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शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

गीत

गीत
*
कन्दरा में हिमालय की 
छिपे जा भीत हो श्रद्धा,
कहो तो क्या सुरक्षित 
देश या समाज वह होगा?
*
अश्रद्धा, द्वेष; अविश्वास जब पोसे ललच सत्ता।
न छोड़े लोकमत की द्रौपदी को छीन ले लत्ता।।
न माली से सुरक्षित हों तितलियाँ, फूल अरु कलियाँ-
जहाँ हो काँपता शाखों-तनों से भीत हो पत्ता।।
मरें सौ, दो प्रशासन कह रहा उतरा रहीं लाशें।
जहाँ हो हवा जहरीली मिलें घुटती हुईं श्वासें।।  
न सरहद हो सुरक्षित 
पड़ोसी हर एक दुश्मन हो,
कहो तो क्या अरक्षित 
देश या समाज ना होगा?
कन्दरा में हिमालय की 
छिपे जा भीत हो श्रद्धा,
कहो तो क्या सुरक्षित 
देश या समाज वह होगा?
*
खड़े हो साथ सेठों के, किसानों को कुचलती हो।
लगाकर दाम सरकारें, खुली थैली बदलती हो।।
लगाता डाँट न्यायालय, न शासन तनिक भी चेते-
सहमकर लोक की पीड़ा, छिपाकर मुँह सिसकती हो।।
करें नीलाम धन-दौलत, सुरक्षित कोष लुटवाएँ।
विपक्षी को कहें गद्दार, गलती कर न शर्माएँ ।।  
बढ़ा नफरत, लड़ाकर  
लोक को; क्या सुख-अमन होगा?,
कहो तो क्या बुभुक्षित  
देश या समाज ना होगा?
कन्दरा में हिमालय की 
छिपे जा भीत हो श्रद्धा,
कहो तो क्या सुरक्षित 
देश या समाज वह होगा?
*
हुआ आज़ाद भारत देश, लेकिन भीख बतलाते।
मिटे जो देश की खातिर, उन्हीं को रोज लतियाते।।
बढ़ाकर टैक्स-मँहगाई, घटाते रोजगारों को-
न हाँ में हाँ मिलाए जो, उसी पर जाँच बैठाते।।
जरा सम्हलो; तनिक चेतो, न रौंदो देश की बगिया।
तिरंगा कह रहा तुमसे सजाने में लगी सदियाँ।।  
अगर मतभेद को मनभेद  
मानो तो अहित होगा,
कहो तो क्या परीक्षित 
देश या समाज ना होगा?
कन्दरा में हिमालय की 
छिपे जा भीत हो श्रद्धा,
कहो तो क्या सुरक्षित 
देश या समाज वह होगा?
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१९-११-२०२१

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