कुल पेज दृश्य

बुधवार, 29 अप्रैल 2009

शब्द यात्रा: कछुआ - अजित वडनेरकर

सु सुस्त रफ्तार के लिए कछुआ-चाल kachhua मुहावरा प्रसिद्ध है। कछुआ एक प्रसिद्ध उभयचर है जो जल और धरती दोनो पर रह सकता है। इसका शरीर कवच से ढका होता है। अत्यंत छोटे पैरों और स्थूल आकार के चलते इसकी रफ्तार बेहद धीमी होती है। धीमी गति से काम करनेवाले व्यक्ति के लिए जहां कछुआ चाल मुहावरा उलाहने के तौर पर इस्तेमाल होता है वहीं कछुआ-खरगोश की प्रसिद्ध कथा कछुए के बारे में अलग ही संदेश देती है। यह नीतिकथा कछुए को ध्येयनिष्ठ और लगनशील साबित करती है जो अपनी धीमी गति के बावजूद खरगोश से दौड़ में जीत जाता है जबकि इस कथा में चंचल, चपल और तेज रफ्तार खरगोश को अति चातुरी और दंभ की वजह से हार का मुंह देखना पड़ा था। कछुआ जलतत्व का प्रतीक भी है। कुछ विशिष्ट बसाहटों का संबंध भी कछुए से है। कछुआ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के कच्छप से मानी जाती है। कच्छप kachhap शब्द बना है कक्ष+कः+प के मेल से जिसका मतलब होता है कक्ष में रहनेवाला। गौरतलब है कि कछुए की बाहरी सतह एक मोटी-कठोर खोल से ढकी होती है। संस्कृत कक्षः का अर्थ होता है प्रकोष्ठ, कंदरा , कुटीर का भाव है। हिन्दी में कमरे के लिए कक्ष प्रचलित शब्द है। खास बात यह कि आश्रय के संदर्भ में कक्ष में आंतरिक या भीतरी होने का भाव भी विद्यमान है। मोटे तौर पर कक्ष किसी भवन के भीतरी कमरे को ही कहा जाता है। कक्षा का जन्म हुआ है कष् धातु से जिसमें कुरेदने, घिसने, खुरचने, मसलने आदि का भाव है। किसी भी आश्रय के निर्माण की आदिम क्रिया खुरचने, कुरेदने से ही जुड़ी हुई है। कछुआ बेहद शर्मीला और सुस्त प्राणी है। प्रकृति ने इसे अपनी रक्षा के लिए एक विशाल खोल प्रदान किया है। दरअसल यह एक कक्ष की तरह ही है। आपात्काल को भांप कर कछुआ अपने शरीर को इस खोल में सिकोड़ लेता है जिससे यह हिंस्त्र जीवों से अपनी ऱक्षा कर पाता है। कछुए के अनेक रूप हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे कच्छवो, कच्छू, कछऊं, काछिम, कश्यप आदि। मराठी में इसे कासव कहते हैं। कछुआ शब्द की व्युत्पत्ति कश्यप kashyap से भी जोड़ी जाती है। पुराणों में कश्यप नाम के ऋषि भी थे जो ब्रह्मा के पुत्र मरीचि की संतान थे। एक पौराणिक प्रसंग में वे स्वयं अपने कश्यप नाम का अर्थ बताते हुए कहते हैं कि कश्य का अर्थ है शरीर। जो उसको पाले अर्थात रक्षा करे वह हुआ कश्यप। गौर करें कि अपनी मोटी खाल के भीतर कछुआ अपने शरीर की बड़ी कुशलता से रक्षा करता है अतः यहां कश्यप से व्युत्पत्ति भी तार्किक है। उत्तर भारत में सोनकच्छ sonkachh नाम के एकाधिक कस्बे मिलेंगें। यह ठीक वैसा ही है जेसे राजगढ़ या उज्जयिनी नाम की एक से अधिक आबादियां होना। कछुआ जल संस्कृति से जुड़ा हुआ है। गौर करें भारतीय संस्कृति में जल को ही जीवन कहा गया है। जल से जुड़े समस्त प्रतीक भी मांगलिक और कछुआ अपने शरीर की रक्षा मोटी खाल में कुशलता से करता है… समृद्धि के द्योतक हैं। चाहे जिनमें मत्स्य, मीन, शंकु, अमृतमंथन में निकल चौदह रत्नों समेत कछुआ भी शामिल है। प्राचीनकाल मे कई तरह के प्रयासों और संस्कारों की सहभागिता से जलसंकट से मुक्ति पायी जाती थी। जल का प्रतीक होने के चलते कश्छप को अत्यंत पवित्र माना जाता रहा है। जिस स्थान को कुआं या तालाब का निर्माण होना होता था, सर्वप्रथम उस स्थान की भूमि पूजा कर खुदाई आरंभ की जाती थी। जब जलाशय या कुएं का निर्माण परा हो जाता तब इस कामना के साथ उसकी तलहटी में स्वर्ण-कच्छप अर्थात कछुए की सोने से बनी आकृति स्थापित कर दी जाती थी। अगर उ जल की भरपूर उपलब्धता बनी रहती तो उस स्थान के साथ स्वर्ण कच्छप का नाम जुड़ जाता। इस उल्लेख की आवृत्ति इतनी ज्यादा होती कि कई बार उस स्थान का नाम ही सोनकच्छ हो जाता। भोपाल से इंदौर और भोपाल से जयपुर जाने के रास्ते में क्रमशः सौ किमी और सोलह किमी की दूरी पर इसी नाम के दो कस्बे हैं। कछुए के लिए संस्कृत में एक और शब्द है कूर्मः । समुद्रमंथन के प्रसिद्ध प्रसंग में जब मंदार पर्वत को देव-दानवों ने मथानी बनाया तब भगवान विष्णु ने कछुए का रूप धारण कर उसे आधार प्रदान किया था जिसे कूर्मावतार भी कहा जाता है। उत्तर भारत का एक स्थान प्राचीनकाल में कूर्मांचल कहलाता था जो आज उत्तराखंड प्रांत में है और कुमाऊं नाम से प्रसिद्ध है। बताया जाता है कि यहां कूर्म पर्वत है। पौराणिक कथा के अनुसार इस पर्वत पर प्रभु विष्णु ने कूर्मावतार में तपस्या की थी इसीलिए इसका नाम कूर्मपर्वत पड़ा और यह क्षेत्र कूर्मांचल कहलाया। यहां के निवासियों की आजीविका के लिए अथक श्रमजीवी-वृत्ति अर्थात कमाऊं से ध्वनिसाम्य करते हुए भी कई लोग कुमाऊं की व्युत्पत्ति मानते हैं। मगर इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया जा सकता।

कोई टिप्पणी नहीं: