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बुधवार, 1 अप्रैल 2009

गीतिका कैलाशनाथ तिवारी, इंदौर

बात कहने की हो तभी कहिये.
वर्ना बेहतर यही कि चुप रहिये.

प्यार से जिन्दगी संवरती है.
व्यर्थ विद्वेष में नहीं दहिये.

माना अब तो नहीं जरा फुर्सत.
गाहे-बगाहे पे मिलते रहिये.

हम तो हर रोज धूप सहते हैं.
आप भी धूप याँ कभी सहिये.

गीत गायें बड़ों के हर्ज़ नहीं.
बांह गिरतों की भी कभी गहिये.

सब जगह दुप धुल शोर भरा.
रहने जाऊं कहाँ ये अब कहिये.

फूल को खिलने के लिए ऐ दोस्त!
धूप ज्यादा नहीं पे कुछ चाहिए.

जिंदगी जीने का सही यह ढंग.
उससे मत लड़िये, उसमें ही बहिये.

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