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शनिवार, 10 जून 2023

मोहन राकेश

स्मरण-
हिंदी नाट्य जगत का शिखर पुरुष मोहन राकेश
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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                मदन मोहन गुगलानी उर्फ मोहन राकेश का जन्म ८ जनवरी १९२५ को अमृतसर, पंजाब में हुआ। वे मूलतः एक सिंधी परिवार से थे। उनके पिता कर्मचन्द बहुत पहले सिंध से पंजाब आए थे। मोहन राकेश नई कहानी आंदोलन से जुड़े महत्वपूर्ण कथाकार थे। पंजाब विश्वविद्यालय से हिंदी और अँग्रेज़ी में एम. ए. थे। जीविका हेतु अध्यापन से जुड़े। कुछ वर्षो तक 'सारिका' के संपादक रहे। अपनी साहित्यिक अभिरुचि के कारण मोहन राकेश का अध्यापन कार्य में मन नहीं लगा और एक वर्ष तक उन्होंने 'सारिका' पत्रिका का सम्पादन किया। इस कार्य को भी अपने लेखन में बाधा समझकर इससे किनारे कर लिया और जीवन के अन्त तक स्वतंत्र लेखन ही इनके जीविकोपार्जन का साधन रहा। मोहन राकेश हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न नाट्य लेखक और उपन्यासकार थे। समाज की संवेदनशील अनुभूतियों को चुनकर उनका सार्थक सम्बन्ध खोज निकालना उनकी कहानियों की विषय-वस्तु थी। वे 'आषाढ़ का एक दिन', 'आधे अधूरे' और ‘लहरों के राजहंस’ जैसे महत्वपूर्ण नाटकों के रचनाकार हैं। मोहन राकेश की रचनाएँ पाठकों और लेखकों के दिलों को छूती हैं। एक बार जो उनकी रचना को पढ़ता है तो वह पूरी तरह से राकेश के शब्दों में डूब जाता है। उन्हें सम्मानित कर 'संगीत नाटक अकादमी' खुद सम्मानित हुई। मोहन राकेश की 'डायरी' हिंदी में इस विधा की सबसे सुंदर कृतियों में एक मानी जाती है। सर्वप्रथम कहानी के क्षेत्र में सफल लेखन के बाद नाट्य-लेखन में ख्याति के नए स्तंभ स्थापित किए। 'उसकी रोटी' नामक कहानी राकेश ने लिखी, जिस पर १९७० के दशक में फिल्मकार मणि कौल ने इसी शीर्षक से एक फिल्म बनाई। फिल्म की पटकथा खुद राकेश ने लिखी थी। ३ दिसम्बर १९७२ को नई दिल्ली में हिंदी नाट्य जगत का यह दीप्तिमान सितारा अस्त हो गया।

रचना संसार

उपन्यास: अँधेरे बंद कमरे १९६१, अंतराल १९७२, न आने वाला कल १९६८, काँपता हुआ दरिया (अपूर्ण)।

नाटक: आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस, आधे अधूरे, पैर तले की ज़मीन (अधूरा, कमलेश्वर ने पूरा किया), सिपाही की माँ , प्यालियाँ टूटती हैं, रात बीतने तक, छतरियाँ, शायद, हंः।

एकांकी: अण्डे के छिल्के, बहुत बड़ा सवाल।

कहानी संग्रह: क्वार्टर तथा अन्य कहानियाँ, पहचान तथा अन्य कहानियाँ, वारिस तथा अन्य कहानियाँ।

निबंध संग्रह: परिवेश।

अनुवाद: मृच्छकटिक, शाकुंतलम।

यात्रा वृतांत: आख़िरी चट्टान तक।

सृजन यात्रा

                मोहन राकेश हिंदी साहित्य के उन चुनिंदा साहित्यकारों में हैं जिन्हें 'नयी कहानी आंदोलन' का नायक माना जाता है और साहित्य जगत में अधिकांश लोग उन्हें उस दौर का 'महानायक' कहते हैं। उनकी 'मिसपाल', 'आद्रा', 'ग्लासटैंक', 'जानवर' और 'मलबे का मालिक' आदि कहानियों ने हिन्दी कहानी का परिदृश्य ही बदल दिया। वे 'नई कहानी आन्दोलन' के शीर्ष कथाकार के रूप में चर्चित हुए। मोहन राकेश हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न नाट्य लेखक और उपन्यासकार हैं। उनकी कहानियों में एक निरंतर विकास मिलता है, जिससे वे आधुनिक मनुष्य की नियति के निकट से निकटतर आते गए हैं। उनकी खूबी यह थी कि वे कथा-शिल्प के उस्ताद थे और उनकी भाषा में गज़ब का सधाव ही नहीं, एक शास्त्रीय अनुशासन भी है। कहानी से लेकर उपन्यास तक में उनकी कथा-भूमि शहरी मध्य वर्ग है। कुछ कहानियों में भारत-विभाजन की पीड़ा बहुत सशक्त रूप में अभिव्यक्त हुई है। कहानी के बाद राकेश को सफलता नाट्य-लेखन के क्षेत्र में मिली है।उन्होंने 'आषाढ़ का एक दिन' के रूप में हिंदी का पहला आधुनिक नाटक भी लिखा। कहानीकार−उपन्यासकार प्रकाश मनु नई कहानी के दौर में मोहन राकेश को सर्वोपरि मानते हुए कहते हैं- ''नयी कहानी आंदोलन ने हिंदी कहानी की पूरी तस्वीर बदली है। उस दौर में तीन नायक मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव रहे। मैं मोहन राकेश को सबसे ऊपर मानता हूँ। खुद कमलेश्वर और राजेंद्र यादव भी राकेश को हमेशा सर्वश्रेष्ठ मानते रहे। ... मोहन राकेश की रचनाएँ पाठकों और लेखकों के दिलों को छूती हैं। एक बार जो उनकी रचना को पढ़ता तो वह पूरी तरह से राकेश के शब्दों में डूब जाता है।''

                मोहन राकेश को कहानी के बाद सफलता नाट्य-लेखन के क्षेत्र में मिली। हिंदी नाटकों में भारतेंदु हरिश्चंद्र और जयशंकर प्रसाद के बाद का दौर मोहन राकेश का दौर है जिसें हिंदी नाटकों को फिर से रंगमंच से जोड़ा। हिन्दी नाट्य साहित्य में भारतेन्दु और प्रसाद के बाद यदि लीक से हटकर कोई नाम उभरता है तो मोहन राकेश का। हालाँकि बीच में और भी कई नाम डॉ. रामकुमार वर्मा, जगदीशचंद्र माथुर, भुवनेश्वर, उपेन्द्र नाथ 'अश्क', भीष्म साहनी, सेठ गोविंददास, डॉ. धर्मवीर भारती, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल आदि आते हैं जिन्होंने आधुनिक हिन्दी नाटक की विकास-यात्रा में महत्त्वपूर्ण पड़ाव तय किए हैं तथापि मोहन राकेश का लेखन एक दूसरे ध्रुवान्त पर नज़र आता है। इसलिए ही नहीं कि उन्होंने अच्छे नाटक लिखे, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने हिन्दी नाटक को अँधेरे बन्द कमरों से बाहर निकाला और उसे युगों के रोमानी ऐन्द्रजालिक सम्मोहक से उबारकर एक नए दौर के साथ जोड़कर दिखाया।

                मेरे मत में मोहन राकेश के नाटक केवल हिंदी के नाटक नहीं हैं। वे हिंदी में लिखे अवश्य गए हैं, किन्तु वे समकालीन भारतीय नाट्य प्रवृत्तियों के द्योतक हैं। उन्होंने हिंदी नाटक को पहली बार अखिल भारतीय स्तर ही नहीं प्रदान किया वरन् उसके सदियों के अलग-थलग प्रवाह को विश्व नाटक की एक सामान्य धारा की ओर भी अग्रसर किया। मैं मोहन राकेश को हिंदी नाट्य लोक का शिखर हस्ताक्षर मानता हूँ। मोहन राकेश के नाटकों का प्रमुख भारतीय निर्देशकों इब्राहीम अलकाजी, ओम शिवपुरी, अरविन्द गौड़, श्यामानन्द जालान, राम गोपाल बजाज और दिनेश ठाकुर ने नाटकों का निर्देशन किया जाना मेरे मत की पुष्टि करता है।

                मोहन राकेश के दो नाटकों 'आषाढ़ का एक दिन' तथा 'लहरों के राजहंस' में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को लेने पर भी आधुनिक मनुष्य के अंतर्द्वंद और संशयों की ही गाथा कही गई है। एक नाटक की पृष्ठभूमि में गुप्तकाल है तो दूसरा बौद्धकाल के समय पर लिखा गया है।

आषाढ़ का एक दिन

                मोहन राकेश की सबसे बड़ी उपलब्धि १९५८ में प्रकाशित उनका नाटक "आषाढ़ का एक दिन" था, जिसने नाटकों को एक नया आयाम दिया। मोहन राकेश आषाढ़ का एक दिन में सफलता और प्रेम में से एक को चुनने के द्वंद्व से जूझते कालिदास एक रचनाकार और एक आधुनिक मनुष्य के मन की पहेलियों को सामने रखते हैं। वहीं प्रेम में टूटकर भी प्रेम को नहीं टूटने देने वाली इस नाटक की नायिका मल्लिका के रूप में हिंदी साहित्य को एक अविस्मरणीय पात्र मिला है। इसे हिन्दी नाटक के आधुनिक युग का प्रथम नाटक कहा जाता है। सन १९७९में इसे वर्ष का सर्वश्रेष्ठ नाटक होने के लिए 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार' से भी सम्मानित किया गया था। कई प्रसिद्ध निर्देशक इस नाटक को मंच पर ला चुके हैं। १९७९ में निर्देशक मणि कौल ने इस पर आधारित एक फ़िल्म बनाई, जिसने आगे जाकर साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' भी जीत लिया। 'आषाढ़ का एक दिन' महाकवि कालिदास के निजी जीवन पर केन्द्रित है, जो १०० ई. पू. से ५०० ईसवी के अनुमानित काल में व्यतीत हुआ। इस नाटक का शीर्षक कालिदास की कृति 'मेघदूतम्' की शुरुआती पंक्तियों से लिया गया है, क्योंकि आषाढ़ का महीना उत्तर भारत में वर्षा ऋतु का शुरुआती महीना होता है, इसका सीधा अर्थ "वर्षा ऋतु का एक दिन" है। मोहन राकेश द्वारा रचित 'आषाढ़ का एक दिन' एक त्रिखंडीय नाटक है। इसमें सफलता और प्रेम में से एक को चुनने के संशय से जूझते कालिदास, एक रचनाकार और एक आधुनिक मनुष्य के मन की पहेलियों को रखा गया है।

                ‘आषाढ़ का एक दिन’ की प्रत्यक्ष विषयवस्तु कवि कालिदास के जीवन से संबंधित है। मूलत: वह उसके प्रसिद्ध होने के पहले की प्रेयसी का नाटक है- एक सीधी-सादी समर्पित लड़की की नियति का चित्र, जो एक कवि से प्रेम ही नहीं करती, उसे महान् होते भी देखना चाहती है। महान् वह अवश्य बनता है, पर इसका मूल्य मल्लिका अपना सर्वस्व देकर चुकाती है। अंत में कालिदास भी उसे केवल अपनी सहानुभूति दे पाता है, और चुपके से छोड़कर चले जाने के अतिरिक्त उससे कुछ नहीं बन पड़ता। मल्लिका के लिए कालिदास उसके संपूर्ण व्यक्तित्व के, जीवन में, साथ एकाकार सुदूर स्वप्न की भाँति है; कालिदास के लिए मल्लिका उसके प्रेरणादायक परिवेश का एक अत्यन्त जीवंत तत्व मात्र। अनन्यता और आत्मलिप्तता की इस विसदृशता में पर्याप्त नाटकीयता है, और मोहन रोकेश जिस एकाग्रता, तीव्रता और गहराई के साथ उसे खोजने और व्यक्त करने में सफल हुए हैं वह हिन्दी नाटक के लिए सर्वथा अपरिचित है।

                इसके साथ ही समकालीन अनुभव और भी कई आयाम इस नाटक में हैं, जो उसे एकाधिक स्तर पर सार्थक और रोचक बनाते हैं। उसका नाटकीय संघर्ष कला और प्रेम, सर्जनशील व्यक्ति और परिवेश, भावना और कर्म, कलाकार और राज्य, आदि कई स्तरों को छूता है। इसी प्रकार काल के आयाम को बड़ी रोचक तीव्रता के साथ प्रस्तुत किया गया है-लगभग एक पात्र के रूप में। मल्लिका और उसके परिवेश की परिणति में तो वह मौजूद है ही, स्वयं कालिदास भी उसके विघटनकारी रूप का अनुभव करता है। अपनी समस्त आत्मलिप्तता के बावजूद उसे लगता है कि अपने परिवेश में टूटकर वह स्वयं भी भीतर कहीं टूट गया है।

                कालिदास ही इस नाटक का सबसे कमज़ोर अंश है; क्योंकि अंतत: नाटक में उद्घाटित उसका व्यक्तित्व न तो किसी मूल्यवान और सार्थक स्तर पर स्थापित ही हो पाता है, न इतिहास-प्रसिद्ध कवि कालिदास को, और इस प्रकार उसके माध्यम से समस्त भारतीय सर्जनात्मक प्रतिभा को, कोई गहरा विश्वसनीय आयाम ही दे पाता है। नाटक में प्रस्तुत कालिदास बड़ा क्षुद्र और आत्मकेन्द्रित, बल्कि स्वार्थी व्यक्ति है। साथ ही उसके व्यक्तित्व में कोई तत्व ऐसा नहीं दीख पड़ता, जो उसकी महानता का, उसकी असाधारण सर्जनात्मक प्रतिभा का, स्रोत्र समझा जा सके या उसका औचित्य सिद्ध कर सके। राज्य की ओर से सम्मान और निमंत्रण मिलने पर वह नहीं-नहीं करता हुआ भी अंत में उज्जैन चला ही जाता है। कश्मीर का शासक बनने पर गाँव में आकर भी मल्लिका से मिलने नहीं आता; अंत में मल्लिका के जीवन की उतनी करुण, दुखद परिणति देखकर भी उसे छोड़कर कायरतापूर्वक चुपचाप खिसक पड़ना संभव पाता है। ये सभी उसके व्यक्तित्व के ऐसे पक्ष हैं, जो उसको एक अत्यन्त साधारण व्यक्ति के रूप में ही प्रकट करते हैं। निस्संदेह, किसी महान् सर्जनात्मक व्यक्तित्व में महानता और नीचता के दो छोरों का एक साथ अंतर्ग्रथित होना संभव है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास का हीन रूप ही दीख पड़ता है। महानता को छूने वाले सूत्र का छोर कहीं नहीं नज़र आता। लेखक उसके भीतर ऐसे तीव्र विरोधी तत्त्वों का कोई संघर्ष भी नहीं दिखा सकता है, जो इस क्षुद्रता के साथ-साथ उसकी असाधारण सर्जनशीलता को विश्वसनीय बना सके। कालिदास की यह स्थिति नाटक को किसी-किसी हद तक किसी भी गहराई के साथ व्यंजित नहीं होने देती।

                विसदृशता के दो अन्य रोचक रूप हैं- मल्लिका की माँ अम्बिका और कालिदास का मामा मातुल। दोनों बुजुर्ग हैं, नाटक के दो प्रमुख तरुण पात्रों के अभिभावक। दोनों ही अपने-अपने प्रतिपालितों से असन्तुष्ट, बल्कि निराश हैं। फिर भी दोनों एक दूसरे से एकदम भिन्न, बल्कि लगभग विपरीत हैं। दोनों के बीच यह भिन्नता संस्कार, जीवनदृष्टि, स्वभाव, व्यवहार, बोलचाल, भाषा आदि अनेक स्तरों पर उकेरी गयी है। इससे मल्लिका और कालिदास दोनों के चरित्र अधिक सूक्ष्म और रोचकता के साथ रूपायित हो सके हैं। ऐसी ही दिलचस्प विसदृशता विक्षेप और कालिदास तथा मल्लिका और प्रियंगुमंजरी के बीच भी रची गयी है। इसी तरह बहुत संयत और प्रभावी ढंग से, व्यंग्य और सूक्ष्म हास्य के साथ, समकालीन स्थितियों की अनुगूंज पैदा की गयी है रंगिणा-संगिणी और अनुस्वार-अनुनासिक की दो जोड़ियों के द्वारा। ये थोड़ी ही देर के लिए आते हैं, पर बड़ी कुशलता से कई बातें व्यंजित कर जाते हैं। वास्तव में ‘आषाढ़ का एक दिन’ की लेखन और प्रदर्शन दोनों ही स्तरों पर व्यापक सफलता का आधार है उसकी बेहद सधी हुई, संयमति और सुचिंतित पात्र-योजना। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ‘आषाढ़ का एक दिन’ पिछले तीस-बत्तीस वर्षों में भारत की अनेक भाषाओं में, अनेक केन्द्रों में बार-बार खेला गया है और अब भी उसका आकर्षण कुछ कम नहीं हुआ है।

                निस्संदेह, हिन्दी नाटक के परिप्रेक्ष्य में और भाववस्तु और रूपबंध दोनों स्तर पर ‘आषाढ़ का एक दिन’ ऐसा पर्याप्त सघन, तीव्र और भावोद्दीप्त लेखन प्रस्तुत करता है, जैसा हिन्दी नाटक में बहुत कम ही हुआ है। उसमें भाव और स्थिति की गहराई में जाने का प्रयास है और पूरा नाटक एक साथ कई स्तरों पर प्रभावकारी है। बिंबों के बड़े प्रभावी नाटकीय प्रयोग के साथ उसमें शब्दों की अपूर्व मितव्ययता भी है और भाषा में ऐसा नाटकीय काव्य है, जो हिंदी नाटकीय गद्य के लिए अभूतपूर्व है। हिन्दी के ढेरों तथा कथित ऐतिहासिक नाटकों से ‘आषाढ़ का एक दिन’ इसलिए मौलिक रूप में भिन्न है कि उसमें अतीत का न तो तथाकथित विवरण है, न पुनरुथानवादी गौरव-गान, और न ही वह द्विजेंद्रलाल राय के नाटकों की शैली में कोई भावुकतापूर्ण अतिनाटकीय स्थितियाँ रचने की कोशिश करता है। उसकी दृष्टि कहीं ज्यादा आधुनिक और सूक्ष्म है, जिसके कारण वह सही अर्थ में आधुनिक हिन्दी नाटक की शुरुआत का सूचक है।

                लहरों के राजहंस में और भी जटिल प्रश्नों को उठाते हुए जीवन की सार्थकता, भौतिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन के द्वन्द, दूसरों के द्वारा अपने मत को दुनिया पर थोपने का आग्रह जैसे विषय उठाये गए हैं। राकेश के नाटकों को रंगमंच पर मिली शानदार सफलता इस बात का गवाह बनी कि नाटक और रंगमंच के बीच कोई खाई नही है। 'लहरों के राजहंस' में एक ऐसे कथानक का नाटकीय पुनराख्यान है, जिसमें सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध तथा उनके बीच खड़े हुए व्यक्ति के द्वारा निर्णय लेने का अनिवार्य द्वन्द्व निहित है। इस द्वन्द्व का एक दूसरा पक्ष स्त्री और पुरुष के पारस्परिक संबंधों का अंतर्विरोध है। जीवन के प्रेय और श्रेय के बीच एक कृत्रिम और आरोपित द्वन्द्व है, जिसके कारण व्यक्ति के लिए चुनाव कठिन हो जाता है और उसे चुनाव करने की स्वतंत्रता भी नहीं रह जाती। अनिश्चित, अस्थिर और संशयी मन वाले नंद की यही चुनाव की यातना ही इस नाटक का कथा-बीज और उसका केन्द्र-बिन्दु है। धर्म-भावना से प्रेरित इस कथानक में उलझे हुए ऐसे ही अनेक प्रश्नों का इस कृति में नए भाव-बोध के परिवेश में परीक्षण किया गया है।

                मोहन राकेश का यह नाटक ‘लहरों के राजहंस’ कुछ अंशों में ‘आषाढ़ का एक दिन’ की उपलब्धियों को अधिक सक्षम और गहरा करता है, यद्यपि रूपबंध के स्तर पर उसका तीसरा अंक अधिक दुर्बल है और पर्याप्त स्पष्टता और तीव्रता के साथ अभिव्यंजित नहीं होता। इसमें भी सुदूर अतीत के एक आधार पर आज के मनुष्य की बेचैनी और अन्तर्द्वन्द्व संप्रेषित है। हर व्यक्ति को अपनी मुक्ति का पथ स्वयं ही तलाश करना होता है। दूसरों के द्वारा खोजा गया पथ चाहे जितना श्रद्धास्पद हो, चाहे जितना आकर्षक और मोहक हो किसी संवेदनशील व्यक्ति का समाधान नहीं कर सकता। इसलिए नाटक के अंत में नंद न केवल बुद्ध द्वारा बलपूर्वक थोपा गया भिक्षुत्व अस्वीकार कर देता है, बल्कि सुंदरी के आत्मसंतुष्ट और छोटे वृत्त में आबद्ध किन्तु आकर्षक जीवन को भी त्यागकर चला जाता है। अपनी मुक्ति का मार्ग उसे स्वयं ही रचना होगा।

                इस नाटक में भी मोहन राकेश कार्य-व्यापार को दैनंदिनी क्रिया-कलाप से उठाकर एक सार्थक अनुभूति और उसके भीतर किसी अर्थ की खोज के स्तर पर ले जा सके हैं। किन्तु इसकी विषयवस्तु में पर्याप्त सघनता, एकाग्रता और संगति नहीं है। पहला अंक सुंदरी पर केन्द्रित जान पड़ता है, जिसमें नन्द एक लुब्ध मुग्ध, किसी हद तक संयोजित और संतुलनयुक्त, पति मात्र लगता है। दूसरे अंक से नाटक स्वयं उसके अंत:संघर्ष पर केन्द्रित होने लगता है, यद्यपि अभी इस संघर्ष की रूपरेखा अस्पष्ट है। तीसरे अंक में संघर्ष की आकृति तो स्पष्ट होने लगती है, किंतु वह किसी तीव्रता या गहराई का आयाम प्राप्त करने के बजाय अकस्मात ही नंद और सुंदरी के बीच एक प्रकार की गलतफ़हमी में खो जाता है। दोनों एक दूसरे के संघर्ष का, व्यक्तित्वों के विस्फोट का, सामना नहीं करते और नंद बड़ी विचित्र सी कायरता से चुपचाप घर छोड़कर चला जाता है। उसके इस पलायन की अनिवार्यता नाटक के कार्य व्यापार में नहीं है। बल्कि एक अन्य स्तर पर वह ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास के भी इसी प्रकार के भाग निकलने की याद दिलाता है। कुल मिलाकर, तीनों अंक अलग-अलग से लगते हैं, जिनमें सामग्रिक अन्विति नहीं अनुभव होती। किंतु इस कमी के बावजूद, पहला और दूसरा अंक अत्यन्त सावधानी से गठित और अपने आप में अत्यन्त कलापूर्ण है। विशेषकर दूसरे अंक में, नंद और सुंदरी के बीच दो अलग-अलग स्तरों पर चलनेवाले पारस्परिक आकर्षण उद्वेग तथा उसके तनाव की बड़ी सूक्षमता, संवेदनशीलता और कुशलता के साथ प्रस्तुत किया गया है।

आधे अधूरे

                मोहन राकेश का तीसरा व सबसे लोकप्रिय नाटक 'आधे अधूरे' है । इस नाटक में नाटककार ने मध्यवर्गीय परिवार की दमित इच्छाओ कुंठाओ व विसंगतियो को दर्शाया है। इस नाटक की पृष्ठभूमि एतिहासिक न होकर आधुनिक मध्यवर्गीय समाज है। आधे अधूरे मे वर्तमान जीवन के टूटते हुए संबंधों, मध्यवर्गीय परिवार के कलहपुर्ण वातावरण, विघटन, सन्त्रास, व्यक्ति के आधे अधूरे व्यक्तित्व तथा अस्तित्व का यथात्मक सजीव चित्रण हुआ है । मोहन राकेश का यह नाटक, अनिता औलक की कहानी 'दिन से दिन' का नाट्य रूपांतरण है।

                'आधे अधूरे' आज के जीवन के एक गहन अनुभव खण्ड को मूर्त करता है। इसके लिए हिन्दी के जीवन्त मुहावरे को पकड़ने की सार्थक प्रभावशाली कोशिश की गई है। इस नाटक की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विशेषता इसकी भाषा है। इसमें वह सामर्थ्य है, जो समकालीन जीवन के तनाव को पकड़ सके। शब्दों का चयन उनका क्रम उनका संयोजन सब कुछ ऐसा है, जो बहुत सम्पूर्णता से अभिप्रेत को अभिव्यक्त करता है। लिखित शब्द की यह शक्ति और उच्चारित ध्वनिसमूह का यही बल है, जिसके कारण यह नाट्य रचना बन्द और खुले दोनों प्रकार के मंचों पर अपना सम्मोहन बनाये रख सकी। यह नाट्यालेख एक स्तर पर स्त्री-पुरुष के लगाव और तनाव का दस्तावेज़ है। दूसरे स्तर पर पारिवारिक विघटन की गाथा है। एक अन्य स्तर पर यह नाट्य रचना मानवीय सन्तोष के अधूरेपन का रेखांकन है। जो लोग जिन्दगी से बहुत कुछ चाहते हैं, उनकी तृप्ति अधूरी रहती है। एक ही अभिनेता द्वारा पाँच पृथक् भूमिका निभाये जाने की दिलचस्प रंग-युक्ति का सहारा इस नाटक की एक और विशेषता है। संक्षेप में, 'आधे अधूरे' समकालीन ज़िन्दगी का पहला सार्थक हिन्दी नाटक है। इसका गठन सुदृढ़ एवं रंगोपयुक्त है। पूरे नाटक की अवधारणा के पीछे सूक्ष्म रंगचेतना निहित है।

                'आधे अधूरे' सिर्फ़ एक नाटक ही नहीं है। यह हमारे समाज, परिवार, व्यक्ति और उनके पारस्परिक सम्बन्धों में आए और लगातार आ रहे बदलाव का गम्भीर समाजशास्त्रीय तथा मनोवैज्ञानिक अध्ययन भी है। इक्कीसवीं शताब्दी के आरम्भ में परिवार और विवाह जैसी समय-सिद्ध संस्थाओं के विघटन, मानवीय मूल्यों के पतन तथा सर्वग्रासी महत्वाकांक्षा की अन्धी दौड़ से उपजी जिन अर्थ एवं कामज विकृतियों को आज सर्वत्र सार्वजनिक तांडव करते देखा जाता है। ये भूमंडलीकरण, बाज़ारवाद और पश्चिमी संस्कृति एवं मीडिया के अदम्य आक्रमण के कारण तेज़ी से उफ़नी ज़रूर हैं, लेकिन अचानक पैदा नहीं हो गई हैं। इनके बीज तो स्वतन्त्रता और विभाजन के बाद हुए मोहभंग के साथ ही हमारी धरती में पड़ गए थे। साठ के दशक से इनका अंकुरना शुरू हुआ। सत्तर के दशक में ये हमारे जीवन और समाज में कुनमुनाने–कसमसाने लगे थे। पहले इन परिवर्तनों की दबी-घुटी स्पष्ट अभिव्यक्ति महानगर के उच्च मध्यवर्गीय परिवारों में हुई। भीतर ही भीतर इनका क्रमिक विकास और विस्तार होता रहा। बस, परिवेश और परिस्थितियों की अनुकूलता पाकर आज इनका व्यापक विस्फोट हो गया है।


                मोहन राकेश के अवदान का महत्व इसी बात से समझा जा सकता हैं कि उनके अवसान के बाद हिंदी नाटक ठहर सा गया है। साहित्यकार प्रेम जनमेजय का कहना है, ''मोहन राकेश की रचनाओं में गजब की प्रयोगशीलता थी। उनके हर नाटक और उपन्यास में कुछ अलग है। एक महान लेखक होने के अलावा उनमें लेखकीय स्वाभिमान था। इसको लेकर वह विख्यात हैं। नई कहानी दौर में उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई।''
(दिव्य नर्मदा. इन से साभार)
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