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सोमवार, 29 नवंबर 2021

विक्रमादित्य, नवरत्न और भोज



राजा विक्रमादित्य


  विक्रमादित्य उज्जैन के राजा थे, जो अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे। "विक्रमादित्य" की उपाधि भारतीय इतिहास में बाद के कई अन्य राजाओं ने प्राप्त की थी, जिनमें गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीयऔर सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य (जो हेमु के नाम से प्रसिद्ध थे) उल्लेखनीय हैं। राजा विक्रमादित्य नाम, 'विक्रम' और 'आदित्य' के समास से बना है जिसका अर्थ 'पराक्रम का सूर्य' या 'सूर्य के समान पराक्रमी' है।उन्हें विक्रमया विक्रमार्क (विक्रम + अर्क) भी कहा जाता है (संस्कृत में अर्क का अर्थ सूर्य है)। भविष्य पुराण व आईने अकबरी के अनुसार विक्रमादित्य पंवार (प्रमार) वंश के सम्राट थे जिनकी राजधानी उज्जयनी थी । अनुश्रुत विक्रमादित्य, संस्कृत और भारत के क्षेत्रीय भाषाओं, दोनों में एक लोकप्रिय व्यक्तित्व है। उनका नाम बड़ी आसानी से ऐसी किसी घटना या स्मारक के साथ जोड़ दिया जाता है, जिनके ऐतिहासिक विवरण अज्ञात हों, हालांकि उनके इर्द-गिर्द कहानियों का पूरा चक्र फला-फूला है। संस्कृत की सर्वाधिक लोकप्रिय दो कथा-श्रृंखलाएं हैं वेताल पंचविंशति या बेताल पच्चीसी ("पिशाच की २५ कहानियाँ") और सिंहासन-द्वात्रिंशिका ("सिंहासन की ३२ कहानियाँ" सिहांसन बत्तीसी )। इन दोनों के संस्कृत और क्षेत्रीय भाषाओं में कई रूपांतरण मिलते हैं।

हिन्दू शिशुओं में 'विक्रम' नामकरण के बढ़ते प्रचलन का श्रेय आंशिक रूप से विक्रमादित्य की लोकप्रियता और उनके जीवन के बारे में लोकप्रिय लोक कथाओं की दो श्रृंखलाओं को दिया जा सकता है। विक्रम संवत् भारत और नेपाल की हिंदू परंपरा में व्यापक रूप से प्रयुक्त प्राचीन पंचाग हैं विक्रम संवत् या विक्रम युग। कहा जाता है कि ईसा पूर्व ५६ में शकों पर अपनी जीत के बाद राजा ने इसकी शुरूआत की थी। राजा विक्रमादित्य के दरबार में मौजूद नवरत्नों में उच्च कोटि के कवि, विद्वान, गायक और गणित के प्रकांड पंडित शामिल थे, जिनकी योग्यता का डंका देश-विदेश में बजता था। 

१. धन्वन्तरि-
नवरत्नों में इनका स्थान गिनाया गया है। इनके रचित नौ ग्रंथ पाये जाते हैं। वे सभी आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र से सम्बन्धित हैं। चिकित्सा में ये बड़े सिद्धहस्त थे। आज भी किसी वैद्य की प्रशंसा करनी हो तो उसकी ‘धन्वन्तरि’ से उपमा दी जाती है। धनतेरस असल में 'धन्वंतरि' के ही नाम पर मनाया जाता था। जिसे 'चिकित्सक' दिवस के रूप में मनाया जाता था।कालांतर में यह कुछ विशेष सामानों की खरीदारी तक ही सीमित हो गया।

२–क्षपणक-
जैसा कि इनके नाम से प्रतीत होता है, ये बौद्ध संन्यासी थे।
इससे एक बात यह भी सिद्ध होती है कि प्राचीन काल में मन्त्रित्व आजीविका का साधन नहीं था अपितु जनकल्याण की भावना से मन्त्रिपरिषद का गठन किया जाता था। यही कारण है कि संन्यासी भी मन्त्रिमण्डल के सदस्य होते थे।
इन्होंने कुछ ग्रंथ लिखे जिनमें ‘भिक्षाटन’ और ‘नानार्थकोश’ ही उपलब्ध बताये जाते हैं।

३–अमरसिंह-
ये प्रकाण्ड विद्वान थे। बोध-गया के वर्तमान बुद्ध-मन्दिर से प्राप्य एक शिलालेख के आधार पर इनको उस मन्दिर का निर्माता कहा जाता है। उनके अनेक ग्रन्थों में एक मात्र ‘अमरकोश’ ग्रन्थ ऐसा है कि उसके आधार पर उनका यश अखण्ड है। संस्कृतज्ञों में एक उक्ति चरितार्थ है जिसका अर्थ है ‘अष्टाध्यायी’ पण्डितों की माता है और ‘अमरकोश’ पण्डितों का पिता। अर्थात् यदि कोई इन दोनों ग्रंथों को पढ़ ले तो वह महान् पण्डित बन जाता है।

४–शंकु –
संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान 'शङ्कुक’ का काव्य-ग्रन्थ ‘भुवनाभ्युदयम्’ बहुत प्रसिद्ध रहा है किन्तु आज वह भी पुरातत्व का विषय बना हुआ है।

५–वेतालभट्ट –
 ‘वेताल पंचविंशति’ (‘वेताल-पच्चीसी’) के रचनाकार वेताल भट्ट  सम्राट विक्रम के वर्चस्व से प्रभावित थे। यही इनकी एक मात्र रचना उपलब्ध है।

७–घटखर्पर –
इनकी प्रतिज्ञा थी कि जो कवि अनुप्रास और यमक में इनको पराजित कर देगा उसके यहाँ वे फूटे घड़े से पानी भरेंगे।  तब से ही इनका नाम ‘घटखर्पर’ प्रसिद्ध हो गया। इनकी दो कृतियाँ ‘घटखर्पर काव्यम्’ (यमक और अनुप्रास का वह अनुपमेय ग्रन्थ) और  ‘नीतिसार’ हैं।



7–कालिदास –
कालिदास को देवी ‘काली’ की कृपा से विद्या प्राप्त हुई थी इसीलिए इनका नाम ‘कालिदास’ हुआ। संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से यह कालीदास होना चाहिए था किन्तु अपवाद रूप में कालिदास की प्रतिभा को देखकर इसमें उसी प्रकार परिवर्तन नहीं किया गया जिस प्रकार कि ‘विश्वामित्र’ को उसी रूप में रखा गया। कालिदास की विद्वता और काव्य प्रतिभा के विषय में अब दो मत नहीं है।  आज तक भी उन जैसा अप्रितम साहित्यकार अन्य उत्पन्न नहीं हुआ है। उनके चार काव्य और तीन नाटक प्रसिद्ध हैं। शकुन्तला उनकी अन्यतम कृति है। कालिदास सम्राट विक्रमादित्य के प्राणप्रिय कवि थे। उन्होंने  अपने ग्रन्थों में विक्रम के व्यक्तित्व का उज्जवल स्वरूप निरूपित किया है। 


८–वराहमिहिर –
भारतीय ज्योतिष-शास्त्र इनसे गौरवास्पद हो गया है। इन्होंने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। इनमें-‘बृहज्जातक‘, सुर्यसिद्धांत, ‘बृहस्पति संहिता’, ‘पंचसिद्धान्ती’ मुख्य हैं। गणक तरंगिणी’, ‘लघु-जातक’, ‘समास संहिता’, ‘विवाह पटल’, ‘योग यात्रा’, आदि-आदि का भी इनके नाम से उल्लेख पाया जाता है।

९–वररुचि-
कालिदास की भांति ही वररुचि भी अन्यतम काव्यकर्ताओं में गिने जाते हैं। ‘सदुक्तिकर्णामृत’, ‘सुभाषितावलि’ तथा ‘शार्ङ्धर संहिता’, इनकी रचनाओं में गिनी जाती हैं।
इनके नाम पर मतभेद है। क्योंकि इस नाम के तीन व्यक्ति हुए हैं उनमें से-
१.पाणिनीय व्याकरण के वार्तिककार-वररुचि कात्यायन,
२.‘प्राकृत प्रकाश के प्रणेता-वररुचि
३.सूक्ति ग्रन्थों में प्राप्त कवि-वररुचि

राजा भोज

भोज परमार या पंवार वंश के नवें राजा थे। परमार वंशीय राजाओं ने मालवा की राजधानी धारानगरी (धार) से आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था। भोज ने बहुत से युद्ध किए और अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की जिससे सिद्ध होता है कि उनमें असाधारण योग्यता थी। यद्यपि उनके जीवन का अधिकांश युद्धक्षेत्र में बीता तथापि उन्होंने अपने राज्य की उन्नति में किसी प्रकार की बाधा न उत्पन्न होने दी। उन्होंने मालवा के नगरों व ग्रामों में बहुत से मंदिर बनवाए, यद्यपि उनमें से अब बहुत कम का पता चलता है।


भोजपाल नगर (वर्तमान मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल) को राजा भोज ने ही बसाया था तथा समीप ही  समुद्र के समान विशाल तालाब का निर्माण कराया था, जो पूर्व और दक्षिण में भोजपुर के विशाल शिव मंदिर तक जाता था। आज भी भोजपुर जाते समय , रास्ते में शिवमंदिर के पास उस तालाब की पत्थरों की बनी विशाल पाल दिखती है। उस समय उस तालाब का पानी बहुत पवित्र और बीमारियों को ठीक करने वाला माना जाता था। कहा जाता है कि राजा भोज को चर्म रोग हो गया था तब किसी ऋषि या वैद्य ने उन्हें इस तालाब के पानी में स्नान करने और उसे पीने की सलाह दी थी जिससे उनका चर्मरोग ठीक हो गया था। उस विशाल तालाब के पानी से शिवमंदिर में स्थापित विशाल शिवलिंग का अभिषेक भी किया जाता था। राजा भोज स्वयं बहुत बड़े विद्वान थे। उन्होंने धर्म, खगोल विद्या, कला, कोशरचना, भवननिर्माण, काव्य, औषधशास्त्र आदि विभिन्न विषयों पर पुस्तकें लिखी हैं जो अब भी विद्यमान हैं। इनके समय में कवियों को राज्य से आश्रय मिला था। उन्होने सन् १००० ई. से १०५५  ई. तक राज्य किया। इनकी विद्वता के कारण जनमानस में एक कहावत प्रचलित हुई 'कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तैली'। भोज बहुत बड़े वीर, प्रतापी, और गुणग्राही थे। इन्होंने अनेक देशों पर विजय प्राप्त की थी और कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था। ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे।राजा भोज ने ज्ञान के सभी क्षेत्रों में  ८४ ग्रन्थों की रचना की है। उनमें से प्रमुख हैं- राजमार्तण्ड (पतंजलि के योगसूत्र की टीका), सरस्वतीकंठाभरण (व्याकरण), सरस्वतीकण्ठाभरण (काव्यशास्त्र), शृंगारप्रकाश (काव्यशास्त्र तथा नाट्यशास्त्र), तत्त्वप्रकाश (शैवागम पर), वृहद्राजमार्तण्ड (धर्मशास्त्र), राजमृगांक (चिकित्सा), विद्याविनोद, शृंगारमंजरी, चंपूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहारसमुच्चय, युक्तिकल्पतरु - यह ग्रन्थ राजा भोज के समस्त ग्रन्थों में अद्वितीय है। इस एक ग्रन्थ में अनेक विषयों का समाहार है। राजनीति, वास्तु, रत्नपरीक्षा, विभिन्न आयुध, अश्व, गज, वृषभ, महिष, मृग, अज-श्वान आदि पशु-परीक्षा, द्विपदयान, चतुष्पदयान, अष्टदोला, नौका-जहाज आदि के सारभूत तत्त्वों का भी इस ग्रन्थ में संक्षेप में सन्निवेश है। विभिन्न पालकियों और जहाजों का विवरण इस ग्रन्थ की अपनी विशेषता है। विभिन्न प्रकार के खड्गों का सर्वाधिक विवरण इस पुस्तक में ही प्राप्त होता है।  आदि अनेक ग्रंथ इनके लिखे हुए बतलाए जाते हैं। इनकी सभा सदा बड़े बड़े पंडितों से सुशोभित रहती थी। इनकी विदुषी पत्नी का नाम लीलावती था। जब भोज जीवित थे तो कहा जाता था-

अद्य धारा सदाधारा सदालम्बा सरस्वती।
पण्डिताः मण्डिताः सर्वे भोजराजे भुवि स्थिते॥

(आज जब भोजराज धरती पर स्थित हैं तो धारा नगरी सदाधारा (अच्छे आधार वाली) है; सरस्वती को सदा आलम्ब मिला हुआ है; सभी पंडित आदृत हैं।)

जब उनका देहान्त हुआ तो कहा गया -

अद्य धारा निराधारा निरालंबा सरस्वती।
पण्डिताः खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवंगते ॥

(आज भोजराज के दिवंगत हो जाने से धारा नगरी निराधार हो गयी है ; सरस्वती बिना आलम्ब की हो गयी हैं और सभी पंडित खंडित हैं।)

भोज, धारा नगरी के 'सिन्धुल' नामक राजा के पुत्र थे और इनकी माता का नाम सावित्री था । जब ये पाँच वर्ष के थे, तभी इनके पिता अपना राज्य और इनके पालन-पोषण का भार अपने भाई मुंज पर छोड़कर स्वर्गवासी हुए थे । मुंज इनकी हत्या करना चाहता था, इसलिये उसने बंगाल के वत्सराज को बुलाकर उसको इनकी हत्या का भार सौंपा । वत्सराज इन्हें बहाने से देवी के सामने बलि देने के लिये ले गया । व्हाँ पहुँचने पर जब भोज को मालूम हुआ कि यहाँ मैं बलि चढ़ाया जाऊँगा, तब उन्होंने अपनी जाँघ चीरकर उसके रक्त से बड़ के एक पत्ते पर दो श्लोक लिखकर वत्सराज को दिए और कहा कि थे मुंज को दे देना । उस समय वत्सराज को इनकी हत्या करने का साहस न हुआ और उसने इन्हें अपने यहाँ ले जाकर छिपा रखा । जब वत्सराज भोज का कृत्रिम कटा हुआ सिर लेकर मुंज के पास गया और भोज के श्लोक उसने उन्हें दिए, तब मुंज को बहुत पश्चाताप हुआ । मुंज को बहुत विलाप करते देखकर वत्सराज ने उन्हें असल हाल बतला दिया और भोज को लाकर उनके सामने खड़ा कर दिया । मुंज ने सारा राज्य भोज को दे दिया और आप सपत्नीक वन को चले गए ।

भोज ने प्रधानमंत्री रोहक, मंत्री भुवनपाल तथा सेनापतियों कुलचंद्र, साढ़ तथा तारादित्य की सहायता से राज्य संचालन सुचारु रूप से किया। अपने चाचा मुंज की ही भाँति यह भी पश्चिमी भारत में एक साम्राज्य स्थापित करना चाहते थे।  इसलिये इन्हें अपने पड़ोसी राज्यों से हर दिशा में युद्ध करना पड़ा। मुंज की मृत्यु शोकजनक परिस्थिति में हो जाने से परमारों ने  उत्तेजित थे होकर चालुक्यों से बदला लेने हेतु दक्षिण की ओर सेना लेकर चढ़ाई की। उन्होंने ने दाहल के कलचुरी गांगेयदेव तथा तंजौर (तंच्यावूर) के राजेन्द्र चोल से संधि की ओर साथ ही साथ दक्षिण पर आक्रमण कर दिया। तत्कालीन राजा चालुक्य जयसिंह द्वितीय [सोलंकी] ने बहादुरी से सामना किया और अपना राज्य बचा लिया। सन् १०४४ ई. के कुछ समय बाद जयसिंह के पुत्र सोमेश्वर द्वितीय ने परमारों से फिर शत्रुता कर ली और मालवा राज्य पर आक्रमण कर भोज को भागने के लिये बाध्य कर दिया। धारानगरी पर अधिकार कर लेने के बाद उसने आग लगा दी। कुछ दिनों बाद सोमेश्वर ने मालव छोड़ दिया और भोज ने राजधानी में लोटकर फिर सत्ताधिकार प्राप्त कर लिया। सन् १०१८ ई. के कुछ ही पहले भोज ने इंद्ररथ नामक एक व्यक्ति को, जो संभवत: कलिंग के गांग राजाओं का सामंत था, हराया था। 

जयसिंह द्वितीय तथा इंद्ररथ के साथ युद्ध समाप्त कर लेने पर भोज ने अपनी सेना भारत की पश्चिमी सीमा से लगे हुए देशों की ओर बढ़ाकर  दक्षिण में बंबई राज्य के अंतर्गत सूरत लाट राज्य पर आक्रमण कर दिया। वहाँ के राजा चालुक्य कीर्तिराज ने आत्मसमर्पण कर दिया। भोज ने कुछ समय तक उस पर अधिकार रखा।  सन् १०२० ई. में भोज ने लाट के दक्षिण में स्थित तथा थाना जिले से लेकर मालागार समुद्रतट तक विस्तृत कोंकण पर आक्रमण किया और शिलाहारों के अरिकेशरी नामक राजा को हराया। कोंकण को परमारों के राज्य में मिला लिया गया और उनके सामंतों के रूप में शिलाहारों ने यहाँ कुछ समय तक राज्य किया। सन् १००८ ई. में जब महमूद गज़नबी ने पंजाबे शाही नामक राज्य पर आक्रमण किया, भोज ने भारत के अन्य राज्यों के साथ अपनी सेना भी आक्रमणकारी का विरोध करने तथा शाही आनंदपाल की सहायता करने के हेतु भेजी परंतु हिंदू राजाओं की हार हो गई। सन् १०४३ ई. में भोज ने अपने भृतिभोगी सिपाहियों को पंजाब के मुसलमानों के विरुद्ध लड़ने के लिए दिल्ली के राजा के पास भेजा। उस समय पंजाब गज़नी साम्राज्य का एक भाग था और महमूद के वंशज  वहाँ राज्य कर रहे थे। दिल्ली के राजा को भारत के अन्य भागों की सहायता मिली और उसने पंजाब की ओर कूच करके मुसलमानों को हराया और कुछ दिनों तक उस देश के कुछ भाग पर अधिकार रखा परंतु अंत में गज़नी के राजा ने उसे हराकर खोया हुआ भाग पुन: अपने साम्राज्य में मिला लिया।

भोज ने एक बार दाहल के कलचुरी गांगेयदेव के विरुद्ध भी चढ़ाई कर दी जिसने दक्षिण पर आक्रमण करने के समय उसका साथ दिया था। गांगेयदेव हार गया परंतु उसे आत्मसमर्पण नहीं करना पड़ा।  उत्तर में भोज ने चंदेलों के देश पर भी आक्रमण किया था जहाँ विद्याधर नामक राजा राज्य करता था परंतु उससे कोई लाभ न हुआ। भोज के ग्वालियर पर विजय प्राप्त करने के प्रयत्न का भी कोई अच्छा फल न हुआ क्योंकि वहाँ के राजा कच्छपघाट कीर्तिराज ने उसके आक्रमण का डटकर सामना किया। ऐसा विश्वास किया जाता है कि भोज ने कुछ समय के लिए कन्नौज पर भी विजय पा ली थी जो उस समय प्रतिहारों के पतन के बादवाले परिवर्तन काल में था।

भोज ने राजस्थान में शाकंभरी के चाहमनों के विरुद्ध भी युद्ध की घोषणा की और तत्कालीन राजा चाहमान वीर्यराम को हराया। इसके बाद उसने चाहमानों के ही कुल के अनहिल द्वारा शालित नदुल नामक राज्य को जीतने की धमकी दी, परंतु युद्ध में परमार हार गए और उनके प्रधान सेनापति साढ़ को जीवन से हाथ धोना पड़ा। भोज ने गुजरात के चौलुक्यों [सोलंकी ] से भी, जिन्होंने अपनी राजधानी अनहिलपट्टण में बनाई थी, बहुत दिनों तक युद्ध किया। चालुक्य सोलंकी नरेश मूलराज प्रथम के पुत्र चामुंडराज को वाराणसी जाते समय मालवा में परमार भोज के हाँथों अपमानित होना पड़ा था। उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी बल्लभराज को बहुत क्रोध आया और उसने इस अपमान का बदला लेने हेतु एक बड़ी सेना तैयार कर भोज पर आक्रमण कर दिया, परंतु दुर्भाग्यवश रास्ते में ही चेचक से उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद वल्लभराज के छोटे भाई दुर्लभराज ने सत्ता की बागडोर अपन हाथों में ली। कुछ समय बाद भोज ने उसे भी युद्ध में हराया। दुर्लभराज के उत्तराधिकारी भीम के राज्यकाल में भोज ने अपने सेनापति कुलचंद्र को गुजरात के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा। कुलचंद्र ने पूरे प्रदेश पर विजय प्राप्त की तथा उसकी राजधानी अनहिलपट्टण को लूटा। भीम ने एक बार आबू पर आक्रमण कर उसके राजा परमार ढंडु को हराया था, जब उसे भागकर चित्रकूट में भोज की शरण लेनी पड़ी थी। सन् १०५५ ई. के कुछ ही पहले गांगेय के पुत्र कर्ण ने गुजरात के चौलुक्य भीम प्रथम के साथ एक संधि कर ली और मालव पर पूर्व तथा पश्चिम की ओर से आक्रमण कर दिया। भोज अपना राज्य बचाने का प्रबंध कर ही रहा था कि बीमारी से उसकी आकस्मिक मृत्यु हो गई और राज्य सुगमता से आक्रमणकारियों के अधिकार में चला गया।

डॉ महेश सिंह ने उनकी रचनाओं को विभिन्न विषयों के अन्तर्गत वर्गीकृत किया है-
संकलन : सुभाषितप्रबन्ध
शिल्प : समरांगणसूत्रधार
खगोल एवं ज्योतिष : आदित्यप्रतापसिद्धान्त, राजमार्तण्ड, राजमृगांक, विद्वज्ञानवल्लभ (प्रश्नविज्ञान)
धर्मशास्त्र, राजधर्म तथा राजनीति : भुजबुल (निबन्ध) , भुपालपद्धति, भुपालसमुच्चय या कृत्यसमुच्चय
चाणक्यनीति या दण्डनीति : व्यवहारसमुच्चय, युक्तिकल्पतरु, पुर्तमार्तण्ड, राजमार्तण्ड, राजनीतिः
व्याकरण : शब्दानुशासन
कोश : नाममालिका
चिकित्साविज्ञान : आयुर्वेदसर्वस्व, राजमार्तण्ड या योगसारसंग्रह राजमृगारिका, शालिहोत्र, विश्रान्त विद्याविनोद
संगीत : संगीतप्रकाश
दर्शन : राजमार्तण्ड (योगसूत्र की टीका), राजमार्तण्ड (वेदान्त), सिद्धान्तसंग्रह, सिद्धान्तसारपद्धति, शिवतत्त्व या शिवतत्त्वप्रकाशिका
प्राकृत काव्य : कुर्माष्टक
संस्कृत काव्य एवं गद्य : चम्पूरामायण, महाकालीविजय, शृंगारमंजरी, विद्याविनोद

भोज के समय में भारतीय विज्ञान

समराङ्गणसूत्रधार का ३१वाँ अध्याय ‘यंत्रविज्ञान’ से सम्बन्धित है। इस अध्याय में यंत्र, उसके भेद और विविध यंत्रनिर्माण-पद्धति पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। यंत्र उसे कहा गया है जो स्वेच्छा से चलते हुए (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि) भूतों को नियम से बांधकर अपनी इच्छानुसार चलाया जाय ।

स्वयं वाहकमेकं स्यात्सकृत्प्रेर्यं तथा परम् ।
अन्यदन्तरितं बाह्यं बाह्यमन्यत्वदूरत: ॥

इन तत्वों से निर्मित यंत्रों के विविध भेद हैं, जैसे :- (१) स्वयं चलने वाला, (२) एक बार चला देने पर निरंतर चलता रहने वाला, (३) दूर से गुप्त शक्ति से चलाया जाने वाला तथा (४) समीपस्थ होकर चलाया जाने वाला।

राजा भोज के भोजप्रबन्ध में लिखा है –

घटयेकया कोशदशैकमश्व: सुकृत्रिमो गच्छति चारुगत्या ।
वायुं ददाति व्यजनं सुपुष्कलं विना मनुष्येण चलत्यजस्त्रम ॥

भोज ने यंत्रनिर्मित कुछ वस्तुओं का विवरण भी दिया है। यंत्रयुक्त हाथी चिंघाड़ता तथा चलता हुआ प्रतीत होता है। शुक आदि पक्षी भी ताल के अनुसार नृत्य करते हैं तथा पाठ करते है। पुतली, हाथी, घोडा, बन्दर आदि भी अंगसंचालन करते हुए ताल के अनुसार नृत्य करते मनोहर लगते है। उस समय बना एक यंत्रनिर्मित पुतला नियुक्त किया था। वह पुतला वह बात कह देता था जो राजा भोज कहना चाहते थे ।।
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