वे लोग दस दिन बिना खाना खाए घुड़सवारी करते रहते थे और अपनी शारीरिक शक्ति बनाये रखने की लिए घोड़े की कोई नस खोल कर खून की धार को अपने मुंह मे छोड़ देते। मंगोल सैनिकों की इसी शारीरिक शक्ति ने उन्हें संसार का सबसे बड़ा अर्धांश जीतने में सहायता दी। असली मंगोल लोग इसी तरह की होते थे।
निरंतर सैन्य अभियानों में व्यस्त रहने वाले मंगोल सैनिकों की एक बानगी भर पेश करता है उपरोक्त वाक्य। वेनिस के इतिहास प्रसिद्ध यात्री ''मार्कोपोलो'' के यात्रा अनुभवों पर आधारित पुस्तक का ये अंश है और किताब बहुत रोचक है। ये पुस्तक 13वी सदी में मार्कोपोलो और उसके पिता की वेनिस से पीकींग तक की यात्रा का वर्णन करती है। मार्कोपोलो की पुस्तक का मूलपाठ मौले और पेलियट का अनुवाद है। इस पुस्तक के लेखक मॉरिस कॉलिस हैं और अनुवादक उदयकांत पाठक हैं। इसे सन्मार्ग प्रकाशन दिल्ली ने प्रकाशित किया है। इस पुस्तक में पोलो की चारित्रिक विशेषताओं को बताने के लिए यद्यपि काफी जानकारी नहीं है पर कम से कम उसकी बुद्धि की झलक तो मिल ही जाती है। वह अधिक पढ़ा लिखा नहीं था और उसकी पुस्तक की शैली में कुछ भी अनोखा या कलात्मक सा नहीं है मगर जो है, वह बांधे रखता है।
मार्कोपोलो की इस यात्रा का प्रारंभ 1271 में सत्रह वर्ष की उम्र में होता है। वेनिस से शुरू हुई उसकी यात्रा में वह कुस्तुन्तुनिया से वोल्गा तट, वहां से सीरिया, फारस, कराकोरम, कराकोरम से उत्तर की ओर बुखारा से होते हुए मध्य एशिया में स्टेपी के मैदानी से गुज़रकर पीकिंग पहुंचता है, जहां उसके पिता और चाचा कुबलाई खां के दरबार में अधिकारी हैं। इस पूरी यात्रा में साढ़े तीन वर्ष लग जाते हैं और इस अवधि में वह मंगोल भाषा सीख लेता है। पीकिंग में उसकी नियुक्ति मंगोल साम्राज्य की सिविल सेवा में हो जाती है। ऊपर की रूपरेखा में वर्णित सभी प्रदेश मंगोल साम्राज्य के अंतर्गत आते थे, जिसकी स्थापना 1206 में चंगेज खां ने मंगोल कबीलों की विकराल फौज की मदद से की थी। 1260 तक मंगोलों का उस समय ज्ञात विश्व के चार बटे पांच हिस्से पर अधिकार था, जिसकी सीमा चीन से लेकर जर्मनी तक और साइबेरिया से लेकर फारस तक थी। पोलो सिल्कमार्ग से होकर पीकिंग पहुंचता है और पंद्रह वर्ष तक वहां रहते हुए खाकान की निष्ठापूर्वक सेवा करता है और फिर यूरोप लौट जाता है।
इन पंद्रह वर्षों में वह एक बड़ा अधिकारी बन जाता है। वह कुबलाई खां के प्रतिनिधि के रूप में श्रीलंका, फारस, भारत और दक्षिण पूर्वी एशिया के अन्य देशों की की यात्रा करता है और यहां रहने वाले लोगों का वर्णन करता है। वह अंडमान निकोबार के आदिवासियों के बारे में भी बताता है और बर्मा के पैगोडा और श्रीलंका के बौद्ध मंदिरों की भी प्रशंसा करता है। 1295 में पोलो फिर वेनिस पहुंचता है और एक व्यापारिक युद्ध में जिनोआ(एक राज्य, कोलम्बस भी यहीं का निवासी था) द्वारा बंदी बना लिया जाता है, ... बुखारा में पोलो परिवार... जहां क़ैद में रहते हुए उसकी मुलाकात रस्तिशेलो नाम के व्यक्ति से होती है जो उसके एशिया के अनुभवों को कलमबद्ध करता है। यह पुस्तक उस काल के यूरोपियनों के लिए समझ से बाहर की चीज़ थी और उन्होंने एशिया की ज़्यादातर बातों पर यकीन करना काफी मुश्किल पाया। पोलो के मरते समय उसके कुछ मित्रों ने उसे पुस्तक में संशोधन करने के लिए कहा, लेकिन पोलो ने इनकार करते हुए कहा कि उसने जो देखा उसका आधा भी नहीं लिखा। उसकी पुस्तक जनसाधारण द्वारा समझी नहीं गई थी और विद्वानों ने उसे पसंद नहीं किया क्योंकि वे उसे उस समय के ज्ञान से संबंधित करने में असफल रहे थे। पोलो जब मरा तब वह सत्तर वर्ष का था और काफी धनी हो चुका था।
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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रविवार, 26 अप्रैल 2009
शब्द यात्रा : मार्कोपोलो -अजित वडनेरकर
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आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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