लघुकथा:
बहस
संजीव
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'आप बताते हैं कि बचपन में चौपाल पर रोज जाते थे और वहाँ बहुत कुछ सीखने को मिलता था। क्या वहाँ पर कोचिंग होती थी?'
'नहीं बेटा!'
'तो फिर ट्यूटर आता होगा।'
नहीं बेटा! वहाँ कुछ सयाने लोग आते थे जिनकी बातें बाकी सभी लोग सुनते-समझते और उनसे पूछते भी थे.'
'अच्छा, तो फिर वहाँ बेकार की तरह बहस और अनाप-शनाप आरोप भी लगते होंगे?'
'नहीं, ऐसा तो कभी नहीं होता था। '
दादा समझाते रहे पर पोता संतुष्ट न हो सका। एक ही बात कह रह था-
'आप गप्प मार रहे हैं। यह कैसे हो सकता है? लोग इकट्ठे हों, वह भी बुद्धिजीवी और न हो बहस'
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२४-११-२०१४
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