित्र महाभारत में जैंसे दय गए हैं, ऊँसइ खरे जी ने भी उतारे हैं। भीष्म पितामह कौ तेज, बीरभाव, दृढ़चरित्र, प्रताप और परिबार के लानें सबकौ हित चिन्तन सबसें ऊपर रचौ गओ है। दुर्योधन के मन में सुरु से ईरखा, जलन, स्वारथ की भावना है, जौन आगें बढ़तइ गई। युधिष्ठिर धर्म के मानबे बारे, धीर-गंभीर, भइयन की भूलों पै छमा करबे बारे हैं। द्रोणाचार्य उत्तम धनुर्बिद्या सिखाबे बारे हैं, मनों द्रुपद सें बैर पाल लेत हैं, अर्जुन सें छल करकें अपने पुत्र खों जादा सिखाबो चाहत हैं, एकलब्य सें अन्याय करत हैं, कर्ण खों छत्रिय नें होबे के कारण विद्या नइं देत हैं, अभिमन्यु खों घेर कें तरबार टोर डारत हैं। सुख होत है कै राजा पांडु खों खरे जी ने हीन और दुर्बल नइं बताकें कुसल राजा बताओ है। धृतराष्ट्र पुत्र के लानें मोह में पड़े रहत हैं।

श्रीकृष्ण राजनीति, धर्मनीति, युद्धनीति के महा जानकार ठहरे। बे भी युद्ध नईं चाहत ते। मनों जब बिपक्छी बेर-बेर नियम टोरै, तौ बेइ अर्जुन खों नियम टोरबे की सिक्छा दैन लगे -

सुनो, नियम जो नईं मानत, ऊके लानें कायको नियम ?

‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में बिचारतत्त्व देखें, तौ कबि को मानबो है -

जब जब घर में फूट परत, तौ बैर ईरखा बड़न लगत।
स्वारथ भारी परत नीति पै, तब तब भइयइ लड़न लगत।।

जब जब अनीति भइ है, कबि ने चेता दओ है। महाप्रतापी राजा सान्तनु को राज सुख सें चल रओ तौ मनों ‘सरतों पै ब्याओ सान्तनु ने करौ।’ इतइं अनीति हो गई -

पर कुल की परम्परा टूटी, बीज अनीति कौ पर गओ।

और फिर -

आगें जाकें अंकुर फूटे, बड़ अनीति बिष बेल बनी।
जीसें कुल में तनातनी भइ, भइयन बीच लड़ाई ठनी।।

फिर एक अनीति भीष्म ने कर लइ। कासिराज की कन्याओं कौ हरन करौ अपने भइयों के लयं। हरकें उनें ल्याओ जो बीर, बौ नइं उनकौ पति हो रओ; जा अनीति जेठी अंबा खौं बिलकुल नईं स्वीकार भई।’ और बाद में ‘बिडम्बना’ बड़त गई।

गान्धारी ब्याह कैं आईं, तौ आँखों पै पट्टी बाँध लई। बे मरम धरम कौ जान न पाईं। आँखें खुली राख कें अंधे की लठिया नइं भईं। आगें जाकें भइ अनर्थ कौ कारन ऊ की नासमझी।

माता गान्धारी ने नियोग की ब्यवस्था करी-

लेकिन ई के लानें मंसा बहुअन की पूंछी नईं गइ।
आग्या नईं टार पाईं बे, एक अनीति और हो गइ।।

‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में जइ बिथा है कै अनीति पे अनीति होत रइ और परिनाम ? -

कुरुक्षेत्र के महायुद्ध में घाव हस्तिनापुर खा गओ।
राजबंस की द्वेष आग में झुलस आर्याबर्त्त गओ।।

महाकाब्य कौ फल मनुस्य के चार पुरुसार्थों में से एक भओ चइये। इतै अन्त में सिव और सत्य की स्थापना करत भय धरम को झंडा फहराओ गओ है। युद्ध के बाद अश्वमेध यज्ञ कराओ गओ। पन्द्रह बरस बाद धृतराष्ट्र गान्धारी, कुन्ती, संजय और बिदुर के संगै बन में निबास करबै ब्यास-आश्रम पौंचे और इतै हस्तिनापुर में राज पाण्डव सुख सें करत रयै। ‘प्रसादात्मक शैली; में जौ पूरौ महाकाब्य लिखौ गओ है। मनों दो अध्यायों में युद्ध को बर्नन चित्रात्मक शैली में ऐंसो करौ है कै पूरो दृस्य सामने खिंच जात है। देखें -

कैंसे जगा जगा जोड़ी बन गईं आपस में भओ दुन्द उनमें।

द्रोणाचार्य-बिराट, भीष्म-अर्जुन, संगा-द्रोण, युधिष्ठिर-स्रुतायुस, सिखंडी-अश्वत्थामा, धृष्टकेतु-भूरिश्रवा, भागदत्त-घटोत्कच, सहदेव नकुल-सल्य की जोड़िएँ सातएँ दिना की लड़ाई में भिड़ परीं। कुरुच्छेत्र में कहाँ का हो रऔ, सब खूब समजाकें लिखो गओ है। कितेक अस्त्रों के नाम - अग्नि अस्त्र, बारुणास्त्र, ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र, ऐन्द्रेयास्त्र, मोहनी अस्त्र, प्रमोहनास्त्र, नारायणास्त्र, भार्गबास्त्र, नागास्त्र और कितेक व्यूहों के नाम दए गए हैं - बज्रव्यूह, क्रौंचव्यूह, मकरव्यूह, मण्डलव्यूह, उर्मिव्यूह, शृंगतकव्यूह, सकटव्यूह, चक्रव्यूह। गांडीव धनुष भी चलौ और क्षुर बाण भी। भीष्म के गिरबे कौ चित्र देखबे जोग हैं -

हो निढाल ढड़के पीछे खौं, गिरे चित्त होकें रथ सें।
धरती पीठ नईं छू पाई, अतफर टँग रए बानन सें।।

सब्दों, मुहाबरों और कहनावतौं (सूक्तियों) कौ प्रयोग बुंदेली जानबे बारों के मन में गुदगुदी कर देत हैं - ताईं, बल्लरयियन, खुदैया, दुभाँती, अतफर, लड़वइयन, मुरका कें, नथुआ फूले, टूंका-टूंका, मुड्ड-मुड्ड, पुटिया लओ, बेपेंदी के लोटा घाईं लुड़क दूसरी तरफ गये, बैर पतंग और ऊपर चड़ गई, एक बेर के जरे आग में हाँत जराउन फिर आ गए।

कबि ने सिल्प की अपेक्छा कहानी के धाराप्रबाह पै जादा जोर दओ है। कहौ जा सकत है कै भासा कौ बहाव गंगा मैया घाईं सान्त और समरस नइं, बल्कि अल्हड़ क्वाँरी रेबा घाईं बंधन-बाधा की परबाह नें करकैं बड़त जाबे बारौ है। कहुँ गति ढीली नइं परी।

महाकाब्य में चार रसों में से एक प्रधान भओ चइये - सिंगार, बीर, सान्त और करुन। ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ कौ मुख्य रस सान्त है। पूरे कथानक की परिनति है -धरम की स्थापना। सीख मिलत है -

छल प्रपंच और अत्याचार होत अन्यायी के बिरथा।
ऐसी बात बता रइ राज हस्तिनापुर की बिथा-कथा।।

दूसरे रसों कौ भी समाबेस देखो जा सकत है। जैंसें -

सिंगार -
हिरन नें घायल कर पाए ते, इतै खुदइ हो गए घायल।
देखो रूपवती नारी के नैनन के बानन कौ बल।।

वात्सल्य -
सोने के झूला में झूलो, धाय के दूध पै पलो।
औरन की ओली में खेलो, ऐसें दिन दिन बड़त चलो।।

हास्य -
फिर देखकें खुलौ दरबाजौ, जैसइं घुसन लगे भीतर।
माथो टकरा गओ भींत सें, ऊपै गूमड़ आओ उभर।।

करुण -
किलकत तो जो नगर खुसी में, लगन लगो रोउत जैंसौ।
चहल-पहल गलियन की मिट गइ, पुर हो गओ सोउत जैंसौ।।

वीर -
तरबारें चमकीं, गदाएँ खनकीं, बरछा भाला छिद गए।
सरसरात तीरन सें कैऊ बीरन के सरीर भिद गए।।

रौद्र -
तब गुस्सा सें घटोत्कच पिल परो सत्रु की सैना पै।
भौतइ उग्र भओ मानों कंकाली भइ सवार ऊ पै।।

भयानक -
दोऊ तरफ के लड़वइयन की भौतइ भारी हानि भई।
मानों रणचण्डी खप्पर लएँ युद्धभूमि में प्रगट भई।।

वीभत्स -
ऊपै रणचण्डी सवार भइ, नची नोंक पै बानन की।
पी गइ सट सट लोऊ, भींत पै भींत उठा दइ लासन की।।

अद्भुत -
चमत्कार तब भओ, चीर ना जानें कित्तौ बड़ौ भओ।
खेंचत खेंचत थको दुसासन, अंत चीर कौ नईं भओ।।

भक्ति -
जी पै कृपा कृष्ण की होय, बाकौ अहित कभउँ नइँ होत।
दुख के दिन कट जात और अंत में जै सच्चे की होत।।

आज भी कइअक घरों में महाभारत को ग्रन्थ रखबौ-पड़बौ बर्जित है। नासमझ दकियानूसी जनें कहन लगत हैं - ‘आहाँ, घरों में महाभारत की किताब नैं रखौ। रखहौ, तो महाभारत होन लगहै।’ बे नइं समझत कै का सीख दइ है ब्यासजू महाराज नें। अब जा सीदी-सरल भासा में लिखी भइ महाभारत की कथा ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ के नांव सें घरों में प्रबेस पा लैहै और महिलाएँ भी ईकौ लाभ उठा सकहैं।

जा पूरी रचना गेय है मानें लय बाँधकें गाबे जोग है। हमाइ तो इच्छा होत है कै बुंदेलखंड के गाँव-गाँव में तिरपालों में उम्दा गायकों की गम्मत जमै और नौ दिनां में डॉ. मुरारीलाल जी खरे के रचे महाकाब्य के नौ अध्यायों कौ पाठ कराओ जाए, जी सें पांडव-कौरव की गाथा सबके मन में समा जाए और जनता समजै कै एक अनीति कैंसे समाज में और अनीतिएँ करात जात हैं -

जो अनीति अन्याय करत है, दुरगत बड़ी होत ऊ की।
जो अधर्म की गैल चलत है, हानि बड़ी होत ऊ की।।

पांडव भइयों कौ आपसी मेल-प्रेम, महतारी और गुरुओं के लानें सम्मान-भाव, उनकी आग्या कौ पालन भारतीय संस्कृति को नमूनौ है। उननें भगवान कृष्ण की माया नइं लइ, सरबसर कृष्णइ खों अपने पक्छ में रक्खौ और उनइं के कहे पै चलत रय, जी सें बिजय पाइ। गीता कौ उपदेस है -

है अधिकार कर्म पै अपनौ फल पै कछु अधिकार नईं।
बुद्धिमान जन कर्म करत हैं, फल की इच्छा करत नईं।।

सम्पर्क : १०७, इन्द्रपुरी, ग्वारीघाट रोड, जबलपुर
चलभाष : ९८९३१०७८५१




।। अपनी बात ।। 

बुन्देली में ई लेखक की कौ काव्य रचना कौ पैलो प्रयास ‘ बुन्देली रामायण ‘ सन २०१३ में छपो तो । ऊके बाद एक खंड काव्य साहित्यिक हिंदी में ‘ शरशैया पर भीष्म ‘ सं २०१५ में छपो । तबइँ जौ बिचार मन में उठो कै महाभारत खौं छोटो करकें बुंदेली में काव्य रचना करी जाए। महाभारत की कथा तौ भौत बड़ी है । ऊखों पूरौ पड़बे की फुर्सत और धीरज कोऊ खों नइंया। छोटो करवे में कैऊ प्रसंग छोड़ने परे । जौ बात कछू विद्वानन खौं खटक सकत, ई के लानें छमा चाउत । बुन्देली में हस्तिनापुर की बिथा - कथा लिखवे में कैऊ मुश्किलें आईं । एक तौ जौ कै बुन्देली कौ कौनउ मानक रूप सर्वसम्मति सेन स्वीकार नईयाँ । एकइ शब्द कौ अर्थ बतावे वारे जगाँ जगाँ अलग अलग शब्द हैं, जैसें ‘ बहुत ‘ के लाने भौत , भारी , बड़ौ , मुतके , गल्लन , बिलात , ढेरन । उच्चारन भी अलग - अलग हैं , ई सें कैऊ भाँत सें समझौता करने परो । हिंदी के ‘ उस ‘ को कऊँ ‘ बौ ‘ अउ कितउँ ‘ ऊ ‘ बोलो जात । उसको की जगाँ ‘ वाए ‘ , उयै , ऊखौं को इस्तैमाल होत । ‘ को ‘ के लानें ‘ खौं ‘ और ‘ खाँ ‘ दोऊ चलत हैं। ‘ यहाँ - वहाँ ‘के लानें दतिया में ‘ हिना , हुनाँ ‘ झाँसी में ‘ हिआँ , हुआँ ‘ कऊँ इहाँ , उहाँ ‘ तौ कितऊँ ‘ इतै , उतै ‘, ‘इताएँ , उताएँ ‘ , ‘ इतईं , उतईं ‘ बोलो जात । ई रचना में जितै जैसो सुभीतौ परौ वैसोइ शब्द लै लओ। विद्वान लोग इयै एकरूपता की कमी मान सकत । लेखक कौ बचपनो झाँसी , ललितपुर , और मऊरानीपुर - गरौठा के ग्रामीण अंचल में बीतो , सो उतै की बोलियन कौ असर ई रचना में जरूर आओ हुये ।

बुन्देली में अवधि की भाँत ‘ श ‘ कौ उच्चारन ‘ स ‘ और ‘ व ‘ कौ उच्चारन कऊँ कऊँ ‘ बी ‘ होत । ऐसोई काव्य में है। ‘ ण ‘ को उच्चारण ‘ न ‘ है पर ी रचना में ‘ ण ‘ जितें कोऊ के नाव में है तौ ऊकौ ‘ न ‘ नईं करो गओ जैसे द्रोण , कर्ण , कृष्ण , कृष्णा , में सुद्ध रूप लओ है, उनें द्रोन , करन, कृष्न , नईं करो । ठेठ बुंदेली के तरफ़दार ई पै इतराज कर सकत । शब्द को जबरदस्ती देहाती उच्चारन दैवे के लानें बिगारो नइयाँ । एकदम ठेठ देहाती और कम चलवे वारे स्थानीय सब्द न आ पाएँ , ऐसी कोसिस रई । व्याकरन बुन्देली कौ है , सब्द सब कऊँ बुन्देली के नइयाँ । ई कोसिस में लेखक खौं काँ तक सफलता मिली , जौ तौ पाठक हरें तै कर सकत । विनती है उनें जौ रचना कैसी लगी , जाऊ बतावे की किरपा करें। अंत में निवेदन है ‘ भूल - चूक माफ़ ‘ ।
कितै विनयवंत -
एम. एल. खरे
डॉ. मुरारी लाल खरे



 कितै का है 
अध्याय संख्या और नाव         पन्ना संख्या 
१. हस्तिनापुर कौ राजबंस       
२. कुवँरन की सिक्षा और दुर्योधन की ईरखा 
३. द्रौपदी स्वयंवर और राज कौ बँटवारौ 
४. छल कौ खेल और पांडव बनवास 
५. अग्यातवास में पांडव
६. दुर्योधन कौ पलटवौ और युद्ध के बदरा 
७. महायुद्ध ( भाग - १) पितामह की अगुआई में 
८. महायुद्ध ( भाग २ ) आखिरी आठ दिन 
९. महायुद्ध के बाद 
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कैसी बिथा

कुरुक्षेत्र के महायुद्ध में घाव  हस्तिनापुर खा गओ
राजवंस की द्वेष आग में झुलस आर्यावर्त गओ 

घर में आग लगाई घर में बरत दिया की भड़की लौ 
सत्यानास देस कौ भओ तो , नईं वंस कौ  भओ भलो 

लरकाईं में संग रये जो , संग संग खाये खेले 
बेई युद्ध में एक दूसरे के हथयारन खौं झेले 

दिव्य अस्त्र पाए ते जतन सें होवे खौं कुल के रक्षक 
नष्ट भये आपस में भिड़कें , बने बंधुअन के भक्षक 

गरब करतते अपने बल कौ जो , वे रण में मर खप गए 
वेदव्यास आंखें देखि जा बिथा कथा लिख कें घर गए 
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पैलो अध्याय

हस्तिनापुर कौ राजबंस

कब , कितै और काए 

द्वापर के आखिरी दिनन भारत माता की छाती पै 
भओ बड़ो संग्राम भयंकर कुरुक्षेत्र की थाती पै  (१)

बा लड़ाई में सामिल भएते कैऊ राजा बड़े बड़े 
कछू पाण्डवन संग रएते , कछू कौरवां संग खड़े (२) 

एकइ राजबंस के ककाजात भइयन में युद्ध भओ 
जीसें भारत भर के कैऊ राजघरन कौ नास भओ (३) 

भरी मारकाट भइती , धरती पै भौतइ गिरो रकत
सत्यानास देस कौ भओ , बौ युद्ध कहाओ महाभारत (४)

चलो अठारा दिन हतो बौ घमासान युद्ध भारी 
धरासाइ भए बियर कैऊ , लासन सें पटी भूमि सारी (५)

जब जब घर में फूट परत , तौ बैर ईरखा बड़न लगत 
स्वारथ भारी परत नीति पै , तब तब भइयन लडन लगत (६)

ज्ञान धरम कौ नईं रहै जब , ऊकौ भटकन लगै अरथ 
भड़के भूंक राजसुख की , छिड़ जात युद्ध होत अनरथ (७)

राज हस्तिनापुर के बँटवारे के लाने युद्ध भओ 
जेठौ कौरव तनकउ हिस्सा दैबे खौं तैयार न भओ (८)

उत्तर में गंगा के करकें हतो हस्तिनापुर कौ राज 
जीपै शासन करत रये कुरुबंसी सान्तनु राजधिराज (९) 

कथा महाभारत की सुरू होत सांतनु म्हराज सें है 
सुनवे बारी , बड़ी बिचित्र , जुड़ी भइ सोउ कृष्ण सें है (१०)

सांतनु की चौथी पैरी एक न रई , दो फाँक भई 
नाव एक को परो पाण्डव , दूजी कौरव कही गई (११)

म्हाराज सान्तनु 

राजा सान्तनु महाप्रतापी , डंका बजट रओ उनकौ 
अच्छे तीरंदाज , धनुष पै हाँत सदो खूबइ उनकौ (१२)

एक बेर क्वाँरेपन में सिकार खेलन बन बन भटके 
फिरत फिरत कैसउँ गंगाजू के तीर पै जा अटके (१३)

गंगाजू में उनें दिखानी एक परम सुंदर नारी 
रूप सुरग की पारी घाईं , गदराई देह लगी प्यारी (१४)

हियो सान्तनु कौ मचलो , सोचे बनाएँ रानी अपनी 
ऊके पास गये राजा बताइ ऊखौं मंसा अपनी     (१५)

गंगा सें प्रगटी बा हती असल में तौ देवी गंगा 
उनके मन की जान सान्तनु सें ऐसौ बोली गंगा (१६)

बनों तुमाइ रानी जो तुम एक सर्त मानो मोरी  
गंगा मेरो नाव , कान खोल कें सुनों बात मोरी (१७)

मैं चाए जो करौं , टोकियो नईं , कछू पूंछयो नईं 
गुस्सा करकें कौनउ ऐसी - बैसी मोसें कइयो नईं (१८)

जब लौं सर्त निभाओ तब लौं बनी तुमाए संग रैहौं 
जो टूटी तौ तुमें छोड़ कें समा ई नदी में जैहों (१९)

भरी ज्वानी में क्वांरे राजा खौं लुभा गई गंगा
सर्च मान लइ , सो उनकी रानी बनकें आई गंगा (२०)

होतइँ पैलो कुँवर बहा गंगा आई गंगा जू में
राजा देखत रै गए समझ न आई बात उनके मन में (२१)

ऐसेईं सात पूत अपने बा बहा आईती गंगा में
बोली ती बहाउतन में ' बेटा तोरी भलाई ई में ' (२२)

आठवँ कुँवर भओ तौ राजा रोक सके नइँ अपने खौं
बेटा लैकें चलन लगी तौ राजा टोके रानी खौं (२३)

कारन पूछे बौ बोली " जे आठउ हते आठ बसु तौ
जा' गत होने ती, ऊ जनम श्राप ऐसो पाये रिषि कौ (२४)

बटन तुमाओ टूट गओ, सो अब मैं तो चली छोड़ तुमखौं
राजा ! कुँवर छोड़ रइ , पाल पोस कें बड़ौ करौ ईखौं " (२५)

ऐसी कहकें गंगा देवी जा समाई गंगा जू में
बालक यादगार रानी की , राजा मन रमाए ५ में (२६)

राजकुँवर देवव्रत

बरन मताई घाईं ऊजरौ , आँखन की बैसइ बनक
नन्ने नोंने हाँत पाँव , मौं पा छाई चम्पाइ झलक (२७)

सोने के झूला में झूलो , धाय के दूध पै पलो
औरन की ओली में खेलो , ऐंसें दिन दिन बड़ी चलो (२८)

निखरो रूप देवतन जैसो , धरो नाव देवव्रत गओ
राजा कौ सब लाड़ - प्यार बालक को ऊपर बड़त गओ (२९)

नइँ मताई कौ प्यार पाओ बाप सें पाओ दूनों ऊनें
प्यार करो उतनोइँ बाप सें राजकुमार देवव्रत नें (३०)

पुत्र प्रेम के कारन राजा नईं दूसरौ ब्याव करे
बड़कें बेटा ज्वान भओ , तौऊ न लाड़ में कमी करे (३१)

बिना एक दूजै खौं देखें राजा , कुँवर चैन नइँ पायँ
कभउँ उदास दिखाएँ पिता तौ होस देवव्रत को उड़ जायँ (३२)

एक अकेलो राजकुँवर आगें जाकें हुईए राजा
ईसें ओइ भाँत की सिक्षा - दीक्षा उनें दई राजा (३३)

धनुष चलाने में प्रबीन , चौड़ी छाती , मन में उमंग
अच्छौ सील सुभाव , बात के धनी , राजसी रंग - ढंग (३४)

राजा सान्तनु और सत्यवती

राजा सान्तनु ढलत उमर में लगें ज्वार वीर जैसे
नित सिकार खौं जाएँ , मारकें ल्याए जन्तु कैसे - कैसे (३५)

एक दिना हिरना पछियाउत जमुना तट नों चले गये
हिरन बिला गओ बन में , प्यासे राजा जमुना तीर गये (३६)

दिखी नाँव पा धीवर कन्या खुले फूल जैसी प्यारी
रूप सलौनो , भरी ज्वानी , मोहक देहगंध न्यारी (३७)

राजा ने पानी माँगो , लोटा भरकें बा पिआ गई
बुझी प्यास राजा की , पैरोडी दूसरी प्यार बा जगा गई (३८)

हिरन न घायल कर पाएते , इतै खुदइ हो गए घायल
देखौ रूपवती नारी के नैनन के बानन कौ बल (३९)

रानी सुख के बिना रहे आएते कैऊ बरस अब लौं
कुँवर सयाने हो गए , तौ अब रानी बिना रहैं कब लौं? (४०)

सत्यवती नाव की धीवरी कन्या लुभा गई मन खौं
सोचे , ईके संग काट लें अपने बाकी जीवन खौं (४१)

सत्यवती सें ब्याव रचाकें फिर सें महल जगमगा लें
सूक रये जीवन खौं सींच नार नीर सें हरिया लें (४२)

ऊके बाप लिहाफ जाके राजा ने मन की बात कही
धीवर खुसी भओ में , पर चतुराई सें सर्च कही (४३)

".ब्याव करौं कन्या को मैं जब ऐसौ बटन देएँ राजन
ईकौ पूत बनें जुबराज , पाए आपको सिंघासन (४४)

जा अनीति का बात नईं स्वीकार कर सकेते राजा
प्यारे कुँवर देवव्रत को हक मार नईं सकतते राजा (४५)

सो निरास होकें राजा अनमने आए हस्तिनापुर
लगन लगे उखरे - उखरे से , बानी नइँ रै गई मधुर (४६)

ना सिकार खोलन अब जाएँ , लगा न राजकाज में मन
रूखे - सूखे से दिखाएँ बे , लगन लगो बिरथा जीवन (४७)

सत्यवती को रूप रओ नित डोलत उनके नैनन में
याद सलौनी सूरत करकें बेर बेर तड़फें मन में (४८)

राजा की जा दसा गई नइँ देखी कुँवर देवव्रत सें
कारन ईकौ जान पाए वे कैसउँ जुगत कर जतन सें (४९)

देवव्रत भए भीष्म

गए धीवर को पास , कहे " स्वीकार तुमाई सर्त हमें
राजा सें कन्या ब्याहो तुम , राजा नईं बनूंगौ मैं (५०)


छत्रिय कौ जौ प्रन है पक्को , करौ भरौसौ ई पा तुम
राजा बनें तुमाओ नाती , राज कभउँ नइँ माँगें हम" (५१)


धीवर बोलो  " पा तुमाओ बेटा कौ माँगे अपनौ हक
प्रन तुमाओ टूट जानें , गद्दी पै हुये रार नाहक " (५२)


ईपै बोले " जा संका है , चौ हमाओ प्रन सुनलो तुम
हाँत उठाकें करत प्रतिग्या ब्याव कभउँ नइँ करहैं हम " (५३)


ऐसी भीष्म प्रतिग्या पा रिषि मुनि सुर बोले " भीष्म - भीष्म "
आसमान सें फूल बरस गए , सब्द गूँज गओ  ' भीष्म - भीष्म ' (५४)

सब्द सुनें सबनें सो लगे हँसी में टेरन उनखौं भीष्म
आगे असल नाव सब भूले , नाव नए उनको भओ ' भीष्म ' (५५)

धीवर भओ भौतई प्रसन्न " अब बिटिया बन जैहे रानी
मेरे मान बड़े , समध्यानौं मेरे बनें राजधानी " (५६)

महात्याग सें नाव भीष्म कौ जग में भौत बड़ौ हो गओ
पर कुल की परंपरा टूटी , बीज अनीति का पर गओ (५७)

आगें जाकें अंकुर फूटे , बड़ अनीति विष बेल बनी
जीसें कुल में तनातनी भइ , भइयन बीच लड़ाई ठनी (५८)

ब्याव भओ , रानी बन सत्यवती आ बैठी महलन में
प्रन सुन हते उदास पिता , रानी पा भए प्रसन्न में (५९)

महारानी सत्यवती के बेटा

हो प्रसन्न वर इच्छा मृत्यु कौ पुत्र खौं दए राजा
महल और मन दोउअन में उजियारौ सौ पाए राजा (६०)

कुँवर भीष्म नें नइ रानी खौं माता जैसोई मानो
गर आग्या माने , रानी नें उनें पुत्र जैसे जानो (६१)

सत्यबती सें राजा सान्तनु को अपने बेटा भए दो
जेठौ चित्रांगद , छोटे को नाव विचित्रवीर्य भओ तौ (६२)

भीष्म ब्रह्मचारी रैकें अभ्यास धनुषबान कौ करे
परपराना सें अस्त्र - शस्त्र सब सीख परम जोधा निखरे (६३)

धनुष चलाने में टक्कर कौ हतो  जगत में कोऊ नईं
देह कसी भई , सके हाँत , फुरतीलेपन में कसर नईं (६४)

राजा भए सुरगबासी तौ भीष्म रये पक्के प्रन पै
जेठौ चित्रांगद खौं बैठा गए राज सिंघासन पा (६५)

दोऊ कुँवर बीर तौ भए , पै हते अधूरे छत्रिय बे
राजा सान्तनु , भीष्म सरीखे हो नइं पाए प्रतापी बे (६६)

चित्रांगद सें उनकेई नाव के यक्ष नें युद्ध करो
तीन बरस तक चली लड़ाई , चित्रांगद अंत में मरौ (६७)

कुँवर वीचित्रवीर्य खौं तब सिंघासन पा बैठाये भीष्म
राजा के संरक्षक बनकें अपनौ धरम निभाये भीष्म (६८)

सत्यवती रातमाता के मन में जगा कामना जौ
ब्याव वीचित्रवीर्य कौ जल्दी होय बड़ै वंश पति कौ (६९)

बोलीं वे भीष्म  सें ब्याव कर दो छोटे भइया कौ तुम
बेटा! तुम रखवारे कुल के , ई घर के मुखिया हौ तुम (७०)

अरे , तुमाए भय सें कोऊ सत्रु आँख नइँ उठा सकत
तुम जौ कन्या चाहौ तौ कोउ पिता नाई कर नइँ सकत (७१)

उनइ दिनन जौ खबर मिली कन्याएँ कासिराज की हैं
ब्याव लाख भौतइ सुंदर , गुनवंती  , उत्तम कुल की हैं (७२)


भीष्म और ल्याए तीन राजकन्याएँ
उनके लानें बड़ौ स्वयंबर कासिराज रच रये उतै
और देस देस के राजा , राजकुँवर आ रये उतै (७३)

सोचे भीष्म स्वयंवर में को चुनो जाए जौ पक्के नईं
हरकें उनें ल्याओ जाए अब कौनउँ आन उपाय नईं (७४)

भरी स्वयंबर सभा बीच नइँ हरन विचित्रवीर्य करपै
हमइँ जाएँ तो अपने बल पै कन्याहरन सफल होपै (७५)

सो रथ पै चड़ , धनुष बान लै बीच स्वयंबर पौंचे भीष्म
देख मंच पै कन्याएँ , उनपै तेजी से झपटे भीष्म (७६)

जब लौं कोई समझ पास कछु , लपक उठाये तीनउँ खौं
फुरती सें लए अपने रथ पै ल्या बैठारे उन तीनउँ खौं (७७)

हरन हो रओ जाने जब तौ कैउ बीर आये आगें
लड़न भीष्म सें , टिक नइँ पाये उनके बानन के आगें (७८)

सल्य हतो अंबा कौ प्रेमी , अंबा चाउतती ऊखौं
भओ स्वयंबर होतो जो , चौ अंबा चुन लेती ऊखौं (७९)

अपनौ प्यार उजड़तन देख , लड़न आओ आगें होकें
काए न लड़े , भीष्म जबरन सा जा रए प्यारी खौं हरकें (८०)

तीर चलाउत भीष्म हँकाये अपने रथ खौं तेजी सें
राजा सल्य उनें पछियाओ अपने रथ पै , तेजी सें (८१)

दोउ तरफ सें तीर चलत रए , भइ उनकी खूबइ बौछार
मरे सल्य के घोड़ा , मरे सारथी , गओ सल्य तब हार (८२)

अंबा और अंबिका अंबालिका , तीन वे कन्याएँ
घबरानी हक्की बक्की हो , मौं सें कछू बोल का पाएँ (८३)

रथ खौं तेजी सें हँकाउत जा पौंचे भीष्म हस्तिनापुर
बोले " माता! भइया लानें बहुएँ तीन ल्याए हम हर " (८४)

सुनकें सकपकाई बे तीनउँ , हाय राम जौ का हो रओ
हरकें उनको ल्याओ जो बीर , बौ नइँ उनकौ पति हो रओ (८५)

अंबा नईं मानी

जा अनीति जेठी अंबा खौं बिलकुल नइँ स्वीकार भई
और बात मन की ऊनें कह साफ साफ भीष्म सें दई (८६)

बोली " प्रेम सल्य सें मोए , बौ भी चाहत है मोखौं
सुनो स्वयंबर होते तो मैं अपनौ पति चुनती ऊखों (८७)

हरकें ल्याए तुम , दै रए भैया खौं , रात भई कर रए
करो हरन नइँ जीनें बाखौं दैके का अनीति कर रए? (८८)

ऐसी खरी - खरी बात नें असर कुँवर भीष्म पै करो
बोले " मैं तौ ब्याव करौं नइँ , मैंने प्रन ऐसोई करो (८९ )
तुम सुतंत्र हौ , अब चाहौ तौ जाओ ऊ प्रेमी के पास "
अंबा खौं आदर सें पौंचा दये भीष्म सल्य के पास (९०)
सल्य स्वाभिमानी ने नइँ अपनाइ गैर की हरी भई 
नइँ कितउँ की रै गइ अंबा , सो निरास जीवन सें भइ (९१)

जा विडम्बना भई भीष्म के कारन , सो बदलौ लैहै 
अग्लो जनम पुरुष कौ लेकें मौत भीष्म की बन जैहै (९२)

ऐसो निस्चय करकें अंबा ने अपनी काया तज दइ 
अगली जनम सिखण्डी नर बन , कारन भीष्म नास कौ भइ (९३)

अंबिका अंबालिका भईं मजबूर 

इतै अंबिका , अंबालिका बिचारीं कछू कह नइँ पाईं 
रानी बनी बिचित्रबीर्य की , देख उपाय अन्य नइँ पाईं (९४)

ऐसें उनको ब्याव हो गओ और बरस कछू बीत गये 
एक दिन महाराज निपूते देवलोकबासी हो गये (९५)

अब सिंघासन सूनों हो गओ , चिंता सत्यवती खौं भइ 
नईं राज कौ कोऊ वारिस , जा कैसी अनहोनी भइ (९६) 

का अब पीटीआई राजा सान्तनु की वंस बेल सूख जानें 
आन बान हस्तिनापुर  की , का अब धूरा में मिल जानें (९७)

सत्यबती कह दइ भीष्म सें “ बेटा तुम राजा बन जाव
ब्याव करा लो और पिता की बंस बेल आगे लहराव “ (९८)

बोले भीष्म “ छमा माता , मैं जा आग्या मान नईं सकत 
चंदा सूरज भले टरें , छत्रिय काउ प्रन टर नईं सकत (९९)

मेरौ बचन टूट जै तो फिर भीष्म नाव भी मिट जानें
भीष्म प्रतिज्ञा टूटी तौ सब जस धूरा में मिल जानें (१००)

जब लौं मैं हौं , सत्रु कोऊ तौ आँख उठा के देख न पाए 
गद्दी पै कोऊ होवै , तुमाओ जौ बेटा राज बचाए “ (१०१)

भीष्म राजमाता सोचत सोचत ई निस्चय पै आये 
छेत्रज पुत्र विचित्रवीर्य के बहुअन सें जाएँ जाये (१ ०२)

ईके लाने कौनऊँ योग्य ब्राह्मण खौं बुलबाओ जाए 
है नियोग की रीति सास्त्र सम्मत , ईखौं अपनाओ जाए (१०३)

सत्यबती नें तब महान बेदव्यास बुलवाए 
पा संदेस राजमाता कौ बेदव्यास महलन में आए (१०४)

बेदव्यास तौ हते असल में सत्यवती के जाये पुत्र 
क्वाँरेपन में सत्यवती खौं ऋषि पाराशर दएते पुत्र (१०५)

सत्यवती नाव पै रिषि खौं जमुना पार कराउत रइ 
रिषि रीझै तौ सत्यबती उनसें संबंध बनाउत रइ (१०६)

ईके कारन एक द्वीप पै सत्यवती कौ पुत्र भओ 
कारौ बरन भये सेन ऊकौ नाव ‘ कृष्ण द्वैपायन ‘ भओ (१०७)

होकें बड़े महापंडित भए , लिख डारे सब बेद पुरान 
बेद व्यास नाव पर गओ , त्रिकालदरसी ज्ञानी महान (१०८)  

सत्यवती ने सोची हुए नियोग सें जो बेटा हुइऐं
पुत्र कहाएँ विचित्रवीर्य के , रकत अंस मेरे हुइऐं (१०९)

पोता हुए हमाए साँचउँ , नाव विचित्रवीर्य कौ चलै  
सिंघासन कौ राजा मिल जै बंस पति म्हराज कौ चलै (११०)

बेदव्यास जानतते सत्यवती आयें माता उनकी 
सो करतव्य मानकें वे स्वीकार करे आज्ञा उनकी (१११)

लेकिन ईके लानें मंसा बहुअन की पूंछी नइं गइ 
आज्ञा नईं टार पाईं वे , एक अनीति और हो गइ (११२)

कँपी अंबिका आँखें मीचीं भरो घृना सें मन ऊकौ
ईसें दोऊ आँखन सें आँदरौ भओ बेटा ऊकौ (११३)

सत्यबती के पोता 

अंबालिका सन्न रै गइ , मौं भओ पीरौ भय के कारन 
बेटा भओ पाण्डु रोगी , सब तन पीरौ ईके कारन (११४)

अच्छौ सो धृतराष्ट्र नाव आँदरे कुंवर कौ धरो गओ 
पुत्र पाण्डु रोगी पीरे खौं ‘ पाण्डु ‘ नाव सें कहो गओ (११५)

दोउ राजकुँवर नइँ भएते नौने सो ई कारन सें 
बेदव्यास खौं सत्यबती माता नें बुलबाओ फिर सें (११६)

अबकी बेर चाल चलकें बहुअन नें दासी पौंचा दई 
दासी रई प्रसन्न , सो चंगे भले पुत्र खौं जनम दई (११७)

बिदुर नाव कौ जौ बालक भओतो महान बुद्धि बारौ
समझदार बोलत में अच्छौ , भौतई चतुर , नीति बारौ (११८)

इन तीनउँ लरकन में सत्यवती कौ अंस रहो आओ 
तीनउँ नें एकइ जैसौ दादी कौ लाड़ प्यार पाओ (११९)

संग संग खाये खेले बे तीनउँ रये सगे जैसे 
संग संग भए बड़े , संस्कार पाए छत्रिय जैसे (१२०)  
    
तीनउँ लरका पिता समान सदा भीष्म खौं देखत रये
उनें तात कहकें बुलाउतते , उनकी आज्ञा मानत रये (१२१)

और भीष्म भी उन तीनउँ खौं करे एक सौ लाड़ - दुलार 
अपने बेटा घाईं मानकें उनें बराबर कौ दए प्यार (१२२)

जबनों छोटे रये , राज कौ काम भीष्म ने देखो तो 
बड़े भये तो बात उठी अब सिंघासन पै बैठे को? (१२३)

तब अंधे धृतराष्ट्र नईं सिंघासन लायक माने गए
आँखन बारे कुँवर पाण्डु खौं राजपाट भीष्म दै दए (१२४)

बिदुर भले में खून छत्रिय कौ रत्ती भर हतो नहीं 
दासी पुत्र भये सें मानो गओ गद्दी के योग्य नईं (१२५)

नीतिवान विद्वान विदुर छत्रिय के संस्कार पाये 
ई कारन सें भीष्म उनें मंत्री के पद पै बैठाये (१२६)

सत्यबती खौं बंस बड़ाबे की तब फिर सें सुध आई 
पोतन कौ ब्याव जल्दी करबे के लानें अकुलाई (१२७)

कही भीष्म सें “ बेटा ! तुम हौ पिता की जगाँ लरकन के 
अच्छे कुल की बिटिया ढूँड़ौ , ब्याव करा दो तुम इनके (१२८)

जीसें बंसविरच्छ तुमाए पिता कौ फूलै और फलै 
होकें खूब घनो फैले धरती पै , आगें नाव चलै (१२९)

भीष्म सुनेते कन्या है गान्धारराज की अति सुंदर 
सील गुनबती ऊखौं सौ पुत्रन कौ बर दए है संकर (१३०)

अंधे धृतराष्ट्र कौ ब्याव करवा दए तात भीष्म ऊसैं 
आई भइ गांधार देस सें , गांधारी कहाई ईसैं (१३१)


गांधारी और कुंती
गांधारी को संग संग बाकौ भइया सकुनी आओ
मानो असगुन बनकें सकुनी सान्तनु के घर में आओ (१३२)
पट्टी आँखन पा बाँदें सासरें आई जी गांधारी
पति आँखन कौ सुख न पाए तौ बौ सुख काए पाय नारी (१३३)
पतिब्रता के धरम जानकें धरमसंगिनी तौ हो गइ
आँखें खुली राख कें भोली अंधे का लठिया नइं भइ (१३४)
मरम धरम कौ जान न पाई , ऊकौ अरथ गलत समझी
आगें जाकें भइ अनर्थ कौ कारन ऊकी नासमझी (१३५)
पाण्डु बीर खौं एक स्वयंबर में हर चुन लइती कुंती
राजा कुंतीभोज की पाली कन्या गुनी रूपवंती (१३६)
हती असल में पृथा नाव की कन्या सूरसेन यदु की
कुंतिभोज ने गोद लई , सो गओ नाव पर गओ कुंती (१३७)
क्वांरेपन में बाकी सेबा सें दुरबासा रिषि खुस भए
बर में दिव्य बीर बेटा होवेकौ सूर्यमंत्र जै गए (१३८)
एक दिना कुंती खौं सूझी मंत्र आज जांचो जाऐ
मंत्र पड़ो तौ सूर्यदेवता प्रगट भये सम्मुख आऐ (१३९)
तेज देख कुंती घबरानी बोली " छमा करौ महाराज
मंत्र जाँचवे की मोसें जा भारी भूल हो गई आज " (१४०)
सूर्य देवता बोले " बिरथा होत कभउँ नइँ मंत्र हमाओ
तेजबंत बलबान बीर बेटा अवस्य अब हुए तुमाओ " (१४१)
कर्ण कौ जनम
सूर्य देवता बोले " बिथा होत कभउँ नइँ मंत्र हमाओ
तेजबंत बलबान बीर बेटा अवस्य अब हुए तुमाओ " (१४१)
कर्ण कौ जनम
बेटा भओ सोने के कुंडल और कवच चिपके तन में
लोक लाज बस पेटी में धर बहा आईती गंगा में (१४२)
भौत दिनन तक सबसें जा रहस्य की बात छिपी आई
और पाण्डु की रानी बनकें कुंती कुरुकुल में आई (१४३)
उतै बहक पानी में मोंड़ा देखौ पथ के हँकवारौ
अधिरथ बाकौ नाव और बौ हतो बिना बच्चा बारौ (१४४)
सो झट सें दौड़े बौ और उठा पेटी पानी सें लई
जिअत देख मुड़ा खौं बाके मन में भारी खुसी भई (१४५)
आकें घरै डार दओ बच्चा घरवारी की ओली में
भइ प्रसन्न बा " डार दओ ईसुर ने बेटा झोली में " (१४६)
बा राधा नाव की स्त्री पालन पोसन लगी उयै
ई कारन ' राधेय ' नाव लैकें सब टेकन लगे उयै (१४७)
पथ हँकवारो खौं ' सारथी ' और ' सूत ' भी जात कहौ
ईसें कर्ण नाव के बालक ' सूतपुत्र ' भी गओ कहो (१४८)
माद्री और बिदुरानी
ब्याव दूसरौ पाण्डु कौ भओ तात भीष्म की मरजी सें
मदिर देस के भूप सल्य की सुंदर बैन माद्री सें (१४९)
भीष्म एक राजपुत्री सें ब्याव कराए विदुर का भी
राजा देवक की वा कन्या समुंदर हती सुभ गुनन की (१५०)
पाण्डु के पुत्र पाण्डव
पैलो पुत्र पाण्डु - कुंती को धर्मराज के बर सें भओ
सांत सुभाव और धर्मात्मा , बाकौ नाव युधिष्ठिर भओ (१५१)
पुत्र दूसरौ उनकौ बायु देवता के बर सें भओ तो
भारी डीलडौल कौ बली , बड़ी भूंक बारौ भओ तो (१५२)
ईसें नाव भीम भओ बाकौ , बौ नीचट सरीर कौ भओ
पथरा पै छोटे में गिरो तौ टूंका टूंका पथरा भओ (१५३)
भओ तीसरौ पुत्र इन्द्र देवता सें पाकें बरदान
अर्जुन नाव बड़ौ होके बौ भओ धनुषधारी बलवान (१५४)
वर अस्विनी कुमार दये , सो पाण्डु - माद्री कें हो गए
अच्छे पुत्र एक जोड़ी , वे कहे नकुल सहदेव गए (१५५)
कुंती के बे तीनउँ और माद्री के दोऊ बेटा
मिलकें जाने गये ' पाण्डव ' पाण्डु के पाँचउ बेटा (१५६)
पाण्डु पाण्डुरोगी हो कें भी अच्छे सूर-सूर निकरे
हरा परौसी कैऊ राजा राज खजानौ खूब भरे (१५७)
पाण्डु नरेस दोऊ रानियन संगै सुख सें रहन लगे
और बिदुर की सहायता सें राज काज सब करन लगे (१५८)
सासन करन लगे अच्छे सें , भये प्रजा के प्यारे भौत
प्रजा पाई सुख - चैन और खुसहाल हस्तिनापुर भओ भौत (१५९)
धृतराष्ट्र की संतान 
गांधारी से धृतराष्ट्र कें भये सौ बेटा , भइ बिटिया एक
दासी सें धृतराष्ट्र करेते पैदा अपनो बेटा एक (१६०)
ऊकौ नाम ' युयुत्सु ' भओ तो , सौ पुत्रन सें हतो अलग
गांधारी को बेटन सें नइँ पटी , रै गओ अलग - थलग (१६१)
बिटिया कौ दुस्सला नाव भओ , और जब बड़ी बा हो गई
सिंधु देस के राजा बीर जयद्रथ संगै ब्याही गई (१६२)
सौ बेटन में सबसें जेठौ नाव पाओतो दुर्योधन
जौन दिना भीम कौ जनम भओ , ओई दिना भओ दुर्योधन (१६३)
दुर्योधन के भइया सगे दुसासन , दुर्मुख हरें रहे
बे सबके सब दुर्योधन के आग्याकारी बने रहे (१६४)
कुरुबंसी भएसें ' कौरव ' पर गओ नाव इन पुत्रन कौ
' पाण्डव ' सें भओ अलग नाव गांधारी के इन पुत्रन कौ (१६५)
राजा पाण्डु कछू दिनन खौं बन में घूमने चले गए
दोऊ रानी , पाँचउ लरका अपने संगै वे लोग गए (१६६)
उनकौ मम रम गओ उतै , प्रसन्न भए सोभा सें बन की
भौत दिना वे उतइँ रुके रए , संगत पाये रिषियन की (१६७)
पाण्डु की मौत
बन में घूमत उनें दिखानो जोड़ा हिरनी - हिरना कौ
बान धनुष सें घाल सिकार करो उननें ५ हिरना कौ (१६८)
जीखौं वे समझेते हिरन , असल में हते रिषि करदम
होकें प्रगट श्राप राजा खौं देत गये रिषि मरते दम (१६९)
सो जब पाण्डु और माद्री के जोड़ी वन में रंग रई
तबइं श्राप सें रिषिके पाण्डु की तुरंत मौत हो गई (१७०)
मरे पति के संग चिता में जाकें माद्री सती भई
आकें पैले दोऊ बेटा जेठी कुंती खौं दए गई (१७१)
कुंती के ऊ लरकन खौं अपने बेटा समान मानी
कछू दुभाँती नईं करी , उन पाँचव खौं समान जानी (१७२)
कुंती बच्चन को संगै कछु रिषि हस्तिनापुर आऐ
राजा कैसें मरे , माद्री सती भई , सब कह बताऐ (१७३)
राजभवन दुख में डूबौ , भओ सोक हस्तिनापुर भर में
सिंघासन सूनौ गौ गओ , सब जन बतयाये घर घर में (१७४)
सोक राजभर में मनाओ गओ , जैसी रीति चली आई
पूरे दिन सोक के भये तौ बात सिंघासन की आई (१७५)
धृतराष्ट्र भए सम्राट
को बैठे अब ई पै , सबसें जेठौ तौ रओ युधिष्ठिर
हक ऊकौ है सोचे भीष्म , अबै ऊकी लरकाईं उमर (१७६)
जब तक होत बड़ौ वौ तबनों काम चलाऊ कोऊ होय
गद्दी धृतराष्ट्र खौं भीष्म दए , सोचे हुऐं बौइ खुस होय (१७७)
धृतराष्ट्र को पुत्र जेठौ अधिकार माँगहै गद्दी पै
जौ नइं सोचे भीष्म , बिचार कर सको तो धीवर जी पै (१७८)
एक भूल जा आगें चलकें बनी लड़ाई के कारन
घर में पड़ी दरार , लगेते भइया भइयन खौं मारन (१७९)
धृतराष्ट्र बने सम्राट सोई गांधारी भई महारानी
मान घटो कुंती कौ , अब वा नइँ रै गई राजरानी (१८०)
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