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गुरुवार, 18 नवंबर 2021

गीत

गीत 
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अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया। 
नेह-नर्मदा अरुणाई से 
बिन बोले ही सजा गया। 
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सांध्य सुंदरी क्रीड़ा करती, हाथ न छोड़े दोपहरी। 
निशा निमंत्रण लिए खड़ी है, वसुधा की है प्रीत खरी। 
टेर प्रतीचि संदेसा भेजे 
मिलनातुर मन कहाँ गया? 
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
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बंजर रही न; हुई उर्वरा, कृपण कल्पना विहँस उदार। 
नयन नयन से मिले झुके उठ, फिर-फिर फिरकर रहे निहार। 
फिरकी जैसे नचें पुतलियाँ
पुतली बाँका बन गया।  
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
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अस्त त्रस्त सन्यस्त न पल भर, उदित मुदित फिर आएगा। 
अनकहनी कह-कहकर भरमा, स्वप्न नए दिखलाएगा। 
सहस किरण-कर में बाँधे 
भुजपाश पहन पहना गया। 
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
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कलरव की शहनाई गूँजी, पर्ण नाचते ठुमक-ठुमक। 
छेड़ें लहर सालियाँ मिलकर, शिला हेरतीं हुमक-हुमक। 
सहबाला शशि सँकुच छिप रहा, 
सखियों के मन भा गया। 
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
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मिलन-विरह की आँख मिचौली, खेल-खेल मन कब थकता। 
आस बने विश्वास हास तब ख़ास अधर पर आ सजता। 
जीवन जी मत नाहक भरमा 
खुद को खो खुद पा गया। 
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
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