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सोमवार, 12 जून 2023

जंबू द्वीप

शोधालेख
जंबू द्वीप
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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पुराणों में चार महाद्वीप जंबुद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप और कुशद्वीप वर्णित हैं। जंबुद्वीप में चार युग (कल्प) सत, द्वापर, त्रेता, कलियुग होते हैं और यह स्वर्ग, मर्त्य और पाताल तीनों लोकों से घिरा होता है। यह भारतीय संस्कृति और धार्मिक विश्वास का महत्वपूर्ण हिस्सा है। प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में प्रायः बृहत्तर भारत की धरती को जम्बूद्वीप नाम से अभिहित किया गया है। पृथ्वी के मध्य में स्थित जम्बूद्वीप का अधिकांश भाग वर्तमान एशिया माना जाता है। प्राचीन भारतीय ब्रह्माण्डशास्त्र में 'द्वीप' का अर्थ वर्तमान समय के द्वीप या महाद्वीप (continent) जैसा है। जंबुद्वीप पुराणानुसार सात द्वीपों में से एक द्वीप है। पुराण का मत है कि यह गोल (गेंदाकार) है और सब ओर से खारे समुद्र से घिरा है । यह एक लाख योजन विस्तीर्ण है। इसके नौ नौ हजार योजन विस्तीर्ण नौ खंड (वर्ष) हैं। इलावृत खंड इन खंडों के बीच में है जिसके उत्तर में तीन खंड रम्यक, हिरण्यमय, और कुरुवर्ष हैं। इलावृत-रम्यक के बीच नील पर्वत, इलावृत-हिरण्यमय के बीच श्वेत पर्वत और इलावृत-कुरुवर्ष के बीच श्रृंगवान् पर्वत है। इलावृत के दक्षिण में हरिवर्ष, किंपुरुष और भारतवर्ष है। इलावृत-हरिवर्ष के बीच निषध, इलावृत-किंपुरुष के बीच हेमकूट तथा इलावृत-भारतवर्ष के बीच हिमालय है। इलावृत के पूर्व में मद्राश्व और पश्चिम में केतुमाल वर्ष है। गंधमादन और माल्य नाम के दो पर्वत क्रमशः इलावृत खंड़ के पूर्व और पश्चिम सीमारूप हैं । पुराणों का कथन है कि इस द्वीप का नाम जंबुद्वीप इसलिये पड़ा है कि इसमें एक बहुत बड़ा जंबु का पेड़ है जिसमें हाथी के इतने बड़े फल लगते हैं। इस जम्बू वृक्ष के रसीले फल जिस नदी में गिरते हैं वह मधुवाहिनी जम्बूनदी कहलाती है। यहीं से जाम्बूनद नामक स्वर्ण उत्पन्न होता है। इस जल और फल के सेवन से रोग-शोक तथा वृद्धावस्था आदि का प्रभाव नहीं होता। भद्राश्च वर्ष में धर्मराज के पुत्र भद्रश्रवा के राज्य में भगवान हयग्रीव की, दैत्यकुलभूषण भक्त प्रह्लाद के राज्य हरि वर्ष में भगवान नृसिंह की, केतुमालवर्ष वर्ष में लक्ष्मी जी संवत्सर नाम के प्रजापति के पुत्र तथा कन्याओं के साथ भगवान कामदेव की, रम्यकवर्ष में अधिपति मनु जी भगवान मत्स्य की, हिरण्यमयवर्ष के अधिपति अर्यमा भगवान कच्छप की, उत्तरकुरुवर्ष में भगवान वाराह की तथा किम्पुरुषवर्ष के स्वामी श्री हनुमान जी भगवान श्रीरामचन्द्र जी की पूजा करते हैं।

कालान्तर में महाराज सगर के पुत्रों के पृथ्वी को खोदने से जम्बूद्वीप में आठ द्वीप बन गए- स्वर्णप्रस्थ, चन्द्रशुक्ल, आवर्तन, रमणक (रमन्त्रा), मनद (मंदर), हरिण, पाञ्चजन्य तथा सिंहल । जम्बूद्वीप की भौगोलिक रचना हस्तिनापुर ( उ०प्र०) में निर्मित है । 250 फुट के विस्तृत क्षेत्र में इसका निर्माण हुआ है ।

भारतीय परम्परा में ७ अंक का बहुत महत्व है, सूर्य की सप्त-रश्मियाँ, सात अश्व आदि को आधार मानकर पृथ्वी पर भी सात समुद्रों के बीच में स्थित सात मुख्य द्वीपों की परिकल्पना की गई है।

जम्बू-प्लक्षह्वयौ द्वीपौ शाल्मलिशचापरो द्विज ।
कुशः क्रौञ्चस्तथा शाकः पुष्करश्चैव सप्तमः ।। ५ ।।

एते द्वीपाः समुद्रस्तु सप्त सप्तभिरावृताः ।
लवणेक्षु-सुरा-सर्पिर्दधि-दुग्ध-जलैःसमम् ।। ६ ।।

जम्बूद्रीपः समस्तानाम् एतेषां मध्यसंस्थितः ।
तस्यापि मैरुर्म्मैत्रेय ! मध्ये कनकपर्व्वतः ।। ७ ।। 
-  विष्णुपुराणम्/द्वितीयांशः/अध्यायः २


यह सात द्वीप हैं :जम्बुद्वीप (लवण — खारे समुद्र में स्थित), प्लक्षद्वीप (इक्षु — मीठे  समुद्र में स्थित), शाल्मलिद्वीप (सुरा समुद्र में स्थित), कुशद्वीप (सर्पिस् — घी  समुद्र में स्थित), क्रौञ्चद्वीप (दधि समुद्र में स्थित), शाकद्वीप (दुग्ध  समुद्र में स्थित), पुष्करद्वीप (जल  के समुद्र में स्थित)। इन द्वीपों में मध्य के द्वीप को जम्बुद्वीप अथवा जम्बूद्वीप कहा गया है जिसके बीच सोने का मेरु पर्वत स्थित है।

इन द्वीपों का पृथ्वी के भूगोल से संबंध है।  पुराणों में की गई काव्यात्मक अभिव्यक्ति मानव तथा प्रकृति के साथ साम्याधारित है। इसे शब्दकोषीय अर्थ में न लेकर भावार्थ या निहितार्थ की दृष्टि से समझने पर भौगोलिक साम्य देखा जा सकता है। तदनुसार उस काल तक ज्ञात तथ्यों को ७ अंक के आधार पर उनका वर्णन-विभाजन किया गया है। भारत जम्बुद्वीप पर स्थित है, इसका विवरण कुछ अधिक सुस्पष्ट है। यहाँ भी पुराणों में काव्यात्मक अतिशयोक्ति अधिक है। पुराणों में इन्हें द्वीप कहा गया है किन्तु भूगोल की वर्तमान परिभाषा के परिप्रेक्ष्य में यह सभी महाद्वीप कहलाएँगे। जम्बुद्वीप आधुनिक भूगोल के अनुसार एशिया महाद्वीप है।

जम्बुद्वीप का पुराणों में वर्णित विवरण लगभग एक समान है। अतः इस उत्तर में श्रीमद्भागवत महापुराण के पञ्चम स्कन्ध के षोडश अध्याय "भुवनकोशवर्णनं" के अनुसार विश्लेषण दिया जा रहा है

राजोवाच
उक्तस्त्वया भूमण्डलायामविशेषो यावदादित्यस्तपति यत्र चासौ ज्योतिषां गणैश्चन्द्रमा वा सह दृश्यते १
तत्रापि प्रियव्रतरथचरणपरिखातैः सप्तभिः सप्त सिन्धव उपकॢप्ता यत एतस्याः सप्तद्वीपविशेषविकल्पस्त्वया भगवन्खलु सूचित एतदेवाखिलमहं मानतो लक्षणतश्च सर्वं विजिज्ञासामि २
भगवतो गुणमये स्थूलरूप आवेशितं मनो ह्यगुणेऽपि सूक्ष्मतम आत्मज्योतिषि परे ब्रह्मणि भगवति वासुदेवाख्ये क्षममावेशितुं तदु हैतद्गुरोऽर्हस्यनुवर्णयितुमिति ३

उक्त सात द्वीपों और समुद्रों के लक्षण क्या हैं?

ऋषिरुवाच
न वै महाराज भगवतो मायागुणविभूतेः काष्ठां मनसा वचसा वाधिगन्तुमलं विबुधायुषापि पुरुषस्तस्मात्प्राधान्येनैव भूगोलक-विशेषं नामरूपमानलक्षणतो व्याख्यास्यामः ४
यो वायं द्वीपः कुवलयकमलकोशाभ्यन्तरकोशो नियुतयोजनविशालः समवर्तुलो यथा पुष्करपत्रम् ५
यस्मिन्नव वर्षाणि नवयोजनसहस्रायामान्यष्टभिर्मर्यादागिरिभिः सुविभक्तानि भवन्ति ६

सभी ओर से समान वक्रता वाले कमल के आकार वाला यह द्वीप एक नियुत (दस लाख) योजन के विस्तार वाला है। नियुत की परिभाषा इस लेख के अंत में विशेष टिप्पणी में दी गई है। इसमें स्थित आठ पर्वत इस द्वीप को नौ वर्षों (वृहद भूभागों अथवा देशों) में विभाजित करते हैं, जो कि कमल की नौ पंखुड़ियों के समान हैं। इन वर्षों को जम्बुद्वीप के प्रायद्वीपों की सञ्ज्ञा दी गई है।

योजन की उचित लम्बाई का अनुमान करना कठिन है। विभिन्न ग्रंथों के अनुसार यह ६.५ से १३ किलोमीटर के मध्य की दूरी हो सकती है। यूरेशियाई भूखण्ड जिसे हम जम्बुद्वीप मानते हैं लगभग पाँच करोड़ सैंतालीस लाख वर्ग-किलोमीटर विस्तृत है। जोकि १ योजन की लगभग ७.४१ किलोमीटर लम्बाई के अनुसार गणना करने पर सटीक अनुमान है। किन्तु ध्यान रखिये कि पुराण आध्यात्मिक ग्रंथ हैं तथा उनकी गणनाओं में त्रुटि हो सकती है।

एषां मध्ये इलावृतं नामाभ्यन्तरवर्षं यस्य नाभ्यामवस्थितः सर्वतः सौवर्णः कुलगिरिराजो मेरुर्द्वीपायामसमुन्नाहः कर्णिकाभूतः कुवलयकमलस्य मूर्धनि द्वात्रिंशत्सहस्रयोजनविततो मूले षोडशसहस्रं तावतान्तर्भूम्यां प्रविष्टः ७

इसके बीच में इलावृत नाम का प्रदेश है, जो सभी का केन्द्र है, जिस पर सोने का मेरु गिरि स्थित है, जिसके शिखर पर बत्तीस हजार योजन की सपाटभूमि है। यह स्थान पामीर पर्वत तथा उसके पठार का विवरण है। जिसका आकार तब वैसा रहा होगा, अब के आकार के साथ  तुलना करने पर यह अतिशयोक्तिपूर्ण प्रतीत होता है।

उत्तरोत्तरेणेलावृतं नीलः श्वेतः शृङ्गवानिति त्रयो रम्यकहिरण्मय-कुरूणां वर्षाणां मर्यादागिरयः प्रागायता उभयतः क्षारोदावधयो द्विसहस्रपृथव एकैकशः पूर्वस्मात्पूर्वस्मादुत्तर उत्तरो दशांशाधिकांशेन दैर्घ्य एव ह्रसन्ति ८

इलाव्रत के उत्तर में नीलगिरि, श्वेतगिरि तथा शृङ्गवान नाम के पर्वत हैं तथा इन पर्वतों के मध्य रम्यक, हिरण्यमय तथा कुरु देश हैं।

एवं दक्षिणेनेलावृतं निषधो हेमकूटो हिमालय इति प्रागायता यथा नीलादयोऽयुतयोजनोत्सेधा हरिवर्षकिम्पुरुषभारतानां यथासङ्ख्यम्९

इलाव्रत के दक्षिण में निषाद, हेमकूट और हिमालय पर्वत हैं, तथा हरिवर्ष, किंपुरुष तथा भारतवर्ष देश हैं।

तथैवेलावृतमपरेण पूर्वेण च माल्यवद्गन्धमादनावानीलनिषधायतौ द्विसहस्रं पप्रथतुः केतुमालभद्राश्वयोः सीमानं विदधाते १०
मन्दरो मेरुमन्दरः सुपार्श्वः कुमुद इत्ययुतयोजनविस्तारोन्नाहा मेरोश्चतुर्दिशमवष्टम्भगिरय उपकॢप्ताः ११

माल्यवान पर्वत इलावृत्त के पश्चिम में और गंधमादन पर्वत हैं। जिनमें दो हजार योजन के विस्तार वाले केतुमाल और भद्राश्व नाम के देश नील और निषाद पर्वतों की सीमा में हैं। महामेरु की तलहटी में मन्दर, मेरु, सुपार्श्वक कुमुद आदि अनेक पर्वत हैं।

चतुर्ष्वेतेषु चूतजम्बूकदम्बन्यग्रोधाश्चत्वारः पादपप्रवराः पर्वतकेतव इवाधिसहस्रयोजनोन्नाहास्तावद्विटपविततयः शतयोजनपरिणाहाः १२
ह्रदाश्चत्वारः पयोमध्विक्षुरसमृष्टजला यदुपस्पर्शिन उपदेवगणा योगैश्वर्याणि स्वाभाविकानि भरतर्षभ धारयन्ति १३

इन पर्वतों पर आम्र (चूत), जामुन (जम्बू), कदम्ब, बरगद (न्यग्रोध) जैसे वृक्ष बहुतायत से लगते हैं। इन पर्वतों के शिखरों पर चार झीलें हैं जिनमें दूध, मधु (शहद), इक्षु (गन्ने का रस) तथा मृदुल जल है। देवता इन झीलों के जल को छूकर समृद्ध होते हैं। 

इस वर्णन से दो अर्थ निकलते हैं प्रथम यह कि रचनाकारों ने अपने देश का वानस्पतिक वैभव वहाँ होने की कल्पना की तथा दूसरा यह की तब वास्तव में वहाँ ऐसा परिडरूही था जो पर्यावरण और मौसम बदलने के कारण वर्तमान रूप में आ गया। अब मध्य एशिया में ऐसे वृक्ष नहीं मिलते हैं।

देवोद्यानानि च भवन्ति चत्वारि नन्दनं चैत्ररथं वैभ्राजकं सर्वतोभद्र मिति १४
येष्वमरपरिवृढाः सह सुरललनाललामयूथपतय उपदेवगणैरुपगीयमानमहिमानः किल विहरन्ति १५

देवताओं के उद्यान के निकट ही चार स्वार्गिक वाटिकाएँ हैं; नन्दन, चित्ररथ, वैभ्राज तथा सर्वभद्रक। देवताओं और गन्धर्वों की नारियाँ यहाँ  केलि करती हैं।

मन्दरोत्सङ्ग एकादशशतयोजनोत्तुङ्गदेवचूतशिरसो गिरिशिखरस्थूलानि फलान्यमृतकल्पानि पतन्ति १६
तेषां विशीर्यमाणानामतिमधुरसुरभिसुगन्धिबहुलारुणरसोदेनारुणोदा नाम नदी मन्दरगिरिशिखरान्निपतन्ती पूर्वेणेलावृतमुपप्लावयति १७
यदुपजोषणाद्भवान्या अनुचरीणां पुण्यजनवधूनामवयवस्पर्शसुगन्धवातो दशयोजनं समन्तादनुवासयति १८

मन्दर के निकट ग्यारह सौ योजन विस्तार के देवताओं आमों के फल गिरने पर उमड़े रस की नदी बनती है। जामुनी रंग की यह नदी अरुणानदी कहलाती है यहाँ अरुणा नाम की एक देवी रहती हैं। उनकी सेवा के लिए लगी अनुचरणियों की सुगन्धि दस योजन तक आती है।

एवंजम्बूफलानामत्युच्चनिपातविशीर्णानामनस्थिप्रायाणामिभकायनिभानां रसेन जम्बू नाम नदी मेरुमन्दरशिखरादयुतयोजनादवनितले निपतन्ती दक्षिणेनात्मानं यावदिलावृतमुपस्यन्दयति १९
तावदुभयोरपि रोधसोर्या मृत्तिका तद्रसेनानुविध्यमाना वाय्वर्कसंयोगविपाकेन सदामरलोकाभरणं जाम्बूनदं नाम सुवर्णं भवति २०

तथा जम्बू फलों के गिरने से जम्बू नाम की नदी मन्दर के शिखर से प्रवाहित होती है। जिसके किनारे की मिट्टी के वायु से सूखने पर सदा अमर लोक के भरण करने वाला जम्बूनद नाम का स्वर्ण बनता है।

यदु ह वाव विबुधादयः सह युवतिभिर्मुकुटकटककटिसूत्राद्याभरणरूपेण खलु धारयन्ति २१
यस्तु महाकदम्बः सुपार्श्वनिरूढो यास्तस्य कोटरेभ्यो विनिःसृताः पञ्चायामपरिणाहाः पञ्च मधुधाराः सुपार्श्वशिखरात्पतन्त्योऽपरेणात्मानमिलावृतमनुमोदयन्ति २२

वही ज्ञान देने वाली विभिन्न आभूषणों से सजी युवतियाँ हैं वहाँ कदम्ब का विशाल वृक्ष है, जिसकी कोटर से पाँचों बहती पाँच मधु धाराएँ हैं जो सुपार्श्व के शिखर से प्रवाहित होती हैं।

या ह्युपयुञ्जानानां मुखनिर्वासितो वायुः समन्ताच्छतयोजनमनुवासयति २३
एवं कुमुदनिरूढो यः शतवल्शो नाम वटस्तस्य स्कन्धेभ्यो नीचीनाः पयोदधिमधुघृतगुडान्नाद्यम्बरशय्यासनाभरणादयः सर्व एव कामदुघा नदाः कुमुदाग्रात्पतन्तस्तमुत्तरेणेलावृतमुपयोजयन्ति २४



जिसके मुख से निकलती वायु की सुगन्ध का सौ योजन तक जन आनन्द से उपभोग करते हैं। प्रसिद्धि शतवल्श नाम का वट-वृक्ष जो घी, गुड़, अन्न, धान, शय्या आसन आदि देने वाला है कामदुधा नाम की नदी कुमुद के आगे से इलावृत्त के उत्तर में बहती है।

यानुपजुषाणानां न कदाचिदपि प्रजानां वलीपलितक्लमस्वेददौर्गन्ध्यजरामयमृत्युशीतोष्णवैवर्ण्योपसर्गादयस्तापविशेषा भवन्ति यावज्जीवं सुखं निरतिशयमेव २५
कुरङ्गकुररकुसुम्भवैकङ्कत्रिकूटशिशिरपतङ्गरुचकनिषधशिनीवास-कपिलशङ्खवैदूर्यजारुधिहंसऋषभनागकालञ्जरनारदादयो विंशतिगिरयो मेरोः कर्णिकाया इव केसरभूता मूलदेशे परित उपकॢप्ताः२६

मेरु को केन्द्र में रखते कुरङ्ग, कुरर, कुसुम्भ, कङ्क, त्रिकूट, शिशिर, पतङ्ग, रुचक, निषध, शिनीवास, कपिल, शङ्ख, वैदूर्य, जारुधि, हंस, ऋषभ, नाग, कालञ्जर, नारद आदि बीस पर्वत हैं।

जठरदेवकूटौ मेरुं पूर्वेणाष्टादशयोजनसहस्रमुदगायतौ द्विसहस्रं पृथुतुङ्गौ भवतः एवमपरेण पवनपारियात्रौ दक्षिणेन कैलासकरवीरौ प्रागायतावेवमुत्तरतस्त्रिशृङ्गमकरावष्टभिरेतैः परिसृतोऽग्निरिव परितश्चकास्ति काञ्चनगिरिः २७
मेरोर्मूर्धनि भगवत आत्मयोनेर्मध्यत उपकॢप्तां पुरीमयुतयोजनसाहस्रीं समचतुरस्रां शातकौम्भीं वदन्ति २८
तामनुपरितो लोकपालानामष्टानां यथादिशं यथारूपं तुरीयमानेन पुरोऽष्टावुपकॢप्ताः २९

जठर और देवकूट मेरु के पूर्व में हैं दक्षिण में कैलास है।

जम्बुद्वीप के आठ उपद्वीप "स्वर्णप्रस्थः चन्द्रशक्तः आवर्त्तनः रमणकः मन्दहरिणः पाञ्चजन्यः सिंहलः लङ्का" बताए गए हैं।

यहाँ जो जम्बुद्वीप का विवरण मिलता है वह कुछ सुनी हुई और अनेक काल्पनिक बातों का समावेश कर रची हुई यूरेशियाई भूखण्ड की संकल्पना है। जिसमें वर्णित अनेक तथ्यों को मात्र आध्यात्मिक से समझकर और साहित्यिक दृष्टि से आनंदित होना चाहिए।

सुमेरु पर्वत

इस द्वीप के मध्य में सुवर्णमय सुमेरु पर्वत की ऊंचाई चौरासी हजार योजन है और नीचे की ओर यह सोलह हजार योजन पृथ्वी के अन्दर घुसा हुआ है। इसका विस्तार, ऊपरी भाग में बत्तीस हजार योजन है तथा नीचे तलहटी में केवल सोलह हजार योजन है। इस प्रकार यह पर्वत कमल रूपी पृथ्वी की कर्णिका के समान है।सुमेरु के दक्षिण में हिमवान, हेमकूट तथा निषध नामक वर्षपर्वत हैं, जो भिन्न-भिन्न वर्षों के भाग हैं।सुमेरु के उत्तर में नील, श्वेत और शृंगी वर्षपर्वत हैं। इनमें निषध और नील एक एक लाख योजन तक फ़ैले हुए हैं। हेमकूट और श्वेत पर्वत नब्बे नब्बे हजार योजन फ़ैले हुए हैं। हिमवान और शृंगी अस्सी अस्सी हजार योजन फ़ैले हुए हैं। मेरु पर्वत के दक्षिण में पहला भारतवर्ष, दूसरा किम्पुरुषवर्ष तथा तीसरा हरिवर्ष है। इसके दक्षिण में रम्यकवर्ष, हिरण्यमयवर्ष और तीसरा उत्तरकुरुवर्ष है। उत्तरकुरुवर्ष द्वीपमण्डल की सीमा पार होने के कारण भारतवर्ष के समान धनुषाकार है। इन सबों का विस्तार नौ हजार योजन प्रतिवर्ष है। इन सब के मध्य में इलावृतवर्ष है, जो कि सुमेरु पर्वत के चारों ओर नौ हजार योजन फ़ैला हुआ है। एवं इसके चारों ओर चार पर्वत हैं, जो कि ईश्वरीकृत कीलियाँ हैं जो सुमेरु को धारण करती हैं, वर्ना ऊपर से विस्तृत और नीचे से अपेक्षाकृत संकुचित होने के कारणयह गिर पड़ेगा। ये पर्वत इस प्रकार से हैं:-पूर्व में मंदराचलदक्षिण में गंधमादनपश्चिम में विपुलउत्तर में सुपार्श्व। ये सभी दस दस हजार योजन ऊँचे हैं। इन पर्वतों पर ध्वजाओं समान ग्यारह ग्यारह हजार योजन ऊँचे क्रमश: कदम्ब, जम्बु, पीपल और वट वृक्ष हैं। इनमें जम्बु वृक्ष सबसे बड़ा होने के कारण इस द्वीप का नाम जम्बुद्वीप पड़ा है। इसके जम्बु फ़ल हाथियों के समान बड़े होते हैं, जो कि नीचे गिरने पर जब फ़टते हैं, तब उनके रस की धारा से जम्बु नद नामक नदी के जल का पान करने से पसीना, दुर्गन्ध, बुढ़ापा अथवा इन्द्रियक्षय नहीं होता। उसके किनारे की मृत्तिका (मिट्टी) रस से मिल जाने के कारण सूखने पर जम्बुनद नामक सुवर्ण बनकर सिद्धपुरुषों का आभूषण बनती है।

वर्षों की स्थिति

मेरु पर्वत के पूर्व में भद्राश्ववर्ष है और पश्चिम में केतुमालवर्ष है। इन दोनों के बीच में इलावृतवर्ष है। इस प्रकार उसके पूर्व की ओर चैत्ररथ, दक्षिण की ओर गन्धमादन, पश्चिम की ओर वैभ्राज और उत्तर की ओर नन्दन नामक वन हैं। तथा सदा देवताओं से सेवनीय अरुणोद, महाभद्र, असितोद और मानस – ये चार सरोवर हैं। मेरु के पूर्व में शीताम्भ, कुमुद, कुररी, माल्यवान, वैवंक आदि पर्वत हैं।मेरु के दक्षिण में त्रिकूट, शिशिर, पतंग, रुचक और निषाद आदि पर्वत हैं।मेरु के उत्तर में शंखकूट, ऋषभ, हंस, नाग और कालंज आदि पर्वत हैं। मेरु पर्वत के ऊपर अंतरिक्ष में चौदह सहस्र योजन के विस्तार वाली ब्रह्माजी की महापुरी या ब्रह्मपुरी है। इसके सब ओर दिशाओं तथा विदिशाओं में इन्द्रादि लोकपालों के आठ रमणीक तथा विख्यात नगर हैं। विष्णु पादोद्भवा गंगाजी जी चंद्रमंडल को चारों ओर से आप्लावित करके स्वर्गलोक से ब्रह्मलोक मं गिरतीं हैं, व सीता, अलकनंदा, चक्षु और भद्रा नाम से चार भागों में विभाजित हो जातीं हैं। सीता पूर्व की ओर आकाशमार्ग से एक पर्वत से दूसरे पर्वत होती हुई, अंत में पूर्वस्थित भद्राश्ववर्ष को पार करके समुद्र में मिल जाती है। अलकनंदा दक्षिण दिशा से भारतवर्ष में आती है और सात भागों में विभक्त होकर समुद्र में मिल जाती है। चक्षु पश्चिम दिशा के समस्त पर्वतों को पार करती हुई केतुमाल नामक वर्ष में बहते हुए सागर में मिल जाती है। भद्रा उत्तर के पर्वतों को पार करते हुए उतरकुरुवर्ष होते हुए उत्तरी सागर में जा मिलती है।

माल्यवान तथा गन्धमादन पर्वत

ये पर्वत क्रमशः उत्तर तथा दक्षिण की ओर नीलांचल तथा निषध पर्वत तक फ़ैले हुए हैं। उन दोनों के बीच कर्णिकाकार मेरु पर्वत स्थित है। मर्यादा पर्वतों के बहिर्भाग में भारत, केतुमाल, भद्राअश्व और कुरुवर्ष इस लोकपद्म के पत्तों के समान हैं। जठर और देवकूट दोनों मर्यादा पर्वत हैं, जो उत्तर और दक्षिण की ओर नील तथा निषध पर्वत तक फ़ैले हुए हैं। पूर्व तथा पश्चिम की ओर गन्धमादन तथा कैलाश पर्वत अस्सी अस्सी योजन विस्तृत हैं। इसी समान मेरु के पश्चिम में भी निषध और पारियात्र – दो मर्यादा पर्वत स्थित हैं। उत्तर की ओर निशृंग और जारुधि नामक वर्ष पर्वत हैं। ये दोनों पश्चिम तथा पूर्व की ओर समुद्र के गर्भ में स्थित हैं। मेरु के चारों ओर स्थित इन शीतान्त आदि केसर पर्वतों के बीच में सिद्ध-चारणों से सेवित अति सुंदर कन्दराएं हैं, देवताओं के मंदिर हैं, सुरम्य नगर तथा उपवन हैं। यहां किन्नर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, दैत्य और दानव आदि क्रीड़ा करते हैं। ये स्थान सम्पूर्ण पृथ्वी के स्वर्ग कहलाते हैं। ये धार्मिक पुरुषों के निवासस्थान हैं, पापकर्मा लोग सौवर्षों में भी यहां नहीं जा सकते हैं। विष्णु भगवान, भद्राश्ववर्ष में हयग्रीव रूप से, केतुमालवर्ष में वराहरूप से, भारतवर्षवर्ष में कूर्मरूप से रहते हैं। कुरुवर्ष में मत्स्य रूप से रहते हैं।

श्री दुर्गा पूजन में जम्बूद्वीप का उल्लेख इस प्रकार आता है:


ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु:, ॐ अद्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे------- जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे ---------(अपने नगर/गांव का नाम लें) पुण्य क्षेत्रे बौद्धावतारे वीर विक्रमादित्यनृपते : 2068, तमेऽब्दे क्रोधी नाम संवत्सरे उत्तरायणे बसंत ऋतो महामंगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमे चैत्र मासे शुक्ल पक्षे प्रतिपदायां तिथौ सोम वासरे (गोत्र का नाम लें) गोत्रोत्पन्नोऽहं अमुकनामा (अपना नाम लें) सकलपापक्षयपूर्वकं सर्वारिष्ट शांतिनिमित्तं सर्वमंगलकामनया- श्रुतिस्मृत्योक्तफलप्राप्त्यर्थं मनेप्सित कार्य सिद्धयर्थं श्री दुर्गा पूजनं च अहं करिष्ये। तत्पूर्वागंत्वेन निर्विघ्नतापूर्वक कार्य सिद्धयर्थं यथामिलितोपचारे गणपति पूजनं करिष्ये।

ब्रह्म पुराण, अध्याय 18, श्लोक 21, 22, 23 में यज्ञों द्वारा जम्बूद्वीप के महान होने का प्रतिपादन है-

तपस्तप्यन्ति यताये जुह्वते चात्र याज्विन।।
दानाभि चात्र दीयन्ते परलोकार्थ मादरात्॥ 21॥
पुरुषैयज्ञ पुरुषो जम्बूद्वीपे सदेज्यते।।
यज्ञोर्यज्ञमयोविष्णु रम्य द्वीपेसु चान्यथा॥ 22॥
अत्रापि भारतश्रेष्ठ जम्बूद्वीपे महामुने।।
यतो कर्म भूरेषा यधाऽन्या भोग भूमयः॥23॥

अर्थ- भारत भूमि में लोग तपश्चर्या करते हैं, यज्ञ करने वाले हवन करते हैं तथा परलोक के लिए आदरपूर्वक दान भी देते हैं। जम्बूद्वीप में सत्पुरुषों के द्वारा यज्ञ भगवान् का यजन हुआ करता है। यज्ञों के कारण यज्ञ पुरुष भगवान् जम्बूद्वीप में ही निवास करते हैं। इस जम्बूद्वीप में भारतवर्ष श्रेष्ठ है। यज्ञों की प्रधानता के कारण इसे (भारत को) को कर्मभूमि तथा और अन्य द्वीपों को भोग- भूमि कहते हैं।

सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसापूर्व में अपने राज्यक्षेत्र को 'जम्बूद्वीप' कहा है। १०वीं शताब्दी के एक कन्नड़ शिलालेख में भी भारत को 'जम्बूद्वीप' कहा गया है। बौद्ध साहित्य के अनुसार जंबुद्वीप ही भारतवर्ष है।
आभार : श्री अरविन्द व्यास 

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