* अरविन्द श्रीवास्तव, दतिया
* छाया सक्सेना, जबलपुर
* देवकांत मिश्र,
* नवीन चतुर्वेदी, मुंबई
* निधि जैन, इंदौर
* नीलम कुलश्रेष्ठ, गुना
* मनोरमा जैन पाखी 'मिहिरा', भिंड
* रेखा श्रीवास्तव, अमेठी
* विनोद जैन वाग्वर, सागवाड़ा
* विपिन श्रीवास्तव, दिल्ली
* सुनीता परसाई, हैदराबाद
***
अरविंद श्रीवास्तव 'असीम' डॉ.
जन्म -२९ जून १९५९ ।
आत्मज - श्रीमती बृजकिशोरी - स्व.नाथूराम श्रीवास्तव।
जीवन संगिनी - श्रीमती सुषमा कान्ती ।
शिक्षा - एम.ए.(हिंदी, अंग्रेजी, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र), डी.आर.जे.एम.सी.(पत्रकारिता), जे.आई.आई.बी. (हिंदी), पीएच-डी., डी.लिट. (साहित्य महोपाध्याय मानद)।
प्रकाशित पुस्तकें-हिन्दी व अंग्रेजी में १०० से अधिक।
संप्रति--अध्यापन, न्यूट्रिशन काउंसिलर।
संपर्क - १५० छोटा बाजार, माता मंदिर से आगे, दतिया ४७५६६१ मध्य प्रदेश।
व्हाट्स एप - ९४२५७२६९०७, ६२६५८६२३०२ ।
ईमेल--arvinda290659@gmail.com
गुरु महिमा
*
गुरु का सुमिरन जब करता हूँ,
युक्ति सदा ही मिल जाती है।
गुरु का वंदन जब करता हूँ,
जीवन कलिका खिल जाती है।
भव सागर में फँसा हुआ था,
दूर बहुत था; दूर किनारा।
कठिन डगर पर खड़ा हुआ था,
कोई नहीं उत्कृष्ट सहारा।
सद्गुरु जैसा परम हितैषी,
अन्य न कोई जग में पाया।
दुनिया में स्वार्थी विद्वेषी,
गुरु ने सत्य मार्ग दिखलाया।
गुरु को मेरा सतत नमन है।
और समर्पित यह तन-मन है।
***
राष्ट्र धर्म
*
एक नाव में सब सवार हैं,
सबको ही पार उतरना है।
नहीं एकजुट बड़ी हार है,
पर सबको आगे बढ़ना है।
अब तो ऐसा समय आ गया,
मेल-जोल से साथ चलें हम।
सबका साथ प्रयास भा गया,
आँख निबल की अब न रहे नम।
आओ! अब हम करें समन्वय,
श्रम कौशल तकनीक मिलाएँ।
नैतिक मूल्यों रहें सब अक्षय,
सुख-सुविधा विकास गह पाएँ।
नवयुग का नव दर्शन जानें।
राष्ट्र धर्म सर्वोपरि मानें।
***
श्रमिक
*
श्रमिक सदा अभाव में जीते,
जग को ऊँचे महल बनाते।
निष्ठुर भाग्य अँधेरा पीते,
जग में जगमग दीप जलाते।
जग को देते सुमन सुगंधित,
उनको बस काँटे ही मिलते ।
सदा-सदा करते वे जनहित,
आँगन सुमन कभी नहिं खिलते।
स्वयं वेदना ही सहते हैं,
पर जग को देते मुस्कानें।
सदा रुदन में वे रहते हैं,
जग को देते मधुर तराने।
श्रम का मूल्य जगत पहचाने।
श्रमिकों के महत्व को माने।
****
भावना
*
जिसकी नहीं साधना होती,
समझो वह कोरा पत्थर है।
जिसमें नहीं भावना होती,
वह तो पशु से भी बदतर है।
बिना भावना के क्या कोई,
सच्चा भक्त कभी बन सकता।
सहज भावना बिना न कोई,
शिष्य कभी ज्ञानी बन सकता।
इसी भावना के कारण ही,
माँ को सदा मान मिलता है।
इसी भावना के कारण ही,
गुरु से हमें ज्ञान मिलता है।
सरस भावना को स्वीकारें।
निज जीवन को और निखारें।
***
अभिलाषा
*
जाने कितनी अभिलाषाएँ,
उठती-गिरती मानव मन में।
जाग्रत होती नित आशाएँ,
नित नवीन सपने हर क्षण में।
अभिलाषाएँ अगर न होती,
जीवन जीना दुष्कर होता।
चारों ओर निराशा होती,
सारा जीवन बोझिल होता।
माली की अनुपम अभिलाषा,
गुलशन में तब सुमन विहँसता।
मिट जाती हर एक निराशा,
रंग-बिरंगा दृश्य उभरता।
अभिलाषा यह मन में रहती।
प्रदूषण से रहित हो धरती।
****
आँसू
*
टपक-टपक कर आँसू कहते,
किसको अपनी व्यथा सुनाऊँ।
बीत गए युग सहते-सहते,
कैसे अपनी बात बताऊँ।
कभी-कभी पिछली यादों में,
मन जब भी खो सा जाता है।
प्रेम भरे झूठे वादों में,
मन विरहाकुल हो जाता है।
आह और पीड़ा के तीखे,
घूँट सदा मैं पीता रहता।
तड़प भरे रसहीन व फीके,
जीवन को मैं जीता रहता।
मेरी अपनी अलग कहानी।
मेरी कीमत किसने जानी।
***
पहले का जीवन
*
बहुत सरल था पहले जीवन,
मंज़िल भी थी सीधी-सादी।
और कपट से दूर सदा मन,
शुभ कर्मों का था वह आदी।
अगर उसे पीड़ा मिलती थी,
मन ही मन वह रो लेता था।
अगर उसे खुशियाँ मिलती थी,
खुलकर के वह हँस लेता था।
सीमित सबकी रही जरूरत,
आपाधापी नहीं कहीं थी।
कठिन परिश्रम सबकी दौलत,
सुख-सुविधाएँ नहीं कहीं थी।
जिस क्रम से बढ़ रही सभ्यता।
मानव में बढ़ रही दुष्टता।
****
छाया सक्सेना 'प्रभु'
जन्म- १५ अगस्त १९७१, रीवा (म.प्र.)।
शिक्षा- बी.एससी., बी.एड., एम.ए. (राजनीति विज्ञान), एम.फिल.(नीति शोध)।
पुस्तकें- तुम कली सुंदर हमारी (काव्य संग्रह), धवल काव्य ,ड्योढ़ी के पार (लघुकथा संग्रह)।
संपर्क - माँ नर्मदे नगर १२ , बिलहरी, जबलपुर (म.प्र.)
चलभाष - ७०२४२८५७८८ ।
ईमेल - chhayasaxena2508@gmail.com
***
नर्मदा प्राकट्य
समुद्र मंथन हलाहल पाया,
गरल धारण नीलकंठेश्वर,
मैकल पर्वत ध्यान लगाया,
टपकता स्वेद शिव जगदीश्वर।
प्रकटी कन्या नेह जगाते,
नाम नर्मदा सभी पुकारें,
जिसको देख सभी सुख पाते,
जगदानंदी रूप निहारें।
कठिन तपस्या कर वर पाया,
प्रलय काल में भी रहतीं हैं,
ग्राम घाट तट तीर्थ बनाया,
जपें शांकरी शिव कहतीं हैं।
करें साधना तट पर आकर।
ॐकार प्रभु ध्यान लगाकर।।
***
माई की बगिया
आम्रकूट से बगिया महके,
साल सागवन गुलबकावली,
कोयल कूके पंछी चहके,
खेलें सखियों संग हँस लली।
ऊँचे घने घनेरे जंगल,
पाँच कुण्ड रेवाजल धारे,
साधु संत सत्संगति प्रतिपल,
बालरूप मैया के न्यारे।
ठंडी - ठंडी हवा बह रही,
प्रकृति सुनाती राग मल्हारी,
सामवेद के मंत्र गा रही,
जड़ी बूटियाँ औषधि सारी।
पुष्प चुन रहीं रेवा माई।
सखियों ने मिल माल बनाई।।
***
माई का मड़वा
पंचवटी की फैली छाया,
शोणभद्र संग रिश्ता जोड़ा,
मंडप हरे बाँस का भाया,
धोखा दे जुहिला ने तोड़ा।।
सोनभद्र को जुहिला भाई,
दोनों छलकर साथ चल दिए,
रूठ गई तब रेवा माई,
गठबंधन सारे तोड़ लिए।
बरतन अन्न बने सब पत्थर,
आभूषण रुद्राक्ष बन गए,
पश्चिम दिशा बह चलीं झर-झर,
छप्प छपाक प्रपात बन गए।
अमरकंट को छोड़ चली माँ।
धारा अपनी मोड़ चली माँ।।
***
कंकर-कंकर शंकर
त्याग तपोमय रेवा धारा,
कंकर-कंकर शंकर पाते,
नेह नर्मदा रूप निहारा,
दर्शन करते पाप मिटाते।
मन मंदिर में आप विराजे,
नित संजीवित प्राण सज रहे,
डमडम डिमडिम डमरू बाजे,
रेवाशंकर नाम भज रहे।
घाट जिलहरी शिव बन जाता,
नंदिकेsश्वर महिमा भारी,
गौरीघाट मुक्ति फल दाता,
सत-शिव-सुंदर जी त्रिपुरारी।
नर्मदेsश्वर पूजन करते।
सकल सिद्धियाँ झोली भरते ।
***
धुँआधार (जबलपुर)
चट्टानों ने खूब छकाया,
धुँआ उठे जल बिन जल जानें,
हरा-भरा परिदृश्य सुहाया
कलकल करती रेवा तानें ।
पंख बिना कैसे उड़ जाते,
दुग्ध सफेदी मन भरमाए,
जलप्रपात हमको सिखलाते,
बाधा से मन हार न जाए।
गहराई में जाकर देखा,
ऊपर उठना उठकर चलना,
भाग्य जगाने का है लेखा,
मैया जीवन रेखा ललना।
पूनम चंदा जल में नाचे।
लहरा प्रणय पत्रिका बांचे।।
***
बांद्रा भान संगम
तवा नर्मदा संगम धारा,
नाम बांद्राभान सुहाया,
हर्षित होता लख जग सारा,
हनुमत भानु गुरु मन भाया।
नदी मिल रही पाट बढ़ाते,
रेत सुनहरी यहाँ चमकती,
स्वर्ण आभूषण चलो गढ़ाते,
चमक सितारे भाग्य बलबती।
निर्मलता पावन सुखदाई,
त्याग तपो तेजस्वी रूपा,
सिद्धक्षेत्र दर्शन फलदाई,
दृश्य मनोरम शांत अनूपा।
तवा नर्मदा में सुख पाती।
बिछड़ी दो बहनें मिल जाती।।
***
नाभि केंद्र नर्मदा
नेमावर सिद्धेश्वर राजे,
नाभि उत्तरी केंद्र दिखाया,
हंडिया श्री रिद्धेश्वर साजे,
नाभि दक्षिणी केंद्र कहाया।
आधी दूरी नीर नर्मदा,
सागर संगम पूरी करतीं,
सच्चे मन से जपो सर्वदा,
मैया तन-मन-पीड़ा हरतीं।
नदी मध्य में कुण्ड बनाया,
पूजन करते विधि विधान से,
लमटेरा जब टेर सुनाया,
मैया ने हँस सुना ध्यान से।
आधा पाया आधा पाना।
पूरा करना प्रण जो ठाना।।
***
मांधाता पर्वत
पर्वत मांधाता ओंकाsर,
ओंकारेश्वर पावन धाम,
ममलेsश्वर पूजे संसार,
बनते सारे बिगड़े काम ।।
एक पुंज दो ज्योति समाए,
उत्तर दक्षिण तट पर सोहे,
कावेरी रेवा में आए,
संगम सबके दुःख मिटाए।
यहीं परिक्रमा पूरी होती,
गौमुख धारा पावन बहती,
भाव भक्ति के भाव सँजोती,
भक्त मंडली सुधियाँ तहती।
भोले शंकर के मन भाया।
क्षेत्र खण्डवा रूप सुहाया।।
***
शूलपाणि की झाड़ियाँ
सघन झाड़ियाँ; वृक्ष विराट,
शूल मिटे त्रय ताप कटेगा,
दिखे सतपुड़ा विंsध्या ठाठ,
भ्रम तज; मन का मैल हटेगा।
खड़ी चढ़ाई दुर्गम लगती,
सूर्य ताप की ज्वाला भारी,
श्रद्धा मैया के प्रति जगती,
तीन राज्य की सीमा वारी।।
शूलपाणि स्थान जहाँ पर,
अश्वत्थामा पूजन करते,
वापस तेज त्रिशूल यहाँ पर,
भक्तों की सब पीड़ा हरते।।
शुभाशीष मैया से पाए।
भक्तों के मामा कहलाए।।
***
सागर संगम
सागर उठती लहरें दिखतीं,
रेवा संगम प्रीत समाई,
कर्मों का माँ लेखा रखतीं,
परमानंद मिले सुखदाई।।
खारा जल मीठा हो जाता,
रामकुण्ड दर्शन सुख पाना,
विमलेश्वर बन भाग्य विधाता,
कोटेश्वर सौ तीर्थ समाना।।
नाव लहर या लहर नाव पर,
कोई भी सच समझ न पाता,
आसपास पक्षी जुड़ाव पर,
रेवा सागर संगम भाता।।
भक्तों की माँ सदा सहाई।
परकम्मा जनगण सुखदाई।।
***
रेवा स्तुति
नमो नमो रेवा जल धारा,
मातु शांकरी मक्रवाहिनी,
जल जीवन जन पालनहारा,
सुख देतीं सौभाग्यदायिनी।
मातु अमृता आप कहातीं,
विंध्य सतपुड़ा भ्राता जाना,
नेह नर्मदा बन बरसातीं,
मैकल पर्वत पुत्री माना।
सोया भाग्य जगाती मैया,
संगम तीर्थ सिद्धफल देते,
अविवाहित कन्या जग मैया,
रत्ना सागर का जल लेते।
हर हर हर नर्मदे कहेंगे।
रेवा तट पर सदा रहेंगे।।
***
निधि जैन
आत्मजा - श्रीमती शकुन्तला जैन - श्री जयंतीलाल जैन।
जीवनसाथी - श्री प्रीतेश जैन।
शिक्षा - एम .ए . हिंदी साहित्य , प्राकृत भाषा में डिप्लोमा।
प्रकाशित पुस्तकें - रेवा में बहते मयूर पंख, हौसले का हुनर, कई साझा संकलन।
संपर्क - १३० बैकुंठ धाम कॉलोनी ,आनंद बाज़ार के पीछे इंदौर।
चलभाष - ९३००४२२१११
ईमेल - nidhivartu@gmail.com
भुवन भास्कर
*
हे दिव्य दिनेश दिवाकर,
लें अरुण आदिभूत नमन,
अहा परम पूज्य प्रभाकर,
वंदनीय वसुदेव नमन।
तमनाशक तेजसदाता,
सर्व जगत तुमसे ऊर्जित,
आर्त विनाशक जगत्राता,
ब्रह्म कमल तुमको अर्पित।
सप्तअश्व के धारक तुम,
नित तुममें ही ध्यान रहे,
तुम बिन हो नहिं जाएँ गुम,
हम अबोध प्रभु! ध्यान रहे।
नमन त्रिभुवन नाथ भास्कर।
जयति जय हे भुवन भास्कर।।
***
प्रभात
*
ले विश्राम रात भर का,
सूर्य झट निकला काम पर,
देता ज्ञान नित नियम का,
छोड़ आया आलस्य घर।
जागो भोर भई भाई,
पंछी नदी कंदरा भू,
पाप न कर हो रुसवाई,
प्रभु वंदन कर तर जा तू।
स्वेद-गंग में नित्य नहा,
पेहरन श्रम की रह ओढ़े,
सत को शीतल छाह बना,
मुख से अमिय वचन बोले।
तप ज्वाला में तपते चल।
नित भास्कर सम चलते चल।।
***
ऊषा
*
नित नूतन नीली आभ लिए,
हो उदित करें जग को जागृत,
ऊषा तम मिटा उजास लिए,
नीलाभित कर जीवन झंकृत।
उठ जाता है प्रभु ओर शीश,
जब होता है जीवन निराश,
विश्वास-डोर दे रहा ईश,
कोशिश कर पा लो मन प्रकाश।
मन पंछी नील गगन में उड़,
जाना है तुझको मेघ चीर,
तारों सह इंद्र भवन में जुड़,
मिल परियों से मत हो अधीर।
नभ नींद मग्न चल रात हुई।
चाँदनी चाँद में बात हुई।।
***
कलाकार मन
ख़ाली समय है क्या करें हम,
चलो करते हैं मिल कुछ काम,
पैसा न साधन क्या करें मन,
कलाकार से हो न विश्राम।
छीना यंत्रों ने रोज़गार,
भरा माल बाज़ार विदेशी,
चीन के सम्मुख क्यों लाचार,
है मिटा बाजार स्वदेशी।
करो कबाड़ से जल्द जुगाड़,
हो साकार स्वप्न कौशल से,
आओ जगत में झण्डा गाड़,
रोक न पाए कोई छल से।
कला कर्म श्रम व्यर्थ न जाए।
रचना सुख निधि जैसे पाए।।
***
पाती
पाती कहती बातें दिल की,
इसमें छुपे आँसू मुस्कान,
मिलन-विरह की बातें दिल की,
पढ़ें न समझते हैं नादान।
मोल नहीं शब्दों की निधि का,
भाव छिपाए रहे अनमोल,
पालन हो नहीं ख़ास विधि का,
अपने मिलें, मिलती दिल खोल।
लिख भेजूँ मैं दिल से पाती,
प्रिय सुमिरें मेंहदीमय हाथ,
पढ़ूँ लिखी हर बात सुहाती,
प्रिय पढ़ चूम लें जैसे गात।
बदला रूप आज पाती का।
मैसेज-काल रूप पाती का।।
***
तरुणाई
तरुणाई के अलग अंदाज,
नदियाँ सागर पोखर झरने,
पानी के संग छई छपाक,
कर सुख पाया तन ने; मन ने।
ज्ञानी भूले मन की करना,
रहे सोचते सही या ग़लत,
जाने उहापोह नहीं तजना,
पावस ठंडी ता तपन-अगन।
सागर की उत्ताल तरंगें,
रोक नहीं सकती हैं इसको,
तल कितने ही गहरें लहरें
जा पैठें ललकारें उसको।
बेख़ौफ़ बिंदास रहे तरुण।
इससे हारे मरुत अरु वरुण।।
***
वर्षा मंगल
घंटे बजे घड़ियाल बजे,
मंत्रोsच्चार गुँजा चहुँ ओर,
कारे-कारे वारिधर बजे,
लाए हम ये घटा घनघोर।
आ तत् थैया ,ता तत् थैया,
पिहू-पिहू-पिहू करत शोर,
यह वर दे दे गौरी मैया,
हो नटराज सा साजन मोर।
रिमझिम-रिमझिम की झड़ी लगी,
छाई हरितिमा झूले डले,
ओढ़ लेरिया अली हँस चली,
संस्कृति गाँवों में फूले-फले।
ऋतु सावन की नायकों गाओ।
वर्षा मंगल विहँस मनाओ।।
***
आँख का पानी
रे मन! तू बन जा कबीर,
झूम-नाच मन चंगा हो,
रे मन! तू बन जा फ़क़ीर,
काम न कुछ बेढंगा हो।
जी भर चले पवन अंधड़,
तरु से सूखे पत्र झरे,
नाच मगन हो, मत बन जड़,
बच्चे बूढ़े मन हैं हरे।
ऋतु हेमंत पर्व लाए
खुशियाँ पाएँ मस्ती में
जनगण झूम गीत गाए,
रामराज हो बस्ती में।
इकतारा कहे कहानी।
सूखे न आँख का पानी।।
***
गीत प्रीत के
निधि की प्रीत; प्रीत की निधि,
समझदार देखे-भाले,
जान जाए प्रेम की विधि,
वह सारे ही सुख पा ले।
प्रीत मूल निष्काम चाह,
देने का हो पाक भाव,
गहराई उसमें अथाह,
किंचित भी कम हो न चाव।
प्रीत-गीत सब ने गाया,
मीरा कबिरा दादू ने,
ढाई आखर समझाया,
रो रो प्रीत न जानू रे!
गीत प्रीत के जो गाए।
नारी के मन को भाए।।
***
प्रीत
चंदन प्रीत शीश लागे १४
महक उठे दुनिया सारी
फूल-पखुरी नीक लागे
तन-मन की सुध ही नाहीं
कल तक थे जो बेगाने
मन को भाए आज वही
प्रीत को बंधन न माने
पिया जो कहे वही सही
प्रीत डगर राधा-मीरा
सती सिया निज ढंग चली
रघुवर जूठा बेर चखें
निज नहीं प्रिय रीत भली
प्रीत से चमके नभ तारा
प्रेम से महके जग सारा
***
परकम्मा
*
गजमुख ने थी रीत चलाई, 16
माँ के चारों और घूम के,
या कहिए यह सत्य बताया,
धरती ले फेरे सूरज के।
हैं हमें बूझने गूढ़ कथन,
हैं अकूत निधि ये कहानियाँ
कैसे चलते प्राचीन चलन,
कैसे बच सकती ये दुनियाँ।
नियम क़ायदे; ढेर फ़ायदे,
परिक्रमा हो पेड़ नदी की,
कहें न जुमला; करें वायदे,
बने कहानी नई सदी की।
केंद्र दूर फिर भी है साथ।
परकम्मा जी रेवा मात।।
***
नीलम कुलश्रेष्ठ
जन्म तिथि - ०३ अगस्त १९७१, हाथरस, उ. प्र.।
शिक्षा - एम. ए. (संस्कृत व अंग्रेज़ी), बी.एड.।
प्रकाशित पुस्तकें - "बालगीत सोपान", "माँ के आँचल में" (गीत संग्रह) एवं "भोर सुहानी जाग उठी जब" (मुक्तक-मंजूषा)।
संपर्क - द्वारा- श्री मधुर कुलश्रेष्ठ, नीड़, गली नंबर - 1, आदर्श , गुना ४७३००१ मध्य प्रदेश।
मोबाइल नं. - 9407228314, ईमेल पता - kulsneelam@gmail.com ।
***
तिरंगा
सजी हुई है तीन रंग से,
धवल पताका यह खादी की,
बना चक्र जो नील रंग से,
लाया आशा आज़ादी की।।
रंग केसरी बलिदानों का,
धवल सत्य के नाम हो गया।
हरा रंग था धन-धान्यों का,
सुंदर यह पैगाम हो गया।।
यही तिरंगा साक्ष्य रहा है,
संघर्षमयी कहानियों का।
ज़ुल्म फिरंगी बहुत सहा है,
रूप क्रांति की निशानियों का।।
राष्ट्रोत्सव की शान तिरंगा।
भारत का अभिमान तिरंगा।।
***
तपन
तपन ज़रूरी है जीवन में,
तपकर सोना कुंदन बनता,
बिना तपा घट हो आँगन में,
बारिश में कीचड़ बन बहता।,
चाह ज्ञान की जो रखता है,
वह भी खोज-तपस्या करता,
विहग गगन में जो उड़ता है,
सूर्य तपन भी वह हँस सहता।,
कृषक-श्रमिक को हमने देखा,
स्वेद-बूँद से भरा हुआ तन,
करतल में उद्यम की रेखा,
उदर-पूर्ति का श्रम ही साधन।,
बिना तपन के लक्ष्य नहीं है।
कर्महीन को भक्ष्य नहीं है।।
***
प्रीत
प्रीत-डोर प्रभु की मानव तक,
प्रीत बिना जीवन असार है,
यह संदेश मनुज दानव तक,
कहीं नहीं इस बिन बहार है।,
प्रीत छिपी है भक्ति-लगन में,
भक्ति राम में ज्यों कबिरा की,
प्रीत छिपी है सूक्ति वचन में।
प्रीत कृष्ण-राधा-मीरा की।,
संतति-हित ईश्वर है माता,
जहाँ वासना, प्रीत नहीं है,
शलभ-शिखा का अनुपम नाता,
त्याग प्रीत की रीत रही है।
प्रीत-कोश में सुरभि भरी है।
प्रकृति प्रीत की सुखद धरी है।।
***
श्रमिक
जगती का सर्जक कहलाता,
श्रम की चक्की में पिसता है,
स्वेद-स्नेह से दीप जलाता,
सारा जग रोशन करता है।
जीर्ण-शीर्ण कुटिया में रहकर,
आँधी-झंझा से डरता है,
क्षुधा-अग्नि-ऊष्मा को सहकर,
निश-दिन जीता अरु मरता है।
सबके सपने पूरे करने,
निज इच्छाओं को तजता है।
दूजों की झोली को भरने,
अपने सजल नयन रखता है।।
क्यों मजदूर अभागा सा है।
श्रमिक रात्रि से जागा सा है।।
***
वसुंधरा
ज्येष्ठ मास में तप वसुंधरा,
मेघों का आवाहन करती,
शुष्क आवरण, कभी था हरा,
बेबस धरती आहें भरती।
झंझा-आँधी तूफानों ने,
भू को ऐसा बदहाल किया,
धरतीवासी नादानों ने,
जीवन सत्वों को छीन लिया।
मानव गलती नहीं मानते,
स्वार्थी मूरख अभिमानी हैं,
अमिय त्यागकर गरल जीमते,
यह मनमानी नादानी है।
धरा सजा दें मिलकर आओ।
गीत सृजन के सब मिल गाओ।।
***
नीलांबर
दिनकर का प्रकाश ज्यों बिखरा,
पूँछ दबाकर झट तम भागा।
द्रुमदल जल-थल कण-कण निखरा,
वसुधा का हर प्राणी जागा।।
नीलांबर में आकर दिनकर,
स्वर्णिम आभा हँस फैलाए।
रक्तिम निज छवि ऊषा मनहर,
जल के दर्पण में छितराए।।
पंख पसारे विहग टोलियाँ,
नीलांबर की ओर उड़ चलीं।
वन-उपवन में रम्य तितलियाँ,
कलियों-कुसुमों पर घुमड़ चलीं।।
दृश्य सुहाने, मन हर्षाए।
गीत प्रकृति के जन मन गाए।।
***
पंचामृत
पंचामृत में पाँच घटक,
दूध-दही-मधु-शक्कर-घी,
पंचतत्व के संयोजक,
संग में गंगाजल-तुलसी।,
स्वास्थ्य-सुधारक मेवा लो,
मिश्रित कर पंचामृत में,
अर्पित कर हरि-हर-श्री को,
खुशी मिले चरणामृत से।
ऊर्जा का संतुलन इसी से,
हर्षोल्लास प्रदायक भी,
यदि प्रसाद मिले कहीं से,
पीकर खुश हो जाए जी।,
जय बोलो शिव शंकर की।
जय बोलो पीतांबर की।।
***
पंचतत्व
हरी-भरी वसुधा तरुवर की,
सभी प्राणियों का यह घर है,
सकल सृष्टि रचना-प्रभुवर की,
मानव-हित यह सुंदर वर है।
भू-समीर-जल-नभ अरु पावक,
जिनसे मिलकर सृष्टि बनी है,
कुंभकार-सम ब्रह्महिं सर्जक,
जिनके कर से प्रकृति सजी है।,
पंचतत्व से प्राणी बनता,
रहें संतुलित वह सुख-भोगी,
इस विघटन से प्राणी मरता,
असंतुलन से बनता रोगी।,
पंचतत्व यह प्रविधि चिकित्सा।
औषधि-बिन पा रही प्रशंसा।।
***
परिक्रमा
धरती माता अविरत गति से,
सूर्य देव की करे परिक्रमा,
गणपति ने भी अपनी मति से,
किया प्रमाणित, बुद्धि उत्तमा।।
लोक त्रय की परिक्रमा-हित,
लिया सुमति का आश्रय उनने,
मात-पिता नित पूजित वंदित,
विजयी करा दिया इस गुण ने।।
नभ से उच्च पिता की पदवी,
माता भू से भी महती है,
तपती-सहती ज्यों हो साध्वी,
अपने कष्ट नहीं कहती है।।
मात-पिता का त्याग-समर्पण।
संतति कर न सके प्रत्यर्पण।।
***
गिलहरी
मेरे घर की छत पर जमघट,
खूब लगाती हैं गिलहरियाँ,
रखा खाद्य खा जातीं झटपट,
सरपट दौड़ लगाती गुइयाँ।,
गमलों के पीछे छिप जातीं,
फिर पौधों पर चढ़ जातीं हैं,
चिहुँक-चिहुँक कर गीत सुनातीं,
कली-फूल-पत्ते खातीं हैं।
पेय-पात्र से उचक-उचककर,
मीठा शरबत भी पी जातीं।
दिन भर घर की रौनक बनकर,
हर पल सबका मन हर्षातीं।।
नीम-गिलोय व गैंदा-गुड़हल।
मन भाते करतीं चढ़ हलचल।।
***
निर्भीक बचपन
गरमी के मौसम में सबको,
पानी का है स्पर्श सुहाता।
सचमुच भारतीय बच्चों को,
पानी में कूदना लुभाता।।
कोई झिझक न डर ही लगता,
गर्मी के दिन मौज-मस्तियाँ।
छप-छपाक-छप, छप-छप-रुचता,
बचपन तैरे बैठ कश्तियाँ।।
तरबूजे हैं पार उतरकर,
बैठ उघाड़े धूप सेकते।
खरबूजे अरु ककड़ी खाकर,
फिर से एक छलाँग लगाते।।
बचपन के दिन नहीं भूलते।
स्मृति पटलों पर सदा झूलते।।
***
मनोरमा जैन पाखी 'मिहिरा'
जन्म - ५ दिसंबर भिण्ड (मध्यप्रदेश)।
शिक्षा- एम.ए. (हिंदी)।
आत्मजा - स्मृतिशेष शाह श्रीमती सुखदेवी - स्मृतिशेष शाह रतनचंद्र जैन।
जीवनसाथी- पांडे सुनील कुमार जैन।
चलभाष - ८८३९९३४७४२ ।
ईमेल - manoramajain43718@gmail.com
उषा
देख उषा की अरुणिम आभा,
रवि-किरणों को रंग बिखराते,
प्राची गोद अरुण अलसाया,
फूलों पर भँवरे मँडराते।
कानन में भी हुआ सबेरा,
चिड़िया चहक उठीं पेड़ों पर,
श्याम घटा ने डाला डेरा,
बहने लगी हवा अति सुंदर।
शंखनाद ज्यों दिया सुनाई,
पूजा के सब थाल सजे हैं,
घंटनाद कर विनती गाई,
ढोलक मंजीरे गरजे हैं।
रवि का हाथ पकड़ कर आती
उषा नित नव स्वप्न दिखाती।
***
तुम-मैं
घन सम यदि तुम साथ निभाते,
मैं शीतल जल चंचल होती,
तुम आकर जब अंग लगाते,
मैं संदल बन अंचल धोती।
तुम होते गर सुप्त सिंधु से,
मैं दरिया बन अंक समाती,
तुम होते जब मेघ इंदु से,
मिल तुम संग उत्पात मचाती।
विपरीतता अगर आ जाती,
हम दोनों के हृदय भुवन में,
मति फिर कैसे यूँ भरमाती,
जलती कैसे प्रीत अगन ये।
हो जाता संपूर्ण निवारण।
उठ जाता जब मोह आवरण।।
***
इच्छा-जाल
अभीप्सित इच्छाओं का जाल,
चक्रव्यूह सा घेर रहा है,
बनकर यह मेरा क्रूर काल,
आज मुझे ही टेर रहा है।
शीतल निर्झर बुदबुद जीवन,
बूँद बूँद रिसता ज्यों मटका,
नभ आँचल की उधरी सीवन,
देखे ठिठका, क्षण में चटका।
किस विधि पाऊँ तुमको प्रियतम!
दिन रात प्रश्न मथते मन को,
घेर रहा क्यों मुझे प्रबलतम,
बंधन डोर कसे क्यों तन को।
रही अबूझ कहानी मेरी
बना जीवन पहेली मेरी।
***
वंशी
यमुना तट पर बजती वंशी,
जुड़ जाते झट साथी संगी,
अश्रु भरी अँखियाँ यदुवंशी,
राह तकें उठ-बैठ उटंगी।
सप्त सुरों से निकले विराग,
हुए न दर्शन अब तक श्याम,
मन दहके, पलाश में आग,
दीठ बावरी, ले हुई शाम।
आ भी जा वृषभान दुलारी,
टेरे तुमको वेणु सुनो धुन,
धेनु रँभाये दुम फटकारी,
नैन बरसते, सपने बन बुन।
सौत बनी राधिका,बांसुरी।
सूखी टहनी बाँस की अरी!।।
***
बरखा
प्रकृति चंचल सुहानी हो, लगाती आग पानी में,
धरा मचले रवानी में, विहँस मन झूमकर गाए,
हुई जब गगन से बरखा, सुमन खिलते जवानी में,
अमित हो सृष्टि में हलचल,नदी को उमड़ना भाए।
धरा पे ओस देखी तो, लगा मुक्ता लड़ी बिखरी,
कभी झूमे मचल फिर चुप, अजब सी यह पहेली है,
जतन करती चले हौले, समेटे सब कड़ी निखरी,
लगे जैसे कहे सबसे, सँकुच न्यारी सहेली है।
अभी तक खोजती हूँ मैं, पुराने खत किताबों में,
जहाँ तुमने पुलक छूकर, हमें उपहार सौंपा था,
मिला अब तक नहीं उत्तर, छिपा था जो गुलाबों में
खिला था फूल इक कोई, हँसी सा ख्बाव सौंपा था।
परी कोई जमीं उतरी, बड़ी आकुल बिचारी थी
लचीली टूट के डाली, पड़ी जैसे खुमारी थी।
(विधाता छंद १४-१४)
***
चाहत
कभी भी घाव मत देना, हमारे छंद गीतों को,
करो ऐसा जतन पावन कि, पतझर ही मचल जाए,
सदा अनुबंध में रखना, हमारे उन अतीतों को,
सृजन ऐसा करो यारों, कि सीधा रूह तक जाए।
भुला कर नफरतें मन की, खुशी के गीत लिख दो तुम,
बहाओ तृप्ति की गंगा कि तप-बल ही बदल जाए,
बता दे वेदना मन की, लिखो कुछ शब्द ऐसे तुम,
चला दो तीर उर-तल पर छिपे अरमां मचल जाए।
शराफत ही डराएगी, न उल्फ़त ही सताएगी
बरसते मेघ सुधियों के, घटा बन कर बरस जाओ
हवाएँ रुख बदल लेंगी, मुहब्बत जब बुलाएगी
मिटेगी पीर तब दिल की, अगर अनुबंध लिख जाओ।
मिली जब थी नज़र तुमसे, इजाजत भी मिली होती
मिली राहें कहाँ ऐसी कि दुनियाँ मिल गई होती।
(विधाता छंद 1222 1222, 1222 1222)
***
होली
धर शीश भार अपार मोहन, ग्वाल-गोपी संग में,
भर हाथ रंग अबीर फेंके, राधिका मन मोहिनी,
कर बंसरी, गल माल सोहे, डूबते जब रंग में,
झट हाथ थाम मरोड़ मोहन, मारते प्रभु कोहिनी।
मन मोहिनी कर थाम मोहन, रोकती बरजोरि से,
मत प्रीत रीत सिखा बजाकर, बाँसुरी अब श्याम रे!,
घनश्याम के नत नैन देखे, बोलती करजोरि के,
मुसका रही गुजरी कहे, कर छोड़ रे मम साँवरे!
तज के सभी अपघात कारण, लौ लगा भगवान से,
मन के घुमे कर में अभी तक, मान ही कब भूलता,
कर साधना मन-काय से, बच के सभी अपमान से,
जब क्रोध शीश सवार देखे, भूल को कब भूलता।
निज आत्मध्यान रहे सदा, नर श्रेष्ठ वो कहते वहाँ।
निज आत्म गौरव भूलता वह श्रेष्ठता वरते कहाँ।
(मुनिशेखर छंद, 112 121 121 211, 212 112 12)
***
बाँस का झुरमुट
हरे बाँस का झुरमुट प्यारा,
हरित पर्ण स्पंदित झूल रहे,
तोता-मैना जोड़ा न्यारा,
लुका-छिपी जैसे खेल रहे।
युगों-युगों का साथ बना है,
कथा कहानियों में लिखा है,
टीं-टीं,पीं-पीं शोर घना है,
कौन लुका तो कौन दिखा है।
अद्भुत रंग छितराए यहाँ,
भावों को खूब उभारा है,
सुई-धागे ने मिलकर वहाँ,
परिदृश्य खूब निखारा है।
चलो प्रेम संसार सजाएँ।
हिलमिलकर रहना सिखलाएँ।।
***
दिशा
करती हवाओं से बात,
दिशा सुगंधित हो जाती,
पुलकित हो मन और गात,
घटा कुंदनी हो जाती।
प्रीत की.भाषा गढ़ रहे,
प्रणय रंग घुल जाते हैं,
अधरों को मिल गीत रहे,
वेद वंदना गाते हैं।
मेघ गगन मुख पर बिखरे,
श्यामल घन ज्यों केश घने,
अंकुआते अंकुर निखरे,
तीर रश्मि के तीक्ष्ण तने।
वाक् वंदना हो जाती।
दिशा ऋचा मिलकर गाती।।
***
कृषक
मरुधर में है बेबस बैठा,
जल की फिर आस लगाए है,
सावन में भी बादल रूठा,
मधुरिम क्यों सपन सजाए है?
सींच रहा भू , श्रम सीकर से,
फिर तू दोष किसे है देता?
प्रश्न पूछता उस ईश्वर से,
वो कैसे नैया को खेता?
अगर चलोगे सभी सुपथ पर,
महक उठेगा परिवार तभी,
व्यर्थ ही समय गँवाने पर,
खो देगा खुशियाँ स्वयं सभी
मन सावन तब हो जाएगा
हर पल सावन हो गाएगा।
***
प्रेम आकांक्षा
करो प्रेम स्वीकार बनूँ मैं देविका,
पथ पर प्रीत बिछाऊँ हृद मनभावनी,
तुम्हें दिखे तब ज्योति बनूँ जब होलिका,
किसी भाँति कहलाऊँ प्रिय पथ गामिनी।
नयन-बाज जब छले इंदु मनछावनी,
तब होगी संतृप्त क्षुधा प्रिय देवता,
अभी निरुत्तर प्रश्न बने रति यामिनी,
अभी नहीं परिपक्व बुद्धि शुचि गेयता।
अगर गहो मम हस्त पूर्ण हो कामना,
गाए सुरभित गीत दूर हों आँधियाँ,
पूरित जीवन चक्र पूर्ण हो साधना,
फैले कर्म सुगंध खिले तन वादियाँ।
जब होगा पथ सुलभ खिलेगी चाँदनी।
फिर होगी नवसृष्टि बनूँ जब भामिनी।।
(21मात्रिक)
***
रेखा श्रीवास्तव डॉ.
जन्म - ११.०९.१९६०, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश।
शिक्षा -एम.ए. (हिंदी), बी.एड., डी.फिल. इलाहाबाद विश्वविद्यालय।
संप्रति - पूर्व प्राचार्य इंदिरा गाँधी पी.जी.कालेज गौरीगंज, अमेठी।
प्रकाशित - दिनकर एवं माखनलाल चतुर्वेदी व्यक्तित्व एवं कृतित्व।
संपर्क - कटरा लालगंज थाने के सामने, वार्ड १, गौरीगंज, अमेठी २२९४०९।
चलभाष - ९४५०७७४२०२, ईमेल -igpgamethi9@gmailcom
***
गुरु
*
गुरु पद-रज कण भर मिल जाए,
मिट तम उर प्रकाश भर जाता,
भवसागर से मुक्ति दिलाए,
नव जीवन की राह दिखाता।।
गोताखोर बना देता है,
पनडुब्बा फिर मोती लाता,
मंजिल अपनी पा लेता है,
ज्ञान ज्योति से दीप जलाता।।
जड़ मति को सुजान है करता,
दूर तिमिर उर करे प्रकाशित,
सत चित आनंद मन में भरता।।,
शिव ही हों कण-कण आभासित ।।
गुरु पारस पग रज मिल जाए,
लोहा सोना हो हर्षाए।।
***
मंदिर दर्शन
*
मंदिर भीड़ बहुत है भारी,
जींस पैंट छोटे हैं कपड़े,
दर्शन को आए नर-नारी,
बने आधुनिक वो हैं अकड़े।
तिलक लगा हम पूजन करते,
देख सभी हैं आँखे मींचे,
कभी नहीं पट सिर पर धरते,
मंदिर में वो सेल्फी खींचे।।
सुंदर लगती नारी सारी,
भाव नहीं है उसमें दिखते,
सारी है पहचान हमारी,
कपड़े फटे हुए हैं लिखते।
भक्ति-भाव से मंदिर जाएँ।
नव पीढ़ी को सच बतलाएँ।।
***
योग
*
योग जोड़कर पूर्ण बनाता,
भारत की यह दिव्य धरोहर,
मन से हर अवसाद मिटाता,
ले अष्टांग सकल पीड़ा हर।।
खुद को खुद से जुड़ जाना है,
तन-मन मिल पुलकित हो जाता,
सांसें साध जाग जाना है,
सत्पथ चल पग मंजिल पाता।।
ताली बजा योग नित करना,
रक्त प्रवाह सही हो जाए,
हास्य योग कर मिल सब हँसना,
ऊर्जा नव तन में भर पाए।।
योग साधना जो नित करता ।।
शांति-कांति तन-मन में भरता।।
***
सदाचार
*
सुरभि सदाचार की फैली,
पुलकित मन की बगिया सारी,
स्वच्छ हुई मन चादर मैली ।।
हुलसी रिश्तों की फुलवारी ।।
दस दिस में नव खुशियाँ छाईं,
मन का भेद दूर हो जाए,
पटें दरारें; मिटती खाई,
नेह प्रेम के बादल छाए।।
रिश्ते स्नेहिल गहरी पर्तें,
जिएँ स्वर्थ से ऊपर उठकर,
देना साथ रखे बिन शर्तें,
पाते हम सब कुछ झुककर।
रिश्तों में थोड़ा झुक जाएँ।
अपने को मजबूत बनाएँ ।।
***
काशी
बाबा विश्वनाथ की नगरी,
ढोल नगाड़ा डमरू बाजे,
दर्शन करती दुनिया सगरी,
महाकाल अद्भुत छवि साजे।
प्रवहित पतितपावनी गंगा,
रजत वसन पहने है लेटी,
स्नान करे मन होता चंगा।।
ताप मिटाती झट ऋषि-बेटी।।
चांद किरण जब जल पर पड़ती,
दुग्ध धवल पट जड़े सितारे,
तरुणी काया कंचन जड़ती।।
गंगा आरति सब दुख हारे ।।
तीन लोक में महिमा न्यारी।।
काशी नगरी लगती प्यारी ।।
***
पनहारिन
*
पनघट पर लगता है जमघट,
कथा-व्यथा पनहारिन कहती,
गागर अपनी भरती है झट,
घूंघट पट डाले सब रहती।
चूड़ी पायल खन-खन करती,
कठिन डगर सिर गागर भारी,
सँभल सँभल कोमल पग धरती,
मैली हो न भीगकर सारी।
कुछ सुनती कुछ कह भी देती,
वारि बूंद अनमोल बड़ी है,
हँस मन को हलका कर लेती,
ले घट को बतियात खड़ी है ।।
श्रम से कभी नहीं घबराती।
जल-जीवन हर बूँद बचाती ।।
***
वरदान
*
हे हरि! तुम ऐसा वर देना,
मम तन-मन निर्मल हो जाएँ,
हमको नाथ! साथ ले लेना,
थामो हाथ सबल बन पाएँ ।
मैं तो हूँ मूरख खल कामी,
लोभ-मोह-मत्सर हैं घेरे,
प्रभु! चाहूँ बनना अनुगामी,
माया के लगते नित फेरे ।।
मन पर मेरा नहीं नियंत्रण,
अहंकार है शीश उठाए,
दुनियादारी दे आमंत्रण,
पथ से पग को दूर हटाए।
थामो नाथ! हाथ अब मेरा।
तुम बिन लगे नहीं मन मेरा।।
***
झूला
सावन में मिल झूला झूले,
पड़े फुहार मगन मन भाए,
बैर भाव सब मन से भूले।।
चहुँ दिश मेघा हैं घिर आए ।।
कंकड़ माटी पग में गड़ता,
धरती माँ की गोदी खेले,
रक्त प्रवाह वेग से बढ़ता।।
झूलन को लगते हैं मेले ।।
साथ झूलकर कजरी गाओ,
प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाए,
प्रेम भाव से पेंग बढ़ाओ।।
तन-मन में निखार नव लाए ।।
इक दूजे से मिलकर रहना।।
खेल-खेल में मन की कहना ।।
***
मौन
*
मौन हमेशा बहता रहता,
मौन प्रवाह बड़ा है भारी,
खुद ही खुद सब रहता सहता,
ऊर्जा निधि इसमें है सारी।
मौन अमित ऊर्जा भर जाए,
ऋषि-मुनि सतत मौन व्रत करते,
शक्ति लहर मन में लहराए,
हों अमौन तब सत ही वरते।
मौन सकल तकरार मिटाए,
आपस में सद्भाव है बढ़ाता,
विपदा से वह हमें बचाए।
रिश्तों को मजबूत बनाता।
सोच समझ मौन व्रत करना।
सही समय पर मौन न रहना ।।
***
सावन
*
काले बादल नभ में छाए,
मेघा गरजे बिजली कड़की,
बरस-बरस मन को हरषाए।।
तेज पवन ने खोली खिड़की ।।
सावन बरसे मनवा तरसे,
बिन साजन है पल-पल भारी,
जीव-जंतु सारे हैं सरसे ।।
नैना बरसे निशि हैं सारी।।
विटप-पात सब हैं फरचाए,
धरा ताप कुछ कम है लगता,
कोयल कूक-कूक कर गाए ।।
रोम-रोम को पुलकित करता ।।
सावन की बरसे बादरिया ।।
घर आ तू मेरे साँवरिया ।।
***
धरती
*
हरित घास के बिछे गलीचे,
लाल कुसुम तन पर है साजे,
बरबस ध्यान हमारा खींचे,
छम-छम करती पायल बाजे।
लेट धरा की गोदी बाला,
निज अनुभव की पोथी पढ़ती,
रूप सलोना है मधुशाला,
सुंदरता के मानक गढ़ती ।।
जुड़कर अपनी सोंधी माटी,
नेह सुमन सारे खिल जाते,
महक रही है फूलों घाटी।।
दृश्य मनोरम सबको भाते।।
सहनशील है धरती माता।।
मत कर दोहन कहें विधाता ।।
***
आत्मज- श्रीमती सावित्री जैन - स्मृतिशेष शांतिलाल जैन।
जीवन संगिनी - श्रीमती माया वाग्वर।
शिक्षा - एम.ए., बी.एड.।
सहभागी - दोहा दोहा नर्मदा २०१८ ।
संप्रति - संस्थापक हम जैन, निदेशक वाग्वर कन्या महाविद्यालय, वाग्वर शिक्षा भारती। संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान सागवाड़ा।
संपर्क - सागवाड़ा, डूंगरपुर, राजस्थान।
चलभाष - ९६४९९७८९८१ ।
ईमेल - vinodkumar1976vinod@gamail. com ।
नारी
*
नारी-महिमा क्या कहूँ मैं,
नारी नर का आगाज है,
जीवन बसर कर पहलू में,
नारी नर की परवाज़ है।
सच्ची साधक बनी घर की,
धरा को वह स्वर्ग बनाए,
बयार चले जब उसके मन की,
सभी खुशियाँ गले लगाए।
वार कभी न जाए खाली,
करे नैन-शर जब संधान,
ताल से हँस ताल मिलाती,
तभी सरस होता है गान।
शारद रमा उमा का अंश।
नारी से ही चलता वंश।।
*
संस्कार
*
जीवन की रसधानी में,
भावों का रस घोल रहे,
हृदय खिले मृदु बानी में,
नर नारी नित बोल रहे।
सद् कर्म के बीज बोए,
आभा दिख रही देह में,
मन का आपा जब खोए,
तब साधते दिल.नेह में।
तन मन की लाज रखेंगे,
भावों की गरिमा रखकर,
खुशियों का राज करेंगे,
देह में नेह को भरकर।
हितकारी जब हो वाणी,
तब सफल सुखी हो प्राणी।।
*
आह्वान
*
रंग तरंग उमंग भरो,
होता है जग में प्रभात,
उठो जागो प्रयाण करो,
मत रखो मन जात कुजात।
अंधकार को दूर करो,
हो प्रकाश तभी हृदय में,
संदेह-भ्रम को मत धरो,
बने रहो सहृदय जग में।
मन को मन भावन करना,
तन मन तुम पावन रखना,
नेह सदा तुम दिल रखना,
पंचामृत का रस भरना ।
उदित हो चुकी है प्रभात ।
नेह की दिल में बरसात ।।
*
पिता
*
प्रेम पिता हम सबसे रखते,
हम सबके हैं पालनकर्ता,
रक्षण-पोषण सबका करते,
वे हम सबके कर्ता-धर्ता।
गलती पर वे क्रोध दिखाते,
सबको सच्चा पथ दिखलाएँ,
नीति नियम की बात बताते,
शुभाशीष हम हर पल पाएँ।
फर्ज निभाते अपना श्रमकर,
पद-रज-कण है उनका चंदन,
राह बताते सबको हितकर,
करते नित हम उनका वंदन।
विनती मेरी सुनिए भगवन!
मंगलमय हो पितु का जीवन।।
*
बेटी
*
मन को मनभावन करना,
यह बात सदा रख दिल में,
तुम जीवन पावन रखना,
तब खुशियाँ हों आँगन में।
नेह सदा तुम दिल रखना,
फिर संग रहो कुटिया में,
पंचामृत का रस भरना,
खेल खिलाना बगिया में।
जीत हो या चाहे हार,
पीछे न कभी तुम हटना,
आपस में हो प्रेम अपार,
हर मुश्किल से डट लड़ना।
बेटी जैसा और नहीं।
उसका कोई छोर नहीं।।
*
नेह
*
नेह पसर रहा है जग में,
मेघ बरस रहे हैं भू पर,
प्रीत चहक रही है सब में,
हरियाली छाई धरा पर।
मैं और तुम मिल एक हुए,
महक फैल रही धरती पर,
बिखरे लोग सब नेक हुए,
पावन बूँदें पड़ीं धूलि पर।
खिल रही है कलियाँ देखो,
हरे-भरे आँगन चहुँ ओर,
नभ में गीत गूँजते देखो,
मंत्र मुग्ध कर रहा चकोर।
जब धरती पर बरसे नेह।
तब बरसता है खूब मेह ।।
*
पावस
पावस की बूँदे गिर रही,
काली घटा फैली नभ में,
हरियाली भू पर बस रही,
मयूर नाचते कृषिभूम में ।।
कृषक कर रहे नित जुताई,
हरे-भरे हैं सब खलिहान,
नद में खूब मौज मनाई,
गिरिधर का देखो परिधान ।।
गीत गुजँते सावन के अब,
चहुँ और कलरव है नभ में,
आनन्द में डूबे है सब
पुष्पित है कमल मन में ।।
झुम रहे सब छत आँगन में,
खिल रहे सब मन वर्षण में ।।
*
शुभाकांक्षा
*
रहे खुशबू सदा जगत में
चंदन सा महका कीजिए,
रहिए नहीं गत-आगत में,
हर मन को चहका दीजिए।
सावन से हरे स्वयं रहे,
सबको हरा-भरा कीजिए,
हरियाली घर-घर में करे,
धरती स्वर्ग बना दीजिए।
अंतस हर्षित औ तन मुदित,
आनन्द में है देखो सब,
मिटा अँधेरा जन-जन उदित,
अनाचार नही दिखता अब।
हृदय हृदय सभी एक हुए।
चहुँ ओर मनुष्य नेक हुए।।
*
कड़वा सच
*
आशा के दीप जले,
नौकरी की आस से,
बिन पैसे घर न चले,
कुछ दिहाड़ी काज से।
बिखरे बिखरे सपने,
हाथ-पैर खयाल में,
हैं रहे मार अपने,
सभी लगे जुगाड़ में।
नौकरी है एक की,
बाकी सब नाकारा,
तूती बोले उसकी,
घर में है जयकारा।
जब ठिकाने लग गए।
मोह-नेह बिसर गए।।
*
जीवन
*
उम्र भर भटकाते हैं,
चाहत के हजार रंग,
पीड़ा ही बाँटते हैं,
चले आँसुओं के संग।
ढूँढता रहता प्यार मन,
करता क्या इजहार है,
देख रहे हैं मौन नयन,
क्या उसे एतबार है?
सपना है या जिन्दगी,
या फिर एक खयाल है?
कैसी है ये बन्दगी,
लगाव करे बवाल हैं।
फिर भी सुकून ए इश्क।
दिल में जुनून-ए-रश्क।।
*
नेता
बुरे काम करता रहा,
भरता रहा अपना घर,
चोट सबको देता रहा,
ध्यान उसका दौलत पर।
खाता नित झूठी कसम,
निभाता साथ वह नहीं,
याद नहीं आती सनम,
बहे गंगा और कहीं।
हालात बिगड़ते गए,
सुधार के ही नाम पर।
वहाँ महल बनते गये,
गरीबी की गुहार पर।
पीर पराई न जाने।
साया भी न पहचाने।।
***
विपिन श्रीवास्तव, दिल्ली
जन्म - २ सितंबर १९८०, जबलपुर।
शिक्षा- बी.ई. (यांत्रिकी) ।
आत्मज - स्मृतिशेष शांति श्रीवास्तव - स्मृतिशेष नरेंद्र कुमार श्रीवास्तव।
जीवन संगिनी- श्रीमती शिवांगी श्रीवास्तव।
संप्रति - शासकीय सेवा (रक्षा मंत्रालय, नई दिल्ली)।
संपर्क - सी.ओ.डी. कॉलोनी, निकट सरस्वती शिशु मंदिर, सुहागी, जबलपुर ४८२००४।
वाट्स ऐप-९८२६२७६३६४ ।
ईमेल-nipivshrivastava@gmail.com ।
प्रभात
*
कैनवास बनता है नभ जब,
नूतन चित्र उभर आते हैं,
सूरज आब बिखरती है जब,
भू के भाव निखर आते हैं।
निशा विदा; उग आया दिनकर,
नव प्रभात स्वागत वंदन कर,
कनक रश्मि परिलक्षित जल पर,
रूप दिखा जल के दर्पण पर।
जागी भोर उठी नव आशा,
बिसरा दो जो बीत गया है,
तृप्त करो मिल ज्ञान पिपासा,
कल का मटका रीत गया है।
हर नव प्रभात कुछ कहता है।
ये जीवन पल पल बहता है।।
***
भाव सरिता
*
शब्दों के कलकल रूप लिए,
बहती है भावों की सरिता,
ओजस प्रभात की धूप लिए,
लेती है जनम नई कविता।
मंथन हो गहन विचारों का,
नव विषयों का अन्वेषण हो,
लय तालों का झंकारों का,
रस भावों का संप्रेषण हो।
प्रेमी का विरह बता दे जो,
सजनी का दुख भी प्रकट करे,
आपस के भेद मिटा दे जो,
जनमानस मन को निकट करे।
अंतस का गीत बना लो तुम।
जीवन संगीत बना लो तुम।।
***
मन
*
मेरे अवचेतन मन में,
आते-छाते यदा-कदा,
सुधियों के सूने वन में,
बहती शीतल मंद हवा।
कहते हो सुन लेते हो,
मन की बातें भूली सी,
सपने फिर बुन देते हो,
नमआँखें रेतीली सी।
सुधि के गहरे सागर में,
सीपी मोती मिलते हैं,
मन की उजड़ी बगिया में,
सुमन याद के खिलते हैं।
अवचेतन चेतन मन में।
खुशियों भर दो जीवन में।।
***
पलाश
*
जीवन के सूने आँगन में,
जब फूल पलाश दहकता है,
बिन साजन रंगीं फागुन में,
खालीपन बहुत खटकता है।
जो हैं सरहद के रखवाले,
कैसा उनको फागुन-सावन,
जो शूरवीर हैं मतवाले,
कर देते हँस तन-मन अर्पण।
फागुन की हवा सँदेशा सुन,
प्रियतम को झटपट दे आना,
हँस खाके-वतन का टीका तुम,
मस्तक को चुम लगा गाना।
अगले फागुन हम साथ रहें।
दिल ही दिल में ज़ज़्बात कहें।।
***
माँ
सुधियों का संगीत मधुर तुम,
तुम हो तरुणाई की आशा,
दे सुकून जो छाँव घनी तुम,
तुम ही जीवन की परिभाषा।
तुम पालक हो, तुम ममता हो,
तुम ही जीवन आधारशिला,
मुझ निर्बल की तुम क्षमता हो,
तुमसे मुझको ये जनम मिला।
माँके आँचल का मोल नहीं,
हम क्या दें? वह देती दूना,
जिव्हा यश सकती बोल नहीं,
माँ बिन जीवन सूना- सूना।
माँ ही गीता-रामायण है।
मानवी नहीं नारायण है।।
***
बेटी
नाजुक नर्म मखमली सा है,
तुझ संग होने का अहसास,
फुलझड़िया दीवाली सा है,
चहरे पर छाया मृदु उजास।
मैंने पकड़ा थामा तुमने,
सच तुम खुशियों का स्वागत हो,
सुख-लाभ दिए नाना तुमने,
प्रभु पूजन का पंचामृत हो।
रचना पावन बेटी जग में,
तुमसे यह घर संसार भरा,
अँगुली थामे मेरी मग में,
कर धन्य हमें स्वीकार करा।
साकार हुआ अपना सपना।
तुम हो अमोल जीवन-गहना।।
***
बँटवारा
मेरी खिड़की तेरी खिड़की से रो पूछ रही है,
घर-आँगन में क्यों खड़ी हो गईं हैं दीवारें नव?
बंद किवाड़ सिसकते कोई युक्ति न सूझ रही है,
बातों बातों में क्यों हो जाती हैं तकरारें अब।
खिले-खिले चेहरों की आमद कम दुखियारे लोग,
खालीपन गूँजता, सुनाई देता है सन्नाटा,
चुहलबाजियाँ खोई खोज आँखें नम करतीं सोग,
खिड़की से अपनापन झाँक लगाता है ज्यों चाँटा।
बँटवारा तो सब कुछ आधा-आधा कर जाता है,
टुकड़े टुकड़े हो जाते हैं हम, सपने सारे तब,
घर में खुशियान बचें न, गम-दुःख ज्यादा कर जाता है,
मासूम दिलों से छिन जाते हैं अपने प्यारे सब।
क्या हिस्सों मेंबँटने से बेहतर जुड़ रहना था?
गलत रास्ता चुनने से बेहतर रुक रहना था??
*
गुलाब और धनिया
*
जो गुलाब लाता था पहले,
वो धनिया लाया थैले में,
बलम बना, प्रियतम था पहले,
टकराया आज अकेले में।
मेला जानूं, मेला छोना,
जो रोज बुलाया करती थी,
नटखट बाबू, छैला छोना,
संसार लुटाया करती थी।
प्यार काँच की दुनिया सा है,
जब सच ये दर्पण दिखलाए,
स्वप्न परी, दुल्हनिया सा है,
ये कितने पापड़ बिलवाये।
वादों की बौछार नहीं है।
पूजा है व्यापार नहीं है।।
***
सॉनेट लेखन
सॉनेट लेखन कर रहा,
संग गुरुजन का आशीष,
गागर में अमृत भर रहा,
रजकण बन गए रजनीश।
'सलिल' हस्त आशीष संग,
गुणिजन राह दिखा जाते,
भाव सृजन मथ एक रंग,
नव आभा बिखरा जाते।
शुरू हुआ लेखन विधिवत,
तनिक तनिक अभ्यास करूँ,
त्रुटियों से होता अवगत,
फिर फिर नया प्रयास करूँ।
कलम हाथ लेकर आया।
सॉनेट लेखन मन भाया।।
***
बरसात
वो मुझे मिले बरसातों में,
पेड़ों के झुरमुट के नीचे,
बेबस उलझा हालातों में,
सपनों को पलकों में भींचे।
हवा हिला दे उसके तन को,
बिजली भी रूप दिखा जाए,
अंधकार से कंपित मन को,
अब रिमझिम भी कैसे भाए।
हाथ थाम मैंने उसका फिर,
गिरते पानी में खीच लिया,
स्वागत मेघा करती घिर-घिर,
भय को साहस से सींच दिया।
ए बरसात भिगा दे फिर से।
मन उल्लास जगा दे फिर से।।
***
पुरवाई
*
साँझ ढले चलती पुरवैया,
ग्वाल बाल की नटखट टोली,
हाँक लौटते बछड़े-गैया,
खेलें मिलकर आंख मिचौली।
ताप हरण पुरवैया करती,
अँगना शीतलता से भरता,
आलिंगित वन श्री हँस पड़ती,
आसमान से पानी झरता।
पुरवैया खुशियों की वाहक,
मानव मन को हर्षाती है,
धरती हरियाली की चाहक,
भू को चूनर दे जाती हो।
संस्कृति की संस्कारों की।
पुरवाई चले विचारों की।।
***
फूल
बगिया में नव फूल खिला,
सँकुचाया-सहमाया सा,
हसीं कली का संग मिला,
अपने में भरमाया सा।
प्रभु मूरत पर चढ़ जाऊँ,
या शहीद को नमन करूँ,
कोमल केश सजा पाऊँ,
ना नेता के गले पडूँ।
सम्मान सहित मुरझाऊँ,
धरती गोदी में ले ले,
हँस माटी में मिल पाऊँ,
पर दूर न कोई ठेले।
हो जाए भान जरा सा।
यह सुमन करे अभिलाषा।।
***
सुनीता परसाई
जन्म - २० मार्च १९५६, जबलपुर ।
आत्मज - स्मृतिशेष सुधा - स्मृतिशेष काशीनाथ अमलाथे।
जीवनसाथी - श्री महेन्द्र कुमार परसाई।
शिक्षा - स्नातकोत्तर (समाज शास्त्र, हिंदी) ।
संपर्क - द्वारा - श्री रोहित परसाई, फ्लैट क्रमांक २७०९, ब्लॉक २,
माई होम अवतार, नरसिंगी, राजेन्द्रनगर रेवेन्यू मण्डल, हैदराबाद
रंग रेड्डी जिला ५०००७५ तेलंगाना ।
- १८६५,हृदय नगर, कोल माइंस आफिस के पास , गुप्तेश्वर, जबलपुर ४८२००१ ।
चलभाष - ९६१९४५५६११ ।
ईमेल - Sunita persai @gmail.com
गुरु
ज्ञान आपने है दिया,
मन से मानें आभार,
कच्ची मिट्टी का किया,
हर सपना सच साकार।
छंद ज्ञान हमको मिला,
है मिली विधा रस-खान,
हृदय कमल मुकुलित खिला,
पाकर विधान का ज्ञान।
जो गुरु पर सब वारते,
गुरु उन्हें बताते राह,
बाधाओं से तारते,
गुरु करें श्रेष्ठ की चाह।
गुरु का महिमा जाप।
काटे शिष्यों के पाप।।
१३
***
गणेश
*
प्रथम देवता आप,
पूजें सभी गणेश,
हरते सबके पाप,
करते प्यार महेश।
लिखकर पंचमवेद
बाँटा सबको ज्ञान,
दिया शास्त्र का भेद,
करते सब सम्मान।
देना निर्मल बुद्धि,
हे जग के करतार,
संग रहे माँ रिद्धि,
सहित सिद्धि-भरतार।।
गणपति सुंदर रूप।
वर दें देव अनूप ।।
११
***
भारती वंदना
*
माँ भारती!
वरदायिनी,
भव तारती,
सुर वादिनी।।
प्रभु जानते,
भुवनेश्वरी,
सब मानते,
वागीश्वरी।
धुन रचातीं,
मति दे हमें,
पथ दिखातीं,
पग नहिं थमें।
माँ! हो सदय।
के दो अभय।।
*
पुरवैया
*
पुरवैया के नम झौंके,
उड़ते हैं पंछी डरकर,
ढूंँढ़े छुपने के मौके,
पाखी नव साहस भरकर।
दिल खग का भय से धड़के,
उसकी गति ही खग डरता,
तरु झूमे डोले मटके,
कितने जीवन वह हरता।
केवट तीर रखे नैया,
होता उसको अंदेशा,
चलती जब-जब पुरवैया,
अनहोनी का संदेशा।
रहें बड़ी द्रुत बलशाली।
लाती है प्रिय खुशहाली।।
१४-१४मात्रा, मापनी-22-22-22-2
***
चरणामृत
*
दूध शहद दधि मिश्री घृत,
मिला बनाएँ पंचामृत,
करें ईश को नित अर्पित,
तरें ग्रहण कर चरणामृत,
यह औषधि समान होता,
स्वाद सभी को है भाता,
पाप हमारे सब धोता,
भक्त शांति-सुख भी पाता।
प्रभु भोले! भोले-भाले,
सबको लगते हैं प्यारे,
हैं मनमौजी मतवाले,
भजें भक्त उनके सारे।
देव चढ़ाओ पंचामृत।
शीश लगाओ चरणामृत।।
१४-१४मात्रा
***
फागुन
*
आता है जब फागुन मास,
खेलें रास बिहारी झूम,
राधा बैठी लेकर आस,
श्याम कहाँ?, क्यों मची न धूम।
करे प्रकृति मनहर शृंगार,
खिले पुष्प शत पीले-लाल,
खोजे सज्जित राधा नार,
कहाँ छुपा जसुदा का लाल।
छेड़े कान्हा मुरली तान,
बाँकी दृष्टि रहा है डाल,
रूठी राधा करती मान,
बिसर गगरिया देती ताल।
राधा-कान्हा खेले रंग।
ग्वाल-बाल भी होते संग।।
१५-१५मात्रा
***
समीर
*
दिशा सुगंधित हो जाती,
जब समीर मलयज बहती,
पिया मिलन पल सँकुचाती,
शृंगारित सजनी सजती।
प्रियतम भेज रहे संदेश,
आकुल हैं प्रिया के नैन,
जा बैठे दूर परदेश,
हृदय रहे बहुत बेचैन।
बह मंद पवन का झोंका,
घायल करता मन प्रिय का,
आहट सुनकर मन चौंका,
वह तो भ्रम निकला हिय का।।
जग पथ दिन रैन निहारे।
तक पथ 'पी कहाँ' पुकारे।।
१४-१४ मात्रा
***
शिखर
*
शिखर उच्च बौना मनुज,
चढ़ तोड़े नाहक उसे,
वन काटे निर्दय दनुज,
राहु-केतु सम शशि ग्रसे।
महल अटारी तानता,
समझे बढ़ता मान है,
प्रकृति कुपित नहिं जानता,
वृथा अहं अभिमान है।
नद नाले क्यों सूखते,
समझें सब इस बात को,
बंधन सारे टूटते,
रोको मिल इस घात को।।
पर्वत की रक्षा करें।
रोग कष्ट सब गिरि हरें।।
13
****
माया नगरी
*
रिश्ते नाते झूठे जान,
करे दिखावा यह संसार,
हैं सुख के सब साथी मान,
कभी मानना मत तुम हार।
माया नगरी का है खेल,
हमें नचाते हैं जगदीश,
रखें हमेशा सबसे मेल,
प्रभु के चरणों में रख शीश।
शबरी द्वारे आए राम,
किया उन्होंने था उद्धार,
जपा राम का उसने नाम,
श्राप मुक्त प्रभु की वह नार।
ईश्वर ही हैं तारणहार।
वही लगाते नैया पार।।
15
***
निहारो
*
नेक कर्म,
कर बंदे,
सत्य धर्म,
तज फंदे।
जी जीवन।
विधि सम्मत।
सब सीवन।।
उधेड़ मत।।
बन प्रवीर।
तज विकार।
मन अमीर।।
जग निखार।।
करें त्याग।
खुलें भाग।।
*
बेटी
*
बिटिया रानी प्यारी सी,
सबके मन को वह भाती,
मात- पिता की रानी सी,
खुशियों से घर महकाती।
सुंदर सा दूल्हा होगा,
घोड़ी पर वह आएगा,
पहने चमकीला चोगा,
संग पालकी लाएगा,
आ बरात नाचे द्वारे,
स्वागत करें घराती मिल,
बुन बन बेटी सपने प्यारे,
दूल्हा कूल कहे हो चिल।
दे आशीष बिदा होती।
तब बचपन बेटी खोती।।
14
***
नवीन चतुर्वेदी
कृष्ण लीला १.
साँकरी सी खोर गहवर वन की थी वो,
जिसमें सखियों संग राधा चल रही थी,
यूँ तो ना ना कर रही थी वह मिलन को,
किंतु मन में आस भी कुछ पल रही थी।
नील अंबर पर घटाएँ छा रही थीं,
मेघ वर्षा करने को जुड़ने लगे थे,
कोयलें झुण्डों में कोरस ग़ा रही थीं,
काले काले केश भी उड़ने लगे थे।
ऐसे में मुरली की धुन कानों तक आई,
जिसको सुनते ही सभी ने होश खोए,
एक सखी ने बात राधे को बताई,
कृष्ण बैठा है तेरे सपने सँजोए।
इससे आगे प्रीत का पथ है सुहाना।
जिसको तुम दोनों को मिलकर है सजाना।।
***
कृष्ण लीला २.
ओढ़कर धानी चुनर एक रोज राधा,
संग सखियों के कहीं पर जा रही थी,
था गगन में चाँद भी उस रोज आधा,
गीत खुशियों के हवा भी ग़ा रही थी।
तीर पर यमुना के एक हंसों का जोड़ा,
प्रीत के संगीत का रस ले रहा था,
उस समय वातावरण भी थोड़ा थोड़ा,
संगमन में साथ उनका दे रहा था।
दृश्य अनुपम हर किसी के मन को भाया,
बस तभी प्रारब्ध ने लीला दिखाई,
एक ग्वाला धीरे धीरे पास आया,
पास आते ही मधुर मुरली बजाई।
ध्यान से देखा तो मुरलीधर खड़े थे।
देर तक फिर दोनों के नैना लड़े थे।।
***
कृष्ण लीला ३
दिख रहा था सब मगर कुछ भी न देखा,
गोपियों की सुध कहीं पर खो गई थी,
केश, कपड़े, घर, नगर कुछ भी न देखा,
बाँसुरी की धुन बड़ी मोहक लगी थी।
छँट रहा था युग युगान्तर का अँधेरा,
वे किसी बाती के जैसे जल पड़ी थीं,
नाम जिसका याद आया उसको टेरा,
और एक अल्हड़ नदी सी चल पड़ी थीं।
थम गए आकाश में चंदा सितारे,
रास की अभिलाष थीं मन में सजाए,
कुंज गलियों से गुजरकर झुण्ड सारे,
राधिका और कृष्ण की महफिल में आए,
अप्रतिम आभास की लीला हुई थी।
छह महीने रास की लीला हुई थी।।
***
कृष्ण लीला ४
ज्ञान देने के लिए उद्धव गया जब,
गोपियों ने उसके मन की गाँठें खोलीं,
ज्ञान की बातें सुनाकर थक गया तब,
धैर्य से सब गोपियाँ एक साथ बोलीं।
झूठी बातों से हमें भरमा न उद्धव,
कौन कहता है किशन मथुरा गया है,
देख तेरे पास ही बैठा है केशव,
हमको लगता है कि तू पगला गया है
एक दिन क्या छोड़ जाएगा मुरारी,
सोचकर जब दिल बहुत घबरा रहा था,
कृष्ण ने खुद भाँपकर हालत हमारी,
नंद बाबा की कसम खा कर कहा था।
हर घड़ी हर पल बिताऊँगा यहीं मैं।
छोड़ कर ब्रज को न जाऊँगा कहीं मैं।
***
कृष्ण लीला ५
जानते थे इसको जाना होगा एक दिन,
इसलिये ही तो न अपनी तानते थे,
माँ यशोदा थी भले अनजान लेकिन,
नंद बाबा सब हकीकत जानते थे।
देवकी वसुदेव के लल्ला को अपना,
मानते तो थे मगर संकोच भी था,
जानते थे कृष्ण है बस एक सपना,
साथ ही इस तथ्य पर संकोच भी था।
सामना जब वास्तविकता से हुआ तो,
थे मुलायम किंतु पत्थर बन गए थे,
जब यशोदा का कलेजा फट पड़ा तो,
नंद बाबा खुद रफूगर बन गए थे।
हूक जब जब भी उठी खुद को ही दाबा।
रो नहीं पाए कभी भी नंद बाबा।।
***
कृष्ण लीला ६
कल्पना बिन गद्य क्या है; पद्य क्या है,
कल्पना ने पोत पानी पर चलाए,
कल्पना ने ब्रह्म अक्षर को कहा है,
कल्पना ने ही गगन में यान उड़ाए,
थोड़ा सा बढ़ चढ़ के लिखते ही हैं लेखक,
शोलों को शबनम कहा करते हैं शायर,
लिखनेवाले शाह हो कर भी हैं सेवक,
जो नहीं सुनते वे हो जाते हैं फायर।
क्या पता दुनिया ही थी तब उस तरह की,
ये भी मुमकिन है कि बानक यों बने हो,
पाठकों को चाह जिस साहित्य की थी,
लेखकों ने लेख वैसे ही लिखे हों।
पूर्वजों से जो मिला उसको कबूलें।
फिर बना के झूले उन झूलों पै झूलें।।
***
कृष्ण लीला ७
दर्ज हैं इतिहास में बीसों फसाने,
ऐसे ऐसे जिनने दुनिया को सजाया,
जब भी अपनी पर उतर आए दीवाने,
एक रस्ता नया सबको है दिखाया।
कंस की नजरों में था जो मात्र भोजन,
जीविका का वस्तुतः आधार था वह,
दूध को मथकर निकलता था जो माखन,
ब्रज-जनों के वास्ते व्यापार था वह।
गोप बोले टैक्स की दर तुम करो तय,
हम करेंगे भाव तय निज वस्तुओं का,
कंस आखिर तक नहीं समझा ये आशय,
शत्रु बन बैठा वो जीव और जन्तुओं का
कंस ने ताकत दिखाना ठीक समझा,
कृष्ण ने माखन चुराना ठीक समझा।
***
कृष्ण लीला ८.
दिन निकलता है तो कुछ कारण है उसका,
शाम भी कारण बिना ढलती नहीं है,
बिन वजह तिनका नहीं उड़ता है कुश का,
बिन वजह तो आग भी जलती नहीं है।
सृष्टि के आरम्भ में थे व्यक्ति दो ही,
मध्य उनके रस्म थी; ना रीति कोई,
जो मिले खा लेते थे दौनों बटोही,
फिर उगाया अन्न अपनाई रसोई।
रूप जीवन को मिला है ऐसे ही तो,
सभ्यताएँ विश्व में यों ही बढ़ी थीं,
सब नहीं कुछ गोपियाँ मासूम थीं जो,
स्नान के बारे में कुछ अनभिज्ञ सी थीं।
शुभ्र, नैतिक सभ्यता के वास्ते थी।
चीर लीला शिष्टता के वास्ते थी।।
***
कृष्ण लीला ९
क्यों भला रणछोड़ का तमगा पहनते,
क्यों भला निज नाम पर धब्बा लगाते,
चाहते यदि कृष्ण तो पीछे न हटते,
युद्ध में कसकर कमर फिर कूद जाते।
किंतु करुणाकर ने सोचा जन्म से ही,
मैं तो अपने युद्ध को लड़ ही रहा हूँ,
और निश्चित रूप से है सत्य यह भी,
शत्रु पर इक्कीस भी पड़ ही रहा हूँ।
किंतु मेरे साथ जो इंसान हैं वे,
वे हमेशा दहशतों में जी रहे हैं,
हर घड़ी के कष्ट से हलकान हैं वे,
घूँट भर भर आँसुओं को पी रहे हैं
सोच यह करुणेश ने करुणा दिखाई।
सिंधु में जा कर नई दुनिया बसाई ।।
***
कृष्ण लीला १०
कृष्ण जैसा कौन होगा पूर्णकामा,
मुँह किसी से भी कभी मोड़ा नहीं है,
हाथ जिसका भी दयासागर ने थामा,
अंत तक थामे रखा छोड़ा नहीं है।
एक मधुर मुस्कान से जीता जगत को,
प्रेम प्रेम और प्रेम ही उसने किया बस,
हारकर खुद को भी जीता है भगत को,
जो शरण में आ गया अपना लिया बस।
ऐसा होगा तो नहीं होगा वो वैसा,
है कठिन तुलना करो तो कर दिखाना,
मित्रता के मामले में कृष्ण जैसा,
मित्र यदि कोई हुआ हो तो बताना।
जिस सुदामा के कभी तंदुल थे खाए।
धोने को उसके चरण आँसू बहाए।।
***
कृष्ण लीला ११
कृष्ण का जीवन समुंदर की तरह था,
वे सतत टकरा रहे थे साहिलों से,
उनके जीवन में बहुत कुछ बेवजह था,
फिर भी हँसकर लड़ रहे थे मुश्किलों से।
लाख बहलाने से भी जब दिल न बहले,
क्या दशा हो जाती है सच सच बताना,
माधवन पर टिप्पणी करने से पहले,
आईने के सामने कुछ पल बिताना।
सच तो ये ही है भटक-भटका के मैं भी,
थक गया तो मित्र मोहन को बनाया,
नैन मूँदे लब सिले तब जा के मैं भी,
कृष्ण मिश्री की डली हैं जान पाया।
शब्द की सीमाओं को जो जानते हैं।
खामुशी को बस वही पहचानते हैं।।
***
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर
समन्वय प्रकाशन जबलपुर
प्रथम साॅनेट साझा संकलन
•
जबलपुर, २९-६-२०२३।
हिंदी का प्रथम साॅनेट साझा संकलन हेतु मिल रहा सहयोग अभूतपूर्व है। समूह में साॅनेट सीखनेवाले ११-११ सोनेटकारों के दस-दस सोनेट, चित्र, संक्षिप्त परिचय तथा उनके सोनेटों पर संपादकीय टिप्पणी सहभागिता आधारित सामूहिक संकलन में प्रकाशित कर संकलन की १० प्रतियां (पैकिंग-पोस्टेज निशुल्क) भेजी जाएंगी। मात्र २१००/- सहभागिता निधि ९४२५१८३२४४ पर पे टी एम कार स्नैपशॉट भेजिए।
* ०१ - सुनीता परसाई, हैदराबाद ९६१९४ ५५६११
* ०२ - विनोद वाग्वर, सागवाड़ा राजस्थान ९६४९९ ७८९८१
* ०३ - इं. विपिन श्रीवास्तव, दिल्ली ९८२६२ ७६३६४
* ०४ - नीलम कुलश्रेष्ठ ,गुना ९४०७२ २८३१४
* ०५ -डा. रेखा श्रीवास्तव,अमेठी ९४५०७ ७४२०२
* ०६ देवकांत मिश्र 'दिव्य', भागलपुर ८२९८७ २०२५४
* ०७ - निधि जैन, इंदौर ९३००४ २२१११
* ०८ - छाया सक्सेना, जबलपुर
* ०९ - भारती नरेश पाराशर, जबलपुर
* १० - इं. अवधेश सक्सेना, शिवपुरी
* ११ - मनोरमा जैन पाखी, भिंड
सामग्री अप्राप्त
* - डॉ. संतोष शुक्ला, ग्वालियर
* - हरिसहाय पाण्डेय 'हरि', जबलपुर ९७५२४ १३०९६
* - रश्मि मोयदे 'दीप्ति', उज्जैन
* - कृष्ण कुमार परोहा, जबलपुर
* - तृप्ति मिश्रा, हैदराबाद
* - विभा भटोरे, जबलपुर
* - शोभित गुप्ता
राशि व सामग्री अप्राप्त
- अनुराधा पांडे, दिल्ली
- नवीन चतुर्वेदी, मुंबई
- चौधरी आशा जैन सिहोरा
- सुभाष सिंह, कटनी
- मनीषा सहाय, जबलपुर
- गीता चौबे 'गूँज', रांची
•••
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