कुल पेज दृश्य

रविवार, 21 नवंबर 2021

दोहा सलिला, छंद-बहर दोउ एक हैं ४, कुन्डलिया

दोहा सलिला
*
लहर-लहर लहरा रहे, नागिन जैसे केश।
कटि-नितम्ब से होड़ ले, थकित न होते लेश।।
*
वक्र भृकुटि ने कर दिए, खड़े भीत के केश।
नयन मिलाये रह सके, साहस रहा न शेष।।
*
मनुज-भाल पर स्वेद सम, केश सजाये फूल।
लट षोडशी कुमारिका, रूप निहारे फूल।।
*
मदिर मोगरा गंध पा, केश हुए मगरूर।
जूड़े ने मर्याद में, बाँधा झपट हुज़ूर।।
*
केश-प्रभा ने जब किया, अनुपम रूप-सिंगार।
कैद केश-कारा हुए, विनत सजन बलिहार।।
*
पलक झपक अलसा रही, बिखर गये हैं केश।
रजनी-गाथा अनकही, कहतीं लटें हमेश।।
*

लखन लक्ष्मण या कहें, लछ्मन उसको आप.
राम-काम सौमित्र का, हर लेता संताप.
*
लक्ष्य रखे जो एक ही, वह जन परम सुजान.
लख न लक्ष मन चुप करे साध तीर संधान.*

फेस 'बुक' हो ना पाए, गुरु यह बेहतर,
फेस 'बुक' हुआ है तो, छुडाना ही होगा।
फेस की लिपाई या पुताई चाहे जितनी हो,
फेस की असलियत, जानना जरूरी है।।
फेस रेस करेगा तो, पोल खुल जाएगी ही,
फेस फेस ना करे तैयारी जो अधूरी है।
फ़ेस देख दे रहे हैं, लाइक पे लाइक जो,
हीरो जीरो, फ्रेंडशिप सिर्फ मगरूरी है।
*२४-५-२००९

कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं ४
*
(छंद- अठारह मात्रिक , ग्यारह अक्षरी छंद, सूत्र यययलग )
[बहर- फऊलुं फऊलुं फऊलुं फअल १२२ १२२ १२२ १२, यगण यगण यगण लघु गुरु ]
*
मुक्तक
निगाहें मिलाओ, चुराओ नहीं
जरा मुस्कुराओ, सताओ नहीं
ज़रा पास आओ, न जाओ कहीं
तुम्हें सौं हमारी भुलाओ नहीं
*

कुन्डलिया
*
मन उन्मन हो जब सखे!, गढ़ें चुटकुला एक
खुद ही खुद को सुनाकर, हँसें मशविरा नेक
हँसें मशविरा नेक, निकट दर्पण के जाएँ
अपनी सूरत निरख, दिखाकर जीभ चिढ़ाएँ
तरह-तरह मुँह बना, तरेंरे नैना खंजन
गढ़ें चुटकुला एक, सखे! जब मन हो उन्मन
***
एक रचना
*
क्यों सो रहा मुसाफिर, उठ भोर हो रही है
चिड़िया चहक-चहककर, नव आस बो रही है
*
तेरा नहीं ठिकाना, मंजिल है दूर तेरी
निष्काम काम कर ले, पल भर भी हो न देरी
कब लौटती है वापिस, जो सांस खो रही है
क्यों सो रहा मुसाफिर, उठ भोर हो रही है
*
दिनकर करे मजूरी, बिन दाम रोज आकर
नागा कभी न करता, पर है नहीं वो चाकर
सलिला बिना रुके ही हर घाट धो रही है
क्यों सो रहा मुसाफिर, उठ भोर हो रही है
*
एक रचना
चीर तम का चीर आता,
रवि उषा के साथ.
दस दिशाएँ करें वंदन
भले आए नाथ.
करें करतल-ध्वनि बिरछ मिल,
सलिल-लहर हिलोर.
'भोर भई जागो' गाती है
प्रात-पवन झकझोर.
***
मुक्तिका
जो लिखा
*
जो लिखा, दिल से लिखा, जैसा दिखा, सच्चा लिखा
किये श्रद्धा सुमन अर्पित, फ़र्ज़ का चिट्ठा लिखा
समय की सूखी नदी पर आँसुओं की अँगुलियों से
दिल ने बेहद बेदिली से, दर्द का किस्सा लिखा
कौन आया-गया कब-क्यों?, क्या किसी को वास्ता?
गाँव अपने, दाँव अपने, कुश्तियाँ-घिस्सा लिखा
किससे क्या बोलें कहों हम?, मौन भी कैसे रहें?
याद की लेकर विरासत, नेह का हिस्सा लिखा
आँख मूँदे, जोड़ कर कर, सिर झुका कर-कर नमन
है न मन, पर नम नयन ले, दुबारा रिश्ता लिखा
*
मनुहार
.
कर रहे मनुहार कर जुड़ मान भी जा
प्रिये! झट मुड़ प्रेम को पहचान भी जा
.
जानता हूँ चाहती तू निकट आना
फ़ेरना मुँह है सुमुखि! केवल बहाना
.
बाँह में दे बाँह आ गलहार बन जा
बनाकर भुजहार मुझ में तू सिमट जा
.
अधर पर धर अधर आ रसलीन होले
बना दे रसखान मुझको श्वास बोले
.
द्वैत तज अद्वैत का मिल वरण कर ले
तार दे मुझको शुभान्गी आप तर ले
.

कोई टिप्पणी नहीं: