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मंगलवार, 9 नवंबर 2021

गीत, हिमालय

गीत
संजीव
*
वंदन
पर्वत राज तुम्हारा
*
पहरेदार देश के हो तुम
देख उच्चता होश हुए गुम
शिखर घाटियाँ उच्च-भयावह
सरिताएँ कलकल जाती बह
अम्बर
ने यशगान उचारा
*
जगजननी-जगपिता बसे हैं
मेघ बर्फ में मिले धँसे हैं
ब्रम्हपुत्र-कैलाश साथ मिल
हँसते हैं गंगा के खिलखिल
चाँद-
चाँदनी ने उजियारा
*
दशमुख-सगर हुए जब नतशिर
समाधान थे दूर नहीं फिर
पांडव आ सुरपुर जा पाये
पवन देव जय गा मुस्काये
भास्कर
ने तम सकल बुहारा
*
शीश मुकुट भारत माँ के हो
रक्षक आक्रान्ताओं से हो
जनगण ने सर तुम्हें नवाया
अपने दिल में तुम्हें बसाया
सागर
ने हँस बिम्ब निहारा
***

मुक्तक:
संजीव
*
हमें प्रेरणा बना हिमालय
हर संकट में तना हिमालय
निर्विकार निष्काम भाव से
प्रति पल पाया सना हिमालय
*
सर उठाकर ही जिया है, सर उठाकर ही जियेगा
घूँट यह अपमान का, मर जाएगा पर ना पियेगा
सुरक्षित है देश इससे, हवा बर्फीली न आएं
शत्रुओं को लील जाएगा अधर तत्क्षण सियेगा
*
सुबह अरुण ऊग ऊषा संग जैसे ऊगा करता है
बाँह साँझ की थामे डूब जैसे डूबा करता है
तीन तलाक न बोले, दोषी वह दहेज का हुआ नहीं
ब्लैक मनी की फ़िक्र न किंचित, हँस सर ऊँचा करता है
*
एक षटपदी-
कविता मेरी प्रेरणा, रहती पल-पल साथ
कभी मिलाती है नज़र, कभी थामती हाथ
कभी थामती हाथ, कल्पना-कांता के संग
कभी संग मिथलेश छेड़ती दोहा की जंग
करे साधना 'सलिल' संग हो रजनी सविता
बन तरंग आ जाती है फिर भी संग कविता
*

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