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सोमवार, 26 जून 2023

नवीन सी. चतुर्वेदी, हिंदी गजल, धानी चुनर

कृति चर्चा
'धानी चुनर' : हिंदी गजल का लाजवाब हुनर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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(कृति विवरण- धानी चुनर, हिंदी ग़ज़ल संग्रह, नवीन सी. चतुर्वेदी, प्रथम संस्करण 2022, पृष्ठ 95, मूल्य ₹150, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, प्रकाशक आर. के. पब्लिकेशन मुंबई)
                      हिंदी में ग़ज़ल मूलतः फारसी से आयातित साहित्यिक सृजन विधा है जिसे हिंदी ने आत्मार्पित किया है। ग़ज़ल का शिल्प और विधान दोनों फारसी से आते हैं। हर भाषा की अपने कुछ खासियतें होती हैं। फारसी से आने के कारण ग़ज़ल में भी फारसी की विशेषताएँ अंतर्निहित हैं। जब एक भाषा की साहित्यिक विधा को दूसरी भाषा स्वीकार करती है तो स्वाभाविक रूप से उसमें अपनी प्रवृत्ति, संस्कार, व्याकरण और पिंगल को आरोपित करती है। हिंदी ग़ज़ल भी इसी प्रक्रिया से गुजर रही है। भारत के पश्चिमोत्तर प्रांतों की भाषाओं और फारसी के मिश्रण से जो जुबान सैनिक छावनियों में विकसित हुई वह 'लश्करी' कही गई। आम लोगों से बातचीत के लिए यह जुबान देशज शब्द-संपदा ग्रहण कर रोजमर्रा के काम-काज की भाषा 'उर्दू' हो गई। ग़ज़ल को हिंदी में कबीर और खुसरो आम लोगों तक पहुँचाया। हिंदी में ग़ज़ल ने कई मुकाम हासिल किए। इस दौरान उसे गीतिका, मुक्तिका, तेवरी, सजल, पूर्णिका, अनुगीत इत्यादि नाम दिए गए और आगे भी कई नाम दिए जाएंगे। इसका मूल कारण यह है कि गजल हर रचनाकार को अपनी सी लगती है और इस अपनेपन को वह एक नया नाम देकर जाहिर करता है पर ग़ज़ल तो ग़ज़ल थी, है और रहेगी। 

हिंदी ग़ज़ल को 'तंग गली' कहनेवाले मिर्जा गालिब और 'कोल्हू का बैल' कहकर नापसंद करनेवाले कहनेवाले शायरों को भी ग़ज़ल कहनी पड़ी और वक्त ने उन्हें ग़ज़लकार के रूप में ही याद रखा। कहते हैं 'मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना'। हिंदी ग़ज़ल को मैंने इस रूप में समझा है -

ब्रह्म से ब्रह्मांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल
आत्म की परमात्म से फरियाद है हिंदी ग़ज़ल
मत 'गजाला चश्म' कहना, यह 'कसीदा' भी नहीं
छंद गण लय रसों की औलाद है हिंदी ग़ज़ल

बकौल नवीन चतुर्वेदी- 

ओढ़कर धानी चुनर हिंदी ग़ज़ल
बढ़ रही सन्मार्ग पर हिंदी ग़ज़ल
विश्व कविता ने चुना जिस पंथ को
है उसी पर अग्रसर हिंदी ग़ज़ल
भीड़ ने जिस पंथ को रस्ता कहा
लिख रही उसको डगर हिंदी ग़ज़ल
हत हुई गरिमा तो मन आहत हुआ
उठ खड़ी होकर मुखर हिंदी ग़ज़ल
देव भाषा की सलोनी संगिनी 
मूल स्वर में है प्रबल हिंदी ग़ज़ल

19 मात्रिक महापौराणिक जातीय छंद में दी गई ग़ज़ल की यह परिभाषा वास्तव में सटीक है।  'धानी चुनर' की ग़ज़लों की भाषा संस्कृत निष्ठ हिंदी है जबकि ग़ज़ल की कहन फारसी की बह्रों पर आधारित है। मैंने ऐसे कई हिंदी ग़ज़ल संकलन देखे हैं जिनमें इसके सर्वथा विपरीत फारसी शब्द बाहुल्य की रचनाएँ हिंदी छंदों में मिली हैं। मुझे हिंदी ग़ज़ल के इन दो रूपों में अंतर्विरोध नहीं दिखता अपितु वह एक दूसरे की पूरक प्रतीत होती हैं

नवीन जी की गजलों की खासियत गज़लियत और शेरियत से युक्त होना है। आमतौर पर गजल के नाम पर या तो अत्यधिक वैचारिक रचनाएं प्राप्त होती हैं अथवा केवल तुकबंदी। संतोष है कि नवीन जी की ये गजलें दोनों दोषों से मुक्त अपनी ही तरह की हैं जिनकी समानता किसी अन्य से स्थापित कर पाना सहज नहीं। इन ग़ज़लों की हर द्विपदी (शेर) सार्थक है। ये ग़ज़लें शब्दों को उसके शब्दकोशीय अर्थ से परे नवीन अर्थ में स्थापित करती हैं।  
  
नवीन जी की एक ग़ज़ल जो महापुराणजातीय दिंडी छंद में लिखी गई है उस का आनंद लें-
 
नदी के पार उतरना है गुरुजी 
हमें यह काम करना है गुरु जी 
विनय पथ का वरण करके हृदय का 
सकल संताप हरना है गुरुजी 
घुमाएँ आप अपनी चाक फिर से 
हमें बनना-सँवरना है गुरुजी

इस कंप्यूटर काल में 'चाक' की चर्चा कर नवीन जी उस समय की सार्थकता बताना चाहते हैं जहाँ ऑनलाइन कक्षाएँ नहीं होती थीं,  गुरु और शिष्य साथ में बैठकर शिक्षा देते और लेते थे। 

एक और गजल देखें यह गजल विभिन्न पंक्तियों में अलग-अलग पदभार समाहित करती है और इसकी अलग-अलग पंक्तियों में अलग-अलग छंद हैं। 

हृदय को सर्वप्रथम निर्विकार करना था 
तदोपरांत विषय पर विचार करना था 
कदापि ध्यान में थी ही नहीं दशा उसकी 
नदी में हमको तो बस जलविहार करना था

वर्तमान राजनीति में जनहित की ओर कोई ध्यान न होने और नेताओं के द्वारा जनसेवा का पाखंड करने को नवीन ने जलविहार के माध्यम से बहुत अच्छी तरह व्यक्त किया है। 

यौगिक जातीय विधाता छंद में रची गई एक और रचना देखें जिसमें सामाजिक पाखंड को उद्घाटित किया गया है- 

व्यर्थ साधो बन रहे हो कामना तो कर चुके हो 
उर्वशी से प्रेम की तुम याचना तो कर चुके हो 
पंच तत्वों से विनिर्मित जग नियम ही से चलेगा 
वर्जना के हेतु समझो गर्जना तो कर चुके हो

यहां नवीन जी सामाजिक संदर्भ में 'वर्जना' के द्वारा मानवीय आचरण के प्रति चेतावनी देते हैं।  यह ग़ज़ल 'मुस्तफउलन' की चार आवृत्तियों या 'फ़ाइलातुन' की चार आवृत्तियों के माध्यम से रची जा सकती है। इससे  प्रमाणित होता है कि उर्दू की बहरें, मूलत: भारतीय छंदों से ही नि:सृत हैं। 

प्रेम और करुणा को एक साथ मिलाते हुए नवीन जी महाभागवत जातीय छंद में कहते हैं-
 
मीरा और गिरधर जैसी गरिमा से छूना था 
प्रीत अगर सच्ची थी तो करुणा से छूना था 
जैसे नटनागर ने स्पर्श किया राधा का मन 
उसका अंतस वैसी ही शुचिता से छूना था

नवीन जी  महाभागवत जाति के विष्णुपद छंद का प्रयोग करते हुए इस ग़ज़ल में पर्यावरण और राजनीति के प्रति अपनी चिंता व्यक्त करते हैं- 

जब जब जंगल के मंगल पर कंटक आते हैं 
विश्वामित्र व्यवस्थाओं पर प्रश्न उठाते हैं 
सहसभुजी जब-जब जनधन हरकर ले जाते हैं 
भृगुवंशी जैसे योद्धा कर्तव्य निभाते हैं 
जब-जब सत्ता धृतराष्ट्रों की दासी बनती है 
तब तब शरशैया पर भीष्म लिटाए जाते हैं 

इस ग़ज़ल में 'सहसभुजी' शब्द का प्रयोग, देशज शब्दों के प्रति नवीन जी के लगाव को जाहिर करता है जबकि विश्वामित्र, भगवान, श्री जगदीश दुष्यंत, शकुंतला, चरक इत्यादि पौराणिक पात्रों के माध्यम से नवीन इस युग की समस्याओं को उठाते हैं। 

महापुराण जातीय सुमेरु छंद में नवीन की यह ग़ज़ल मानवीय संवेदना और संभावनाओं को उद्घाटित कर दोनों का अंतरसंबंध बताती है- 

जहां संवेदना संभव नहीं है 
वहां संभावना संभव नहीं है 
जड़ों को त्यागना संभव नहीं है 
नियति की वर्जना संभव नहीं है 
स्वयं जगदीश की हो या मनुज  की 
सतत आराधना संभव नहीं है 

महा पौराणिक जाति का दिंडी छंद नवीन का प्रिय छंद है। इसी छंद में वे व्यंजना में अपनी बात करते हैं- 

इस कला में हम परम विश्वस्त हैं 
काम तो कुछ भी नहीं पर व्यस्त हैं 
मित्र यह उपलब्धि साधारण नहीं 
त्रस्त होकर भी अहर्निश मस्त हैं 
आप सिंहासन सुशोभित कीजिए 
हम पराजय के लिए आश्वस्त हैं 

यहाँ नवीन जी राजनीतिक वातावरण को जिस तरह संकेतित करते हैं, वह दुष्यंत कुमार की याद दिलाता है। 

महाभागवत जातीय गीतिका छंद में नवीन जी मानवीय प्रयासों की महिमा स्थापित करते हैं-

कर्मवीरों के प्रयासों को डिगा सकते नहीं 
शब्द संधानी पहाड़ों को हिला सकते नहीं 
अस्मिता का अर्थ बस उपलब्धि हो जिनके लिए 
इस तरह के झुंड निज गौरव बचा सकते नहीं

नवीन जी की ग़ज़लों में भाषिक प्रवाह, भाव बौली तथा रस वैविध्य उल्लेखनीय है-

प्रश्न करना किसी विषय के मंथन का सबसे अच्छा तरीका है। यौगिक जातीय सार छंद में रचित इस रचना में नवीन प्रश्नों के माध्यम से ही अपनी बात कहते हैं-

मान्यवर का प्रश्न है दिन रात का आधार क्या है 
और ये दिन-रात हैं इस बात का आधार क्या है 
एक और अद्भुत अनोखा प्रश्न है श्रीमान जी का 
ज्ञात का आधार क्या अज्ञात का आधार क्या है 
एक हैं जयचंद वे भी  पूछते हैं प्रश्न अद्भुत 
हमको यह बताओ भितरघात का आधार क्या है

नवीन चतुर्वेदी की हर ग़ज़ल पाठक को ना केवल बाँधती है अपितु चिंताऔर चिंतन की ओर प्रवृत्त करती है। हिंदी ग़ज़ल को सिर्फ मनोरंजन की दृष्टि से नहीं देखा जा सकता।  एक और ग़ज़ल में नवीन यौगिक जातीय विद्या छंद में अपनी बात कहते हैं- 

तुच्छ बरसाती नदी गंगा नदी जैसी लगी है 
मोह में तो बेसुरी भी बाँसुरी जैसी लगे है
जामुनी हो या गुलाबी गौर हो या श्याम वर्णा  
यामिनी में कामिनी सौदामिनी जैसी लगी है

'यामिनी', 'कामिनी', 'सौदामिनी' जैसे शब्दों का चयन नवीन जी का शब्द-सामर्थ्य  बताता है और पाठक को अनुप्रास अलंकार का रसानंद  करा देता है।  नवीन शब्दों के जादूगर हैं, वह शब्दों के माध्यम से वह सब कह पाते हैं जो कहना चाहते हैं।  बहुधा शब्द की शब्दकोशीय मर्यादा को बौना करते हुए नवीन अधिक गहरा अर्थ अपनी गजलों के माध्यम से देते हैं। योगेश जातीय विद्या छंद में ही उनकी एक और ग़ज़ल देखें- 
आकलन की बात थी सो मौन रहना ही उचित था 
अध्ययन की बात थी सो मौन रहना ही उचित था 
तीन डग में विष्णु ने तीनों भवन को नाप डाला 
आयतन की बात थी सो मौन रहना ही उचित था

नवीन जी अनुचित कार्योंको देखते हुए भी अनदेखा करने की आम जन की रीति-नीति और सत्ता व्यवस्था को व्यंजना के माध्यम से अभिव्यक्त करते है। यह व्यंजना मन को छू जाती है। कहते हैं राजनीति किसी की सगी नहीं होती। नवीन की गजलों में राजनीति पर कई जगह केवल कटाक्ष नहीं किए गए हैं अपितु राजनीति का सत्य सामने लाया गया है। एक उदाहरण  देखें-  

आधुनिक संग्राम के कुछ उद्धरण ऐसे भी हैं 
शांति समझौते किए ग्रह युद्ध करवाया गया 
पहले तो जमकर हुआ उनका अनादर और फिर 
जो कहा करते थे सबसे बुद्ध करवाया गया

इसी ग़ज़ल के अंतिम शेर में नवीन जी 'दुर्गा' शब्द का उपयोग कर अपनी बात अनूठे ढंग से कहते हैं-

दुर्गा भवानी यूं ही थोड़ी ही बनी 
सीधी-सादी नारियों से युद्ध करवाया गया

स्पष्ट है दृश्य जैसा दिखता है वैसा होता नहीं, वैसा दिखाने के लिए चतुरों द्वारा अनेक जतन किए जाते हैं और नवीन अपनी गजलों के माध्यम से इन्हीं चतुरों की चतुराई को बिना बख्शे उस पर शब्दाघाट करते हैं। इस संक्रांतिकाल में जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर 'आस्था पर चोट' की आड़ में हमले किए जा रहे हैं, अनुभूत सत्य की बेलाग अभिव्यक्ति के लिए साहस आवश्यक है। नवीन जी अभिनंदनीय हैं कि वे खतरा उठाकर भी युग सत्य सामने ला रहे हैं।   

बहुधा हम अपने आप को उन सब गुणों का भंडार मान लेते हैं जो हम में होते नहीं हैं। इस भ्रम का उद्घाटन करते हुए नवीन जी कहते हैं -

गंध से सुरभित सकल उद्यान हैं 
पुष्प को लगता है वह गुणवान है 
जब स्वयं जगदीश को भी है नहीं 
आपको किस बात का अभिमान है 

इसी गजल के अंतिम शेर में नवीन कहते हैं- 

रूद्र बनना है तो बन पर भूल मत 
शंभु के प्रारब्ध में विषपान है

स्पष्ट ही ग़ज़लकार बताना चाहता है कि जो लोग बहुत सुखी दिखते हैं वास्तव में होते नहीं। नवीन जी की यह गजलें पंक्ति पंक्ति में योजनाओं को विडंबनाओं को उद्घाटित करती हैं, विसंगतियों पर कटाक्ष करती हैं- 

मूर्तियों के अंग अंग ही न मात्र भग्न थे 
मूर्तियों को भग्न करनेवाले भी कृतघ्न थे 
उनकी रक्त धमनियों में राक्षसी प्रमाद था
क्या बताएँ उनके संस्कार ही प्रभग्न थे 

इस संकलन का शीर्षक 'धानी चुनर' बहुत कुछ कहता है।  चुनर लाज को ढकती है, चुनर की ओट में अनेक सपने पलते हैं और जब यह चुनर अपनों के द्वारा तार-तार की जाती है तब कोई द्रौपदी किसी कृष्ण का आह्वान करने को विवश होती है। गज़लकार कहता है- 

मान्यवरों! जनता के हित को ताक पर रखना अनुचित है 
भोले भाले जन-जीवों को मूर्ख समझना अनुचित है 
भरी सभा के मध्य निहत्थे कृष्ण यही दोहराते हैं 
प्रजा दुखी हो तो गद्दी से चिपके रहना अनुचित है

वर्तमान परिवेश में आकाश छूती मँहगाईऔर आम आदमी के खाली जेबों  के परिप्रेक्ष्य में सत्तासीनों के लिए यह शेर वास्तव में चिंतनीय होना चाहिए- 

यदा-कदा यदि विलासिता पर कर का भार बड़े तो ठीक 
खाद्य पदार्थों के भागों का अनहद बढ़ना अनुचित है 

यहाँ 'अनहद' शब्द का प्रयोग नवीन की भाषिक दक्षता का प्रमाण है। सामान्य तौर पर 'अनहद' (नाद) के द्वारा हम आध्यात्मिक संदर्भ में बात करते हैं लेकिन उस 'अनहद' शब्द को यहाँ मँहगाई के संदर्भ में उपयोग करना वास्तव में एक मौलिक प्रयोग हो जो मैंने इसके पहले कभी कहीं नहीं पढ़ा है।  

नवीन की 'धानी चुनर' का हर पृष्ठ नवीन भावनाओं को उद्घाटित करता है ,नवीन विसंगतियां सामने लाता है और बिना कहे ही नवीन समाधान का संकेत करता है- 

भव्य भावनाओं को व्यक्त सब करते नहीं 
निज उपासनाओं को व्यक्त सब करते नहीं 
सब को ठेस लगती है सब को कष्ट होता है 
किंतु यातनाओं को व्यक्त सब करते नहीं
सबके पास कौशल है, सब के पास दलबल है 
किंतु योजनाओं को व्यक्त सब करते नहीं 

ख़ास ही नहीं आमजन से भी नवीन का शायर आंख में आंख मिलाकर बात करता है- 

दिग्भ्रमित जग से उलझ कर क्या मिला है क्या मिलेगा 
आत्म चिंतन कीजिए श्रीमान श्रेयस्कर यही है 

यह आत्म चिंतन करने की इस युग में सबसे अधिक आवश्यकता हम सभी को है और नवीन इस बात को बेधड़क कहते हैं, ताल ठोंकर कहते हैं।  

छांदस ग़ज़ल की संरचना में प्रवीण नवीन जी ने छोटी मापनी की एक ग़ज़ल में गागर में सागर भर दिया है-

ज्योति की उन्नायिका ने 
हर लिया तुम वर्तिका ने 
पृष्ठ तो पूरा धवल था 
रंग उकेरे तूलिका ने 
चक्षु मन के खुल गए हैं 
भेद खोले पुस्तिका ने  
संतुलन को भूलना मत 
कह दिया है चर्चिका ने 

यहाँ 'चर्चिका' शब्द का प्रयोग नवीन के शब्द भंडार को इंगित करता है। चर्चिका का अर्थ है शिव की तीसरी आंख और यह शब्द अलप प्रचलित है जिसे नवीन जी ने बहुत अच्छी तरह उपयोग किया है। इसी तरह एक और शब्द है जिसका प्रयोग बहुत कम होता है और वह है 'बिपाशा' जिसका अर्थ होता है नदी। नवीन जी ने इस शब्द का भी प्रयोग सार्थक तरीके से किया है- भोर का सुख लगे हैं बिपाशा सदृश।  

'धानी चुनर' का धानीपन उसकी रसीली एवं रचनात्मक हिंदी गजलों में है। ये ग़ज़लें वास्तव में हिंदी ग़ज़ल के पाठकों को रस आनंद से भावविभोर करने में समर्थ हैं। यह विस्मय की बात है कि 2022 में प्रकाशित इस संकलन की चर्चा लगभग नहीं हुई है।  मैं हिंदी ग़ज़ल के हर कद्रदान से यह कहना चाहूंगा कि वह 'धानी चुनर' की एक प्रति खरीद कर जरूर पढ़े। उसे इस दीवान में एक संभावना पूर्ण ग़ज़लकार ही नहीं मिलेगा, गजल के उद्यान में खिले हुए विभिन्न रंगों के सुमन ओ की मनोहारी सुगंध भी मिलेगी जो उसके मन प्राण को रस आनंद के माध्यम से परमानंद तक ले जाने में समर्थ है।  
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संपर्क- आचार्य ' सलिल', सभापति विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, वॉट्सऐप ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com 

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