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सोमवार, 8 नवंबर 2021

समीक्षा, नवगीत, पूर्णिमा बर्मन

कृति चर्चा :
पारम्परिक नवता की तलाश: चोंच में आकाश
चर्चाकार: संजीव
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[कृति विवरण: चोंच में आकाश, नवगीत संग्रह, पूर्णिमा बर्मन, प्रथम संस्करण २०१४, डिमाई आकार, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ११२, १२०/-, अंजुमन प्रकाशन इलाहाबाद]
आदिमानव ने सलिल प्रवाह की कलकल, परिंदों के कलरव, मेघों के गर्जन पवन की सन-सन से ध्वनियों से अभिभूत होकर उसके विविध प्रभावों हर्ष, विषाद, भय आदि की अनुभूति की। कलकल एवं कलरव ने उसे ध्वनियों के आरोह-अवरोहजनित नैरन्तर्य और माधुर्य का परिचय दिया। कालांतर में इन ध्वनियों को दुहराते हुए ध्वनिसंकेतों के माध्यम से पारस्परिक संवाद स्थापित कर मानव ने कालजयी आविष्कार किया। विविध मानव समूहों ने मूल एक होते हुए भी उनसे अपनी उच्चारण क्षमता के अनुसार विविध भाषाओँ क विकास किया। ध्वनि संकेतों का स्थान ध्वनि खण्डों ने लिया। कालांतर में ध्वनि खंड शब्दों में बदले और शब्दों का सातत्य सूक्ष्म और लघु गीतों का वाहक हुआ। छंद की गति-यति ने लय निर्धारण कर गीत की सरसता को समृद्ध किया तो स्थाई या मुखड़े की आवृत्ति ने अंतरों को एक सूत्र में पिरोते हुए भाव-माला बनाकर शब्द चित्र को पूर्णता प्रदान की। छंदबद्ध हर रचना गेय होने पर भी गीत नहीं होती। गीत में लय, गति, ताल, मुखड़ा तथा अन्तरा होना आवश्यक है। गीत में शिथिलता, नवता का भाव तथा बिम्ब-प्रतीकों का बासीपन, दीर्घता, तह छायावाद की अस्पष्टता होने पर उसके असमय काल कवलित होने की उद्घोषणा ने नवजीवन का पथ प्रशस्त किया। गीत के शिल्प और कथ्य का जीर्णोद्धार होने पर नवगीत का भवन प्रगट हुआ।
आरम्भ में गीत के शिल्प में प्रगतिवादी कविता का कलेवर अपनाने के पश्चात नव गीत क्रमशः लयात्मकता, पारम्परिकता और अधुनातनता की त्रिवेणी को एक कर वह रूपाकार पा सका जिससे साक्षात कराता है हिंदी को विश्ववाणी के रूप में समर्थ होते देखने की इच्छुक सरस्वतीपुत्री पूर्णिमा बर्मन जी का नवगीत संग्रह चोच में आकाश। नवगीत में 'नव गति, नव लय, ताल, छंद नव' तो होना ही चाहिए। पूर्णिमा जी की 'नवल दृष्टि' छंद, बिम्ब, प्रतीक, जीवन मूल्य, पारम्परिक लोकाचार, अधुनातनता तथा समसामयिक संदर्भो के सप्त तत्वों का सम्मिश्रण कर नवगीतों की रचना करती है। नवगीत को प्रगतिवादी कविताओं की प्रतिक्रिया और हर परंपरा के विरोध में शब्दास्त्र माननेवालों को इन नवगीतों में नवता की न्यूनता अनुभव हो तो यह उनकी संकुचित दृष्टि का सीमाबाह्य सत्य को न देख सकने का दोष होगा। पूर्णिमा जी ने भारतीय संस्कृति की उत्सवधर्मी लोकाचारिक परंपरा की पड़ती जमीन पर उग आयी जड़ता की खरपतवार को अपनी सामयिक परिस्थितियों के बखर तथा संवेदनशीलता के हल से अलग कर सांगीतिक सरसता के बीज मात्र नहीं बोये अपितु विदेशी धरती पर पंप रही विश्व संस्कृति और भारत के नगर-ग्रामों में परिव्याप्त पारम्परिक सभ्यता के उर्वरकों का प्रयोग कर नवत्व के समीरण से पाठकों / श्रोताओं को आनंदित होने का अवसर सुलभ कराया है।
भाषिक प्रयोग :
पारम्परिक काव्य मानकों की लीक से हटकर पूर्णिमा जी ने कुछ भाषिक प्रयोग किये हैं। परीक्षकीय दृष्टि इन्हें काव्य दोष कह सकती है किन्तु नवता की तलाश में प्रयोगधर्मी नवगीतकार ने इन्हें अनजाने नहीं जान बूझकर प्रयोग किया है, ऐसा मुझे लगता है तथापि इन पर चर्चा होनी चाहिए। नव प्रयोग करना दो बाँसों से बँधी रस्सी पर चलने की तरह दुष्कर होता है, संतुलन जरा सा डगमगाया तो परिणाम विपरीत हो जाता है। पूर्णिमा जी ने यह खतरा बार-बार उठाया है, भाषा की अभिव्यक्ति क्षमता की वृद्धि हेतु ऐसे प्रयोग आवश्यक हैं।
'रामभरोसे' में 'नफरत के एलान बो रहे', 'आँसू-आँसू गाल रो रहे' ऐसे ही प्रयोग हैं। एलान किया जाता है बोया नहीं जाता है। 'बोने' की क्रिया एक से अनेक की उत्पत्ति हेतु होती है। 'नफरत का एलान' उसे शतगुणित करने हेतु हो तो उसे 'नफरत को बोना' कहा जाना ठीक लगता है किंतु 'गाल का रोना'? रुदन की क्रिया पीड़ाजनित होती है, अपनी या अन्य की पीड़ा से व्याकुल-द्रवित होना रुदन का उत्स है। आँख से अश्रु बहना भौतिक क्रिया है, मन या दिल का रोना भावनात्मक अभिव्यक्ति है। शरीरविज्ञान का 'दिल' धड़कने, रक्तशोधन तथा पंप करने के अलावा कुछ नहीं कर सकता पर साहित्य का दिल भावनात्मक अभिव्यक्ति में भी सक्षम होता है।सामान्यतः 'गाल' का स्पर्श अथवा चुम्बन प्रेमाभिव्यक्ति हेतु तथा गाल पर प्रहार चोट पहुँचाने के लिये होता है। रोने की क्रिया में गाल का योगदान नहीं होता अतः 'गाल का रोना' प्रयोग सटीक नहीं लगता।
'सकल विश्व के विस्तृत प्रांगण / मंद-मंद बुहरें' के संदर्भ में निवेदन है कि क्रिया 'बुहारना' का अर्थ झाड़ना या स्वच्छ करना होता है। 'बुहारू' वह उपकरण जिससे सफाई की जाती है। किसी स्थान को बुहारा जाता है, वह अपने आप कैसे 'बुहर' सकता है? यहाँ तथ्यपरक काव्य दोष प्रतीत होता है।
ओंकार या अनहद नाद को सृष्टि कहा गया है. 'शुभ ओंकार करें' से ध्वनित होता कि कोई 'अशुभ ओंकार' भी हो सकता है जबकि ऐसा नहीं है। ओंकार तो हमेशा शुभ ही होता है, यह काव्य दोष शुभ के स्थान पर 'नित' के प्रयोग से दूर किया जा सकता है।
एक नवगीत में प्रयुक्त 'इस डग पर हम भी हैं' (पृष्ठ ५४) के सन्दर्भ में निवेदन है कि 'डग' का अर्थ कदम होता है. जैसे ५ डग चलो या ५ कदम चलो, वह अर्थ यहाँ उपयुक्त नहीं प्रतीत होता, यहां डेग को मग के अर्थ में लिया गया है। यदि 'इस डग पर हम भी हैं' को 'इस मग पर हम भी हैं' किया जाए तो अर्थ अधिक स्पष्ट होता है मग = मार्ग।
'जिस भाषा में बात शुरू की / वह बोली ही बदल गयी' (पृष्ठ ५५) में भाषा और बोली का प्रयोग समानार्थी के रूप में हुआ प्रतीत होता है पर वस्तुतः दोनों शब्दों के अर्थ भिन्न हैं। भाषा में बात करें तो भाषा ही बदलेगी।
सटीक शब्द चयन:
नवगीत कमसे कम शब्दों में अधिक से अधिक अर्थ समाहित करने की कला है। यहाँ भाव या कल्पना को विस्तार देने का स्थान ही नहीं होता। पूर्णिमा जी सटीक शब्दचयन में निपुण हैं। वे सुदीर्घ विदेश प्रवास के बावजूद जमीन से जुडी हैं। देशज शब्दों ने उनके नवगीतों को जनमानस को व्यक्त करने में सक्षम बनाया है। दियना, पठवाई (भोजपुरी), गलबहियाँ, सगरी, मिठबतियाँ, टेरा, मुण्डेरा, बिराना, सतुआ, हूला, मुआ, रेले, हरियरी, हौले, कथरी, भदेस, भिनसारा, चौबारा, खटते, हिन्दोल, दादुर, बाँचो आदि शब्द इन नवगीतों को भोर की हवा के झोंके की ताज़गी देते हैं। समृद्धि, तरह आदि शब्दों के देशज रूपों समरिधि, तरहा का प्रयोग बिना हिचक किया गया है। तौलने की क्रिया में तौले गये पदार्थ के लिये 'तुलान' शब्द का प्रयोग पूर्णिमा जी की जमीनी पकड़ दर्शाता है। यह शब्द हिंदी के आधुनिक शब्दकोशों में भी नहीं है। हिंदी की भाषिक क्षमता पर संदेह करनेवालों को ऐसे शब्द एकत्रकर शब्दकोशों में जोड़ना चाहिए।
संस्कृत में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त पूर्णिमा जी की भाषा में संस्कृतनिष्ठ शब्द होना स्वाभाविक है, वैशिष्ट्य यह की इन शब्दों के प्रयोग से भाषा कलिष्ट या बोझिल नहीं हुई अपितु प्राणवान हुई है। स्वहित, समेकित, वल्कल, अभिज्ञान, नवस्पन्दन, नवता, वाट्स, मकरंद, अलिंद आदि शब्द कोंवेंटी पाठकों को कठिन लग सकते हैं पर सामान्य हिंदी पाठक के लिए सहज ग्राह्य हैं।
हिंदी की अरबी-फ़ारसी शब्दप्रधान शैली उर्दू तथा अंग्रेजी के शब्द पूर्णिमा जी के लिए पराये नहीं है। हिंदी को विश्ववाणी का रूप पाने के लिए अन्य भाषाओँ-बोलिओं के शब्दों को अपनी प्रकृति और आवश्यकता के अनुसार आत्मसात करना ही होगा। जश्न, ख्वाब, वक़्त, खुशबू, अहसास, इन्तिज़ार,रौशनी, सफर, दर्द, ज़ख्म, गुलदस्ता, बेकल पैगाम आदि उर्दू शब्द तथा मीडिया, टी. वी., फिल्म, लैंप, टाइप, ट्रेफिक, लॉन आदि अंग्रेजी शब्द यथावसर प्रयुक्त हुए हैं।
पूर्णिमा जी ने इन गीतों में शब्द-युग्मों का प्रयोग कर गीत के कथ्य को सरसता दी है। तन-मन, धन-धान्य, ताने-बाने, ज्ञान-ध्यान-विज्ञान, ऋद्धि-सिद्धि, जीर्ण-शीर्ण, आप-धापी, रेले-मेले, यहाँ-वहाँ-सभी कहाँ, जगर-मगर आदि शब्द युग्मों से भाषा प्राणवंत हुई है।
भाषिक चेतना :
अन्य नवगीत संग्रहों से अलग हटकर यह कृति हिंदी की वैश्विकता को रेखांकित करती है।'हिंदी अपने पंख फैलाये उड़ने को तैयार' तथा 'अब भी हिंदी गानों पर मन / विव्हल होता है' पूर्णिमा जी के हिंदी प्रेम को उद्घाटित करता है। यथास्थान मुहावरों तथा लोकोक्तियों के प्रयोग ने नवगीतों को भाषा को सरसता दी है। ढोल पीटना, लीप-पोत देना, चमक-दमक आदि मुहावरों का सटीक प्रयोग दृष्टव्य है। आजकाल नवगीतों में विशिष्ट शब्द-चयन से सहजता पर सलीके को वरीयता देने का जो चलन दीखता है उसे पूर्णिमा जी विनम्रता से परे कर सुबोधतापरक वैविध्य और नवता से अपनी बात कह पाती हैं। 'अधभर गगरी छलकत जाए' मुहावरे का मनोहर प्रयोग देखें: कब तक ढोऊँ अधजल घट यह / रह-रह छलके नीर।
भाषिक प्रवाह:
पूर्णिमा जी के इन नवगीतों में भाषा का स्वाभाविक प्रवाह दृष्टव्य है : ' माटी की / खुशबू में पलते / एक ख़ुशी से / हर दुःख छलते / बाड़ी चौक गली अमराई / हर पत्थर गुरुद्वारा थे / हम सूरज / भिन्सारा थे, दुनिया ये आनी-जानी है / ज्ञानी कहते हैं फानी है / चलाचली का / खेला है तो / जग में डेरा कौन बनाये / माया में मन कौन रमाये आदि में मन रम सा जाता है।
अलंकार :
नवगीतों में मुखड़े / स्थाई होने के कारण अन्त्यानुप्रास होता ही है, प्रायः अंतरों में भी अनुप्रास आ ही जाता है। पूर्णिमा जी पदांत की समता को खींच-तान कर नहीं मिलतीं अपितु सम उच्चारण के शब्द अपने आप ही प्रवाह में आते हुए प्रतीत होते हैं: जर्जर मन पतवार सखी री! / छूटे चैतन्य अनार सखी री, जिनको हमने नहीं चुना / उनको हमने नहीं गुना / अपना मन ही नहीं सुना, नीम-नीम धरती है, नीम-नीम छत / फूल-फूल बिखरी है बाँटती रजत / टाँकती दिशाओं में रेशमी अखत / थिरकेगी तारों पर मंद्र कोई गत, सोन चंपा महकती रही रात भर / चाँदनी सुख की झरती रही रात भर / दीठि नटिनी ठुमकती रही रात भर / रूप गंधा लहकती रही रात भर / धुन सितारों की बजती रही रात भर जैसे अँतरे रस नर्मदा में अवगाहन कराकर पाठक को आत्मानंदित होने का अवसर देते हैं। उपमा पूर्णिमा जी का प्रिय अलंकार है। घुंघरू सी कलियाँ, रंगीन ध्वज सी ये छटाएँ, आरती सी दीप्त पँखुरी, अनहद का राम किला, गुलमोहर सी ज्वालायें, तितली सी इच्छएं, मकड़ी के जालों सी निराशाएं जैसी अनेक मौलिक उपमाएं सोने में सुहागा हैं।
टुकड़े-टुकड़े टूट जायेंगे / मनके मनके में यमक की सुंदर छवि दृष्टव्य है।
आध्यात्मिक चेतना :
प्रकृति के सानिंध्य में आध्यात्मिक चेतना की और झुकाव स्वाभाविक है। ओंकार, अनहद, कमल, चक्र, ज्योति, प्रकाश, घट, चैतन्य, अशोक, सुखमन आदि शब्द पाठक को आध्यात्मिक भावलोक में ले जाते हैं। पिंगल की परंपरा के अनुसार इस नवगीत संग्रह का श्री गणेश गणेश वंदना से उचित ही हुआ है। मन मंदिर में दिया जलने का स्नेहिल अनुरोध समाहित किये दूसरे नवगीत में ' चक्र गहन कर्मों के बंधन / स्थिर रहे न धीर / तीन द्वीप और सात समंदर / दुनिया बाजीगीर' आध्यात्मिक प्रतीकों से युक्त है। 'कमल खिला' शीर्षक नवगीत में 'चेतन का द्वार खुला / सुखमन ने / जीत लिया अनहद का राम किला / कमल खिला' फिर आध्यात्म संसार से साक्षात कराता है। 'झीनी-झीनी रे बीनी चदरिया' का कबीरी रंग 'अनबन के ताने को / मेहनत के बाने को / निरानंद विमल मिला / सुधियों ने / झीनी इस चादर को आन सिला / कमल खिला' में दृष्टव्य है।
पर्यावरणीय चेतना:
सामान्यतः नवगीत संग्रह में पर्यावरणीय चेतना होना आवश्यक नहीं होता, न ही यह समलोचकीय मानक है किंतु इस संग्रह के शीर्षक से अंत तक पर्यावरण के प्रति नवगीतकार की चेतना जाने-अनजाने प्रवाहित हुई है। उसकी अनदेखी कैसे संभव है? 'चोंच में आकाश' शीर्षक नभ और नभचरों के प्रति पूर्णिमा जी की संवेदना को अभियक्त करता है। नभ चल हों तो थलचर और जलचर भी आ ही जायेंगे और नभ के साथ वायु, ध्वनि धूम्र का होना स्वाभाविक है। पर्यावरणविदों का चिंतन और चिंता के इन केन्द्रों को केंद्र में रखनेवाली कृति पर्यावरणीय चेतना की वाहक न हो, यह कैसे संभव है?
न्यूटन ने कहा था: मुझे खड़े होने के लिये जमीन दो, मैं आकाश को हाथों में उठा लूँगा। पंछी के हाथ उसके पंख होते हैं। इसलिए न्यूटन का विचार पंछी कहे तो यही कहेगा 'तुम मुझे उड़ने के लिये पंख दो, मैं आकाश को चोच में भर लूँगा'। 'चोंच में आकाश' परोक्षतः जिजीविषाजयी पखेरू की जयगाथा ही है। वह पखेरू जिसके उड़ाते ही 'शिव' भी 'शव' हो जाता है। यह प्राण-पखेरू पक्षियों, पशुओं, पौधों, पुष्पों और आध्यात्मिक प्रतीकों के रूप में इस संग्रह में सर्वत्र व्याप्त है। कमल, अमलतास, कचनार, गुलमोहर, हरसिंगार, महुआ, पलाश, बोगनविला, चंपा आदि पुष्प-वृक्ष, महुआ, अनार जिसे फल-वृक्ष, ताड़ सा रस-वृक्ष, नीम सा औषधि-वृक्ष, बोनसाई, घास, दूब आदि हरियाली, तितली, केका, मयूर, पाखी, चिड़िया, कोयलिया, विहग, पक्षी आदि नभचर, मछली, सर्प,हरिण, खरगोश आदि प्राणी इस संग्रह को जीवंत कर रहे हैं।
पर्यावरण के प्रति चिंता बार-बार अभिव्यकर होती है: छाया मिले न रंग फाग के / मौसम सूने गए बाग़ के / जंगलों खिलती आग / किासे उठे दिलों में राग / स्वारथ हवस चढ़ा आँखों पर / अब क्या खड़ा बावरा सोचे,
संगीत चेतना:
नवगीत के जन्मदाता निराला जी पारम्परिक संगीत के साथ-साथ बंग संगीत के भी जानकार थे. संभवतः इसी कारण वे लयतथा रस को क्षति पहुँचाये बिना छंद के रूपाकार में, गति-यतिजनित परिवर्तन कर नव छंदों और नवगीतों का सृजन कर सके। इस संग्रह को पढ़ने से पूर्णिमाजी की संगीत सम्बन्धी जानकारी की पुष्टि होती है। इकतारा, संतूर, ढोल, करताल, दादरी, मल्हार आदि की यथास्थान उपस्थिति से नवगीत माधुर्यमय हुए हैं। 'थिरकेगी तारों पर मंद्र /कोई गत' में 'मंद्र' तथा 'गत' का अर्थवाही प्रयोग पूर्णिमा जी के अवचेतन में क्रियाशील सांगीतिक चेतना ही प्रयोग कर सकती है।
शैल्पिक नवता:
'लीक छोड़ तीनों चलें शायर, सिंह, सपूत' की लोकोक्ति को चरितार्थ करते हुए पूर्णिमा जी ने शब्दों को सामान्य से हटकर विशिष्ट अर्थ संकेतन हेतु प्रयोग किया है। इस दिशा में अनन्य कबीर जिन्होंने प्रचलित से भिन्नार्थों में अनेक शब्दों का प्रयोग किया और वे जनसामान्य तथा विद्वानों में समान रूप से मान्य भी हुए। इसलिए डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर को भाषा का डिक्टेटर भी कहा। पूर्णिमा जी भाषा की डिक्टेटर न सही भाषा की सशक्त प्रयोक्ता तो हैं ही। मरमरी उंगलियाँ, मूँगिया हथेली, चितवन की चौपड़, परंपरा के खटोले, प्यार की हथेली, चैत की छबीली जैसी सटीक अभिव्यक्तियाँ पूर्णिमा जी का वैशिष्ट्य है। 'जगह बनाती कोहनियाँ / घुटने बोल गये, आस की शक्ल में सपनों को / लिये जाती है, मन में केका-पीहू जगता, काले बालों में चाँदी ने लड़ियाँ डाली हैं, विलसिता से व्याकुल हर चित / आचारों में निरा दुराग्रह, हर हिटलर की वाट लग गयी, परंपरा की / घनी धरोहर और / प्रगति से प्यार मंदिर दियना बार सखी री! / मंगल दियना बार, अपने छूटे देस बिराना आदि पंक्तियाँ शब्द-शक्ति की जय-जयकार करती प्रतीत होती हैं।
व्यंग्य परकता :
'नवता नए व्याकरण खोले / परंपरा के उठे खटोले / आभिजात्य की नयी दूकान / बोनसाई के ऊँचे दाम' में परंपरा विरोधियों पर प्रखर व्यंग्य प्रहार है। राम भरोसे शीर्षक गीत व्यंग्य से सराबोर है: अमन-चैन के भरम पल रहे / राम भरोसे । राजनैतिक गतिविधियों और उनके आकाओं पर चुटीला व्यंग्य देखें: कैसे-कैसे शहर जल रहे राम भरोसे / जैसा चाहा बोया-काटा / दुनिया को मर्जी से बाँटा / उसकी थाली अपना काँटा / इसको डाँटा उसको चाँटा / राम नाम की ओढ़ चदरिया / कैसे आदम जात छल रहे / राम भरोसे।कथनी-करनी के अंतर पर इसी गीत में शब्द बाण है: दया-धर्म नीलम हो रहे / नफरत के एलान बो रहे / आँसू-आँसू गाल रो रहे / बारूदों के ढेर ढो रहे / जप कर माला विश्व शांति की / फिर भी जग के काम चल रहे / राम भरोसे। मुफलिसी में फकीराना मस्ती सारे दुखों की दवा बन जाती है: भाड़ में जाए रोटी-दाना/ अपनी डफली पाना गाना / लाख मुखौटा चढ़े भीड़ में / चेहरा लेकिन है पहचाना।
मूल्यांकन :
नवगीत संग्रहों की सामान्य लीक से हटकर पूर्णिमा जी ने इस संग्रह के ५५ गीतों को स्वस्ति गान - २ गीत, फूल-पान १० गीत, देश गाम १४ गीत, मन मान १२ गीत तथा धूप धान १७ गीत शीर्षक पञ्चाध्यायों में व्यवस्थित किया है।
प्रख्यात नवगीतकार यश मालवीय जी ने ठीक ही कहा है कि पूर्णिमा जी ने मौसम को शिद्दत से महसूस करते हुए उससे मन के मौसम का संगम कराकर गीत के रूप विधान में कुछ ऐसा नया जोड़ दिया है की बात नवगीत से भी आगे चली गयी है।
नचिकेता जी ने इन गीतों में नवगीत की बँधी लीक का अंधानुकरण न होने से अस्वीकृति की कहट्रे को इन्गिर करते हुए कहा है: 'मुमकिन है की इनके गांठीं, सहज और सुबोध गीतों में कुछ हदसूत्री आधुनिकतावादियों को कोई प्रयोगधर्मी नवीनता दिखाई न दे, इसलिए वे इन्हें नवगीत मैंने से ही इंकार कर दें'।
नवगीत के मूल तत्वों में शिल्प के अंतर्गत मुखड़ा और अन्तरा होना आवश्यक है. मुखड़ा तथा अँतरे की अंतिम पंक्ति का मुखड़े के सामान पदभार व सम पदांत का होना सामान्यतः आवश्यक है, इस शिल्प बंधन को पूर्णिमा जी ने सामान्यतः स्वीकारा है किन्तु 'ढूंढ तो लोगे' शीर्षक गीत में मुखड़ा नहीं है। इस गीत में ७-७ पंक्तियों के ४ पद हैं। ' नमन में मन' में प्रथम पद में ७ पंक्तियाँ है शेष ३ पदों में ८-८ पंक्तियाँ है। एक पंक्ति कम होने से प्रथम पद को ७ पंक्ति का मुखड़ा कहा सकते हैं। शैपिल प्रयोगधर्मिता का परिचय देते इस संग्रह के गीतों में १ पंक्ति से ७ पंक्ति तक के मुखड़े हैं।
पदांत और पंक्त्यांत में तुक बंधन का पालन होते हुए भी भिन्नता है: कहीं सिर्फ मात्र का साम्य है जैसे क्यों पलाश गमलों में रोपे / उसको बात बात में टोके / अब क्या खड़ा बावरा सोचे तथा जैसे हों कागज़ के खोखे में केवल 'ए' की मात्रा की समानता है जबकि 'बोगन विला' शीर्षक नवगीत में में फूला मुंडेरे पर बोगनविला / ओ पिया, झूला मुंडेरे पर बोगनविला / ओ पिया, हूला मुंडेरे पर बोगनविला / ओ पिया में केवल प्रथम अक्षर भिन्न है जबकि ऊ की मात्रा के साथ ला मुंडेरे पर बोगनविला / ओ पिया का पदांत है। निस्संदेह ऐसे शैल्पिक प्रयोग के लिए नवगीतकार का शब्द भण्डार और भाषिक पकड़ असाधारण होना आवश्यक है।
नवगीतों में गेयता पर पठनीयता के हावी होने से असहमत पूर्णिमा जी ने इन गीतों को सहजता, स्वाभाविकता, रागात्मकता, सामूहिकता तथा संगीतात्मकता से संस्कारित किया है। वे यथर्थ के नाम पर गद्यात्मक ठहराव न आने देने के प्रति सचेष्ट रही हैं। राष्ट्र और राष्ट्र भाषा के प्रति उनकी चिंता इन गीतों में व्यक्त हुई है: तिरंगा और मेरी माटी मेरा देश ऐसे ही नवगीत हैं।
सारतः पूर्णिमा बर्मन जी के ये नवगीत उन्हें पाठकों-श्रोताओं के लिए सहज ग्रहणीय बनाते है। किताबी समीक्षक भले ही यथार्थ वैषम्य और विसंगतियों की कमी को न्यूनता कहें किन्तु मेरे मत में इससे उनके गीत दुरूह, नीरस और असहज होने से बचे हैं। अपने वर्तमान रूप में ये गीत आम जन की बात आमजन की भाषा में कह सके हैं। इनकी ताकत है और वैशिष्ट्य यह है की ये ज़ेहन पर वज़न नहीं डालते, पढ़ते-सुनते की मन को छू पते हैं और दुबारा पढ़ने-सुनने पे अरुचिकर नहीं लगते। यह पूर्णिमा जी का प्रथम नवगीत संग्रह है। उअनके सभी पाठकों - श्रोताओं की तरह अगले संकलन की प्रतीक्षा करते हुए मैं भी यही कहूँगा 'अल्लाह करे जोरे कलम और ज़ियादा'।
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-समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
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