कृति चर्चा
सुधियों का शब्दांकन - "ओ मेरी तुम"
चर्चाकार - डॉ. श्रीमती संतोष शुक्ला, ग्वालियर
[कृति विवरण - ओ मेरी तुम, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०२१, आकार २२ से.मी. x १४.५ से. मी., आवरण पेपरबैक, पृष्ठ ११२, मूल्य ३००/-, समन्वय प्रकाशन, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४]
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आचार्य संजीव वर्मा ' सलिल ' जी का नाम नवीन छंदों की रचना तथा उन पर गहनता से किये गए शोधकार्य के लिए प्रबुद्ध जगत में बहुतगौरव से लिया जाता है। आप झिलमिलाते ध्रुव तारे के समान तारामंडल में अपनी अलग पहचान बनाए हुए है। लोगों को सही दिशा निर्देश देना ही सलिल जी का एकमात्र लक्ष्य है। रस, अलंकार और छंद का गहन ज्ञान उनकी कृतियों में स्पष्ट दिखाई देता है। 'काल है संक्रांति का' 'तथा 'सड़क पर' के पश्चात् ओ मेरी तुम' आपका तीसरा गीत-नवगीत संग्रह है। सलिल जी का पहला दोनों नवगीत संग्रह पुरस्कृत हुए हैं। 'ओ मेरी तुम' में गीतकार ने छोटे छोटे शब्दों में बड़ी कुशलता से गूढ़ गंभीर तथ्यों को बड़ी सुन्दरता से व्यक्त किया है।
'ओ मेरी तुम' में ५३ गीत-नवगीत तथा ५२ दोहे संग्रहित हैं। गीतकार ने वैवाहिक जीवन की मधुर स्मृतियों में विचरण करते हुए तत्कालीन अनुभूतियों का जीवंत शब्दान्कन इस तरह इन गीतों में किया है कि उसे चित्रान्कन कहना अतिशयोक्ति न होगा। आचार्य सलिल जी ने अपनी धर्म पत्नी साधना जी को उनकी सेवानिवृत्ति पर यह अमूल्य कृति 'ओ मेरी तुम ' को समर्पित कर उन्हें अनुपम उपहार दिया है। यहाँ यह इन्गित करना अनिवार्य सा है कि 'ओ मेरी तुम' गीतकार के वैयक्तिक एकान्त पलों की सुखद अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है जिसको व्यक्त कर पाना सलिल जी ऐसे शब्दों के बाजीगर के ही बस की बात है। यह कृति उन यादों का पुष्पस्तवक है जिसमें विभिन्न फूलों की सुगन्ध मन को आजीवन महकाती रहती है। यह स्वाभाविक तथ्य है कि जिस बीती हुई बात की हम याद करते हैं तो हम उसी समय में पहुँच जाते हैं, उन्ही पलों की सुखद अनुभूति में खो जाते हैं।
गीतकार सलिल जी ने जब वर्षो बाद वैवाहिक जीवन की स्मृतियों को संजीवनी प्रदान की तो उन सुखद पलों को अनुभूतियों में तैरते उतराते रहे। आप भी अनुभव कीजिए -
तुम स्वीकार सकीं मुझको
जब, सरहद पार गया मैं लेने
मैं बहुतों के साथ गया था
तुम आईं थीं निपट अकेली
किन्तु अकेली कभी नहीं थीं
संग आईं थीं यादें अनगिन
विवाह में 'कन्या दान', 'सिन्दूर दान' ऐसी परंपराओं को बड़ी ही शिष्ट और शालीन भाषा में गीतकार ने प्रस्तुत किया है-
माँग इतनी माँग भर दूँ।
आपको वरदान कर दूँ।
मिले कन्या दान मुझको
जिन्दगी को दान कर दूँ
इस कृति में गीतकार ने विवाह के बाद के प्रारंभिक दिनों का (जब बड़े बूढ़े तथा बच्चे सब नई-नई बहू के आस-पास रहना चाहते हैं और पति महोदय झुँझलाते रहते हैं पर पत्नी से मिल नहीं पाते) का जीवंत चित्रण किया है। विवाह के बाद पहले कुछ दिनों तक पत्नी, पति के सामने आने और आँखों से आँखें मिलने पर शर्मा जाती है उसका चित्रण देखिए। नायिका कलेवा देने आती है-
'चूड़ियाँ खनकीं
नजर मिलकर झुकी
कलेवा दे थमा
उठ नजरें मिलीं
बिन कहें कह शुक्रिया
ले ली बिदा'
मंजिलों को नापने
परिवार विस्तार के क्रम में बच्चों की देखरेख में व्यस्त होने के कारण तथा परिजनों की भीड़-भाड़ के कारण सजनी का सामीप्य पाने में सफल नहीं हो पाने पर बावरे सजन की व्यथा-कथा कहता यह पारिवारिक शब्द चित्र देखें-
'लल्ली-लल्ला करते हल्ला
देवर बना हुआ दुमछल्ला
ननद सहेली बनी न छोड़े
भौजाई का पल भर पल्ला।'
नवोढ़ा पत्नी के मायके चले जाने पर पति का तो हाल बेहाल होना ही है। उस परिस्थिति का सटीक चित्रण प्रस्तुत किया है गीतकार ने-
'गंजी में दूध फटना
जल जाना उबल कर
फैल जाना'
यह जानते हुए भी कि उनकी वो यहाँ नहीं है फिर भी-
'आहट होने पर
निगाहें उठना खीझना
बेबात किसी पर गुस्सा आना
देर से घर वापस आना
पुरानी किसी बात की याद कर मुस्कुराना' आदि।
छोटी-छोटी लेकिन महत्वपूर्ण बातों को यथातथ्य शब्दों में बाँधना, गजब का कौशल है गीतकार सलिल जी के पास।
कमाल की बात तो यह है कि गीतकार संजीव वर्मा 'सलिल' जी ने एक सिविल अभियंता रहते हुए भी, अपने अभियंयंत्रिकी पेशे में ईट सीमेन्ट,पत्थर ,लोहा कंकरीट आदि चीजों के मेल से आकाशछूती इमारतों के निर्माण, बड़ी बड़ी सड़कों, पुलों-बाँधों के निर्माण में ईमानदारी से अपना दायित्व निभाते हुए भी, अपने कोमल हृदय को साहित्य सागर में डुबकी लगाने का न केवल अवसर दिया अपितु अपने आल्हादित पलों को शब्दित कर श्रोताओं-पाठकों को आह्लादित भी किया। ।
गीतकार सलिल की आस्था रही है कि सुगढ़ नारी जब ईट गारे से बनी इमारत में अपने दायित्व को ईमानदारी से निभाती है तो मकान घर का रूप ले लेता है जिसमें दोनों मिलकर सुनहरे भविष्य के सपने सजाते हैं और अथक परिश्रम से पूरा भी करते हैं। गीतकार ने 'काल है संक्रांति का' तथा 'सड़क पर' दोनों नवगीत संग्रहों में देश और समाज में नारी की विभिन्न छवियों को प्रस्तुत किया है लेकिन 'ओ मेरी तुम' में अपनी जीवन संगिनी के साथ भिन्न-भिन्न अवसरों पर बिताए अत्यंत वैयक्तिक पलों को बहुत शालीन, संक्षिप्त एवं सामान्य शब्दों में अभिव्यक्त कर पाठकों तक पहुँचाने का काम कर, साहसिक कदम उठाया है।
जिस सामाजिक परिपेक्ष्य में हमारी पीढ़ी पली-बढ़ी और पारिवारिक दायित्व को निभाने में सक्षम हुई उस समय बड़ों व छोटे भाई-बहनों के सामने भी पति-पत्नी एक दूसरे का नाम भी नहीं लेते थे, न ही एक दूसरे के निकट ही आते थे।
ए जी!, ओ जी!, जरा सुनो!, सुनिए आदि संबोधनों से काम चलाते थे। दाम्पत्य जीवन के स्नेहिल पलों की सार्वजनिक अभिव्यक्ति की परंपरा सामान्यत: देखने को नहीं मिलती। संभवतः नवगीतात्मक शैली में श्रृंगार परक सरस् रचनाओं की प्रस्तुति का यह प्रयास अपनी मिसाल आप है। अतिरेकी तथा मिथ्या विडम्बना और विसंगति से बोझिल होकर डूब रही रही नवगीत की नौका को सलिल के श्रृंगार परक नवगीत पतवार बनकर उबारते हैं। इन गीतों में श्रृंगार के दोनों पक्ष मिलन तथा विरह यत्र-तत्र उपस्थित हैं। देखते हैं कुछ अंश -
चिबुक निशानी लिये नेह की इठलाया है
बिखरी लट,फैला काजल भी इतराया है
कंगना खनका प्रणय राग गा मुस्काया है
ओ मृगनयनी !ओ पिक बयनी!! ओ मेरी तुम।
गीतकार सलिल जी की 'ओ मेरी तुम ' में श्रृंगार गीतों के वर्णन में प्रकृति का विशेष उल्लेख किया है। कहीं-कहीं तो भ्रम हो जाता है कि प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन है या नायिका का सौंदर्य वर्णन -
उगते सूरज जैसे बिंदी
सजा भाल सोहे
शीतल -निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित हो सुहासिनी
आ गयीं तुम संग लेकर
सुनहरी ऊषा किरण शत
तुम मुसकाईं तो
ऊषा के हुए गुलाबी गाल
संयोग और वियोग की मिश्रित पृष्ठभूमि पर सृजित इस संग्रह में सभी श्रृंगार गीतों में प्रकृति उद्दीपन रूप में दृष्टिगत हुई है। जैसे-
चाँदनी, छिटके तारे
पुरवैया के झोंके
महका मोंगरा
मन महुआ
नीड़ लौटे परिंदे
हिरनिया की तरह कुलाचें भरना
मरुथल का हरा होना
उषा की अरुणाई
कोकिल स्वर
पनघट
कमल दल
भाव, अनुभाव, संचारीभाव से पुष्ट स्थायीभाव रति को पराकाष्ठा तक पहुँचाने में सफल दिखता है ।
गीतकार ने अपनी नायिका को सद्यस्नाता कहा है जिसका अर्थ अभी अभी नहाई नायिका। ऐसी नायिका के सौंदर्य से आकर्षित हुए नायक अनंग बाण का शिकार बन उन अत्यन्त व्यक्तिगत क्षणों की सुखद अनुभूति की स्मृति में डूबते-उतराने लगते हैं। मिलनातुर मन की यह स्थिति "ओ मेरी तुम " नवगीत संग्रह में पूर्ण शालीनता और उज्जवलता के साथ दिखती है। प्रणयकुल मन की विविध भावस्थितियों का सटीक चित्रण होने पर भी सतहीपन और अश्लीलता किंचित भी नहीं है।
सलिल जी की गीत सृजन साधना के विविध पहलू हैं। इन गीतों नवगीतों में जहाँ एक ओर संक्षिप्तता है, बेधकता है, स्पष्टता है, सहजता-सरलता है, वहीं दूसरी ओर मृदुल हास-परिहास है, नोक-झोंक है, रूठना-मनाना है। संग्रह के गीतो -नवगीतों की भाषा में देशज शब्द जैसे मटकी, फुनिया, सुड़की, करिया, हिरा गए आदि के प्रयोग से उत्पन्न किया गया टटकापन भी उनकी विशेषता है। मुहावरों का प्रयोग में बुन्देलखण्ड, बरेली तथा अन्य भाषाओं / बोलिओं के शब्दों का भी प्रयोग किया है देखिए -
राह काट गई करिया बिल्ली
चंदा तारे हिरा गए
इन गीत-नवगीतों में अलंकारिक सौंदर्य के प्रति गीतकार की विशेष अभिरुचि दृष्टिगत होती है। यमक, पुनरुक्तिप्रकाश, पदमैत्री आदि अलंकारों की मनोहारी छटा अवश्य देखने को मिलती है- 'बरगद बब्बा', 'सूरज ससुरा', खन-खनक, टप-टप, झूल-झूल, तुड़ी-मुड़ी, तन-मन-धन, शारद-रमा- उमा आदि।
दैनंदिन जीवन के सहज-स्वाभाविक शब्द-चित्र उपस्थित करते इन गीतों में 'विरोधाभासी तथा पूरक शब्द भी स्वाभिवकता के साथ प्रयुक्त हुए हैं - मिलन-विरह, धरा-गगन, सुख-दुख,
चूल्हा-चौका, नख-शिख, द्वैत-अद्वैत आदि।
अनेकों गीत-नवगीतों में गीतकार ने अपने उपनाम 'सलिल ' का प्रयोग शब्दकोशीय अर्थ में पूरी सहजता के साथ किया है। माँ नर्मदा से उनका विशेष लगाव है जो उनके गीत-नवगीतों में स्पष्ट दृष्टिगत होता है।
विविध देश-काल-परिस्थितियों में रचे गए गीतों में कहीं-कहीं पुनरावृति दोष स्वाभाविक है किन्तु न हो तो बेहतर है।
'सच का सूत / न समय / कात पाया लेकिन, सच की चादर / सलिल कबीरा तहता है' यहाँ 'सच' की दो बार आवृति कथ्य की दृष्टि से पुनरावृत्ति दोष है ।
अतिशयोक्ति अलंकार का सौंदर्य देखिए -
चने चबाते थे लोहे के
किन्तु न अब वो दाँत रहे
कहे बुढ़ापा किस से क्या क्या
कर गुजरा तरुणाई में।
गीतकार संजीव 'सलिल' तो शब्दों के जादूगर हैं वो कुछ भी लिख सकते है।' गागर में सागर' नहीं उन्होंने 'सीपी में समुन्दर' भरा है। छोटे-छोटे शब्दों में गहन बातें लिख डाली हैं। सलिल जी ने संयोग और वियोग दोनों ही पलों की सफल अभिव्यक्ति की है लेकिन संयोग की अपेक्षाकृत वियोग के गीत अधिक मारक बन पड़े हैं- 'बिन तुम्हारे' गीत में गीतकार ने विरह का बड़ा ही हृदयस्पर्शी वर्णन किया है क्योंकि वो आप बीते अनुभव हैं न।
'बिन तुम्हारे सूर्य उगता
पर नहीं होता सवेरा ...
...अनमने मन
चाय की ले चाह
जग कर नहीं जगना...
... साँझ बोझल पाँव
तन का श्रांत
मन का क्लांत होना ...
...बिन तुम्हारे
निशा का लगता
अँधेरा क्यों घनेरा...
संकेतों में बिन कहे; अनकहनी कहने की कला इन गीतों - नवगीतों का वैशिष्ट्य है- बाँह में ले बाँह / पूरी चाह कर ले / दाह मेरी, थाम लूँ न फिसल जाए / हाथ से यह मन चला पल, द्वार पर आ गया बौरा / चीन्ह तो लो तनिक गौरा, प्रणय का प्रण तोड़ मत देना, बाँहों में बँध निढाल हो विदेह, द्वैत भूल अद्वैत हो जा, लूट-लुटा क्या पाया, ले - दे मत रख उधार, खन - खन कंगन कुछ कह जाए, तुमने सपने सत्य बनाए, श्वासों में आसों को जीना / तुमसे सीखा, पलक उठाने में भारी श्रम / किया न जाए रूपगर्विता, श्वास और प्रश्वास / कहें चुप / अनहोनी होनी होते लख , चूड़ियाँ खनकी / नजर मिलकर झुकी / नैन नशीले दो से चार हुए, स्वर्ग उतरता तब धरती पर / जब मैं-तुम होते हैं हमदम आदि।
नायिका के जूड़ा बनाने का चित्रण देखिए -
'बिखरे गेसू / कर एकत्र / गोल जूडा धर / सर पर आँचल लिया ढाँक
भारतीय परंपरा आत्मिक मिलान के पक्षधर है -
देना -पाना बेहिसाब है
आत्म-प्राण -मन बेनकाब है
तन का द्वैत; अद्वैत हो गया
हो अभिन्न तुम
निकट रहो या दूर
स्नेह संबंधों की विविध मनोहारी छवियाँ पाठक को कल्पना लोक में ले जाती हैं। जब न बाँह में हृदय धड़कता / कंगन चुभे न अगर खनकता, रूठो तो लगतीं लुभावनी, ध्यान किया तो रीता मन-घट भरा हो गया / तुमको देखा तो मरुथल मन हरा हो गया, तुम मुस्काईं सजन बावरा/ फिसला हुआ बवाल, बाँह में दे बाँह / आ गलहार बन जा / बनाकर भुजहार मुझ में तू सिमट जा, मैं खुद को ही खोकर हँसता / ख्वाब तुम्हारे में जा बसता, तुमनें जब दर्पण में देखा / निज नयनों में मुझको देखा, दूर दूर रह पास पास थे, तुम क्या जानो / कितना सुख है / दर्दों की पहुनाई में, मन का इकतारा / तुम ही तुम कहता है, तन के प्रति मन का आकर्षण / मन में तन के लिये विकर्षण, कितना उचित कौन बतलाए ?, बाहुबंध में बँधी हुई श्लथ अलसाई देह पर / शत-शत इन्द्र धनुष अंकित / दामिनियाँ डोलीं, खुद को नहीं समझ पाया पर लगता / तुझे जानता हूँ, कनखी- चितवन मुस्कानों से कब-कब क्या संदेश दिए ?।
पारिवारिक संबधों में घुली मिठास आजकल के यांत्रिक हुए नगरीय जीवन में दुर्लभ हो गयी है। इन गीतों में अनेक मीठी खट्टी छवियाँ हैं जो स्मृति लोक में और कनिष्ठों को कल्पना लोक में ले जाते हैं- तुम भरमाईं / सास स्नेह लख / ससुर पिता सम ढाल, याद तुम्हारी नेह नर्मदा / आकर देती है प्रसन्नता, कुण्डी बैरन ननदी सी खटके / पुरवैया सासू सी बहके बहके, सूरज ससुरा दे आसीसें, बचना जेठानी / भैंस मरखनी, रिश्तों हैं अनमोल / नन्दी तितली ताने मारे / छेड़ें भँवरे देवर / भौजी के अधरों पर सोहें / मुस्कानों के जेवर / ससुर गगन ने विहँस बहू की / की है मुँह दिखलाई आदि।
मान और मनुहार के बिना प्रणय लीला अधूरी होती है- बेरंगी हो रही जिंदगी / रंग भरो तुम, कंगनों की खनक सुनने / आस प्यासी है लौट घर आओ, तुम रूठी तो मन मंदिर में बजी नहीं घंटी, कविताओं की गति-यति-लय भी अनजाने बिगड़ी, ओ मब मंदिर की रहवासी / खनक-झनक सुनने के आदी / कान तुम्हारे बिन व्याकुल हैं / जीवन का हर रंग तुम्हीं हो, तुम जब से सपनों में आईं / तब से सपने रहे न अपने, बहुत हुआ अनबोला अब तो / लो पुकार ओ जी!,
सलिल जी के गीतों में सम्यक और मौलिक बिम्ब-प्रतीक देखते ही बनते हैं -
याद आ रही याद पुरानी
ग्यान-कर्म इन्द्रिय दस घोड़े
जीवन रथ पर दौड़े जुत रथ
मिल लगाम थामे हाथों में
मन्मथ भजते अंतर्मन मथ
गीतकार ने नायिका के सौंदर्य का ही वर्णन नहीं, उनके गुणों का वर्णन भी किया है
रिश्ते---
जब जब रिश्तों की बखिया उधड़ी
तब- तब सुई नेह की लेकर रिश्ते तुरप दिए।
प्रकृति का अवलंब लेकर नायिका के मनोभावों का चित्रण अपनी मिसाल आप है - ताप धरा का बढ़ा चैत में / या तुम रूठी? / स्वप्न अकेला नहीं / नहीं है आस अकेली / रुदन रोष उल्लास, / हास,परिहास लाड़ सब / संग तुम्हारे हुई / जिंदगी ही अठखेली।
जीवन में धूप-छाँह, ऊँच -नीच होना स्वाभाविक है। गीतकार विपरीत परिस्थितियों में नायिका को संबल के देखता-सराहता है। माँ-पापा, बेटी-बेटा, मैं तकें सहारा / आपद-विपद, कष्ट-पीड़ा का / गुप-चुप करतीं फलाहार सी।
नायिका निकट न हो तो - क्यों न फुनिया कर सुनें आवाज तेरी / भीड़ में घिर हो गया है मन अकेला / धैर्य -गुल्लक में न बाकी एक धेला,
जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, आकर्षण परिवर्तित होता जाता है - अनसुनी रही अब तक पुकार / मन -प्राण रहे जिसको गुहार / वह बाहर हो तब तो आए / मन बसिया भरमा पछताए / मन की ले पाया कौन थाह?, मन मीरा सा / तन राधा सा / किसने किसको कब साधा सा?, मिट गया द्वैत अंतर न रहा आदि परिपक्व प्रेम का शब्दांकन है।
गीतकार की वैयक्तिक रुचियाँ, पारिवारिक संस्कार, विचार, स्वभाव आदि सब उन्मुक्त रूप से परिलक्षित होते हैं। संकीर्ण दृष्टि समीक्षक कह सकते हैं कि 'ओ मेरी तुम' के गीत नवगीतों में कथ्य, भाषाई सौंदर्य ,भाषा की अभिधा शक्ति की अपेक्षा लक्षणा और व्यंजना शक्ति का प्रयोग अधिक हुआ है। अर्थ ध्वनि नाद सौंदर्य के मोहक उदाहरण हैं जिनमें माधुर्य और चारुता लक्षित होती है। इन सबके होते हुए भी गीतकार का पहला नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' सभी के प्रति लगाव और 'सड़क पर' दूसरे नवगीत संग्रह में आम आदमी के अधिकारों के लिए उनके साथ खड़े रहने के भाव 'ओ मेरी' में दृष्टिगत नहीं होते।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि गीतकार संजीव 'सलिल' जी ने स्वयं लिखा कि नवगीत में आम आदमी को या सामाजिक भावनाओं की अभिव्यक्ति दी जाती है जब कि गीतकार ने अपनी वैयक्तिक अनुभूतियों को शाब्दिक रूप प्रदान किया है। प्रश्न यह है की क्या प्रणय, समर्पण, साहचर्य और सहयोग आदि क्या सनातन और सर्वव्याप्त भावनाएँ नहीं हैं? क्या संबंधों का अपनापन, भावनाओं का प्रवाह सामाजिक सत्य नहीं है? जिन्हें हम वैयक्तिक पल कहते हैं वह सबके जीवन का सच नहीं है? यदि है तो फिर 'ओ मेरी तुम' गीतकार के नितांत वैयक्तिक पलों में अनुभूत सार्वजनीन सत्य की अभिव्यक्ति का संग्रह है। अतः, इन्हें व्यक्तिगत प्रेम गीत न कहकर, प्रणय परक नवगीत कहना उचित होगा। इस दृष्टि ने नवगीत के शुक को उबाऊ विडंबनाओं, अतिरेकी विसंगतियों के पिंजरे से आज़ाद कर प्रणयानुभूति के नीलगगन में उड़ान भरने का अवसर उपलब्ध कराकर नवजीवन दिया है।
सफल रचनाकार वही है जो अपने भावों को जस का तस पाठक के हृदय तक पहुँचा दे और पाठक उन्हें अपना मानकर ग्रहण कर सके। 'ओ मेरी तुम' पढ़कर पाठक काव्यानंद, रसानंद और छंदानंद के साथ प्रणयानन्द में भी गोते लगाने लगेंगे और जो इस सुख से अपरिचित हैं वे कल्पना जगत में खो जाएँगे।
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