कुल पेज दृश्य

शनिवार, 20 नवंबर 2021

नवगीत

नवगीत:
भाग-दौड़ आपा-धापी है
नहीं किसी को फिक्र किसी की
निष्ठा रही न ख़ास इसी की
प्लेटफॉर्म जैसा समाज है
कब्जेधारी को सुराज है
अति-जाती अवसर ट्रेन
जगह दिलाये धन या ब्रेन
बेचैनी सबमें व्यापी है
इंजिन-कोच ग्रहों से घूमें
नहीं जमाते जड़ें जमीं में
यायावर-पथभ्रष्ट नहीं हैं
पाते-देते कष्ट नहीं हैं
संग चलो तो मंज़िल पा लो
निंदा करो या सुयश सुना लो
बाधा बाजू में चाँपी है
कोशिश टिकिट कटाकर चलना
बच्चों जैसे नहीं मचलना
जाँचे टिकिट घूम तक़दीर
आरक्षण पाती तदबीर
घाट उतरते हैं सब साथ
लें-दें विदा हिलाकर हाथ
यह धर्मात्मा वह पापी है
***
एक गीत:
मत ठुकराओ
संजीव 'सलिल'
*
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
मेवा-मिष्ठानों ने तुमको
जब देखो तब ललचाया है.
सुख-सुविधाओं का हर सौदा-
मन को हरदम ही भाया है.
ऐश, खुशी, आराम मिले तो
तन नाकारा हो मरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
मेंहनत-फाके जिसके साथी,
उसके सर पर कफन लाल है.
कोशिश के हर कुरुक्षेत्र में-
श्रम आयुध है, लगन ढाल है.
स्वेद-नर्मदा में अवगाहन
जो करता है वह तरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
खाद उगाती है हरियाली.
फसलें देती माटी काली.
स्याह निशासे, तप्त दिवससे-
ऊषा-संध्या पातीं लाली.
दिनकर हो या हो रजनीचर
रश्मि-ज्योत्सना बन झरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
***
गीत सलिला:
झाँझ बजा रे...
संजीव 'सलिल'
*
झाँझ बजा रे आज कबीरा...
*
निज कर में करताल थाम ले,
उस अनाम का नित्य नाम ले.
चित्र गुप्त हो, लुप्त न हो-यदि
हो अनाम-निष्काम काम ले..
ताज फेंककर उठा मँजीरा.
झाँझ बजा रे आज कबीरा...
*
झूम-झूम मस्ती में गा रे!,
पस्ती में निज हस्ती पा रे!
शेष अशेष विशेष सकल बन-
दुनियादारी अकल भुला रे!!
हरि-हर पर मल लाल अबीरा.
झाँझ बजा रे आज कबीरा...
*
गद्दा-गद्दी को ठुकरा रे!
माया-तृष्णा-मोह भुला रे!
कदम जहाँ ठोकर खाते हों-
आत्म-दीप निज 'सलिल' जला रे!!
'अनल हक' नित गुँजा फकीरा.
झाँझ बजा रे आज कबीरा...
***

कोई टिप्पणी नहीं: