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शुक्रवार, 5 नवंबर 2021

मुक्तक

मुक्तक
वेद व्यथित हैं, मानव की माटी इतराती है
देव क्षुधित हैं, भोग न देकर खुद खा जाती है 
जीव नहीं संजीव न अर्पण तर्पण से नाता-
होता जब निर्जीव तभी उसको मति आती है 
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अन्न कूट कर अन्नकूट का, बना रहे हैं भोग 
अन्न पूर्ण खुद अन्नपूर्णा खा ले, तो हो सोग
सरकारें भू धूप हवा पानी का करतीं धंधा-
लगा मुनाफाखोरी का नाहक असाध्य यह रोग 
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लोक तंत्र को लोभ तंत्र ने पल पल लूटा है
तंत्र लोक पर हावी, खाज कोढ़ में फूटा है 
जन प्रतिनिधि ही जन गण की आस्थाएँ लूट रहे-
माली ने ही रौंदा पौधा पत्ता बूटा है 
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५-११-२०२१  
  

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